गुरुवार, 13 नवंबर 2008

सर्द-रात की सुरंग

दहाये हुए देस का दर्द -19
सामने सर्द-रात की लंबी सुरंग है
और मेरी शाम लगातार पतली हो रही है
मेरी जिंदगी की बाती
डूबते दिवाकर और चमकते चांद के बीच
दोनों सिरों से सुलग रही है
मेरी स्मृतियों से लोरियां गुम हो रही हैं
क्योंकि अब बच्चों ने इसके बगैर सोना सीख लिया है
मानव इतिहास के कलंकित पन्ने
मेरे चित के भीत पर चिपकते जा रहे हैं
कांगो, युगांडा, बुरुंडी, हैती
कहर, बेघर, बाढ़ और कोशी
भूख, भय, बेघर और बेटी
रोटी-रोटी-रोटी-रोटी
सामने सर्द-रात की लंबी सुरंग
और मेरी शाम पिघल रही है
अंधियारों में
झुग्यिां बहुत भयावह लग रहीं हैं
ऐसा लगता है जैसे ये शिविर नहीं
हंसते-खेलते घरों का कब्रगाह हों
नींद के लिए संघर्षरत आंखें
आंखें नहीं हादसे का पुनर्पाठ हों
सामने सर्द-रात की लंबी सुरंग
और मेरी शाम दफ्न हो रही है

1 टिप्पणी:

Udan Tashtari ने कहा…

हृदयस्पर्शी रचना है.बेचैन कर रही है.