मंगलवार, 22 सितंबर 2009

हमें अब भी है यकीन

प्रिये,
हम आज भी उसी क्षण में हैं
या फिर उसकी बारंबारता में हैं
आज भी
उठा ले जाते हैं ताकतवर
हमारे खलिहानों से अन्न
आैर कर देते हैं बेदखल
हमें हमारी ही जमीन से
प्रिये,
हम आज भी उसी क्षण में हैं
या फिर उसकी बारंबारता में हैं
आज भी
बेहिचक चलते हैं
हमारे पेटों पर लात
विरोध करने पर
अपना ही खेत, बन जाता है जालियावाला बाग
प्रिये,
हम आज भी उसी क्षण में हैं
या फिर उसकी बारंबारता में हैं
आज भी
हम हंस नहीं सकते
भर मुंह हंसी, जिसे तुम हंसी कह सको
और नहीं जी सकते
कोई जिंदगी, जिसे तुम जिंदगी कह दो
प्रिये,
हम आज भी उसी क्षण में हैं
या फिर उसकी बारंबारता में हैं
आज भी
हमें सुनाई देती हैं
घोड़ों की टाप
भाले-तोप और बरछियों की आवाज
और दिखाई देते हैं
हमारी छतों से लटकती, उनकी तलवार
प्रिये ,
आज भी हम उसी क्षण में हैं
या फिर उसकी बारंबारता में हैं
आज भी
बनते हैं
इंसान के लहू से इंसान का राज
आदमी के खाल से आदमी का ताज
हमारी आह से उनका दरबार
प्रिये,
हम आज भी उसी क्षण में हैं
या फिर उसकी बारंबारता में हैं
लेकिन, आज भी
नहीं टूटा है हमारा तिलिस्म
बिखरी नहीं है उम्मीद
हमें अब भी है यकीन, हमें अब भी यकीन
 

5 टिप्‍पणियां:

Udan Tashtari ने कहा…

हम आज भी उसी क्षण में हैं

-सही कहा हम आज भी उसी क्षण में हैं.

रंजना ने कहा…

कितना सही कहा आपने....

आह और आशा को एक साथ नियोजित कर आपने जो कविता रची,बस मुग्ध ही कर लिया उसने तो....

बेनामी ने कहा…

इसे ही सच्चा प्यार कहते हैं।
वैज्ञानिक दृ‍ष्टिकोण अपनाएं, राष्ट्र को उन्नति पथ पर ले जाएं।

इष्ट देव सांकृत्यायन ने कहा…

हम आज भी उसी क्षण में हैं
या फिर उसकी बारंबारता में हैं

यक़ीन बना रहे.

जय श्रीवास्तव ने कहा…

ये और दहाये-----,की सीरीज,तुम्हारे प्रयासों के दस्तावेज हैं. निरंतरता का दबाव अपना काम करता है.मैं प्रभावित हूँ .