बुधवार, 29 अप्रैल 2009

लो हो गया वोट

फिर-फिर हुए भोर
नहीं-नहीं मचे शोर
हार गये हरिया, जीत गये चोर
लो हो गया वोट, लो हो गया वोट
घायल आकाश का लौटा होश
सहमे पंछियों को फिर आया जोश
जो बोला सब पानी था, जो न बोला वह ठोस
लो हो गया वोट, लो हो गया वोट
उड़न खटोले बंद हुए
दारोगा जी मंद हुए
राज करे राजा, देश खाये चोट
लो हो गया वोट, लो हो गया वोट
 
 
 

मंगलवार, 28 अप्रैल 2009

पीसते रहो किसान को / उपजाओ तो 7 रुपये बेचो तो 20 रुपये

जब मंदी की मार से अमेरिका, यूरोप और कई अन्य औद्योगिक देश पीपल के पात की तरह फड़फड़ा रहे हैं, तो अपने यहां के नेता-मंत्री मूंछ टेरकर कह ते फिर रहे हैं कि देखिए- हम अभी भी बचे हुए हैं। हमारी स्थिति उतनी खराब नहीं है। मंदी के बाघ ने अमेरिका-यूरोप को काट खाया है, लेकिन हमें बख्श दिया है। हमें सिर्फ खरोंचे आयी हैं। हमें दाद दीजिए, हमारी सरकार की नीतियों की पीठ को थपथपाइये कि हमने आपको मंदी के बाघ से अभी तक बचाये रखा है। इसके बाद वे अर्थशास्त्र के बड़े-बड़े गूढ़ आंकड़ें और ग्राफ सुनाने-दिखाने लगते हैं। और हम कुछ देर के लिए राहत महसूस करने लगते हैं। हालांकि अगले ही क्षण जब हम झोला लेकर किराना दुकान पहुंचते हैं, तो हमें चीजें अभूतपूर्व तौर पर असामान्य और अविश्वसनीय लगती हैं। सब्जी बाजार पहुंचते-पहुंचते हमारे हलख सूख जाते हैं। मंदी से बचे रहने और महंगाई से घायल होने में क्या फर्क है, हमारी बुद्धि में यह बात नहीं अंटती। हालांकि हम संदेह खूब करते हैं और सोचते हैं कि घर में कहीं- न -कहीं कोई चोर छिपा हुआ है।
असलियत पर से पर्दा तब उठता है जब हम शहर से गांव पहुंचते हैं। अभी देश के गांवों में गेहूं की फसल तैयार हो रही है। लेकिन शायद बहुत कम शहरी लोगों को पता होगा कि किसानों केगेहूं किस दर पर बिक रहे हैं? कहीं-कहीं सात रुपये किलो, तो कहीं आठ रुपये किलो। बस। शहर में इसी गेहूं का आटा 20 रुपये किलो बिक रहे हैं। मतलब यह कि एक किलो गेहूं को आटा बनाने और उन्हें थैलों में बंद करने के लिए उपभोक्ताओं से 12-13 रुपये वसूले जा रहे हैं। क्या दुनिया के किसी भी अर्थशास्त्र में इसे व्यापार कहा जायेगा। अगर यह व्यापार है, तो लूट किसे कहेंगे? दरअसल, गेहूं तो एक उदाहरण है, सच्चाई यह है कि किसान की चीजों का अब कोई मूल्य ही नहीं रहा, इस देश में। किसानों के उत्पाद जबतक उनके पास रहते हैं तबतक वह कौड़ी है, लेकिन व्यापारियों और बिचौलिए के पास पहुंचते ही वह सोना हो जाता है। हिमाचल और महाराष्ट्र के अंगूर और संतरा उपजाने वाले किसानों से पूछिये कि वे किस दर पर बेचते हैं अपने अंगूर और सेव। जिस संतरा को शहर में हम 30-40 रुपये किलो खरीदते हैं, वही संतरे किसानों से 2-3 रुपये किलो खरीदे जाते हैं। यही हाल चावल, सरसों, अरहर, जूट और अन्य फसलों का भी है।
अब आप कहेंगे कि इसका मंदी से क्या रिश्ता है। मंदी से इसका सीधा रिश्ता नहीं है, लेकिन मंदी के बाघ से बचे रहने के पीछे की सबसे बड़ी वजह यही है। इसे सौभाग्य कहें या दुर्भाग्य, लेकिन यह सच है कि आज भी भारतीय किसान वैश्विक अर्थव्यवस्था के जाल से बचे हुए हैं। देश की पैंसठ प्रतिशत आबादी आज भी गांव में रहती है और उनकी आजीविका का बड़ा आधार आज भी खेती है। और भारतीय खेती आज भी वैश्विक अर्थ- प्रणाली के हिस्से नहीं हैं। इसलिए मंदी और तेजी की करंट उन तक नहीं पहुंचती। साथ ही मंदी की जो करंट देश में पहुंच रही हैं उन्हें किसान सोख भी रहे हैं। पूछियेगा कैसे ? तो जवाब है- भूखे रहकर, निर्वस्त्र रहकर, गरीबी रेखा से नीचे जाकर, अशिक्षित रहकर और आत्महत्या कर...
इन बातों को और स्पष्ट किया जा सकता है। किसान न्यूनतम-से-न्यूनतम आय में भी जीने के आदि हैं। उनके पास न पैसा है और न ही उपभोक्तावादी मानसिकता। जिनके परिणामस्वरूप वे बाजारवादी व्यवस्था के हिस्सा नहीं बन पाये हैं। यही कारण है कि वे वैश्विक अर्थव्यवस्था के उदय और अस्त, उतार व चढ़ाव से अछूते हैं। जबकि दूसरी ओर ये देश की अर्थव्यवस्था के लिए शॉक एबजार्बर की भूमिका भी निभा रहे हैं। इनका कोई संगठन नहीं है। कोई सामूहिक आवाज नहीं है। इसलिए सरकार इन्हें बहुत आसानी से उपेक्षा करती आगे बढ़ जाती है। गेहूं आठ रुपये बीके या पांच रुपये, सरकार को इससे कोई लेना-देना नहीं। सरकार को इस बात से भी कोई लेना-देना नहीं कि उनके द्वारा घोषित न्यूनतम समर्थन मूल्य का कौन पालन कर रहा है और कौन उल्लंघन। आखिर न्यूनतम समर्थन मूल्य का लाभ किसानों को निश्चित कराने के लिए देश की किसी भी सरकार ने आज तक कोई एजेंसी का गठन क्यों नहीं किया। क्या आपने कभी सुना है कि सरकार ने किसानों से न्यूनतम समर्थन मूल्य से कम दर पर फसल खरीदने वाले किसी व्यवसायी या संगठन को दंडित किया है ? या अपने स्तर से खरीद सुनिश्चित करने का पुख्ता इंतजाम किया है ?
दरअसल सरकारों को इस बात से भी कोई मतलब नहीं कि एक किलो गेहूं को आटा बनाने के लिए व्यावसायिक कंपनियां 12-13 रुपये जनता से वसूल रही हैं। इतनी रकम तो सोना से गहना बनाने वाले कारीगर भी नहीं वसूलते होंगे। लेकिन सरकार ब्यूरोक्रेट, व्यापारी, कंपनियों के साथ यही सलूक नहीं कर सकती। उन्हें थोड़ी-सी भी खरोंच आये , तो सरकार मल्हम-पट्टी लेकर खड़ी हो जाती है। चाहे जैसे भी हो, सब्सिडी देकर या वेतन-भत्ते बढ़ाकर, आयात-निर्यात-व्यापार शुल्कों में कमी-वृद्धि करके सरकार उनकी खिदमत के लिए तैयार रहती है। क्योंकि कुर्बानी देने और मरने के लिए तो साठ-सत्तर करोड़ ग्रामीण आबादी है ही।
वस्तुतः जो समुदाय सरकार पर दबाव बना सकता है, उनके लिए वे भारी मात्रा में सहायता राशि की घोषणा कर रहे हैं। इसके लिए किसानों की बलि चढ़ायी जाती है। दूसरे शब्दों में कहें तो सत्तर करोड़ लोगों की कीमत पर चंद करोड़ लोगों की रक्षा की जा रही है। और सरकार कह रही है कि हम मंदी की मार से बचे हुए हैं। अरे भाई ! मंदी की मार से आप नहीं बचे हुए है, बल्कि यह किसानों का बलिदान है जो आपको बचाये हुए है। लेकिन सवाल यह उठता है कि आखिर आप कब तक किसानों का खून चूसते रहेंगे। कभी न कभी तो वह आह कहेगा और पत्थर उठायेगा, तब आप क्या करेंगे?

