मंगलवार, 8 फ़रवरी 2011

बाजार के हवाले खेत, भूख के हवाले पेट

सभी संकेत यही बता रहे हैं कि देश की कृषि तेजी से कॉरपोरेट हाथों में जा रही है। इससे जहां एक ओर बेरोजगारीबढ़ेगी तो वहीं दूसरी ओर खाद्यान की आत्मनिर्भरता भी गंभीर संकट में फंस जायेगी , लेकिन अपनी नीतियों के हाथ की कठपुतली हो चुकी सरकार को ये खतरे समझ में नहीं रहे हैं कृषि विशेषज्ञ देवेंद्र शर्मा ने नई दुनिया में इस विषय पर एक गंभीर आलेख लिखा है। आप भी खेत और खलिहानों पर मंडराते बाजार के इस मकड़जाल को समझने की कोशिश कीजिये,ताकि समय रहते हम जाग जायें। रंजीत

देवेंद्र शर्मा

इक्कीसवीं स
दी का पहला दशक इतिहास में थोड़ा धुंधला सा गया है। समय की सुई एक बार फिर वापस घुम रही है अंतर्राष्ट्रीय खाद्य मूल्य एक बार फिर अपने चरम पर है और वैश्विक मूल्य सारे रिकार्ड तोड़ते हुए एक बार फिर उसी स्तर पर पहुंच गये हैं जो वर्ष 2008 में थे। अगला दशक भी संभवत: ऐसा ही होगा।
जनवरी के प्रथम साप्ताह में अल्जीरिया पहले ही खाद्य पदार्थों को लेकर दंगे से गुजर चुका है। उधर संयुक्त राष्ट्र को डर सता रहा है कि 2011 में कहीं 2008 जैसी स्थिति फिर से न आ जाये, जब दुनिया के 37 देशों ने भूख के लिए दंगों का सामना किया था। मुझे डर है कि कहीं अगले दशक में भारत सहित विकासशील देशों के अन्य गुटों को खाद्य पदार्थ आयात न करना पड़े। भारत में कृषि के क्षेत्र में तेजी से बढ़ती कार्पोरेट संस्कृति और पानी, जंगल व कृषि भूमियों के निजीकरण देश को एक बार फिर तेजी से गुलामी के पुराने दिनों में पहुंचा रही है। देश को अपने लाखों भूखे पेटों को भरने के लिए खाद्य पदार्थ का आयात करना पड़ रहा है। नीति निर्माता और योजना बनाने वाले इस दिशा में काफी काम कर रहे हैं कि किसान अपनी खेती की जमीन को छोड़कर शहरों की ओर पलायन कर जायें।
उत्तरप्रदेश का उदाहरण लें। यह देश का सबसे ज्यादा जनसंख्या वाला प्रदेश है और साथ ही यह देश का सबसे ज्यादा आनाज उत्पादन करने वाला भी प्रदेश है। उत्तर प्रदेश का पश्चिमी भाग जिसमें गंगा से लगे मैदानी इलाकों की उपजाऊ जमीन भी शामिल है, हरित क्रांति का बेल्ट कहलाता है। यहां हर साल 410 लाख टन अनाज पैदा होता है। इसके अलावा यह प्रदेश 1.30 करोड़ टन गन्ना तथा 1.05 करोड़ टन आलू का भी उत्पादन करता है।
लेकिन यह सब जल्द ही बदलने की संभावना है और इसी बात का मुझे डर सता रहा है। इस रूट पर आठ हाईवे और टाउनशिप प्रस्तावित हैं। साथ ही उद्योग, रियल एस्टेट व इन्वेस्टमेंट प्रोजेक्ट के लिए अधिकांश जमीनों पर कब्जा होने लगा है। इसके दायरे में 23 हजार गांव आ रहे हैं। एक मोटे आंकड़े के अनुसार 66 लाख हेक्टेयर कृषि की जमीन पर खतरा पर मंडरा रहा है। इसका सीधा असर 140 लाख टन अनाज के पैदावार पर पड़ेगा। दूसरे शब्दों में कहे हैं तो उत्तरप्रदेश आने वाले सालों में अनाज की भीषण कमी से जूझेगा। उत्तरप्रदेश की यह कहानी दरअसल पूरे देश की है।
भारत में हरित क्रांति के दौरान कृषि में जो विकास हुआ था उसका सबसे बड़ा नुकसान पर्यावरण को उठाना पड़ा, क्योंकि इस दौरान रासायनिक खाद्य का बेतरतीब तरीके से उपयोग किया गया। वैज्ञानिक शब्दावली में इसे दूसरी पीढ़ी का पर्यावरणीय प्रभाव माना गया । कृषि वैज्ञानिकों की नजर में यह क्रांति प्राकृतिक संसाधन के लिए नुकसानदेह थी।
