तारीखें जिंदगी की तरह होती हैं। गुजरने के बाद दोबारा कभी नहीं आतीं। लेकिन उनकी याद हमेशा आती है। वर्ष 2009 जा रहा है। जाते हुए वर्ष ने दुनिया को क्या-क्या दिया ? क्या- क्या लिया ? वही रक्तों से सनी खबरें और बाजारवाद की जानलेवा सबकें। स्वार्थ सिद्धि की नापाक राजनीति, वर्चस्व के लिए टकराव और प्राणों की आहूति और छल-प्रपंच-साजिशों के अनगिनत प्रहसन। खोल बदले पर जानवर नहीं बदला। बुश की जगह ओबामा और अफगानिस्तान की जगह पाकिस्तान आ गया। जरूरत पड़ी तो वाशिंगटन-बीजिंग की भी भाषा एक हो गयी और गरज हुआ तो भारत के स्लमडॉग को भी ऑस्कर पहना दिया गया। उधर तुवालू , किरीबाती और मालदीव जैसे द्वीपीय देश समुद्र-समाधि से बचने के लिए एसओएस का अलार्म बजाते रहे और इधर अमेरिका के नेतृत्व में जलवायु परिवर्तन के बाघ को गरीब देशों की ओर खदेड़ दिया गया। गरीबी और गृह युद्ध से त्रस्त सोमालियाइयों ने पेट के लिए समुद्र में डाका डालना शुरू कर दिया और पश्चिमी देशों ने सोमालियाई सागर को कबाड़खाने में तब्दील कर दिया। कांगो, सूडान, नाइजीरिया और नौरू के शरणार्थी शिविरों में बाल यौन-शोषण से लेकर मानवीय उत्पीड़न के नये-नये अध्याय लिखे जाते रहे। दो जून की रोटी के लिए मानवता शर्मसार होती रही। दूसरी ओर बाजारवादी दुनिया के समनायक अपनी मगरमच्छी ध्यान में ध्यानस्थ रहे। वे 2009 को याद रखना नहीं चाहते। उनकी नजर 2010 और उससे आगे है कि इस वर्ष भारत में दस करोड़ नये लोगों को वे अपने-अपने उपभोक्ता बना पायेंगे। वैसे मंदी को भूलने और टालने की उनकी कवायदें अभी भी जारी हैं और आने वाले सालों में भी जारी रहेंगी। मुमकीन है वे इसमें कामयाब होंगे। उनकी आबादी आज भी बहुत कम है और दुनिया भर के संसाधनों पर उनकी पकड़ लगातार मजबूत होती जा रही है। उनके लंगर के ग्रीप से कुछ नहीं छूट सकता। चाहे तरल तेल हो या फिर ठोस कोयला, उनके लंगर की पकड़ से कोई मुक्त नहीं। खाने से लेकर फरमाने तक वही हैं, वही रहेंगे। और इस बिना पर वे ऐसी कई महामंदियों को धूल चटा देंगे हैं। सरकार से लेकर मीडिया तक अब उनके कब्जे में आ चुके हैं। जो ताकतें प्रतिरोध में खड़ी हो सकती थीं वे या तो खंड-खंड विभाजित हैं या फिर खुद बाजारवादी जमात में जा मिली हैं। चीन ने अपनी जनता की जुबान पर दुनिया का सबसे बड़ा ताला जड़ दिया है और अब वे अमेरिकी बाजारवाद से टक्कर लेने के लिए पूंजी को अमोध अस्त्र मान चुका है। नेपाली माओवादियों की सारी शक्ति सत्ता पाने में खर्च हुए जा रही है।
लेकिन सवा सौ करोड़ वाले भारत ने 2009 में क्या-क्या भोगा। कितना सीखा और कितना बदला। वर्ष 2009 की विदाई की वेला में सवा सौ करोड़ में से सौ करोड़ लोगों के सामने ये सवाल जरूर उठ रहे होंगे। लेकिन महंगाई और मक्कारी राजनीति की दोहरी मार के घावों को लेकर 2010 में प्रवेश करती भारत की यह आबादी शाम होते-होते इतना थक जाती है कि उन्हें सुबह का सबक भी याद नहीं रहता,तो पूरे साल को कैसे याद रखे। इन्हें याद करना उनके लिए लगभग असंभव और अप्रसांगिक है। वे उपभोक्तावाद के हर रस को पी जाने के लिए बेताब हैं और देश-काल-समाज के पचड़े में पड़कर अपने दिन को बोझिल करना नहीं चाहते। कृत्रिम दुनिया के कृत्रिम चित्रों से सजे टीवी चैनलों के सीरियल और