सोमवार, 27 अप्रैल 2009

हमसे नहीं कहिए

हमसे नहीं कहिए कि हम कुछ नहीं करते
हम देखते हैं
एक बार , दो बार, बार-बार
हमारी टेन+टू+थ्री++ ... की डिग्रियों को
हम पागलों की तरह
ढूंढ़ते रहते हैं इश्तहारों के कतरन
दीमकों की तरह
चाटते रहते हैं किताबों के पन्ने
और नजर टिकाये रखते हैं
मोहल्ले की तमाम जवान होती लड़कियों पर
जो पता नहीं क्यों
कभी लाइन देती हैं और कभी काट लेती हैं
मालूम नहीं क्यों
वे हमसे ज्यादा हमारे निठल्लेपन को चाहती हैं
हम लिखते हैं रोज उन पर कविताएं
घोर निठल्लेपन में भी हम रचते हैं कविता
प्यार की, बेरोजगार की और भ्रष्टाचार की
हमसे मत कहिए कि हम कुछ नहीं करते
हम बहुत काम करते हैं
शाम होते-होते, हम इतने थक जाते हैं कि
कभी-कभी आइने के सामने सत्तर के लगते हैं
हम करते हैं बहस
देश, दुनियां और भ्रष्टाचार पर
ताकि बाप के कानों तक पहुंचे
मां के सामने खूब गलियाते हैं ईमानदारी को
सड़क किनारे आखिरी चाय दुकान के अंतिम कोने में
एक कप चाय के बहाने
हम घंटों पलटते है अखबारों के पन्ने
हम भी डूबना चाहते हैं
सचिन- सेहवाग-धौनी, राखी-प्रियंका- रानी... के बियरों में
लालू, आडवाणी, मनमोहन, सोनिया, करात के नारों में
हबाव, शवाब और कसाब में
बिल्कुल समाचार-पत्रों की तरह
लेकिन हर उन्माद हमें बस छूकर निकल जाती है
हर खबर हमें अकेला कर जाती है
हर नशा हमें संजिदा कर जाता है
पराये एहसास की तरह
हमसे मत कहिए कि हम कुछ नहीं करते
हम चाहते हैं कि फाड़ दे उन डिग्रियों को
और शामिल हो जायें किसी झूठे जेहाद में
ताकि लड़कियां हमें भी देखें और मुस्कुरायें
बच्चे हमारी अंगुलियां पकड़कर बागीचे में घूमें
और हम भी थोड़ा-सा इंसान बन जायें
' ठंडा-ठंडा, कूल-कूल '
 
 

रविवार, 26 अप्रैल 2009

मरी हुई इच्छाओं की तरह

भटकाव के इस दौर में
जब
नीति, सिद्धांत, वाद और विचार
यहां तक कि नदी-समुद्र-हिमनद और पहाड़
अचानक अपने-अपने रास्ते छोड़ रहे हैं
तब
कीचड़-सने हमारे ये गुस्से स्थिर हैं
आदमी के असल आक्रोश लंबित हैं
टोपरों में बंद बदबूदार सूअरों की तरह
गड्ढों में जुगाली करतीं निश्चंत भैंसों की तरह
जब
जंग और शांति में कोई फर्क न हो
हर जंग जैसे पहले से फिक्स हो
सारी क्रांतियां अभूतपूर्व ढंग से जड़ हों
तब
रक्तहीन-भावविहीन हमारे ये चेहरे जीवित हैं
अल्लाह-ईश्वर में बंटी भीड़ मृत है
मरी हुई इच्छाओं की तरह
अतृप्त आत्माओं की तरह

गुरुवार, 23 अप्रैल 2009

बजट अभाव के कारण कुसहा में काम रूका

दहाये हुए देस का दर्द-43
कोशी तटबंध के कुसहा कटान की मरम्मत का काम कल स्थगित हो गया। तटबंध की मरम्मत करने वाली निजी कंपनी बशिष्ठा एंड बशिष्ठा ने बुधवार से काम रोक दिया है। कंपनी का कहना है कि ऐसा पैसे के अभाव में किया गया है। कंपनी के परियोजना पदाधिकारी रमेश कुलकर्णी का कहना है कि वे पैसे के अभाव में मरम्मत के कार्य को रोकने के लिए मजबूर हुए हैं। कुलकर्णी का कहना है कि कंपनी ने राशि आवंटन के लिए बार-बार भारत और बिहार सरकार से आग्रह किया, लेकिन आगे के काम के लिए राशि आवंटित नहीं हुई।
गौरतलब है कि पिछले वर्ष अगस्त में कोशी का पूर्वी तटबंध नेपाल स्थित कुसहा गांव के समीप टूट गया था जिसके कारण नेपाल और पूर्वी बिहार में प्रलयंकारी बाढ़ आयी थी। इस बाढ़ में अरबों रुपये का स्थायी और अस्थायी नुकसान हुआ और हजारों लोग मारे गये एवं लाखों लोगों की आजिविका खत्म हो गयी। बाढ़ से प्रभावित कई हजार लोग आज भी शरणार्थी का जीवन जी रहे हैं।
सरकार ने पिछले वर्ष नवंबर में तटबंध की मरम्मत के लिए बशिष्ठा एंड बशिष्ठा कंपनी को ठेका दिया था । उस समय मार्च-09 तक सारा काम पूरा करने का सरकार ने वादा किया था। लेकिन दुर्भाग्य यह है कि आज तक तटबंध को ठीक नहीं किया जा सका है। कुसहा में लगभग एक दर्जन बार किसी न किसी कारण से काम बाधित होते रहे हैं। लेकिन यह पहला अवसर है कि मरम्मत- कार्य को राशि के अभाव में रोका गया है। ऐसा लगता है जैसे कोशी और कुसहा एक बार फिर क्षुद्र राजनीति की भेंट चढ़ रहे हैं। उल्लेखनीय है कि कुसहा तटबंध की मरम्मत के लिए राशि का प्रबंध केंद्र सरकार को करना है और बिहार सरकार इसमें क्रियान्वयन एजेंसी की भूमिका निभा रही है। ऐसे में एक-दूसरे के सतत्‌ सहयोग और समन्वय के बगैर काम को पूरा करना असंभव है। चूंकि केंद्र और राज्य में अलग-अलग पार्टियों की सरकार है, इसलिए दोनों कुसहा के बहाने एक-दूसरे को कटघरे में खड़े करने का कोई मौका हाथ से जाने देना नहीं चाहते। विभिन्न सूत्रों से मिली जानकारी के अनुसार, केंद्र सरकार ने इसलिए समय पर राशि निर्गत नहीं की क्योंकि उसका कहना है कि उसे सही आकलन बजट नहीं दिया गया। बिहार सरकार द्वारा केंद्र को भेजे गये आकलन बजट में तकनीकी कमी की शिकायत की गयी है।
सच्चाई क्या है, यह न तो कोई पत्रकार जानते हैं और न ही कोई आम जन। आम लोगों को अब साफ-साफ यही दिखाई दे रहा है कि कुसहा तटबंध की मरम्मति के प्रति कोई भी सरकार संवेदनशील नहीं है। समय तेजी से गुजर रहा है। वर्षा ॠतु शुरू होने में अब ज्यादा विलंब नहीं है। ऐसे में कुसहा में कार्य का स्थगित होना, भयानक खतरे को आमंतित्र करने जैसा है। पता नहीं संबंधित सरकारें इसे क्यों नहीं समझ रहीं???

