रविवार, 27 मई 2012

एक और पूर्वोत्तर की आहट

कंधार विमान अपहरण कांड और नेपाली-भारतीय माओवादियों के बीच तथाकथित गठजोड़ की खुफिया-रिपोर्टों के बाद रक्षा मंत्रालय ने मई 2001 में 1800 किलोमीटर लंबी भारत-नेपाल सीमा पर सुरक्षा बल तैनात करने का फैसला लिया था। हमेशा की तरह सरकार ने फैसला लेने से पहले स्थानीय लोगों की राय लेने की जरूरत महसूस नहीं की। तब कहा गया था कि सुरक्षा बल नेपाल के जरिये होने वाली हथियार, जाली नोट, उर्वरक, खाद्यान्न आदि की तस्करी और आइएसआइ की आतंकी गतिविधियों पर नजर रखेगा और इस पर रोक लगायेगा। शुरुआत में जोगबनी, बीरपुर, कुनौली, राजनगर, बैरगनिया, गौर, रक्सौल, बाल्मिकीनगर जैसे संवेदनशील चेक पोस्टों पर अर्धसैनिक बल-  स्पेशल सर्विस ब्यूरो (एसएसबी जिसे अब सशस्त्र सीमा बल कहा जाता है) की तैनाती की गयी थी। बीते ग्यारह साल में पश्चिम बंगाल के पानी टंकी से लेकर उत्तराखंड के पिथौरागढ़ के बीच सैकड़ों चेक पोस्ट और दर्जनों बैरक बनाये गये और जवानों की तादाद बढ़ाकर लगभग 50 हजार कर दी गयी।
पिछले ग्यारह साल में एसएसबी के हजारों जवान खुली सीमा से होने वाली अवैध गतिविधियों पर काबू पाने में कितना सफल हुए हैं, इसकी कोई आधिकारिक रिपोर्ट सरकार आज तक पेश नहीं कर सकी। वैसे सीमाई इलाके के लोगों का कहना है कि "एसएसबी की प्रतिनियुक्ति के एक-दो साल तक सब कुछ बेहतर था। लेकिन अब स्थिति बेहद खराब हो गयी है। तस्करी बेलगाम हो गयी है।' सच तो यह है कि खेती के मौसम में कोई भी पर्यवेक्षक तस्करी का ' खुला खेल फर्रुखावादी ' का नजारा आराम से देख सकता है। दिन की रोशनी में सैकड़ों की तादाद में साइकिलें सब्सिडीयुक्त उर्वरक की बोरियां लेकर सीमा-पार जाती रहती हैं। स्थानीय लोगों का आरोप है कि "जवानों को बोरी के हिसाब से रिश्वत पहुंचा दी जाती है।''
जहां तक आतंकी गतिविधियों की बात है, तो पिछले पांच साल में अररिया, मधुबनी, दरभंगा, किशनगंज से लगभग 17 लोग आतंकवादी गतिविधियों के आरोप में गिरफ्तार हुए हैं। इसे आश्चर्य ही कजा जायेगा कि किसी भी गिरफ्तारी में एसएसबी की कोई भूमिका नहीं रही। जाली नोटों और मवेशियों, मानव तस्करी की घटनाएं भी बीते सालों में बढ़ती गयी हैं। विभिन्न मौके पर स्थानीय जिला प्रशासन के कई अधिकारियों ने इस पंक्ति के लेखक को अपना दुखड़ा सुनाते कहा कि एसएसबी उन्हें सूचना मुहैया नहीं कराते।