हर अनरियल शो को रियल मानकर वे मनोरंजित हैं। फिर भी कुछ लोग है जो तमाम परेशानियों के बावजूद बीते हुए साल को याद करेंगेऔर अकेले में बार-बार खुद से प्रश्न करेंगे कि क्या मनुष्य जाति इतनी लापरवाह और खुदगर्ज भी हो सकती है ? कि एक नेता हजारों करोड़ रुपये को घोटाला कर फिर से निर्वाचित हो सकता है और जनता के बीच सीना तानकर खड़ा हो सकता है। कि वाम-वाम के झांव-झांव में वाम और दहिन का फर्क खत्म हो सकता है और गरीब और गरीब और गरीबों को मारकर और कम वाम को पछाड़ कर अति वाम दस - बीस जान लेकर , झोले में कंडोम और कंधे पर बन्दुक लटकाकर लाल क्रांति ला सकता है। कि सौ करोड़ लोगों के करोड़पति रहनुमा संसद में जनता के पैसे से खुद 5 रुपये में लजीज व्यंजन खायेंगे और जनता की थाली से रोटी-आलू -प्याज़ तक गायब हो जायेंगे । कि गरीब देश की संसद अमीरों का अखाड़ा बन जायेगी । 2009 में ऐसा ही हुआ। चौदहवीं संसद में चार सौ से ज्यादा सांसद करोड़पति हैं और कई दर्जन अरबपति भी हैं।
दरअसल, 2009 को इसलिए भी याद रखा जायेगा कि इस वर्ष देश की राजनीति ने साफ तौर पर बाजारवाद के दरबे में खुद को प्रतिस्थापित करा लिया। 2009 में यह भी साबित हो गया कि भ्रष्टाचार और ईमानदारी में अब कोई अंतर नहीं रह गया है। अगर अंतर होता तो भ्रष्टाचार के स्पष्ट आरोप के बाद दागी न्यायधीशों के खिलाफ एकमत से महाभियोग लाया जाता। मधु कोड़ा जैसे लोग चुनाव नहीं जीतते। बाजार की आड़े आने वाली तमाम बाधाएं रेत की तरह भरभराकर नहीं गिरतीं और आम जन को सहारा देने वाली प्रजातंत्र की तमाम संस्थाएं इस कदर कमजोर दमा ग्रस्त नहीं हो जातीं। क्षेत्रवाद, भाषावाद, जातिवाद और संप्रदायवाद में जनता इतनी बंट चुकी हैं कि उनकी प्रजातांत्रिक हथियार कुंद पड़ गये है। प्रजातंत्र में जनता में एकता होना जरूरी है, लेकिन क्षेत्रवाद, भाषावाद, जातिवाद और संप्रदायवाद ने उन्हें जर्रे-जर्रे में विभाजित कर दिया है। 2009 में विभाजन का यह सिलसिला और तेजी से बढ़ा, जिसका फायदा उठाकर ऐसी शक्तियां दोवारा सत्ता पर काबिज हो गयीं, जिनकी वरीयता में आम जन का कल्याण कभी कोई एजेंडा या सपना नहीं रहा। हां, बाजीगरी के लिए वे कभी दलितों के यहां खा और सो लेंगे, किसी मुस्लिम विश्वविद्यालय में मुस्लिम के प्रधानमंत्री बन जाने की बात करेंगे, लेकिन जब मुंबई की सड़कों पर अपने ही देश के लोगों को अपने ही देश के गुंडे भेड़-बकरी की तरह दौड़ायेंेगे, तो खौफनाक चुप्पी साध लेंगे। और अगले दिन कॉरपोरेट घराने के मुखिया के साथ बैठकर डिनर करेंगे। बिहार की बाढ़ हो या कश्मीर का आतंकवाद, वे चुप्पी साधे रहेंगे।
इन्हीं अनुभवों के साथ हम 2010 में जा रहे हैं। तमाम संकेत यही बताते हैं कि 2010 में हम बाजारवाद के मोह को अपने वाहुपाश में पायेंगे। बिल्कुल तिस्नगी की तरह। और गांवों से किसान आत्महत्या की खबरें एक तो आयेंगी नहीं अगर आयेंगी तो उसे कुछ इस तरह पढ़-सुन लेंगे मानो ये खबरें किसी दूसरी दुनिया से आयी हों। बिल्कुल, बॉस की तरह। बहरहाल, शुभकामना संप्रेषण के साधन और विकसित करेंगे ताकि कोई यह नहीं कहे कि बाजारवाद ने आदमी को आदमी से दूर कर दिया है। हमने हमारे को हैल्लो बोला, विश किया। बसहमारी जिम्मेदारी पूरी हुई। हैप्पी न्यू इयर टू यू...