बुधवार, 22 अप्रैल 2009

कांग्रेस और लालू में सांप-छूछंदर का खेल

बिहार में पहले चरण के लिए 16 अप्रैल को मतदान हुआ। राजनेताओं के तमाम लटके-झटके के बाद भी उस दिन बिहार के 54 फीसद मतदाता अपने घरों से नहीं निकले। कम मतदान का प्रतिशत हमेशा सत्ताधारी पार्टी के लिए राहत की बात मानी जाती है, इसलिए बिहार में सत्तारूढ़ राजग के नेताओं ने इसे अपने लिए शुभ संकेत माना। लेकिन इस बात ने बिहार की मुख्य विपक्षी पार्टी राष्ट्रीय जनता दल यानी राजद के नेताओं के चैनो-अमन छीन ली है। राजद अध्यक्ष बुरी तरह से बेचैन हैं । उन्होंने अपने सिपहसलारों से जमीनी हकीकत पता की, तो मालूम चला कि लोग विकास के मुद्दे को लेकर उन पर और उनकी पार्टी पर विश्वास नहीं कर रहे। नीतीश कुमार से भले ही लोग संतुष्ट नहीं हो, लेकिन उनसे आशान्वित जरूर हैं। सिपहसलारों ने यह भी बताया कि इस बार पार्टी की रीढ़ कहा जाने वाला "एमवाई' समीकरण भी बिखर गया है। अल्पसंख्यक मतदाता तेजी से कांग्रेस की ओर मुखातिब होने लगे हैं और कहीं-कहीं तो वे जदयू उम्मीदवारों को भी वोट दे रहे हैं। सुपौल, पूर्णिया और मधेपुरा में लोग लालू से ज्यादा पप्पू यादव की बात सुन रहे हैं और पप्पू यादव अब कांग्रेसी हो चुके हैं। यानी जो काम साधु से रह गया वह पप्पू पूरा कर रहे हैं।
इन गुप्त लेकिन पुख्ता खबरों से लालू बुरी तरह परेशान हो गये। राजनीति के चतुर लालू प्रसाद जान गये कि अगर अविलंब कांग्रेस को रास्ते से नहीं हटाया गया तो उनकी लुटिया डूब सकती है। उनकी भाषा में कहें तो खोप सहित कबुतरे नमः हो सकता है। इसलिए उन्होंने यूपीए की परवाह किए बगैर तेजी से आकार लेते कांग्रेसी किले में माचिस लगाना शुरू कर दिया। कल तक भाजपा और वरुण गांधी के सहारे मुस्लिम मतदाताओं को मोहने वाले लालू ने अचानक अपने बाइस्कोप का रील बदल डाला और गुजरात, पीलीभीत के बदले बाबरी मस्जिद की तस्वीर घुमाने लगे। भाजपा की जगह कांग्रेस की रील फिट की और बाबरी मस्जिद को ढहाने के लिए उसे जिम्मेदार ठहरा दिया। लेकिन संकट फिर भी कम नहीं हुआ। क्योंकि लालू जानते हैं कि जीतने के बाद यूपीए की छतरी के बिना उनका गुजारा नहीं हो सकता। अगर कांग्रेस हद से ज्यादा नाराज हो गयी, तो संभव है कि वह चुनाव के बाद राजद के बदले जदयू से नाता जोड़ लें और उन्हें दूध की मक्खी की तरह फेंक दे, इसलिए वे दिन में कांग्रेस को मुस्लिम विरोधी बताने लगे और रात को कांग्रेस- नेताओं को फोन कर यूपीए की दुहाई देने लगे। कांग्रेस ने उनके खेल को ताड़ लिया। क्योंकि जब से पप्पू यादव एंडफै मिली ने कांग्रेस का दामन थामा है तबसे कांग्रेस खेमा यह मानने लगा है कि इस बार बिहार में उनकी संख्या पांच तक जरूर पहुंचेगी। कांग्रेस के अंतःपुर में यह भी कहा जाने लगा है कि बिहार में कम-से-कम दस सीटों पर कांग्रेस कड़े मुकाबले में है और अगर ऊपर वाले की कृपा से किसी तरह किसी हवा का सहारा मिल जाये तो चमत्कार भी हो सकता है। लिहाजा कांग्रेसी नेताओं के हेलीकॉप्टर और चार्टर विमान दनादन बिहार की धरती पर लैंड करने लगे। बाबरी मस्जिद ढहाये जाने के आरोप का जवाब प्रणव मुखर्जी ने दिया और कहा कि लालू यूपीए से अलग हो जायें, अगर वह कांग्रेस पार्टी को गुनहगार मानते हैं तो पांच वर्षों तक सत्ता सुख क्यों लेते रहे? उस दौरान उन्हें यह सब बातें याद क्यों नहीं आयीं। वे आज भी मंत्रिमंडल में क्यों बने हुए हैं ? वगैरह-वगैरह...
दरअसल सिद्वांतविहीन हो चुकी भारतीय राजनीति का यह पराकाष्ठा है। जो दल सरकार में साथी हैं वे चुनाव में विरोधी हैं । यानी चुनाव से पहले दुश्मन और चुनाव के बाद दोस्त। वह भी जनता की आंत का टेस्ट किए बगैर जैसे भी हो जनता हजम करे, उन्हें करना ही पड़ेगा । बिहार में कांग्रेस और राजद अलग-अलग चुनाव लड़ रहे हैं। जब कभी चुनाव के बाद सरकार बनाने की या फिर भाजपा की बात होती है, दोनों एक-दूसरे को दोस्त बताने लगते हैं। लेकिन जनता से वोट लेने के लिए चुनावी सभा में जाते हैं, तो एक-दूसरे को गलियाने लगते हैं। मोहव्वत और युद्व दोनों साथ-साथ। जाहिर है ये अजीबोगरीब रिश्ते कदम-कदम पर एक-दूसरे के रास्ते काटते हैं और तर्कों से परे हैं, इसलिए दोनों दलों के नेता एक ही दिन में दस तरह की बात करते हैं। अगर लालू, रामविलास और बिहार के कांग्रेसी नेताओं के पिछले दस दिनों के बयान को एक साथ रखकर कोई विदेशी पत्रकार कुछ निष्कर्ष निकालना चाहे तो यकीन मानिये वे पागलखाने चले जायेंगे, लेकिन किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुंच पायेंगे। शहरी जीवन में तो ऐसा दृश्य देखने को नहीं मिलता, हां गांवों में जिसने सांप और छुछंदर को लड़ते देखा हो, वे इसे आसानी से समझ सक ते हैं।

मंगलवार, 21 अप्रैल 2009

सौ लोग भी नहीं जुटे रामविलास की सभा में

अमेरिका के सोलहवें राष्ट्रपति और अपने समय के प्रसिद्ध राजनीतिक चिंतक अब्राहम लिंकन ने कभी कहा था, ' आप कुछ लोगों को हमेशा उल्लू बना सकते हैं, सभी लोगों को कुछ समय तक बेवकूफ बना सकते हैं, लेकिन आप हर किसी को हमेशा मूर्ख नहीं बना सकते।' इस संसदीय चुनाव में लिंकन की बात सच साबित हो रही है। कभी समाजिक न्याय तो कभी दलित आंदोलन के नाम पर जनता को उल्लू बनाने वाले बिहारी राजनेताओं को जनता इस बार जगह-जगह ठेंगा दिखा रही है। दो दिन पहले इसका एक नमूना झारखंड के जमशेदपुर शहर में देखने को मिला। दो दिन पहले बिहार के क्षत्रप कहलाने वाले वेटरेन नेता रामविलास पासवान की यहां एक चुनावी सभा आयोजित थी। पासवान पूरे लाव-लश्कर के साथ जमशेदपुर आये। लेकिन हेलीकॉप्टर से उतरकर जैसे ही उन्होंने सभा-स्थल का रुख किया, उनके होश फाक्ता हो गये। मंच पर पहुंचने के बाद तो उनका चेहरा देखते बनते था। ऐसा लगता था कि जैसे किसी ने उनके पैर के नीचे से जमीन खींच ली हो।
दरअसल, रामविलास पासवान की उस सभा में सौ लोग भी मौजूद नहीं थे। जो दस-बीस लोग थे भी वे भी मैदान में इधर-उधर बिखरे हुए थे । मंच तैयार था, माइक तैयार था, रामविलास पासवान भाषण पढ़ने के लिए तैयार थे, लेकिन सुनने वाला कोई नहीं था। आखिरकार रामविलास पासवान ने बोलना शुरू किया, लेकिन सामने खाली मैदान को देखकर उनका बचा-खुचा धैर्य भी खत्म हो गया। उन्होंने तीन मिनट ही अपना भाषण पूरा कर दिया। अजी ! पूरा क्या कहिए , आधा-अधूरा छोड़ दिया और तमतमाये चेहरे के साथ मंच से नीचे उतर गये। मंच पर विराजमान उनकी पाटी के स्थानीय उम्मीदवार विनती करते रह गये , लेकिन रामविलास पासवान साहस नहीं बटोर पाये। फौरन हेलीकॉप्टर पर सवार हुए और आकाश की सैर पर निकल गये।
तो यह है खुद को जमीनी नेता कहने वाले बिहारी क्षत्रपों की लोकप्रियता की असलियत, जो खुद को राष्ट्रीय स्तर के नेता बताते हैं और आजकल देश के प्रधानमंत्री कौन हो, इसका फैसला करने का दावा करते नहीं थकते। सच में नेताओं के अवसरवादी आचरण और उनकी स्वकेंद्रित राजनीति से बिहार के लोग तंग आ गये हैं। तीन साल पहले लालू का सख्त विरोध करने वाले और उनके साथ कभी भी चुनावी व सत्ताई समझौता नहीं करने का कसम खाने वाले रामविलास पासवान से लोगों का मोहभंग हो गया है और मतदाता लोजपा एवं राजद की इस अवसरवादी दोस्ती का मतलब नहीं समझ पा रहे हैं।

