शुक्रवार, 27 नवंबर 2009

जा सकें तो जरूर जायें

काकोरी कांड भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन की गौरव-गाथा की अमर दास्तान है। यह एक प्रेरणा-दीप है जो हर युग के संघर्ष-मार्ग को प्रज्जवलित करते रहेगा। राम प्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्ला खां, रोशन सिंह और राजेंद्र लाहड़ी के अमर बलिदान की यह कहानी हमें याद दिलाती है कि समाज और राष्ट्र की बेहतरी और भलाई के लिए जान न्योछावर करना, हमारी परंपरा है। स्वकेंद्रित व स्वार्थी जीवन जीने के इस दौर में काकोरी की प्रासंगिकता और बढ़ गयी है। "तीसरा स्वाधीनता आंदोलन' नामक संगठन आगामी 19 और 20 दिसंबर को इन महापुरुषों की याद में एक चिंतन शिविर का आयोजन कर रहा है। आयोजन उत्तर प्रदेश के मुरादाबाद में हो रहा है। आयोजकों का कहना है कि इस अवसर पर शामिल होकर हम देश की वर्तमान चुनौतियों पर राय-मशविरा करेंगे। मुरादाबाद से काफी दूर रहने के कारण मैं इस समारोह में शामिल नहीं हो पाऊंगा, लेकिन आप सबसे इतनी अपील जरूर करूंगा कि अगर आप इसमें शामिल हो सकते हैं तो जरूर होयें।
(आमंत्रण कार्ड को देखने के लिए नीचे क्लिक करें )

बुधवार, 25 नवंबर 2009

मन का 'मधु कोड़ा'

