183 वर्ष पहले आज ही के दिन हिन्दी का पहला समाचार पत्र - उद्दंत मार्तण्ड प्रकाशित हुआ था, इसलिए हर साल 30 मई को पत्रकारिता दिवस मनाया जाता है। यह अभिव्यक्ति और सूचना संप्रेषण के कार्यों में लगे पत्रकारों के लिए खास दिन तो है ही साथ ही जो इस पेशे में नहीं हैं उनके लिए भी विशेष तारीख है। चूंकि पत्रकारिता की उत्पति मनुष्य की बुनियादी जरुरत - विचार की स्वतंत्रता, विचार की अभिव्यक्ति और सूचनाओं के साझेकरण से हुई है; इस कारण भी आज का दिन हर किसी के लिए खास है। 183 वर्षों के लंबे सफर के बाद आज अपने देश की पत्रकारिता कहां पहुंची है ? पत्रकारिता आज किस पड़ाव पर है ? आज उसका चरित्र कैसा है ? आज वह जिस चरित्र को जी रहा है वह उसे आने वाले दिनों में किस भविष्य की ओर ले जायेगा ? जो भूमिका आज वह निभा रही है और जिस चरित्र को पत्रकारिता आज जी रही है, वे उनकी प्रासंगिकता को जिंदा रख पायेंगे भी कि नहीं ? ये कुछ ऐसे चीखते सवाल हैं, जो आज की पत्रकारिता के ललाट पर सिद्यत से चिपके हुए हैं ? समाज इसका जवाब पत्रकारों से मांग रहा है, जबकि जवाब उनके हिस्से से भी आने चाहिए । और मुझे लगता है कि आखिरकार समाज को ही इस सवाल का जवाब ढूंढना होगा।
बहुतेरे लोग आज पत्रकारों और पत्रकारिता की भूमिका पर सवाल उठाते हैं। हालांकि उनकी असहमति के कारण अलग-अलग होते हैं। कोई पत्रकारिता से गायब होती सुचिता पर गहरा क्षोभ प्रकट कर रहा है, तो कोई उसे अपने मूल सरोकार से भटका हुआ करार दे रहा है। कोई पत्रकारिता से इसलिए खफा है कि वह उसके वाद (इज्म) में फिट नहीं होता । कोई पत्रकारिता के पूर्वाग्रह से त्रस्त है तो कोई खबरों से गायब होती संवेदनशीलता के कारण निराशा प्रकट कर रहे हैं। सवालों के अगले अध्याय में तो सीधे-सीधे पत्रकारों को संदेह के घेरे में ले लिया जाता है। बहुतेरे लोग और अक्सर साधन-शक्ति से संपन्न लोग पत्रकारों पर नैतिक पतन, भ्रष्टाचार, दोमुंहें व्यवहार के आरोप लगाते हैं और अपने निजी या सुने-सुनाये अनुभवों के आधार पर सारे पत्रकारों को भ्रष्ट और च्यूत घोषित कर देते हैं। हैरानी तो तब होती है जब मीडिया के सहारे रातों-रात स्टार बनने वाले भी किसी एक पत्रकार, अखबार या टेलीविजन की किसी रिपोर्ट के आधार पर पूरे मीडिया को ही नकारा और पथभ्रष्ट करार देते हैं। इनमें नेता, अधिकारी, न्यायमूर्ति, खिलाड़ी और अभिनेता तक शामिल हैं। ऐसे लोग मीडिया से हमेशा मनपसंद कार्यक्रम-रिपोर्ट की ही उम्मीद रखते हैं । गोया मीडिया, मीडिया न होकर कोई हिट फिल्म हो!
मेरे विचार से ऊपर हमने जिन सवालों पर विचार किए वे सभी आधे-सच हैं और आधे झूठ। सच इसलिए कि आज कोई भी पत्रकार यह नहीं कह सकता कि पत्रकारिता का दामन पाक-साफ है। झूठ इसलिए कि इन दागों के लिए अंततः समाज जिम्मेदार है और उनके आरोप असल में उनकी पलायनवादी या स्वार्थी मानसिकता से उपजते हैं न कि तटस्थ मूल्यांकन से। आखिर हम यह क्यों नहीं सोचते कि पत्रकारिता भी इसी समाज का एक अंग है। पत्रकारिता में भी इसी समाज के लोग आते हैं।अखबार जन्नत से छपकर धरती पर नहीं उतरते। आज जब समाज का जर्रा-जर्रा बाजारवादी व्यवस्था और उसके आदर्शों में आकंठ डूब चुका है, तो पत्रकार उससे कैसे मुक्त रहे। समाज रुपये की अराधना कर रहा हो, उसी से प्रेरित, उसी से मोहित हो तो पत्रकार कलम से कितना अलख जगा पायेगा? पत्रकारिता में परिवर्तन की आस लेकर आने वाले पत्रकारों से, जिन्होंने मालिकों के एजेंडा को पब्लिक पर नहीं लादा और एक क्षण में बेरोजगार हो गये; क्या आज तक किसी ने उनसे पूछा कि उनके घर में दो दिनों से चूल्हे क्यों नहीं जले? कलम को बंदूक के बल पर चुप करा देने वालों के खिलाफ क्या किसी भी समाज ने आज तक सड़कें जाम की? यह कैसा विरोधाभास है ? एक तरफ अश्लील और उत्तेजक सामग्रियों पर आंसू भी बहाई जाती हैं और दूसरी ओर उनकी टीआरपी भी बढ़ती रहती है?