शनिवार, 18 अप्रैल 2009

सितारों की बेवफाई

ये प्यार, ये भावना, ये भक्ति, ये आसक्ति, ये नारे, ये तमगे, ये ताली और ये राष्ट्रभक्ति ... अब इनके किस काम के, क्योंकि अब ये भीड़ का हिस्सा नहीं, बल्कि सितारे हैं आसमान के। जी हां, मैं जमीन से आसमां पर पहुंचे देश के क्रिकेट सितारे महेंद्र सिंह धौनी और हरभजन सिंह प्लाहा की बात कर रहा हूं। देश ने इन्हें सितारे बनाया और बदले में इन्होंने बीच चौराहे पर 111 करोड़ जनता के सम्मान को नीलाम कर दिया। इनके इस व्यवहार से हम दुत्कारे हुए प्रेमिका की तरह आंसू बहा रहे हैं। मीडिया में दो कॉलम की खबर में इनके व्यवहार की आलोचना हो रही है और पूरे पेज में आइपीएल के बहाने इनकी बड़ी-बड़ी तस्वीरें भी छापी जा रही हैं। दोनों बातें साथ-साथ। फिर भी हम रोये जा रहे हैं। गालिब ने ठीक ही कहा है, ये इश्क बड़ा जालिम, बुझाये न बुझे।
खैर मीडिया का अपना फिलास्फी (न्यूज इज न्यूज) है, इसलिए उनके इसे विरोधाभासी आचरण पर कुछ कहने की जरूरत नहीं । लेकिन विस्मय तब होता है जब हर पल क्रिकेट में डूबे रहने वाले लोग भी धौनी और हरभजन के व्यवहार पर आंसू बहाते दिखते हैं। पिछले तीन दिनों में मैंने अपने कई दोस्तों को इस बात से काफी आहत पाया। उनकी स्थिति बेवफाई के शिकार आशिक की तरह थी, उसका दिल कुछ इस तरह रो रहा था- अच्छा सिला दिया तुने मेरे प्यार का... । ऐसे दोस्तों और देशवासियों से मैं इस मौके पर कुछ कहना चाहता हूं। आखिर क्यों आप धौनी और हरभजन के आचरण को दिल पर ले रहे हैं। उन्होंने कुछ भी अप्राकृतिक नहीं किया है। उन्होंने वही व्यवहार किया है, जो आज के दौर में उन्हें करना चाहिए और जो सफलता की सीढ़ी चढ़ने के बाद आज हर भारतीय कर रहे हैं। आखिर आप इस मुगालते में क्यों हैं कि वे आपकी भावना का ख्याल रखकर फैसला करेंगे कि उन्हें कब विज्ञापन की शूटिंग करनी है और कब टीवी प्रोग्राम में ठुमका लगाने जाने है और किस तमगा को लेना है और किसको नहीं। दोस्तों, भीड़ की भावना का ख्याल तबतक ही रखा जाता है जबतक उनकी जरूरत हो। सदियों से यही होते आया है, लेकिन भीड़ है कि कुछ समझती ही नहीं। कुछ सीखती ही नहीं। इतने राजनीतिक पार्टियों और राजनेताओं को देख लेने के बाद भी आपकी समझ में यह बात नहीं आयी कि जिसे आप देश और जनता कहते हैं वे उनके लिए सिर्फ शीर्ष पर पहुंचने की सीढ़ी मात्र है। नेता सिर्फ वोट लेने तक जनता की भावना का ख्याल रखते हैं और क्रिकेटर, अभिनेता वगैरह, वगैरह, सितारे बनने से पहले तक।
हरभजन के बारे में मैं नहीं जानता, लेकिन धौनी को काफी निकट से जानता हूं। पुरस्कार की बात तो छोड़िए, 2003 तक यह महाशय एक खबर छपवाने के लिए रांची के अखबारों के दफ्तरों में घंटों संवाददाताओं की चिरोरी करते रहते थे। बात बहुत सीधी है। तब ये स्टार नहीं, बल्कि बैट लेकर इधर-उधर बौखने वाले एक गुमनाम खिलाड़ी थे। आप ने उन्हें पलकों पर बिठाया और वे रातों-रात छोकरे से सितारे बन गये। अब जब वे आसमां के वाशिंदे हो गये हैं, तो उन्हें राष्ट्रभक्ति की पाठ क्यों याद दिले रहे है । उन्हें देश के बारे में क्यों बता रहे हैं। आसमां वालों के लिए जैसे भारत वैसे कोई अन्य देश। देश क्या है उनके लिए जमीन का एक टुकड़ा के सिवाय ! आप उन्हें विज्ञापन छोड़कर कौड़ी के दाम वाले पुरस्कार लेने क्यों कह रहे हैं ? आसमां में रहने के लिए पैसे की जरूरत होती है और पैसा विज्ञापन से आता है न कि पद्‌मश्री, पद्‌म भूषण जैसे तमगों से। आप ही बताइये इन तमगों की कीमत ही क्या है बाजार में। जो चीज बाजार में बेकार है उसे आप सितारे के मत्थे क्यों मढ़ना चाहते हैं। क्या आपको नहीं पता कि क्रिकेट भारत का सबसे बड़ा बाजार बन चुका है और हमारे क्रिकेटर इसके सबसे बड़े दुकानदार। और हम सभी बजारवादी युग में जी रहे हैं , खा रहे हैं, रो रहे हैं, सो रहे हैं और मर रहे हैं ... ? इसके बाद भी अगर आपका जी हल्का नहीं हो रहा है, तो क्या कहा जाये। सच में , यह एकतरफा इश्क बहुत खतरनाक चीज होती है।

शुक्रवार, 17 अप्रैल 2009

बीत गयी मार्च, नहीं बंधा कुसहा

क्षतिग्रस्त कुसहा तटबंध (१८ सितम्वर की तस्वीर )

दहाये हुए देस का दर्द-42
शायद आपको याद होगा कि तीन महीने पहले बिहार और केंद्र सरकार ने घोषणा की थी कि कोशी नदी के क्षतिग्रस्त कुसहा तटबंध को बांध दिया गया है। लेकिन सच्चाई यह है कि अभी तक कुसहा तटबंध के क्षतिग्रस्त हिस्से की मरम्मत पूरी नहीं हुई है। दो महीने पहले सरकार ने जिस तटबंध के काम को पूरा करने का दावा किया था, वह कॉफर तटबंध था। कॉफर तटबंध का निर्माण नदी को अपनी पुरानी धारा में लाने के लिए किया गया था। कुसहा तटबंध की मरम्मत इसके बाद ही शुरू हो सका। कॉफर तटबंध तो एक तात्तकालिक और कच्चा अवरोध है, जो मुख्य तटबंध के काम को शुरू करने के लिए बनाया गया है। लेकिन सरकार ने इसके पूरे होते ही डंके की चोट पर घोषणा कर दी कि कुसहा के तटबंध को बांध दिया गया है। पता नहीं ऐसी बात क्यों की गयी, मैं आज तक नहीं समझ सका हूं।
दरअसल, कुसहा में आज भी मुख्य तटबंध के निर्माण का कार्य काफी सुस्त गति से चल रहा है। कई बार इसकी समय-सीमा बढ़ायी जा चुकी है। बार- बार समय-सीमा बढ़ाये जाने के बाद अंततः सरकार ने कहा था कि मार्च-2009 तक इसे पूरा कर लिया जायेगा। लेकिन अब अप्रैल माह बीतने वाला है, परन्तु जल्द कार्य पूरे होने के कोई संकेत दूर-दूर दिखाई नहीं दे रहे। नेपाल के सुनसरी जिले (जहां कुसहा पड़ता है) के जिलाधिकारी हरिकृष्ण उपाध्याय ने मुझे बताया कि जिस रफ्तार से काम चल रहा है, उसमें तटबंध की मरम्मत निकट भविष्य में पूरी होते नहीं दिखती। यह पूछने पर कि सुस्ती की वजह क्या है, उपाध्याय ने कहा कि इसकी सही जानकारी उन्हें भी नहीं है। वैसे अन्य सूत्रों से मिली जानकारी के अनुसार इन दिनों अगस्त की प्रलयंकारी बाढ़ से प्रभावित नेपाली नागरिक सुनसरी जिले में लगातार आंदोलन कर रहे हैं, जिसके कारण तटबंध मरम्मत के काम प्रभावित हुए हैं। इसके अलावा समय-समय पर नेपाल के उग्रवादी संगठन भी तरह-तरह की मांगों को लेकर कार्य में बाधा उत्पन्न करते रहते हैं।
यह गंभीर चिंता का विषय है क्योंकि बरसात से पहले हर हाल में तटबंध को पूरा करना अनिवार्य है। बरसात शुरू होने के बाद किसी भी परिस्थिति में तटबंध के कटे हुए हिस्से को दुरूस्त नहीं किया जा सकता। अगर बरसात से पहले इसे ठीक नहीं किया गया, तो अभी तक के सारे प्रयास और संसाधन तो पानी में जायेंगे ही साथ ही साथ एक बार फिर पूरा कोशी क्षेत्र प्रलय के आगोश में चला जायेगा। उम्मीद की जानी चाहिए कि सरकारें इस बात को समझेंगी ।