वैसे तो मधु कोड़ा झारखंड के एक पूर्व मुख्यमंत्री का नाम है जिस पर चार हजार करोड़ रुपये से ज्यादा की सार्वजनिक संपत्ति गड़पने के आरोप हैं, लेकिन अगर गहराई में देखें तो सच इतना ही नहीं है। सच यह है कि "मधु कोड़ा' भ्रष्टाचार के इस महाकाल की वह प्रवृत्ति है जिस पर हमारा समाज मंत्रमुग्ध है। "मधु कोड़ा' हमारे समय का वह मादक-सम्मोहन है जिसमें समकालीन समाज तिरोहित हो जाता है। "मधु कोड़ा' समकालीन युग का वह नशा है जिसके सेवन के लिए हम बेचैन हैं। "मधु कोड़ा' आज के युग का सर्वमान्य व्यसन है, ध्येय और लक्ष्य भी है। यह हमारे समय का परम प्रिय पुरुषार्थ बन चुका है। हम इस "मधु-मोहन' के सहारे दोनों लोक जीत लेना चाहते हैं। हम इसके बल पर ही हर प्रतिस्पर्धा में प्रथम आना चाहते हैं। हर परीक्षा उत्तीर्ण कर लेना चाहते हैं।
हर अभिलाषा को तुष्ट, हर मद को तृप्त, हर स्वप्न को साकार कर लेना चाहते हैं। जब देश में कई मेनन, कई लालू, कई करुणानिधि, कई महाजन, कई जैन, हर्षद, तेलगी वगैरह-वगैरह हुए तब जाकर एक मधु कोड़ा निकला। क्योंकि हर अगला कोड़ा पहले के "कोड़ाओं' का ही प्रक्षेपण है।
यह सच कटु हो सकता है, लेकिन झूठ नहीं है। और कड़वा होने से यथार्थ मिथ्या नहीं हो जाता। भले ही हम उसे प्रत्यक्षतः स्वीकार करें या न करें, परन्तु कड़वा होने से चीजें खत्म नहीं हो जातीं। एक आदमी ऑटो रिक्शा चलाता है और ट्रॉफिक पुलिस को दस-बीस का नोट थमाते हुए तीन सीटों वाले रिक्शे में एक दर्जन लोगों को ठूंसते चला जाता है। एक आदमी अखबार-चैनल निकालता है और हर दिन सरकार के सामने अपनी गैरवाजिब मांगों की सूची बढ़ाते रहता है और इसे अपना अधिकार भी समझता है। एक आदमी "एक्सप्रेस सेवा' का किराया लेने के बावजूद हर पांच मिनट पर बस में सवारी को घसीटते जाता है और पांच घंटे की यात्रा को 24 घंटे की नर्क यात्रा में तब्दील कर देता है। कभी-कभी गंतव्य पर पहुंचे बगैर गाड़ी लौटा लेता है। एक सरकारी डॉक्टर अपने निजी क्लिनिक में चौबीसों घंटे उपस्थित रहता है, लेकिन अस्पतलालों में उनका दर्शन भाग्यवानों को ही नसीब होता है। मास्टर साहेब जिला शिक्षा पदाधिकारी को हर माह कमीशन थमाकर अपने कर्त्तव्य से इतिश्री कर लेता है। बगैर एक दिन स्कूल गये वेतन उठा लेता है। प्रोफेसर साहेब लोग वेतन को लेकर आंदोलन करते हैं, लेकिन उन्हें याद नहीं होता कि पिछला क्लास उन्होंने कब एटेंड किया था। प्रखंड-जिले और सचिवालय के बाबू बगैर दान-दक्षीणा लिए बात भी करना नहीं चाहते। थानेदार बगैर चढ़ावा के डग नहीं उठाते, भले ही इस बीच आपके घर को कोई जला दे और खलिहान से अन्न उठा ले जाये। एसी में बैठने वाले आइएएस अधिकारी तब तक खुद को आइएएस नहीं मानते जब तक वे करोड़पति न बन जाये और कई शहरों में उनके फ्लैट्‌स न बन जाये। पत्रकारिता के कैरियर में मैंने करोड़पति नहीं बन पाने का पाश्चाताप-विलाप करते कई आइएएस-आइपीएस को नजदीक से देखा-सुना है। ऐसे अधिकारी अपने करोड़पति मित्र का उदाहरण देकर, बहुत व्यथित हो जाते हैं। धर्म, दर्शन, अध्यात्म के मसीहा को जब तक हवाई जहाज और पंच सितारा होटल के टिकट नहीं मिल जाते, वे प्रवचन के लिए तैयार नहीं होते। पवित्र तीर्थ स्थानों में पंडे को पैसे दे दीजिए, तो आपको घंटों लाइन में लगकर अपनी बारी का इंतजार नहीं करना पड़ेगा।
