शुक्रवार, 16 दिसंबर 2011

मेड़ पर माथा-हाथ (डायरी अंश / 1.12.11)

 पेंटिंग डब्लूडब्लूडब्लू डाट गूगल डाट को डाट इन से साभार
इस तेज रफ्तार दुनिया में पंद्रह साल कोई छोटी अवधि नहीं है। पंद्रह साल में कितना कुछ बदल गया है। पंद्रह साल में धरती ने पंद्रह बार सूरज का  चक्कर लगा लिया  है, ना जाने कितने सितारे खाकसार हो गये हैं खतो-किताबत की संस्कृति खत्म हो चुकी है, न नायी की खुशामद न संवदिया की जरूरत, नता-पता से लेकर न्यौता तक का काम 'मुबाइल' कर देता है। दो महीने की नवकनियां घर-द्वार से लेकर हाट-बाजार तक कर लेती हैं। खेतों में मचान नहीं मोबाइल के टॉवर नजर आते हैं। फुरसत में लोग टीवी देखते हैं, मुरदग नहीं भांजते। मुहर्रम में रेडीमेड ताजिये से काम चला लिये जाते हैं। मुआ कौन जाये बांस काटने, रस्सी बाटने और बत्ती चीरने।
लोक लाज का भय और बड़ों का लिहाज किसे कहते हैं ? बाप-पित्ती के सामने गर्ल-फ्रेंड की बात करने में अब युवकों के चेहरे लाल और आंखें नीचे नहीं होतीं। वे खड़ा होकर पेशाब करते-करते दो-तीन मिस्ड कॉल मार देते हैं।
अजब लीला है कोशी अंचल की, इसकी संस्कृति की। अनोखा मिजाज है यहां के बाशिंदों का। मन इतना चंचल कि नटवरलाल को भी दिन में तीन बार टोपी पहना दे, दिल इतना कोमल कि चांडाल भी पिघल जाये।
बहुत कुछ बदल जाने के बावजूद बहुत कुछ आज भी बासी नहीं हुआ है, कोशी में। वे सब टटका मछली की तरह ताजा और मड़ुवा रोटी की तरह सोन्ह हैं। दुख और सुख के बहुत-से  बिम्ब  अब भी नहीं बदले हैं। आज भी मवेशियों से फसल उजाड़ दिये जाते हैं और किसान माथ पर हाथ धरकर मेड़ पर घंटों बैठा रह जाता है। टुकूर-टुकूर ताकता है। राह गुजरते लोगों को भैंसों के खूर दिखाता है। उसके बाद जी भर के गाली देता है। सहानुभूति का एक शब्द सुनते ही दहाड़ मारकर रोने लगता है। इस रुदन की भी अपनी खासियत है। यह महज आंख का पानी नहीं, यह रूदन-रिपोर्टिंग होती है। रोते-रोते किसान फसल में लगी पूंजी और मेहनत का पूरा आंकड़ा पेश कर देता है।
कॉरियर के लिए जब लोग कबर में पैर रखे बाप को छोड़ कनाडा जाने में जरा-सी देर नहीं लगाते, तो कोशी के गांव में आज भी श्रवणकुमारों का टोटा नहीं है। आज भी एमए, एमएससी, एमटेक पास युवक बुढ़े बाप की सेवा के लिए नौकरी छोड़ गांव में बैठ जाता है। संजीव ने भी यही किया।
पंद्रह साल बाद संजीव से भेंट हुई, तो पहचानना मुश्किल हो गया। पंद्रह साल पहले जिस संजीव को मैंने देखा था, वह एक तेज-तर्रार, महत्वाकांक्षी, खूबसूरत, बड़ी आंख वाला वाक-चातुर्य आधुनिक युवक था। ललित नारायण मिथिला विश्वविद्यालय से एमएससी कर रहा था, संजीव। लेकिन आज का संजीव विशुद्ध किसान है। सीधा और सादा। उसके संदर्भ बदल चुके हैं। वनस्पति विज्ञान की दुनिया में नया क्या हुआ यह बताना तो दूर, संजीव के लिए अब बोटेनी और कारी झांप की घास में कोई फर्क नहीं है।  मानो दोनों बेकार की चीज है, जिसे बकरी भी नहीं सूंघती।