बुधवार, 15 अप्रैल 2009

इन तस्वीरों में देखिये भारत - नेपाल की सीमा

प्राचीन काल से ही भारत व नेपाल के लोगों के मध्य साझे के चूल्हे जलते रहे हैं। दोनों ओर के लोगों के बीच लंबे समय से सामाजिक, वैवाहिक, सांस्कृतिक, व्यावसायिक और भाषिक संबंध चलते आ रहे हैं। इसकी शुरुआत नेपाल के एक स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में उभरने और दोनों देशों के बीच वर्तमान अंतर्राष्ट्रीय सीमा रेखा के निर्धारण से पहले हो चुकी थी। इन दिनों नेपाल राजनीतिक बदलाव के क्रम से गुजर रहा है। राजतंत्र का खात्मा हो चुका है, लेकि सीमाई नेपाली लोगों की स्थिति जस की तस बनी हुई है। यहां मैं भारत-नेपाल के सरहदी इलाकों की चंद तस्वीर पेश कर रहा हूं, ताकि आप भी दुनिया के इस अनोखे बोर्डर के आसपास बसे लोगों के जीवन-स्पंदन को महसूस कर सकें और इस बोर्डर की विशेषताओं और अभिशापों को समझ सकें।
(सीमाई नेपाली सहर विराटनगर में भ्रतिदुतिया पर्व के अवसर पर पूजा करने जाती बहने )
( सीमाई इलाके में आज भी तंत्र -मंत्र और तांत्रिकों का है बोलबाला )

(कुशहा हादसा के वाद बाढ़ की चपेट में आया प्रसिद्ध कोशी वन्य अभ्यारण्य जिसमे लोगों के साथ -साथ जंगली जानवर भी मारे गए )
( बिहार के सुपौल जिले स्थित एक सरहदी गाँव और बिहार के स्कूल से नेपाल लौटते बच्चे एवं खेत की तरफ़ जाती महिला किसान )
(सीमाई इलाकों में आज भी खूब चलती है भैसा गाडी )
(पूवी नेपाल के काकरभित्ता शहर और पश्चिम बंगाल के पानीटंकी शहर को जोड़ती प्रसिद्ध मेची पुल )


(बिहार के पूर्वी चंपारण स्थित महिअर्वा-संतगंज बोर्डर पर भारतीय सीमा से घास काटकर अपने गांव की ओर जाती नेपाली कृषकों की बेटियाँ और उसके निचे बॉस का बॉर्डर पोस्ट , यह बांस हमेशा उठा ही रहता है )

(पूर्वी चंपारण स्थित रक्सौल जंक्सनः बड़ी संख्या में नेपाली लोग हर दिन इस शहर से भारतीय शहरों के लिए गाड़ी पकड़ते हैं)
(रक्सौल-बीरगंज का सीमाई चेक पोस्ट, तस्करी और माल ढुलाई के लिए विख्यात मार्ग )

( पूर्वी बिहार स्थित सीमाई रेलवे स्टेशन जोगबनी,ब्राड गेज के निर्माण के बाद यह नेपाल के लिए आयात-द्वार का काम कर रहा है, यहां से विराटनगर काफी नजदीक है)

(बिहार के सुपौल जिले के सीमाई शहर बीरपुर में सांप नचाता एक नेपाली संपेराः नेपाल की एक जनजाति के लोग के लिए आज भी सांप ही आजिविका का एकमात्र स्रोत है, हर दिन ये सीमाई शहरों-गांवों में अपने खेल दिखाने आते हैं )
(नजर के सामने तस्करीः बिहार के अररिया जिले के एक गांव से भारतीय जवानों को रिश्वत देकर तस्करी का समान ले जाता एक तस्कर, फसल कटने और बोने के समय यह दृश्य आम होता है )
(सुगौली का प्रसिद्व भारत-नेपाल प्रवेश मार्ग )
(किशनगंज स्थित एक चौकी)



(अंतरराष्ट्रीय सीमा का एहसास कराता एक सीतामढ़ी जिले स्थित एक पीलर, इसे गड़े पांच दशक हो गये और क्षेत्र के कई पीलर उखड़ चुके हैं, इसलिए अक्सर दोनों देशों के किसानों में खेत की सीमा को लेकर विवाद होते रहता है )
(आइएसआइ की बढ़ती गतिविधियों के बाद भारत ने कुछ पोस्टों पर अर्द्धसैनिक बल तो तैनात कर दिया, लेकिन आम नागरिकों को तंग करने के सिवा अन्य उपलब्धि हासिल करने में नाकाम ही हैं )

















इनकी साइलेंसी का मतलब समझो

अंग्रेजी में एक कहावत है- साइलेंसी इज द बेस्ट आंसर। मुझे नहीं मालूम कि कितने लोग इस कहावत से सहमत हैं और कितने लोग असहमत। लेकिन मुझे यकीन है कि जो लोग उत्तर देने के लिए बाध्य होते हैं और जिन्हें जवाब देने के लिए ही नियुक्ति किए जाते हैं और बदले में वेतन, पद और सुविधाएं मुहैया कराये जाते हैं, वे निश्चित रूप से इस कहावत के मुरीद होंगे। हालांकि कहावत का वास्तविक संदर्भ तब बनता है जब सवाल पूछने वाले अचानक खामोशी की चादर ओढ़ ले और बोलने वाले चुपी साध ले। शोर मचाने वाले गूंगे और चुप कराने वाले मुखर हो जायें, तो समझ लीजिए कुछ अप्रत्याशित होने वाला है।
प्रजातंत्र के सबसे बड़े सवालकर्ता जनता होती है। जनता ही इसके असल वक्ता होते हैं और वास्तविक प्रश्नकर्ता। लेकिन इस बार ये प्रश्नकर्ता खामोश हैं। मैं समूचे भारतवर्ष की बात नहीं कर रहा, क्योंकि इसका मुझे इल्म नहीं है। लेकिन बिहार और झारखंड की जनता इस बार खामोश हैं। अंग्रेजी दां लोग इन्हें 'साइलेंट वोटरर्स' कहते हैं। लेकिन मुझे नहीं लगता कि वे वही साइलेंट वोटर्स हैं, जो अमेरिका-ब्रिटेन आदि देशों में पाये जाते हैं और जिनके बारे में कहा जाता कि ये चुपचाप अपने मत डालते हैं और किसी पार्टी या नेता के लिए नारे नहीं लगाते। इनके बारे में कहा जाता है कि ये काफी परिपक्व वोटर्स होते हैं और उत्तेजना में या आक्रोश में आकर कभी मतदान नहीं करते, बल्कि वे बहुत सोच-समझकर अपने मत का इस्तेमाल करते हैं और बेस्ट को चुनते हैं। लेकिन जिस खामोश वोटर्स की मैं बात कर रहा हूं, वे इन पश्चिमी साइलेंट वोटर्स से थोड़े भिन्न लग रहे हैं।
ये चुप हैं, लेकिन शांत नहीं हैं। ये खामोश हैं और निराश भी। इनके भीतर आक्रोश है, लेकिन वह जम गया है, फ्रिज हो गया और बहुत उदासी से रिस रहा है। इनकी खामोशी की तुलना आप काला पत्थर फिल्म के नायक (अमिताभ बच्चन ) की चुपी से कर सकते हैं।
पिछले कुछ दिनों में मैंने बिहार और झारखंड के कई क्षेत्रों का दौरा किया है। यूपीए, एनडीए, राष्ट्रीय जनता दल, झारखंड मुक्ति मोर्चा, जनता दल युनाईटेड और बहुजन समाज पार्टी के लगभग सभी बड़े नेताओं के सभाओं में मौजूद रहा हूं। जो एक बात मैंने लगभग हर सभाओं में नोट किया वह यह कि इस बार नेताओं के सभाओं में लोग नहीं पहुंच रहे। चाहे वह लालकृष्ण आडवाणी या नरेंद्र मोदी की सभा हो या फिर सोनिया गांधी और राहुल गांधी की। हर नेता हवा को संबोधित कर रहे हैं। जनता दूर-दूर तक नजर नहीं आ रहीं। जो गिने-चुने लोग सभा में पहुंच भी रहे हैं, उनमें भी नेताओं के प्रति, उनके भाषणों के प्रति कोई दिलचस्पी नहीं दिखती। यहां तक कि हेलीकॉफ्टर से उतरकर मंच पर चढ़ने के समय भी नेताओं के नाम और जिंदाबाद के स्वर सुनाई नहीं पड़ते, जोकि पहले की चुनावी-सभाओं में आम हुआ करते थे। भद्द तो तब पीट जा रही है, जब नेताओं के चंद चमचे राहुल गांधी, सोनिया गांधी, नरेंद्र मोदी, लालू यादव, रामविलास पासवान आदि जिंदाबाद बोलते-बोलते थक जाते हैं, लेकिन जनता नहीं बोलती। पांच-दस बार प्रयास करने के बाद चमचे भी चुप हो जाते हैं । चमचे यह कहकर कि "क्या हो गया है लोगों को, एको ठो नहीं जवाब दे रहा है', अपने माथे ठोक ले रहे हैं। हजारीबाग के कांग्रेस प्रत्याशी सौरभ नारायण सिंह ने चंद दिनों पहले रामगढ़ शहर में राहुल गांधी को बुलाया था, लाखों बहाकर कुछ भीड़ भी जुटायी, लेकिन जब राहुल पधारे, तो जनता में कोई लहर नहीं, कोई सिहरन, सभी लोग ऐसे खड़े थे जैसे अभी-अभी नींद से उठे हों। ऐसा ही नजारा नरेंद्र मोदी की रांची सभा, आडवाणी की जमशेदपुर सभाओं में भी देखने को मिला। यह अपूर्व है और अप्रत्याशित भी।
मुझे याद आते हैं 1988 का चुनाव, 19991 का चुनाव, 1998 का चुनाव । यहां तक की 2004 का चुनाव भी मुझे याद आ रहे हैं। उन दिनों नेताओं को सुनने हजारों-लाखों की संख्या में लोग पहुंचते थे, बिल्कुल स्वेच्छा से। जब नेता सभा-स्थल में दाखिल होते थे तो जिंदाबाद, इंकलाब के नारे से शहर दहल उठता था। लोगों में एक उत्तेजना, एक जोश दिखता था। लेकिन इस बार ऐसा कुछ दिखाई नहीं दे रहा। पिछले 15 दिनों में मैंने दो दर्जन से ज्यादा सभाओं को कवर किया है, लेकिन कहीं भी किसी भी सभा में मुझे वे दृश्य दिखाई नहीं दिये।
मुझे नहीं पता कि जनता इतना र्निजान, इतना ऊर्जाहीन, इतना सुस्त, इतना खामोश क्यों है। क्या उनका नेताओं से मोहभंग हो गया है। क्या वे नेताओं की बेवफाई से टूट गयी है या अंदर ही अंदर उनके अंतस में कुछ उबल रहा है ? मुझे नहीं पता ? लेकिन एक बात जो मैं समझ रहा हूं वह यह कि इस बार वे कुछ भिन्न करने वाली है। लेकिन उनके इस बदले एपरोच का परिणाम क्या होगा, यह तो 16 मई को पता चलेगा। कहीं यह भारतीय मतदाताओं की परिपक्वता की निशानी तो नहीं ???