लेकिन सवा सौ करोड़ वाले भारत ने 2009 में क्या-क्या भोगा। कितना सीखा और कितना बदला। वर्ष 2009 की विदाई की वेला में सवा सौ करोड़ में से सौ करोड़ लोगों के सामने ये सवाल जरूर उठ रहे होंगे। लेकिन महंगाई और मक्कारी राजनीति की दोहरी मार के घावों को लेकर 2010 में प्रवेश करती भारत की यह आबादी शाम होते-होते इतना थक जाती है कि उन्हें सुबह का सबक भी याद नहीं रहता,तो पूरे साल को कैसे याद रखे। इन्हें याद करना उनके लिए लगभग असंभव और अप्रसांगिक है। वे उपभोक्तावाद के हर रस को पी जाने के लिए बेताब हैं और देश-काल-समाज के पचड़े में पड़कर अपने दिन को बोझिल करना नहीं चाहते। कृत्रिम दुनिया के कृत्रिम चित्रों से सजे टीवी चैनलों के सीरियल और हर अनरियल शो को रियल मानकर वे मनोरंजित हैं। फिर भी कुछ लोग है जो तमाम परेशानियों के बावजूद बीते हुए साल को याद करेंगेऔर अकेले में बार-बार खुद से प्रश्न करेंगे कि क्या मनुष्य जाति इतनी लापरवाह और खुदगर्ज भी हो सकती है ? कि एक नेता हजारों करोड़ रुपये को घोटाला कर फिर से निर्वाचित हो सकता है और जनता के बीच सीना तानकर खड़ा हो सकता है। कि वाम-वाम के झांव-झांव में वाम और दहिन का फर्क खत्म हो सकता है और गरीब और गरीब और गरीबों को मारकर और कम वाम को पछाड़ कर अति वाम दस - बीस जान लेकर , झोले में कंडोम और कंधे पर बन्दुक लटकाकर लाल क्रांति ला सकता है। कि सौ करोड़ लोगों के करोड़पति रहनुमा संसद में जनता के पैसे से खुद 5 रुपये में लजीज व्यंजन खायेंगे और जनता की थाली से रोटी-आलू -प्याज़ तक गायब हो जायेंगे । कि गरीब देश की संसद अमीरों का अखाड़ा बन जायेगी । 2009 में ऐसा ही हुआ। चौदहवीं संसद में चार सौ से ज्यादा सांसद करोड़पति हैं और कई दर्जन अरबपति भी हैं।
दरअसल, 2009 को इसलिए भी याद रखा जायेगा कि इस वर्ष देश की राजनीति ने साफ तौर पर बाजारवाद के दरबे में खुद को प्रतिस्थापित करा लिया। 2009 में यह भी साबित हो गया कि भ्रष्टाचार और ईमानदारी में अब कोई अंतर नहीं रह गया है। अगर अंतर होता तो भ्रष्टाचार के स्पष्ट आरोप के बाद दागी न्यायधीशों के खिलाफ एकमत से महाभियोग लाया जाता। मधु कोड़ा जैसे लोग चुनाव नहीं जीतते। बाजार की आड़े आने वाली तमाम बाधाएं रेत की तरह भरभराकर नहीं गिरतीं और आम जन को सहारा देने वाली प्रजातंत्र की तमाम संस्थाएं इस कदर कमजोर दमा ग्रस्त नहीं हो जातीं। क्षेत्रवाद, भाषावाद, जातिवाद और संप्रदायवाद में जनता इतनी बंट चुकी हैं कि उनकी प्रजातांत्रिक हथियार कुंद पड़ गये है। प्रजातंत्र में जनता में एकता होना जरूरी है, लेकिन क्षेत्रवाद, भाषावाद, जातिवाद और संप्रदायवाद ने उन्हें जर्रे-जर्रे में विभाजित कर दिया है। 2009 में विभाजन का यह सिलसिला और तेजी से बढ़ा, जिसका फायदा उठाकर ऐसी शक्तियां दोवारा सत्ता पर काबिज हो गयीं, जिनकी वरीयता में आम जन का कल्याण कभी कोई एजेंडा या सपना नहीं रहा। हां, बाजीगरी के लिए वे कभी दलितों के यहां खा और सो लेंगे, किसी मुस्लिम विश्वविद्यालय में मुस्लिम के प्रधानमंत्री बन जाने की बात करेंगे, लेकिन जब मुंबई की सड़कों पर अपने ही देश के लोगों को अपने ही देश के गुंडे भेड़-बकरी की तरह दौड़ायेंेगे, तो खौफनाक चुप्पी साध लेंगे। और अगले दिन कॉरपोरेट घराने के मुखिया के साथ बैठकर डिनर करेंगे। बिहार की बाढ़ हो या कश्मीर का आतंकवाद, वे चुप्पी साधे रहेंगे।
इन्हीं अनुभवों के साथ हम 2010 में जा रहे हैं। तमाम संकेत यही बताते हैं कि 2010 में हम बाजारवाद के मोह को अपने वाहुपाश में पायेंगे। बिल्कुल तिस्नगी की तरह। और गांवों से किसान आत्महत्या की खबरें एक तो आयेंगी नहीं अगर आयेंगी तो उसे कुछ इस तरह पढ़-सुन लेंगे मानो ये खबरें किसी दूसरी दुनिया से आयी हों। बिल्कुल, बॉस की तरह। बहरहाल, शुभकामना संप्रेषण के साधन और विकसित करेंगे ताकि कोई यह नहीं कहे कि बाजारवाद ने आदमी को आदमी से दूर कर दिया है। हमने हमारे को हैल्लो बोला, विश किया। बसहमारी जिम्मेदारी पूरी हुई। हैप्पी न्यू इयर टू यू...