शनिवार, 31 जुलाई 2010

रैली में आदमी

अखबारों ने कहा-
"वह इतिहास की सबसे बड़ी रैली थी''
लायी गयी औरतों ने कहा-
"प़ूडी के साथ जलेबी भी बासी थी''
वहां सब कुछ थे
माइक थे, मंच थे
मुद्दे और महंथ थे
रंग-विरंगे शामियानों में एक ही रंग के नारे थे

वे बांध रहे थे हाथ
और बाट रहे थे हथियार
तालियां पीटी जा रही थीं
और मेरे हिस्से की हवा तक बेची जा चुकी थी
उधर
चैनलों पर बलात्कार की तीन खबरें आ चुकी थीं
करीब डेढ़-दो सौ लोगों की "यात्रा''
बीच सफर में ही पूरी हो चुकी थी
कैमरे चमक रहे थे
लिहाफे में छिपे आदमियों के हाथ
जमाने भर में डोलने लगे थे
वे एक और जीत के करीब थे
और अट्ठारह, उन्नीस-बीस के कुछ छोकरे
दीवाने हुए जा रहे थे
वे लगभग "क्रांति'' के करीब थे
मानो सचिन तेंदुलकर ने छक्का मार दिया हो
या विपाशा बसु ने उनके ही जिगर पर बीड़ी सुलगा ली हो

गजब की भीड़ थी, भाई
पर
वहां एक अदद आदमी नहीं था
अपराधबोध से बचने के लिए
मैंने याद की एक भटकी हुई नदी को
डूबती बस्ती को
और
बाढ़ में मारे गये वोट को
उस बुढ़िया को भी
जिसका बेटा अब भी मोर्चे पर मुस्तैद है

मैंने कल्पना की
आदम-जात की अंतिम बांझ स्त्री की
और इस तरह
मैंने बचा ली एक कविता
मेरे पास कोई और उपाय भी तो नहीं था, भाई

5 टिप्‍पणियां:

  1. यह कविता इस बात के लिए भी उल्‍लेखनीय मानी जाएगी कि इसमें कवि साहस को कला की ओर में खड़ा नहीं करता बल्कि कला और साहस की गल‍बहियां करते हुए कविता का आकार लेते हैं। यहां कविता जिस मात्रा में कला है, उसी मात्रा में जीवन संगीत। यह कवि महज लिखने के लिए कुछ नहीं लिखता। कम से कम यह कविता तो यही कहती है।

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  2. Manoj jee, kavita K mulyankan aur ise Charsha me sthan dene ke liye Bahut-bahut Sukriya.

    KOi sandeh nahin kee aap jaison kee rachnatamak sakriyata hee ek din Blog ko Sarthak darja dilayegee...
    Ranjit

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  3. रणजीत जी ,

    आपकी यह कविता सही में बहुत से आयाम को दर्शा रही है....रैली के माध्यम से जो बात आपने कही...और जिस तरीके से कही ..सोचने पर विवश करती है....मन का आक्रोश ढके छिपे शब्दों में व्यक्त होता है ....

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  4. बहुत शशक्त .... कविता के माध्यम का सही उपयोग किया है इस यंत्रणा को उकेरने के लिए ....

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