सोमवार, 13 अप्रैल 2009

खुले सरहद के अभिशाप/ सड़कविहीन हैं बिहार-नेपाल के सरहदी वाशिंदे


भारत और नेपाल के बीच लगभग 1800 किलोमीटर की सीमा-रेखा है। यह दुनिया की अकेली अंतरराष्ट्रीय-सीमा है जिसे पार करने के लिए वीजा और पासपोर्ट की जरूरत नहीं होती। भारत और नेपाल केबीच सदियों से "बेटी-रोटी' का रिश्ता है, जिसके कारण यह व्यवस्था आज भी चल रही है। दोनों देशों की सरकार चाहकर भी इसे खत्म नहीं कर सकती। लेकिन अब शायद यही बात सरहदी वाशिंदों के लिए अभिशाप साबित हो रही है। खासकर कोशी इलाके के सरहदी वाशिंदों के लिए, जो वर्षों से सड़कविहीन हैं। उल्लेखनीय है कि कोशी इलाके के चार जिले मसलन मधुबनी, सुपौल, अररिया और किशनगंज की उत्तरी सीमा नेपाल से लगी हुई है। इन जिलों के लगभग 400 पंचायत सीधे नेपाल से लगे हुए हैं।
इन पंचायतों के लोगों का अक्सर नेपाल आना-जाना होता है। नेपाल जाना और आना उनके दैनिक गतिविधियों का हिस्सा है। वे काज-रोजगार से लेकर वैवाहिक, सांस्कृतिक और आर्थिक जरूरतों के लिए हर दिन नेपाल जाते-आते रहते हैं। लेकिन उनकी विडंबना यह है कि इसके लिए उन्हें पैदल चलना पड़ता है, क्योंकि इन गांवों में आज तक राज्य या केंद्र सरकार ने सड़कें नहीं बनायी। प्रधानमंत्री ग्रामीण सड़क योजना के अस्तित्व में आने के बाद इन गांवों के लोगों को काफी आस जगी थी, लेकिन आज इस योजना के अस्तित्व में आये हुए आठ वर्ष से ज्यादा होने वाले हैं, लेकिन इन गांवों की सड़कें नहीं बनायी गयी। पक्की सड़क की बात तो छोड़िए, इन गांवों में कच्ची सड़कें तक नदारद है। अगर आप सीमा तक जाना चाहते है तो हर जगह पीच रोड से चार-पांच किमी की दूरी पगडंडियों के सहारे तय करनी पड़ेगी।
इलाके के लगभग पांच लाख लोग वर्षों से सड़कों की मांग कर रहे हैं, लेकिन सरकारें ध्यान नहीं देती। यह बात समझ से परे है कि आखिर सरकार इन गांवों को आदिम युग में क्यों रखना चाहती हैं। अगर अंतरराष्ट्रीय सीमा वजह है, तो सरकार इस बात का खुलासा क्यों नहीं करती। वैसे यह तर्क भी अपने आप में बेतुका लगता है कि सड़कें रहने से क्षेत्रों में गैरकानूनी गतिविधियां बढ़ेंगी। क्योंकि यह स्थापित तथ्य है कि जहां आवागमन का साधन जितना कम होता है और जो क्षेत्र बीहड़ होते हैं, वहीं सबसे ज्यादा गैरकानूनी गतिविधियां होती है। जंगली बीहड़ों में ही नक्सली भी रहते हैं और चंबल घाटी से आजतक लुटेरे खत्म नहीं हुए। दूसरी बात यह कि सड़क नहीं होने की स्थिति में उन इलाकों में सुरक्षा बल भी जरूरत पड़ने पर नहीं पहुंच सकते। जिसका अपराधी और असमाजिक तत्व जमकर फायदा उठाते हैं।
चुनावी मौसम में जब नेता इन इलाकों में वोट लेने जाते हैं, तो वे लोगों से सड़क का वादा करते हैं। लेकिन हर नेताओं के वादे झूठे साबित हो चुके हैं। इस इलाके के लोगों ने एक-एक कर लगभग सभी प्रमुख दलों के नेताओं को जीताकर देख लिया, लेकिन उनकी पीड़ा किसी ने नहीं सुनी। आजतक किसी भी नेता ने इस मसले को विधानसभा या लोकसभा में नहीं उठाया।
इलाके के लोगों ने दावे बहुत सुने, न सिर्फ अररिया बल्कि किशनगंज, सुपौल व अन्य सीमावर्ती क्षेत्र के सांसदों से शीघ्र निर्माण का आश्वासन भी पाया। पर, सीमा से लगने वाली सड़कें नहीं बननी थी और नहीं बनीं।
भारतीय सियासत में सीमापार की भूमिका की बात हमेशा चर्चा में रही है। बहुत पहले आम चुनाव में विराटनगर, नेपाल में बैठे एक अमेरिकी कूटनीतिज्ञ व अंडरव्र्ल्ड डान हाजी मस्तान की भूमिका को ले खूब सवाल उठे थे। उसी वक्त से सीमा से सटे गांवों में सड़क, बिजली,पानी जैसी मूलभूत सुविधाओं की बहाली को ले आवाज उठती रही है। इसके उलट सीमापार के नेपाली गांवों में चकाचक सड़कें बन गयी हंै, जिसमें भारत सरकार का भी धन लगा हुआ है, लेकिन कोशी इलाके आज भी रास्ताविहीन है।
ऐसे में अब लोग जानना चाहते हैं कि आखिर सरकार की मंशा क्या है। क्या सरकार सरहदी वाशिंदों को े खुली सीमा की सजा दे रहे हैं ? इस बार के चुनाव में कोशी इलाके के सरहदी लोग नेताओं से यही सवाल पूछ रहे हैं, जिनका जवाब किन्हीं के पास नहीं है।
तो भाइयों यह है भारत सरकार, इसकी डपोरसंखी घोषणाओं और बड़बोलापन का एक नमूना। ऐसी सरकार अपनी विदेशी नीति को आले दर्जे का करार देती है और हमें लगता है कि भारत अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपना रसूख बढ़ा रहा है। जबकि सच्चाई यह है कि आज वह नेपाल तक को कनविंस करने में सक्षम नहीं है। कुसहा हादसा के पहले, हादसा के दौरान और उसके बाद यह सच सबके सामने आ गया। दरअसल सरहदी इलाकों में सड़क नहीं बनाना भारत सरकार की अस्पष्ट और कंफ्यूज्ड विदेशी नीति द्योतक की ही है।
 