इस प्रवृत्ति को आप क्या कहेंगे ? क्या यह "मधु कोड़ा' प्रवृत्ति नहीं है ? कुछ लोग इससे इंकार कर सकते हैं। वे कह सकते हैं कि मधु कोड़ा के महाभ्रष्टाचार से इनकी तुलना नहीं हो सकती ? कोड़ा के अपराध के सामने इनके अपराध बहुत छोटे हैं। कहां कोड़ा और कहां बेचारा ऑटो रिक्शा चालक ! यह हद हो गया !
मैं भी तुलना नहीं कर रहा ? मैं तो बस प्रवृत्ति की बात कर रहा हूं और प्रवृत्ति छोटी-बड़ी नहीं हो सकती। वह या तो होगी या नहीं होगी। अगर आप ऑटो चलाकर पांच सौ रुपये का घपला कर सकते हैं, तो कल अगर आपके जिम्मे सरकार की स्टेयरिंग होगी तो आप पांच हजार करोड़ का घोटाला कर लेंगे। गांव का फकड़ा (कहावत) है- पहले लत्ती चोर (साग-सब्जी चुराने वाला), फिर सेंगा चोर (सेंग लगाकर चोरी करने वाला) और फिर कट्टा चोर (बंदूक के बल पर डाका डालने वाला) । कोड़ा की ही बात कर लें। वह आदमी पंद्रह वर्ष पहले एक खान- मजदूर था। पहली बार विधायक बना था और रांची में एक दिन मेरे साथ लोहे के टूटे खंभे पर बैठकर दो घंटे बात किया था । आज अगर उस दिन के मधु कोड़ा को याद करता हूं, तो लगता है किसी फिल्म के दृश्य को याद कर रहा हूं। गांव से रांची पहुंचा, उस विधायक ने रांची में इस युग का पहला पाठ सीखा। कि जीवन में आगे बढ़ना है, तो पैसे बनाओ। पैसे बनाकर ही वह मंत्री बना, फिर मुख्यमंत्री और बाद में बिलिनेयर। पैसे के बल पर उसने वोटरों को खरीदा। पैसे के बल पर उसने राष्ट्रीय पार्टियों को खरीदा। विदेश में खान, बंदरगाह, रिसॉर्ट और न जाने क्या-क्या खरीदा। लेकिन किसने उसे टोका ? जिन पार्टियों ने उसे मुख्यमंत्री बनाया था, उनके आला नेता सब कुछ देख रहे थे। लेकिन चुप थे क्योंकि वे भी लूट में शामिल थे। देश की सर्वोच्च प्रतिभा कहे जाने वाले आइएएस और आपीएस , उनके साथ कदमताल कर रहे थे। क्यों ? क्योंकि वे भ्रष्टाचार को दिनचर्या का हिस्सा मान चुके हैं । क्योंकि उन्हें इन चीजों से कोफ्त नहीं होती।
लेकिन नशा चाहे जितना भी मादक हो, वह टॉनिक नहीं हो सकता। भ्रष्टाचार का अल्जेबरा समाज की ज्यामिती और त्रिकोणमिति से स्वतंत्र नहीं है। हो ही नहीं सकता। हर भ्रष्टाचार किसी-न-किसी का हक छीनता है। समाज का अल्जेबरा सीधा है- आप उतने ही धन के हकदार हैं जितने आप इस समाज को अपने श्रम से लौटाते हैं। अगर आप उससे ज्यादा ले रहे हैं, तो इसका सीधा अर्थ है कि आप किसी-न-किसी का हक मार रहे हैं। यकीन मानिये, भ्रष्टाचार का वजूद इसलिए है क्योंकि देश की 60 करोड़ ग्रामीण आबादी को पता नहीं कि उनके हक मारे जा रहे हैं। यह आबादी भ्रष्टाचार के इस खेल में अभी भी शामिल नहीं हुई है। ये इस खेल के समझदार दर्शक-प्रेक्षक भी नहीं बन सके हैं। जिस दिन यह आबादी इस खेल में शामिल हो जायेगी, उस दिन समाज को ध्वस्त होने से कोई नहीं रोक सकेगा। इतिहास साक्षी है। धर्म ग्रंथ साक्षी हैं। जब अधर्म धर्म पर हावी हो जाता है, तो विनाश होता है। जब अन्याय और न्याय की दूरी खत्म हो जाती है, तो धरती रक्तों से भीग जाती है। हम महाभारत की कहानी जानते हैं, लेकिन इसके संदेश को भूल बैठे हैं।
पुनश्चः विचारों की स्थापना के लिए इस लेख में मैंने सामान्यीकरण का सहारा लिया है, हालांकि मैं जानता हूं कि हमारे समाज में आज भी कुछ लोग हैं जो ईमानदारी के साथ हैं। वे इस सामान्यीकरण के हिस्सा नहीं हैं और पूज्यनीय हैं ।