बोटेनी में एमएससी करने के बाद नौकरी के लिए दरभंगा से किसी महानगर चला गया था, संजीव।  उसने बताया कि बुढ़े बाप की सेवा-टहल के लिए उसने अपनी डिग्री भुला दी और नौकरी छोड़कर गांव आ गया। जैसे-जैसे पिता की सेहत  खराब होती गयी गयी, संजीव के लिए गांव छोड़ना कठिन से असंभव होते गया। जब तक पितृ ॠण से उबर सका, तब तक बहुत देर हो चुकी थी। डिग्री पर समय ने धूल की इतनी मोटी परत बिछा दी कि उसका कोई मतलब नहीं रह गया । पिता के गुजरने के बाद ही शहर में रहने वाले संजीव के उच्च अधिकारी भाई गांव आ धमके। संपत्ति बंटवारे को लेकर केस-मुकदमें हुए और संजीव को अपने हाथों से बनाये घर से बेघर होना पड़ा। वह तंबू में रहने के लिए मजबूर हो गया ।
बाबू ने कहा था,"कुछ भी हो जाये घर की बात को कोर्ट नहीं ले जाना। सो संजीव के हिस्से में कुछ नहीं आया। जो लोग पिता भक्ति के लिए उनके नाम की दुहाई देते थे, उन्होंने भी अब संजीव का मजाक बनाना शुरू कर दिया था।''
सहोदर भाई की निर्दयता, बेईमानी, खुदगर्जी की दास्तां ने उसे इतना तोड़ दिया है कि सहसा यकीन करना मुश्किल हो जाता है कि यह आदमी पंद्रह साल पहले पीजी हॉस्टल का प्रीफेक्ट था। संयमित और रिजर्व। 
वह बोलता गया, मैं सुनता रहा। शाम के चार बजे जब हम होटल के कमरे से बाहर निकले तो पता चला कि इस दरम्यान हमने आठ प्याली चाय पी ली थी। खाना हमने नहीं खाया। पांच बजे हमें बारात के लिए विदा होना था। एक प्रोफेसर साहेब के बेटे की बारात में शामिल होने हम दरभंगा पहुंचे थे, जो हम दोनों के रिश्तेदार हैं।
बारात की गाड़ी पर सवार होने से पहले मैंने पूछा,"संजीव भाई, आप प्रोफेसर साहेब के बेटे की शादी में कैसे ? इनकी और आपके बड़े भाई की कहानी में ज्यादा फर्क नहीं है।''
संजीव चुप हो गया। कुछ देर के बाद उसने कहा," हम तो आ गये, लेकिन तुम कैसे आये ? यह बात सुबह से मैंने कई बार सोची है, लेकिन पूछ न सका ।''
मेरे पास सही जवाब नहीं था। मैंने कहा, ''आग्रह टाल नहीं पाता हूं, शायद इसलिए। हां, यह सच है कि पंद्रह साल पहले इसी प्रोफेसर साहेब के कारण मुझे इस शहर तक से नफरत हो गयी थी।''
रात को शादी में मैंने देखा। सब कुछ पश्चिमी अंदाज में था। प्रोफेसर साहेब के गांव-गिरांव से आये लोग किनारे में कुछ इस तरह खड़े थे, जैसे वे बारात में नहीं, कचहरी में हों। मुझे एक बार फिर प्रोफेसर साहेब से नफरत हुई। एक पोटरी मेरे हृदय में बंद हो गयी ।
अगले दिन जब बस में बैठा तो रास्ते भर संजीव की याद आती रही।  भीषण उत्पीड़न के बावजूद उसके दिल में बड़े भाई के लिए कोई कठोर भाव नहीं था। वह आज भी अपने भाई का शुभचिंतक है। यह सोचकर मुझे संजीव का कद खुद से कई गुना बड़ा लगा। इतना बड़ा दिल उसे अपनी मिट्टी ने दी है। सच में संजीव माटी का असल पुत है।