रविवार, 12 अप्रैल 2009

मजहबी समागम का मनभावन दृश्य

एक ऐसे दौर में जब नकारात्मक घटनाएं और प्रवृत्तियां समाज पर हावी हैं, तब सकारात्मक प्रवृत्तियों को खोज निकालना वाकई काफी मुश्किल हो गया है। समाचार माध्यमों में सकारात्मक खबरें अब ढूंढ़ने से भी नहीं मिलतीं। एक तो समाज में सकारात्मक चीजें ज्यादा होती नहीं और अगर होती भी हैं, तो उन पर समाचार माध्यम ज्यादा ध्यान नहीं देते। लेकिन किसी ने कहा है कि दुनिया को अच्छी चीजें ही बचायेंगी। नकारात्मकता भले ही पराकाष्ठा पर पहुंच गयी हो, लेकिन सकारात्मकता को वह परास्त नहीं कर सकती। ठीक वैसे ही जैसे अंधकार कितना भी घना क्यों न हो, प्रकाश की एक किरण उसकी सत्ता खत्म कर देती है और दूर से ही अपनी उपस्थिति दर्ज करा देती है।
कल धनवाद के एक पुराने पत्रकार मित्र से बात हो रही थी। चुनावी उठापटक से बात शुरू हुई और अंततः एक ऐसे खबर पर आकर रूक गयी, जो पूरी दुनिया के लिए अनुकरणीय है। खबर लोयाबाद धनबाद की है। बीते गुरुवार को धनबाद के लोयाबाद कस्बे के लोगों के बीच मजहबी समागम का एक अद्‌भूत दृश्य देखने को मिला। इस दिन यहां के एक मजार शरीफ पर चादरपोशी के लिए एक बड़ी भीड़ इक्कठा हुई थी, जिसने मजहबी दीवार को झटके में तोड़ दिया । भीड़ सिर्फ मुस्लिम धर्मावलंबियों की नहीं थी, बल्कि इसमें सभी धर्मों और संप्रदाय के लोग शामिल थे। मौका था लोयाबाद ईदगाह के समीप हजरत सैय्यद अब्दुल अजीज शाह बाबा (रहम) के 71वें उर्स मेला के मौके पर चादरपोशी का। चादरपोशी के बाद सभी धर्मों के लोगों ने देश के अमन व सलामती की दुआएं मांगी । पहली चादर लोयाबाद मुस्लिम कमेटी, लोयाबाद के दफ्तर से गाजा बाजा के साथ जुलूस की शक्ल में आयी और मजार पर चढ़ायी गयी। इसके बाद सभी धर्मों के लोगों ने चादरपोशी की और साथ-साथ समय बिताये। काश, देश का हर कस्बा गुरुवार का लोयाबाद बन जाता, तो कितना अच्छा होता।
 

शुक्रवार, 10 अप्रैल 2009

रेत भरे उस गांव में

रेत भरे उस गांव में
तलवे फटे उस पांव में
बीमारियों के छांव में
अब न चूं हैं न नाव हैं
फिर भी लोकतंत्र महफूज है !

दलित-भंगियों के उस टोले में
दहाये घरों के उन खूंटों में
नंगे बच्चों के उन झोलों में
न बेर है न बबूल है
फिर भी लोकतंत्र महफूज है !

कागज के पन्ने कहते हैं
नेताओं के चमचे पढ़ते हैं
कि इस गांव में पांच हजार वोटर रहते हैं
मुखिया-सरपंच को छोड़ दो, तो बांकी फांके करते हैं
सोनाई मुसहर कि माने तो
न वोट है न वोटर है
फिर भी लोकतंत्र महफूज है !
 

गुरुवार, 9 अप्रैल 2009

लालू नहीं जानते किशनगंज को

राष्ट्रीय जनता दल के अध्यक्ष और देश के रेल मंत्री लालू प्रसाद शायद कोशी इलाके के पूर्वी जिले किशनगंज को ठीक से नहीं जानते। अगर उन्हें किशनगंज और कोशी इलाके के समाज की जमीनी सच्चाई मालूम होती, तो वह " रोलर ड्राइवर' बनने की भीष्म प्रतिज्ञा नहीं करते। वरुण गांधी के सीने पर रोलर चलाने वाले लालू के बयान को मैं इसी रूप में देखता हूं, क्योंकि मैं किशनगंज को जानता हूं, वहां के समाज को जानता हूं और वहां की जमीनी सच्चाई से अवगत हूं। दरअसल लालू प्रसाद जैसे नेता, जिन्हें जनता के दुख-दर्द से कभी कोई नाता-रिश्ता नहीं रहा है, अक्सर ऐसी गलतियां कर बैठते हैं। उनकी नजर में किशनगंज का मतलब है मुस्लिमागंज और मुसलमानों से वोट लेने का तरीका है उनका तुष्टिकरण इसलिए उन्होंने किशनगंज की उस सभा में उपस्थित सभी लोगों को मुसलमान मान लिया और वरुण के सीने पर रोलर चलाने की बात कह दी। यह अलग बात है कि किशनगंज और अररिया के लोग आज भी इसका मतलब पूछ रहे हैं। यकीन मानिए, राजनीतिक अधोपतन के इस दमघोंटू दौर में भी कोशी इलाके में आज भी धार्मिक उन्माद आम लोगों तक नहीं पहुंच पाया है। यह उस क्षेत्र का सौभाग्य है। अगर अयोध्या प्रकरण को छोड़ दिया जाये, तो आजतक कोशी इलाके में कभी दंगा-फसाद नहीं हुआ। अयोध्या और बाबरी मस्जिद प्रकरण के दौरान अररिया, फारबिसगंज जैसे जगहों में जो एक-आध दंगे हुए, वे सभी प्रायोजित थे, जिनमें न तो एक आम मुसलमान शरीक था और न ही एक भी आम हिन्दू। एक बात और जान लीजिए कि कोशी इलाके के अधिसंख्य मुसलमान मौलाना इमाम बुखारी जैसे नेताओं के बयान पर अपना दिमाग नहीं खपाते और उन्हें नहीं मालूम कि सांप्रदायिकता, सेकुलर, कम्यूनल आदि किस चिड़िया का नाम है। इसी तरह कोशी इलाके के आम हिन्दू प्रवीण तोगड़िया और केपी सुदर्शन के बारे में दो वर्ष के बच्चे जैसे अनजान हैं। दरअसल वहां का समाज प्राकृतिक रूप से एक धर्मनिरपेक्ष समाज है।
लेकिन दिल्ली-पटना के अपने वातानुकूलित बैठकखाने में वोट पाने के लिए तरह-तरह के षड़यंत्र रचने वाले नेता को कौन समझाये। वे तो बांटो और वोट बटोरो की नीति से ऊपर उठ ही नहीं पाते हैं। इसलिए लालू ने रटे-रटाये अंदाज में उक्त बयान दे डाला, गोया वह किशनगंज में नहीं पाकिस्तान में हो । उन्होंने तो वर्षों से यही सुन रखा है कि किशनगंज इलाके में मुस्लिमों की संख्या काफी है। उन्होंने सोच लिया कि अपने वोट बैंक को अटूट रखने और किशनगंज जैसे इलाके में तुष्टिकरण और भड़काऊ भाषण से बेहतर कोई औजार हो ही नहीं सकता। लेकिन लालू प्रसाद भूल गये कि कभी यही बात बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी के नेता मोहमद शहाबुद्दीन ने भी सोचा था और चुनाव जीतने के लिए यहां भागे चले आये थे। लेकिन इतिहास गवाह है कि यहां उनका सांप्रदायिक उन्माद का मंसूबा टांय-टांय फिस्स हो गया। उन्हें मुंह की खानी पड़ी थी, फिर जो वे यहां से चंपत हुए दोबारा कभी नजर भी नहीं आये।
जो लोग किशनगंज को अच्छी तरह जानते हैं, वे इस बात को समझते हैं कि यहां लोगों को रोलर नहीं रोड की जरूरत है। रोजगार की जरूरत है। मजबूत प्रशासन की जरूरत है। खेतों को पानी की जरूरत है और घरों को बिजली की। अपराधियों और भ्रष्टाचारियों से मुक्ति चाहते हैं, किशनगंज के लोग। बांग्लादेशी घुसपैठिये से भी वे काफी चिंतित हैं, क्योंकि इसके चलते उनकी रोजी-रोटी मारी जा रही है और सदियों पुराना सामाजिक तानाबाना बिगड़ रहा है। नेपाल और बांग्लादेश के रास्ते होने वाली तस्करी और बढ़ती आपराधिक गतिविधियों से भी किशनगंज के आम लोग परेशान हैं। लेकिन लालू प्रसाद जैसे नेता को यह सब शायद मालूम नहीं है। दो महीना पहले जब मैं वहां गया था, तो लोग मुझसे कोशी बाढ़ की बात कर रहे थे। हालांकि इस जिले तक कोशी का कहर नहीं पहुंचा, लेकिन वे लोग बाढ़ की आपदा पर सरकारी निष्क्रियता से काफी आक्रोश में हैं। क्योंकि इस जिले के लगभग हर गांव के लोगों की बाढ़ से उजड़े सुपौल, अररिया, मधेपुरा जिलों में रिश्तेदारी है। बाढ़ ने कई लोगों के रिश्तेदारों को छिन लिया। आज भी बाढ़ प्रभावित जिले के लोग किशनगंज जिले के अपने रिश्तेदारों के यहां शरणार्थी का जीवन जी रहे हैं। लेकिन इस सच से राजनेता शायद अवगत नहीं है और शायद होना भी नहीं चाहते। वे तो बांटो और वोट बटोरे के अपने अमोध शस्त्र से ही जग जीतने का सपना देख रहे हैं।