रविवार, 22 नवंबर 2009

लोग, चोर और वोट

लोग !
लोग ही लोग
कुछ सोये हुए लोग
कुछ रोये हुए लोग
बाकी
मरे हुए लोग
शायद, करेंगे वोट
चोर !
चोर ही चोर
कुछ आगे से चोर
कुछ पीछे से चोर
बाकी
विचाराधीन चोर
शायद, लेंगे वोट
 
 

रविवार, 8 नवंबर 2009

किस देश में है यह दियारा

दहाये हुए देस का दर्द- 58
कोशी नदी का पानी सूखते ही फरकिया के किसानों की नींद उड़ने लगी है। वजह, जान पर खतरा। फसलों की लूट। मवेशी की लूट। पिछले डेढ़ दशक से दियारा में यह परिपाटी-सी बन गयी है कि पानी सूखने के साथ ही यहां अपराधियों का राज हो जाता है।कोशी की गिरफ्त se मुक्त होते ही अपराधी इलाके को अपने आगोश में ले लेते हैं । आपराधिक गिरोह ही इलाके के कानून, इलाके का संविधान और इलाके के भगवान बन जाते हैं। ये या तो किसानों की जमीन पर कब्जा कर स्वयं फसल उगाते हैं या फिर किसानों से बीघे के हिसाब से लेवी वसूलते हैं। जैसे सवै भूमि अपराधियों कीहो गयी हो... वे खुद को इलाके की सरकार मानते हैं और किसानों से लेवी लेने को गलत नहीं मानते। हालांकि राज्य सरकार को सब कुछ मालूम है, लेकिन वह हमेशा बाल -अनभिज्ञता प्रकट करती है। पूछियेगा तो पुलिस कहेगी, ' ऐसा नहीं है।' लेकिन सच यह है कि अपराधियों से लड़ने के लिए पुलिस कभी दियारा नहीं जाती। हां, इधर अब नक्सली जरूर पहुंचने लगे हैं।
अक्टूबर माह में दियारा का पानी सूख जाता है। इसके बाद शुरू होता है नदी के पेट से निकली जमीनों और जमीन-उत्पादों पर दखल की लड़ाई। सहरसा जिले के राजनपुर पंचायत के हजरबीघी, धर्मपुर, सिरसीया, कोहबरवा, रकठी, सिमरटोका पंचायत के टिकुलवा, नहरवार पंचायत के बघौर, कडुमर पंचायत के आगर, दह, कनरिया, चिड़ैया ओपी के रैंठी, चिड़ैयां, चिकनी, खैना, बीहना, गोलमा आदि गांवों के हजारों एकड़ जमीन में उगे कास को लेकर हर साल लाशें गिरती हैं। भूमि पर कब्जा कर अपराधी या तो स्वयं केलाय एवं खेसारी छींट देता है या फिर इसके एवज में किसानों से लेवी की वसूली करता है। लोग अपनी ही जमीन में बटाईदार बन जाते हैं। कोई थाना, कोई कानून या कोई न्यायालय इनकी रक्षा के लिए नहीं आते। किसी तरह नवंबर बीतता है, इसके बाद मकई (दियारा की मुख्य फसल) कटाई के लिए बंदूक गरजने लगती है। राजनपुर के किसान कपिलेश्वर सिंह अपनी पीड़ा सुनाते कहते हैं, ' अपराधियों के डर से जमीन को बटाई पर लगा दिए हैं । कौड़ी का दाम भी मिलेगा तो जमीन बेचकर गांव से भाग जाऊंगा।' सिंह कहते हैं, 'इससे तो अच्छा होता कि नदी का पानी कभी सूखता ही नहीं। इससे तो अच्छा बाढ़ ही है। कम से कम बाढ़ के समय जमीन पर कब्जे के लिए खून तो नहीं बहते हैं।' एक दूसरे किसान फूलबाबू भगत कहते हैं, ' पहले से ही, अपराधी किसानों को लूट ही रहे थे, अब तो नक्सलियों का भय भी सताने लगा है। अब तो डर के कारण कोई भी किसान किसी जमीन पर खेती करना नहीं चाहता। पसीना बहाकर फसल किसान लगायेंगे और काट कर ले जायेंगे अपराधी। ऐसी किसानी से तो भिखमंगी ठीक। पांच माह पहले मेरी धान की फसल को अपराधियों ने लूट लिया। हमने थाने में मामला भी दर्ज कराया, लेकिन पुलिस कुछ नहीं कर सकी।'
जी हां, यह है सहरसा और खगड़िया जिले का दियारा इलाका। खगड़िया के अमौसी बहियार के नरसंहार के बाद सरकार ने इस इलाके में प्रशासन की पहुंच बढ़ाने की घोषणा की है। लेकिन इन किसानों के बयानों से आपको लगता है कि दियारा में कोई प्रशासन है। जी नहीं। यहां कभी कोई प्रशासन न कल था न आज है। पहले समाज की बंदिशें थी, मूल्य और मर्यादाएं थीं, जो अनजाने में ही प्रशासन का काम कर देती थीं। गांव में पंचायत कर लोग किसी भी तरह के मामले का निष्पादन गांधीवादी तरीके से कर लेते थे। लेकिन सामाजिक विघटन के इस दौर में अब समाज की नैतिक शक्ति खत्म हो चुकी है। इंसान पैसे, वर्चस्व और संसाधन के लिए कुछ भी कर सकता है। दियारा में सरकार नहीं है, लेकिन उपभोक्तावाद है। यह उपभोक्तावाद कितनी महीन चीज है जी ? कहावत बदल दीजिए- जहां न पहुंचे रवि , वहां पहुंचे उपभोक्तावाद। अपराध , अतिवाद और बन्दूक ...