गुरुवार, 30 अक्तूबर 2008

आइह भ्रातिद्वितिया के दिन हे

अंगना नीप बहिना अरिपन काढ़े
आइह भ्रातीद्वतिया के दिन हे ...
डोय़्‌ढी पर टाढ़ बहिना रस्ता निहारे
एही बाट औता भैया मोर हे...
(आंगन को गोबर-मिट्टी से पवित्र कर बहन अरिपन काढ़ रही है, क्योंकि आज भ्रातिद्वितिया का दिन है। डोय़्‌ढी पर खड़ा हो के बहन रास्तों को निहार रही है और सोच रही है कि इसी रास्ते से मेरे भैया आयेंगे)
यह मैथिली का एक लोकगीत है। भ्रातिद्वितिया पर्व के अवसर पर कोशी-अंचल की बहनें यह गीत गुनगुनाती हैं। इस पर्व की शुरुआत कैसे हुई इसका कोई प्रमाणिक इतिहास नहीं है। इसे लेकर तरह-तरह की मिथकें प्रचलित हैं। लेकिन सबसे तर्कसंगत मिथक, जिससे अधिकतर विद्वान सहमत हैं वह सीधे-सीधे कोशी-अंचल के बीहड़ भूगोल से जुड़ती है। इसके अनुसार पूर्वी बिहार के लोग सदियों से हिमालय से निकलने वाली नदियों से प्रताड़ित होते रहे हैं। बरसात के चार महीने यथा आषाढ़, सावन, भादो और