दरअसल कलम की स्याही दवात से नहीं संवेदनशील और जागरूक समाज से आती है। अगर समाज ही सो जायेगा तो स्याही को सूखने से कोई नहीं रोक सकता ?पत्रकारिता की प्रासंगिकता को अगर बचाये रखना है जोकि उसकी तटस्थता, विश्वसनीयता और वस्तुनिष्ठता से आती है, तो पत्रकारों और अखबारों के मालिकों को भी अपनी सोच बदलनी होगी। इसे लाभ कमाने वाला व्यवसाय समझने की जीद त्यागनी होगी। मीडिया को औजार या फ़िर पावर लॉबी में पहुँचने का रास्ता समझने के बाल-हठ से मुक्ति पानी हगी । क्योंकि पत्रकारिता विशुद्ध बाज़ार नहीं है और है भी तो कुछ दूजा किस्म का । यहां विश्वसनीयता खत्म, तो दूकान बंद।
बहुतेरे लोग आज पत्रकारों और पत्रकारिता की भूमिका पर सवाल उठाते हैं। हालांकि उनकी असहमति के कारण अलग-अलग होते हैं। कोई पत्रकारिता से गायब होती सुचिता पर गहरा क्षोभ प्रकट कर रहा है, तो कोई उसे अपने मूल सरोकार से भटका हुआ करार दे रहा है। कोई पत्रकारिता से इसलिए खफा है कि वह उसके वाद (इज्म) में फिट नहीं होता । कोई पत्रकारिता के पूर्वाग्रह से त्रस्त है तो कोई खबरों से गायब होती संवेदनशीलता के कारण निराशा प्रकट कर रहे हैं। सवालों के अगले अध्याय में तो सीधे-सीधे पत्रकारों को संदेह के घेरे में ले लिया जाता है। बहुतेरे लोग और अक्सर साधन-शक्ति से संपन्न लोग पत्रकारों पर नैतिक पतन, भ्रष्टाचार, दोमुंहें व्यवहार के आरोप लगाते हैं और अपने निजी या सुने-सुनाये अनुभवों के आधार पर सारे पत्रकारों को भ्रष्ट और च्यूत घोषित कर देते हैं। हैरानी तो तब होती है जब मीडिया के सहारे रातों-रात स्टार बनने वाले भी किसी एक पत्रकार, अखबार या टेलीविजन की किसी रिपोर्ट के आधार पर पूरे मीडिया को ही नकारा और पथभ्रष्ट करार देते हैं। इनमें नेता, अधिकारी, न्यायमूर्ति, खिलाड़ी और अभिनेता तक शामिल हैं। ऐसे लोग मीडिया से हमेशा मनपसंद कार्यक्रम-रिपोर्ट की ही उम्मीद रखते हैं । गोया मीडिया, मीडिया न होकर कोई हिट फिल्म हो!
मेरे विचार से ऊपर हमने जिन सवालों पर विचार किए वे सभी आधे-सच हैं और आधे झूठ। सच इसलिए कि आज कोई भी पत्रकार यह नहीं कह सकता कि पत्रकारिता का दामन पाक-साफ है। झूठ इसलिए कि इन दागों के लिए अंततः समाज जिम्मेदार है और उनके आरोप असल में उनकी पलायनवादी या स्वार्थी मानसिकता से उपजते हैं न कि तटस्थ मूल्यांकन से। आखिर हम यह क्यों नहीं सोचते कि पत्रकारिता भी इसी समाज का एक अंग है। पत्रकारिता में भी इसी समाज के लोग आते हैं।अखबार जन्नत से छपकर धरती पर नहीं उतरते। आज जब समाज का जर्रा-जर्रा बाजारवादी व्यवस्था और उसके आदर्शों में आकंठ डूब चुका है, तो पत्रकार उससे कैसे मुक्त रहे। समाज रुपये की अराधना कर रहा हो, उसी से प्रेरित, उसी से मोहित हो तो पत्रकार कलम से कितना अलख जगा पायेगा? पत्रकारिता में परिवर्तन की आस लेकर आने वाले पत्रकारों से, जिन्होंने मालिकों के एजेंडा को पब्लिक पर नहीं लादा और एक क्षण में बेरोजगार हो गये; क्या आज तक किसी ने उनसे पूछा कि उनके घर में दो दिनों से चूल्हे क्यों नहीं जले? कलम को बंदूक के बल पर चुप करा देने वालों के खिलाफ क्या किसी भी समाज ने आज तक सड़कें जाम की? यह कैसा विरोधाभास है ? एक तरफ अश्लील और उत्तेजक सामग्रियों पर आंसू भी बहाई जाती हैं और दूसरी ओर उनकी टीआरपी भी बढ़ती रहती है?
दरअसल कलम की स्याही दवात से नहीं संवेदनशील और जागरूक समाज से आती है। अगर समाज ही सो जायेगा तो स्याही को सूखने से कोई नहीं रोक सकता ?पत्रकारिता की प्रासंगिकता को अगर बचाये रखना है जोकि उसकी तटस्थता, विश्वसनीयता और वस्तुनिष्ठता से आती है, तो पत्रकारों और अखबारों के मालिकों को भी अपनी सोच बदलनी होगी। इसे लाभ कमाने वाला व्यवसाय समझने की जीद त्यागनी होगी। मीडिया को औजार या फ़िर पावर लॉबी में पहुँचने का रास्ता समझने के बाल-हठ से मुक्ति पानी हगी । क्योंकि पत्रकारिता विशुद्ध बाज़ार नहीं है और है भी तो कुछ दूजा किस्म का । यहां विश्वसनीयता खत्म, तो दूकान बंद।