टेक्नोलॉजी के विफल होने का संयुक्त प्रभाव कृषि उपज पर पड़ा और इसमें भारी गिरावट देखी गई। सन्‌ 1990 के बाद से भारत में कृषि की पैदावार में लगातार गिरावट बनी हुई है। हरित क्रांति के बाद पहली बार ऐसा हुआ कि कृषि की विकास दर जनसंख्या वृद्धि दर से प्रभावित हुई। उसके बाद इसमें कोई बड़ा बदलाव नहीं देखा गया। यह प्रक्रिया कई सारी सामाजिक-आर्थिक समस्याएं भी लेकर आई। हरित क्रांति टेक्नोलॉजी की विफलता भी किसानों द्वारा की जा रही आत्महत्या की एक बड़ी वजह बनी।
पर इनसे भी भारत ने कुछ नहीं सीखा। भारत वैश्विक अर्थव्यवस्था के साथ कृषि के क्षेत्र में ज्यादा कुछ नहीं कर सका। भारत ने आयात दर कम कर दी या फिर हटा ही दी। यह विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) को खुश करने से ज्यादा कुछ नहीं था। सबसे ज्यादा चिंता की बात क्या है ? कृषि में लगातार आ रही गिरावट से कुछ नहीं सीखना या फिर यूपीए सरकार द्वारा दूसरी हरित क्रांति को फास्ट ट्रैक पर लाने की तैयारी करना जो किसानों को खेती से दूर करने का काम कर रही है।
किसानों को कृषि से पूरी तरह अलग रखने की तैयारी की जा रही है। अर्थशास्त्रियों के अनुसार विकास के लिए इससे अलग कोई दूसरा रास्ता नहीं है। लेकिन कोई यह नहीं बता रहा कि आखिर ये किसान जाएंगे कहां ? अमेरिका सहित ऐसा कौन सा देश है जो आज 10 मिलियन लोगों को रोजगार देने की स्थिति में है ? कौन- सी कंपनी या उद्योग एक मिलियन लोगों को आज रोजगार देने का वायदा करने की स्थिति में है ?
भूमि किराया नीतियों जिन्होंने भूमि अधिग्रहण, विशेष आर्थिक क्षेत्रों आदि को बढ़ावा दिया है और साथ ही कृषि के बढ़ती कारपोरेट संस्कृति जिसकी वजह से बढ़ती हुई कांटेक्ट फार्मिंग और कमोडिटी ट्रेडिंग है, की वजह से भारत दूसरी हरित क्रांति की स्थिति में प्रवेश कर रहा है जो कि अंतत: कृषि से किसानों को बाहर फेंक देगी। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने भी समय-समय पर ग्रामीण इलाकों से शहरों की ओर जनसंख्या के स्थानांतरण की जरूरत पर बल दिया है।
अगले दशक में हम देखेंगे की कृषि पूरी तरह से कारपोरेट के चंगुल में आ गई है। बीज तकनीक वाली कंपनियों के साथ ही कुछ प्रमुख बड़ी कंपनियां भारत में अपनी दुकानें खोलने जा रही हैं। यह एक तरह से रिटेल के क्षेत्र में मल्टी ब्रांड बन चुकी है। हाल ही में जो कीमतों में वृद्धि हुई है वे भारत में बड़े रिटेल बाजार के प्रवेश को साफ दर्शा रही है।
अब जबकि खाद्य पदार्थों का आयात बढ़ता जा रहा है और कृषि क्षेत्र से किसान बाहर होते जा रहे हैं, भारत बहुत तेजी से उस स्थिति की ओर बढ़ रहा है जहां से उसने शुरूआत की थी। पिछले साठ वर्षों में देश ने उन नीतियों को उलट दिया है जो खाद्य के क्षेत्र में आत्मनिर्भरता की ओर ले गई थी। अगले दशक में आर्थिक वृद्धि के नाम पर खाद्य आत्मनिर्भरता की बलि दी जा सकती है।
कृषि की आधारभूत संरचना को जानबूझकर पहुँचाई गई क्षति के परिणामस्वरूप सामने आई सामाजिक-आर्थिक और राजनैतिक स्थितियों को समझना अत्यंत ही मुश्किल है।

(देवेंद्र शर्मा कृषि मामलों के विशेषज्ञ हैं। आलेख नई दुनिया से साभार)

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