सीमा की निगरानी में एसएसबी भले ही फिसड्डी साबित हो रहा हो, लेकिन बदनामी बटोरने में पीछे नहीं है। सीतामढ़ी का बैरगनिया गोली कांड इसका ताजा उदाहरण है। सीतामढ़ी जिले के बैरगनिया के हजारों लोगों ने पिछले दिनों एसएसबी के कैंप पर हमला बोल दिया। लोगों का कहना था कि जवान उनकी बहू-बेटियों के साथ अक्सर छेड़खानी करते रहते हैं। जवानों के कारण बहू-बेटियों का सड़क पर चलना मुश्किल हो गया है। दरअसल, 25 मई को बैरगनिया बैरके के दो जवानों ने स्कूल से घर लौटती दो छात्राओं के साथ बीच सड़क पर बदतमीजी कर डाली। जब लड़कियों ने विरोध किया, तो वे जोर-जबर्दस्ती पर उतर आये।  इसे देखकर आसपास के लोगों का दबा गुस्सा फूट पड़ा। हजारों लोग बैरक के सामने जमा हो गये और पत्थरबाजी करने लगे। इसके बावजूद जवानों ने स्थानीय प्रशासन को खबर नहीं दी और आक्रोशित लोगों पर गोलियां बरसानी शुरू कर दी। इसमें नीरस पासवान नामक एक दलित युवक की मौत हो गयी और दो महिला समेत तीन अन्य लोग बुरी तरह घायल हो गये। 
 बैरगनिया की घटना कोई अपवाद नहीं है, बल्कि सच तो यह है कि समूचे  सीमाई उत्तर बिहार की स्थिति कमोबेश बैरगनिया जैसी ही है। डेढ़ साल पहले अररिया जिले के कुरसाकाटा में भी बैरगानिया जैसी घटना घटी थी, जिसमें जवानों की गोली से चार ग्रामीणों की मौत हो गयी थी। यहां भी जवानों पर महिलाओं के साथ छेड़खानी करने के आरोप लगे थे। । कुछ समय पहले इस पंक्ति के लेखक ने रिपोर्टिंग के सिलसिले में रक्सौल से जोगबनी तक की यात्रा की थी। अमूमन हर जगह के लोगों ने एसएसबी के जवानों के व्यवहार के प्रति गहरे रंजो-गम का इजहार किया था। सुपौल, अररिया, किशनगंज में पिछले 11 साल में एसएसबी और स्थानीय लोगों के बीच लगभग 20 बार हिंसक टकराव हुआ है।
सीमाई इलाकों के बाशिंदे दबी जुबान से "कमीशनखोरी' की दास्तान भी सुनाते हैं। लोगों का आरोप है कि शादी-विवाह के मौके पर जवान बेवजह बारात-गाड़ियों को रोक देते हैं और भारी रकम वसूल कर ही जाने की इजाजत देते हैं।  सच तो यह है कि जवान चेक पोस्ट और बैरक में कम और सीविलियन एरिया में ज्यादा समय व्यतीत करते हैं।  कभी वे ट्रॉफिक पुलिस की भूमिका में दिखते हैं, तो कभी पंच बनकर लोगों के आपसी मामले में टांग अड़ाते हैं। जिला प्रशासन को ठेंगा पर रखते हैं। उनके कामों में जबर्दस्ती हस्तक्षेप करते हैं। सिविलयन क्षेत्र में गैर-जरूरी आवाजाही करते हैं। संक्षेप में कहें, तो वैरगनिया की घटना एक पूर्व चेतावनी है। संदेह नहीं कि अगर सरकार ने समय रहते सख्त कार्रवाई नहीं कि तो उत्तर बिहार के सीमाई इलाके में भी हालात पूर्वोत्तर जैसे हो जायेंगे।

