बुधवार, 19 जनवरी 2011

शेष बस अवशेष


कक्ष के अंदर
कुछ पक्ष में थे, कुछ विपक्ष में
शेष, बस अवशेष की तरह थे

कक्ष के बाहर
न पक्ष था, न विपक्ष
चोट और कचोट के घाव ही थे
नमक और तेल भी दवा के भाव थे
पक्ष मार रहा था
विपक्ष मरवा रहा था
हत्या
आत्महत्या कहलाने लगा था
उनको नंगई की आदत पड़ गयी थी
और जवाना भी बेशर्म हो चला था

इधर
गांव -जयवार में
शहर-बाजार में
समाज में, मिजाज में
देश और भीड़ का फर्क मिट रहा था
संविधान के सारे मुहावरे
लगभग चीख रहे थे
उधर
भीड़ से भगाया हुआ एक कवि
हाशिये पर हांफ रहा था
लगभग भांट की तरह
शायद बांच रहा था
" गर महंगाई से मारेंगे
तो बक्शीश क्या दोगे जी ?''

4 टिप्‍पणियां:

  1. सच में कवि बेचारा दो-पाटन के बीच फंस गया!
    • आपकी कविता समकालीन परिदृश्‍य के उन सवालों से रू-ब-रूबरू कराती है, जो लंबे समय से हमारे समाज के केंद्र में रहा है।

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