आश्विन
(चाैमासा) में ये नदियां उमड़ जाती थीं। नदियों की बाढ़ के कारण रास्ता-बाट बंद हो जाते थे। लोग चार महीनों तक अपने बंधु-बांधव, हित-मीत, कर-कुटुम्बों से कट जाते थे। उस जवाने में दूरसंचार का कोई अन्य माध्यम था नहीं, इसलिए बरसात ॠतु के
खत्म होने के
बाद लोग अपने सगे-संबंधियों का हाल-समाचार जानने के लिए व्यग्र हो उठते थे। पता नहीं किस गांव का क्या हाल है ? हैजा, मलेरिया और डायरिया ने कितने को काल-कलवित कर लियाहोगा !! चूंकि कार्तिक मास आते-आते नदी-नाले उतर जाते थे और पानी कम होने के कारण आवागमन सुगम हो जाता था। इसलिए बहनों का हाल लेने के लिए भाई भ्रातिद्वितिया के दिन उनके ससुराल पहुंचते थे। इससे जहां भाई-बहन के रिश्ते तिरोहित होते, वहीं दोनों परिवार नदियों से दिए गये दुखों को भी आपस में बांटकर जी हल्का कर लेते थे। पर्व के सामाजिक महत्व का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि जिन बहनों के अपने सगे भाई नहीं होते उनके चचेरे, ममेरे, फूफेरे आैर यहां तक की मुंहबोले भाई इस रश्म को पूरा करते। कालांतर में समाज के भूगोल, अर्थशास्त्र और भावशास्त्र में बदलाव हुए और भ्रातिद्वितिया भी अनिवार्यता की स्थिति से उतरकर आैपचारिकता के खांचे में आ गया। अभिजात वर्गों ने आर्थिक और उपभोक्तावादी उन्नति की होड़ में पहले इससे किनारा किया और बाद के वर्षों में मध्यमवर्गीय लोगों ने भी इससे अलग होना शुरू कर दिया। लेकिन निम्नमध्यमवर्गीय और निम्न वर्गीय लोग इसे आजतक अपने सीने से लगाये हुए हैं। एक अमूल्य निधि की तरह।
सुबह आठ बजे मैं मधेपुरा के बस अड्डे पर खड़ा हूं। आज बस, टैक्सी, रिक्शे, टमटम वालों की चांदी है। महिंद्रा कंपनी की 12 सीट वाली जीप पर उसका चालक तीस-तीस आदमी को बिठा रहा है। ये बहनों के यहां जा रहे भाईयों की भीड़ है। हर भाई के हाथ में मोटरी (गठरी) है। मोटरी में चिउड़ा है, मूड़ही है, पिरकिया है और साड़ी भी है। लेकिन जीप वाले, बस वाले, टमटम वाले इन मोटरियों से परेशान है।
मैं मधेपुरा से भीमनगर के लिए चली जीप पर सवार हुआ हूं। मुझे बीरपुर जाना है। कोशी की काली बाढ़ के बाद भी मेरी छोटी बहिन ने इस शहर को नहीं छोड़ा। इस जीप में 20-22 अन्य भाई भी सवार हैं। किसी को नेपाल जाना है, तो किसी को
कुनौली... लेकिन बीरपुर जाने वाले भाइयों की संख्या काफी कम है। अगर कोशी-कांड न हुआ होता, तो इस जीप पर सबसे ज्यादा बीरपुर जाने वाले भाई ही होते।
इन भाइयों और बस कंडक्टर के बीच लगातार बकझक हो रहा है। भाड़े को लेकर, बैठने के लिए सीट को लेकर, ड्राइवर द्वारा जीप को बारबार रोकने को लेकर ... 45-50 किलोमीटर का यह सफर, इसके अंदर की बतकही, रगड़- झगड़ और गप्पशप मुझे काफी मजेदार और मार्मिक लगा। इसलिए आपके साथ बांट रहा हूं।
जीप वाला एक भाई से- इसका भी भाड़ा लगेगा !!!
किसका ?
इस मोटरी का...
काहे ?
गाड़ी में जगह नहीं है, मोटरिये से भर गिया है, मोटरी उघेंगे, तो सवारी को कहां बैठायेंगे ?
अपना कपार (सिर) पर बैठा लो... मोटरी के भाड़ा लेगा सरबा, इहह !!!
देखिये गैर (गाली) मत पढ़िये, सो कह देते हैं...
सहयाित्रयों का हस्तक्षेप...
अरे छोड़ो भी भाई। भरिद्धतिया (भ्रातिद्वितिया) के भार (पकवान) है। तुमको बहिन नहीं है क्या ???
कंडक्टर चुप हो जाता है। एक पल के लिए वह खो जाता है कहीं, किसी शून्य में।
मुझे लगता है शायद उसे अपने बहन की याद आ गयी । वह किसी समझदार बालक की तरह चुप हो गया।
एई बढ़ाके, बढ़ाके...
सिमराही, करजाइन, भीमनगर, रानीगंज...
सरबा आब कहां बैठायेगा रे ?? सीधे चलो, मादर... रोडो खतमे है ! अई भाई साहेब , थोड़ा खिसक के बैठिये न। कहां खिसके? सुईया घसकने जगह नहीं है आउर आप कहते हैं, घसकिये ...
एई ड्राइवर ? जल्दी-जल्दी हांको ने रे ? हमको साला, राजबिराज (नेपाल) जाना है, बहिन रास्ता देख रही होगी...
चलिये तो रहे हैं, का करें चक्का के जगह अपना मुंडी लगा दें गाड़ी में ...
आप कहां जाइयेगा भाई साहेब ?
हम बीरपुर...
बीरपुर कें कहानी तें मते पूछिये। खतम हो गिया पूरा शहर। एक ठो सेठ हमको एक दिन सहरसा में भेटाया था, बोल रहा था। दादा 2200 टका (रुपया) लेकर राजस्थान से बीरपुर आये थेआैर 2100 रुपये का सरकारी राहत लेकर अपन देस जा रहे हैं। पचास वर्षों तक बिजनेस किया। कमाकर जमीन-जगह, घर-द्वार सब बनाया। लेकिन एके राति (रात) में माय कोशिकी सब बहाकर ले गयी। बहुत खराब दृश्य है। हमर दादा अगर आज जिंदा रहते तो उनसे हम कहते- तू कि देखलह कोशी नांच, लांच ते देखलिय हम सब (आप क्या देखे थे कोशी का तांडव रूप, तांडव कोशी को तो हमलोगों ने इस बार देखा)। दोहाई माय कोशिकी ?
...मुर्लीगंज तें भाई साहेब साफे बर्बाद हो गया ?
आउर छातापुर (एक तीसरे यात्री का हस्तक्षेप) ?
हं, हं छातापुरों तें उजड़ गिया ?
गाड़ी तेज चलाओ रे मादर... कंडक्टर !!
कहते हैं गाली नहीं दीजिए। अरे सरबा तूं हमर बेटा के उमर के है, तोरा मादर.. . बोलेंगे तो तूं गाली मानेगा !!!
हा-हा-हा ... पूरी जीप ठहाका से गूंज जाती है।
सरबा तहूं कोशी जइसे गरमा रहा है रे। कंडक्टर फिर झेंप गया।
फिर कोशी की गाथाएं शुरू हो जाती हैं। बीच-बीच में लोग घड़ी की ओर देखकर चालक-कंडक्टर को गलियां देते हैं। तीन बजे जीप भीमनगर पहुंच जाती है। जो लोग बाढ़ के बाद पहली बार यहां पहुंचे हैं - वह आश्चर्यचकित होकर इस शहर को निहारने लगते हैं। उन्हें भीमनगर को पहचानने में दिक्कत्‌ हो रही है, क्योंकि कोशी ने इस शहर का चेहरा बिगाड़कर रख दिया है। लेकिन मैं उस शहर की ओर जा रहा हूं , जहां कोशी कांड के दरिंदों का मुख्यालय भी और जो शहर इस बाढ़ में पूरी तरह नेस्तनाबूद हो गया है। शहर बीरपुर ! मेरी बहन इसी शहर में है!! और आज मैं भी बीरपुर में हूं क्योंकि
आइ भ्रातिद्वितिया के दिन हे...

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