बुधवार, 16 मई 2012

'' कोशी की उपेक्षा नहीं ''


दहाये हुए देस का दर्द-81
बिहार के कानून मंत्री नरेंद्र नारायण यादव जमीनी नेता हैं। वे ग्रास रूट की राजनीति से बिहार विधानसभा और कैबिनेट तक पहुंचे हैं। पिछले दिनों अपनी पत्रिका "द पब्लिक एजेंडा'' के लिए उनसे इंटरव्यू करने का मौका मिला।  नरसंहारों  की सुनवाई में हो रही देरी और बथानी टोला मामले में आये फैसले पर उनसे लंबी बातचीत हुई। यह इंटरव्यू "द पब्लिक एजेंडा'' के ताजा अंक में प्रकाशित हुआ है। लेकिन इसी मुलाकात के दौरान मैंने उनसे कोशी के मुद्दे पर भी बातचीत की। उनसे कई जमीनी सवाल पूछे। कोशी मुद्दे पर उनके विचारों और जवाबों को यहां आपके सामने रख रहा हूं। - रंजीत
सवाल- पिछले कुछ सालों से मैं कोशी अंचल की सामाजिक-आर्थिक स्थिति पर लगातार अनुसंधान कर रहा हूं। मैं तथ्यों के साथ कह सकता हूं कि जिस तरह केंद्र सरकार ने बिहार की उपेक्षा की, ठीक वही व्यवहार बिहार की विभिन्न सरकारों ने कोशी के साथ किया, जबकि इस इलाके से कई बड़े राजनेता उभरे। राजेंद्र मिश्र, ललित नारायण मिश्र, जगन्नाथ मिश्र, अनूप लाल यादव, विनायक प्रसाद यादव, भूपेंद्र मंडल, तारिक अनवर, बीएन मंडल, रमेश झा, लहटन चौधरी, शंकर टेकरीवाल, शरद यादव, विजेंद्र यादव जैसे बड़े नेताओं के रहते कोशी की ऐसी उपेक्षा क्यों हुई ?
नरेंद्र ना यादव - नहीं, मुझे नहीं लगता कि कोशी के साथ उपेक्षा हुई है। मेरी सरकार ने कोशी के विकास के लिए हर संभव प्रयास किया है। कुसहा त्रासदी के बाद युद्ध स्तर पर राहत और पुनर्वास के कार्यक्रम चलाये गये। हम लोग आगे भी प्रयासरत हैं। हमने कोशी के लिए केंद्र सरकार से मदद मांगी थी, जिसे अस्वीकार कर दिया गया। इसके बाद हमारी सरकार ने विश्व बैंक की मदद से इलाके के लिए कई योजना बनायी है। यह कई करोड़ रुपये का पैकेज है। इसके तहत इलाके में लगभग 125 पुल-पुलिये बनाये जायेंगे। कुछ के टेंडर भी हो चुके हैं। गांवों की सड़कें पक्की की जायेंगी। बाढ़ के समय राहत के लिए हर पंचायत में ऊंचा टीला बनाया जायेगा। तटबंधों को मजबूत किया जायेगा। अगले वर्षों में लगभग 400 करोड़ रुपये कोशी इलाके में इंफ्रास्ट्रक्चर के निर्माण पर खर्च किये जायेंगे।
 सवाल- लंबे समय से कोशी की जीवन-रेखा डुमरी पुल क्षतिग्रस्त है, लेकिन अब तक सरकार इसकी मरम्मत नहीं करा सकी। क्या अगर यही समस्या अन्य हिस्से में होती, तो आपकी सरकार का रवैया ऐसा होता ?
नरेंद्र ना यादव-  सन्‌ 2014 तक वहां तीन पुल होंगे। एक पुल बीहपुर और नौगछिया के बीच होगा। डुमरी पुल के बगल में ही बनाये गये आइरन ब्रीज को भी ऐसा मजबूत बना दिया जायेगा कि लंबे समय तक उससे हल्की गाड़ियां पास करेंगी। डुमरी पुल की मरम्मत के लिए भी सरकार ने विशेषज्ञों से राय ली है। विशेषज्ञों ने कहा है कि इसके डिजाइन में हल्का परिवर्तन लाकर ठीक किया जा सकता है। कुछ उसी तरह जैसे हावड़ा ब्रीज है। दो साल के बाद आप देखेंगे कि डुमरी के सामांतर तीन पुल होंगे।
सवाल- ऐसा हो जाये, तो क्या कहना ! क्या ऐसा हो पायेगा ? हमने तो कुसहा हादसा के समय भी ऐसी बातें सुनी थीं, लेकिन हुआ क्या ? जिनके घर दहाये, खेत बंजर हुये, परिजन मरे, उन्हें तो कुछ खास नहीं मिला। लेकिन अधिकारियों, नेताओं,दलालों की चांदी हो गयी। मुआवजा राशि में जमकर लूट-पाट हुआ। छातापुर में एक बीडीओ धराये भी। लेकिन अंततः समय के साथ सब कुछ शांत हो गया। लोगों के दिन नहीं फिरे। वे आज भी पंजाब-दिल्ली के भरोसे ही हैं।
नरेंद्र ना यादव-  इन सब सवालों के जवाब हैं। कार्रवाई हुई है। हम आपको बाद में इसका विस्तृत ब्यौरा उपलब्ध करा देंगे।
सवाल- आप गांव से आते हैं। खेत-खेतिहरों की तकलीफ समझते हैं। आप लोग कोशी के लिए कुछ करते क्यों नहीं ?
नरेंद्र ना यादव- (लंबी खामोशी। सवाल का जवाब नहीं मिला)
सवाल- ऐसा कोई सेक्टर बतायें जहां कोशी अंचल को प्राथमिकता में रखा गया हो। यहां सबसे बाद में विश्वविद्यालय खुले। सबसे बाद में मेडिकल कॉलेज खुला, वह भी निजी। इंजीनियरिंग कॉलेज तक आज तक खुल ही नहीं सका। देश में अब कहीं भी छोटी रेल-लाइन नहीं है, लेकिन कोशी में अब तक मौजूद है। हर इलाके में रेलवे का विद्युतीकरण हो गया है, लेकिन कोशी में अभी तक नहीं हुआ है ? उद्योग-धंधा लगाने की तो चर्चा करना ही बेकार है।
नरेंद्र ना यादव- इन सब सवालों पर बात करने के लिए हमें आराम से बैठना होगा। इस पर बहस होनी चाहिए।
सवाल- क्या ऐसा इलिए तो नहीं हुआ क्योंकि यहां के लोग साधारणतया अमन पसंद और मासूम हैं ?
नरेंद्र ना यादव- (जवाब में चुप्पी)