शनिवार, 4 अप्रैल 2009

जो पुल बनाएंगे

अज्ञेय

जो पुल बनाएंगे
वे अनिवार्यत:पीछे रह जाएंगे।

सेनाएँ हो जाएंगी पार
मारे जाएंगे रावण
जयी होंगे राम,
जो निर्माता रहे
इतिहास में बन्दर कहलाएंगे

गुरुवार, 2 अप्रैल 2009

बाढ़ के समय कहां थे नेताजी ?

दहाये हुए देस का दर्द -41
मनोज कुमार गुरमैता, सुपौल
आज भी कोशी-कुसहा के कोप से टूटे लाखों लोग आंसू बहा रहे हैं । उन्हें आज भी अपनों के बेगाने होने का दर्द साल रहा है। उन्हें आज तक पुनर्वास की राशि नहीं मिल पायी है। वे आज भी सपना देखने के बाद उठकर बैठ जाते हैं । धन के साथ-साथ जन खोने वाले लोग आज भी आंखों पोंछ रहे हैं।। इधर, चुनाव क्या आया सबकी असलियत खुलने लगी है। बाढ़ के समय घर में दुबके रहने वाले नेता भी आज की तारीख में बाढ़ पीड़ितों का सच्चा शुभ चिंतक होने का दावा कर रहे है। लेकिन बेअसर ।
हर पार्टी के नेता पीड़ितों के बीच फरियाद लेकर आ रहे हैं। इस आशा के साथ कि पीड़ितों का मत शायद उन्हे मिल जाए ।यह अलग बात है कि पीड़ितों को सबकुछ मालूम है कि किसने विपदा की घड़ी में साथ दिया था और कौन घर में दुबके हुए थे। कौन हवा फायरिंग कर रहे थे और कौन- कौन सरजमीं पर काम। कुछ स्थानों पर नेताओं को विरोध का भी सामना करना पड़ रहा है। पीड़ित यह पूछने से नहीं हिचकते कि बाढ़ के समय कहां थे नेताजी ? बहरहाल, क्या होगा यह तो आने वाले समय में ही पता चल पाएगा लेकिन यह तय माना जा रहा है कि बाढ़ पीड़ितों का मत इस बार यहाँ निर्णायक होगा । प्रभावितों को बातों से रिझाने में लगे नेता फिलहाल मुह की खा रहे हैं। वैसे, यह तय है कि दुख की घड़ी में जिस किसी ने इन लोगों को साथ दिया, उसी को लोग वोट देंगे , लेकिन सवाल यह भी अनुतरित है की साथ दिया ही किसने ?

बुधवार, 1 अप्रैल 2009

कोशी से मुंह छिपाते नेता

दहाये हुए देस का दर्द-40
आठ महीने में पहली बार कोशी नदी को बधाई देने का मन करता है। लेकिन यह सकारात्मक नहीं नकारात्मक बधाई है। बधाई इसलिए क्योंकि गत अगस्त में आयी कोशी की प्रलयंकारी बाढ़ ने राजनेताओं के असली चेहरे सामने ला दी है और नकारात्मक इसलिए कि यह हर्ष नहीं, बल्कि विषाद भरी अभिव्यक्ति है। कुछ वैसे ही जैसे छद्म दोस्तों और शुभचिंतकों की पहचान कराने के लिए हम दुर्दिन को बधाई देने लगते हैं। मैं भी राजनेताओं के असली चेहरे और जनता के प्रति उनके दिखावे के प्रेम को उजागर करने के लिए अगस्त की कोशी-बाढ़ को बधाई देता हूं।
आज जब पूरे देश में चुनावी बयार बह रही है और राजनीतिक पार्टियां एवं उनके नेता सड़कों की खाक छान रहे हैं, तब कोशी क्षेत्र में ऐसा कुछ भी दिखाई नहीं देता। बिहार की वर्तमान राजनीति के चारों महारथी खगड़िया जिले से पूर्व -उत्तर की ओर जाने की हिम्मत नहीं बटोर पा रहे हैं। क्या लालू क्या रामविलास, क्या नीतीश, क्या मोदी, सबों की दौड़ खगड़िया की सीमा में पहुंचकर खत्म हो जा रही हैं। अगर यह सच नहीं होता, तो लालू इस बार भी यादवों के रोम के नाम से प्रख्यात मधेपुरा से फिर चुनाव लड़ रहे होते और कोशी क्षेत्र के जदयू क्षत्रप विजेंद्र यादव सुपौल से टिकट लेकर मैदान में पसीना बहाते नजर आते। साल भर पहले वे चुनाव लड़ने का मंसूबा बना रहे थे और आज चर्चा तक नहीं कर रहे।
दरअसल, बिहार के नेताओं को यह अच्छी तरह पता चल चुका है कि कोशी क्षेत्र अब उनके पहुंच से बाहर जा चुका है। उन लोगों ने बाढ़ से पहले, बाढ़ के समय और उसके बाद अपनी भूमिका नहीं निभायी। उस पर तुर्रा यह कि वहां कि जनता भी उनकी हकीकत पहचान गयी। जनता को पता चल चुका है कि नेताओं ने उन्हें मरने के लिए छोड़ दिया। जनता किसी एक दल से गुस्सायी नहीं है। उसने प्रलय के इतिहास को खंगाल दिया है। उन्हें यह जानकारी हासिल हो चुकी है कि सभी सरकारों ने इस प्रलय की पृष्ठभूमि तैयार की। वर्षों तक कोशी के रखरखाव व तटबंध मरम्मत की राशि को लूटा गया और नदी को खूंखार बनने के लिए छोड़ दिया गया। इसलिए कोई भी माफी के काबिल नहीं। ईश्वर को छोड़ बाकी सब ने उनके साथ मजाक किया है। उनकी छह दशकों की कमाई, घर-द्वार, खेत-मवेशी को स्वाहा होने का रास्ता बनाया है । हम उन्हें कभी माफ नहीं करेंगे।
यही कारण है कि जब बिहार में हर एक सीट के लिए , हर एक टिकट के लिए, हर एक पार्टी में कुश्ती हो रही है, कोशी में कोई बड़े नेता चुनाव लड़ने के लिए तैयार नहीं हैं। न ही इस क्षेत्र में टिकटों की मार है। यह किसी एक पार्टी की स्थिति नहीं, बल्कि सभी पार्टियों का हाल है। जो नेता चुनाव लड़ रहे हैं, वे भगवान के भरोसे हैं। किन्हीं पार्टी के किन्हीं नेता को अपनी जीत का विश्वास नहीं है। अगर दूसरे शब्दों में कहें तो वह यह मानकर चलने लगे हैं कि कोई एक तो जीतेगा ही, शायद वह लॉटरी मेरे नाम लग जायें!
मुझे नहीं लगता कि भारत के चुनावी इतिहास में ऐसी स्थिति कभी देखने को मिली होगी जब हर पार्टी एक हारे हुए मुकाबले को लड़ रही है। जनता की मजबूरी है, इसलिए कोई एक तो चुनाव में विजयी होगा ही, लेकिन वह कौन होगा, इसके बारे में कोई नहीं जानता। क्या यह प्रजातंत्र की सीमा नहीं है ? क्या यहां आकर प्रजातंत्र की सारी खूबियां खत्म नहीं हो जाती हैं ? जनता को एक भी ऐसा उम्मीदवार नजर नहीं आ रहा, जिन पर वे विश्वास करें और जिनसे वे उम्मीद करें कि वह हमारे बारे में सोचेगा। यह यक्ष सवाल है, जो कोशी ने उठाया है ? अगर हमारी राजनीति नहीं सुधरी तो शायद देश के अन्य भागों में भी यह सवाल आगे उठता रहेगा, क्योंकि हमारी राजनीति लोक-विमुख हो चुकी है।