शुक्रवार, 14 नवंबर 2008

बाल दिवस पर काली खबर

भ्रष्टाचार के विषाणु से सड़ती हुई व्यवस्था में क्या नहीं हो सकता ? नैतिक पतन, कर्त्तव्यहीनता, लापरवाही अगर सामाजिक-संस्कृति में बदल जाय, तो कौन-कौन-से अनर्थ नहीं हो सकते? झारखंड की राजधानी रांची के नजदीक सरकारी आदिवासी आवासीय विद्यालय में घटी घटना शायद हमसे यही पूछती है। बेड़ो में स्थित इस विद्यालय के एक सौ से ज्यादा आदिवासी छात्र कल भयानक रूप से बीमार हो गये। पांच ने तत्काल दम तोड़ दिया और 15 की हालत नाजुक बनी हुई है। विरोधावास देखिये- राज्य के मुख्यमंत्री एक आदिवासी हैं, राज्य के शिक्षा मंत्री आदिवासी हैं और इनके विधानसभा क्षेत्र में ही यह विद्यालय अवस्थित है । विद्यालय सत्तर प्रतिशत शिक्षक व कर्मचारी भी आदिवासी हैं। लेकिन वे कुछ नहीं कर सके। यकीन मानिये वे आगे भी कुछ नहीं करेंगेसिवाय चंद आक्रामक बयान और सहानुभूतिक घोषणाओं के।
उपरोक्त बात मैं नहीं कहता, बल्कि पूर्व की घटनाएं और उन पर सरकार द्वारा की गई कार्रवाई का रिकार्ड कहता है। अभी ज्यादा दिन नहीं हुए जब विलुप्ति की कगार पर खड़े राज्य के आदिम जनजाति समुदाय के कई लोग भूख, कुपोषण और संक्रामक रोग के कारण असमय मौत के मुंह में समा गये। चतरा, पलामू, गढ़वा और हजारीबाग जिलों से गाहे-बेगाहे इनकी मौतों की खबर आ रही है, लेकिन सरकार इन्हें बचाने में असमर्थ है। शायद वह दिन ज्यादा दूर नहीं जब राज्य की आदिम जनजातियां इतिहास के पन्नों में ही मिले।
अब सवाल उठता है कि ऐसी स्थिति क्यों है? आदिवासी कल्याण के नाम पर बना यह राज्य इतना कमजोर कैसे हो गया ? अगर यहां की सरकार चंद आदिम जनजातियों को भी संरक्षित नहीं रख सकती तो आम लोगों का क्या हाल होगा। सच्चाई यह है कि अब हमारा समाज उस दौर में पहुंच गया है जहां कर्त्तव्यपरायणता और ईमानदारी वाहियात शब्द बन गये हैं। जबकि यह स्थापित सच है कि समाज और देश इन्हीं शब्दों पर चलता है। अभी कुछ समय पहले पूरे देश में सेंथेटिक दूध को लेकर भारी हो-हंगामा हुआ था। उत्तर प्रदेश में दर्जनों सेंथेटिक दूध के कारखाने पकड़े गये थे। बिहार और झारखंड में ऐसे सेंथेटिक दूध उत्पादक फैक्ट्री की बात हुई थी। लेकिन कार्रवाई क्या हुई। हर चौराहे और मोड़ पर गैरपंजीकृत दूध के पाउच बिकते हैं, लेकिन उसकी छानबीन करने वाला कोई नहीं है। कहा जा रहा है कि बेड़ो के बच्चे शायद सेंथेटिक दूध पीने के कारण काल के ग्रास बने। लेकिन सवाल उठता है कि क्या सरकार ने आजतक ऐसा कोई प्रावधान किया जिससे ऐसे विद्यालयों में दूषित भोजन की आपूर्ति को रोका जा सके। नवोदय विद्यालय के बच्चों को पूछिये- सभी बच्चे कहते मिलेंगे कि दस लीटर दूध में छात्रावास प्रबंधन 200 छात्रों को भोजन करा देते हैं। क्या आजतक किसी भी जिले के जिलाधिकारी ने इन छात्रावासों का विजिट किया। जवाब है नहीं।
दरअसल, विजिट करना तो दूर इनके पास तो इन सब बातों पर बात तक करने के लिए समय नहीं है। हर कोई अपने स्वार्थ के पीछे अंधा है। अधिकारी को कमीशन से मतलब है, वह समय पर पहुंच जाय, बस। नेताओं का वोट से मतलब है, वह किसी तरह चुनाव जीत जाय बस। आमलोग इतना उदास हो चुका है, कि वह लड़ने से पहले ही समर्पण कर देता है, किसी तरह दिन गुजर जाय, बस। ऐसी गंधाती व्यवस्था में बाल दिवस अगर काला दिवस में बदल जाय तो किस बात का आश्चर्य। सबकुछ बर्दाश्त कर लेना शायद हमारी नियति हो चुकी है। और शायद हम इनके इतने आदि हो चुके हैं कि हमें अब किसी बात पर गुस्सा नहीं आता।

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