शुक्रवार, 1 अप्रैल 2011

मोहाली की मदहोशी


निश्चित ही वह एक मतवाली रात थी। एक अखिल भारतीय मदहोशी की रात थी वह
भारत के अब तक के ज्ञात इतिहास में शायद ऐसा पहले कभी नहीं हुआ होगा, जब गुवाहाटी से गुजरात तक और चौराहे से चौपाल तक के लोगों ने एक साथ पटाखे छोड़े हों, क्योंकि दीपावली भी हर राज्य में नहीं मनायी जाती। एसएमएस से बधाई संदेश भेजने वाले मित्रों से मैंने जानना चाहा कि अगर यह जीत किसी अन्य देशों के खिलाफ मिली होती, तो भी क्या हम इतने ही खुश होते ! लगभग एक सूर में सभी ने कहा- नहीं। खुशी की मुख्य वजह भारत की जीत नहीं, बल्कि पाकिस्तान की हार है। मैंने पूछा कि अगर मैं कहूं कि यह पाकिस्तान नहीं पाकिस्तानी क्रिकेट टीम की हार है, तो आप क्या कहेंगे ? उन्होंने कहा- कुछ भी हो हमने पाकिस्तान को हरा दिया है। यानी क्रिकेट यहां सिर्फ साधन था, साध्य तो श्रेष्ठता की पदवी हासिल करना है। शिक्के को उलटकर देखने से भी यही पहलू सामने आता है। पाकिस्तान से आने वाली खबरें बताती हैं कि 30 तारीख की रात पाकिस्तानियों के लिए कयामत की रात थी। जाने कितने पाकिस्तानियों ने टेलीविजन सेट तोड़ दिये। आत्महत्या की भी कुछ खबरें आयी हैं। पाकिस्तानी अवाम मायूसी के समंदर में डूब गये, मानो किसी ने उनकी अस्मिता लूट ली हो या उनसे कोई ऐतिहासिक पाप हो गया हो।
हालांकि यह सौ प्रतिशत सच है कि क्रिकेट के दम पर आज तक तो दुनिया में कोई श्रेष्ठ हुआ है और ही कभी
होगा। दशकों तक क्रिकेट के बादशाह कहलाने वाले कैरीबियन देशों की गिनती आज भी दलित-देशों के रूप में होती है। लगातार तीन बार विश्व कप जीतने के बावजूद ऑस्ट्रेलिया को कोई भद्र-देश नहीं कहता। बहुतेरे लोग इस द्वीप को आज भी चोरों-ठगों-अपराधियों के संतानों का देश भी कह डालते हैं।
बार-बार मन में यह सवाल कौंधता है कि आखिर जिस जीत से एक भी आम लोगों का भला नहीं हो सकता, उस पर
दिलो-जान लूटाने के क्या कारण हो सकते हैं? विशुद्ध कमोडिटी और व्यावसायिक उपक्रम हो चुके क्रिकेट को आखिर सवा सौ करोड़ की आबादी, राष्ट्रीय गौरव का प्रतीक कैसे मान सकती है? जबकि सबको मालूम है कि देश भ्रष्टाचार और अन्याय की पराकाष्ठा पर जा पहुंचा है। करोड़ों लोग आज भी जीवन की बुनियादी सुविधाओं से वंचित हैं। ऊंचे बैठे लोगों के लिए राष्ट्रीयता महज एक प्रपंच है। विदेशी बैंकों में जमा अकूत काला धन इसका प्रमाण है। फिर भी हम क्रिकेट के जरिये सर्वश्रेष्ठ कहलाना चाहते हैं। कहीं यह अपनी असफलता का कूंठा तो नहीं ? तस्कीम के 63 वर्ष बाद भी अगर भारत और पाकिस्तान के लोग, एक-दूसरे से नफरत करते हैं, तो मतलब साफ है कि दोनों देश मानवीय विकास के मोर्चे पर पूरी तरह नाकाम है। घृणा का स्थायीपन, अशिक्षा और अंधेपन का प्रतीक ही नहीं, बल्कि असभ्यता की भी निशानी है। एक स्वस्थ्य और संजीदा इंसान लंबे समय तक किसी से घृणा नहीं कर सकता और प्रेम की अनुपस्थिति गैर-इंसानियत की ही निशानी है। लेकिन विडंबना यह कि भारत और पाकिस्तान दोनों मुल्कों में यह प्रवृत्ति हावी है। इसे खत्म करने के लिए बड़ा दिल चाहिए।

3 टिप्‍पणियां:

satyendra ने कहा…

पहली बात तो यह है कि इस तरह के राष्ट्रीय भारतीयों की मर्दानगी पाकिस्तान तक ही सीमित है। पाकिस्तान वाले फिर भी मुनाफे में हैं कि वे भौगोलिक रूप से बड़े देश को अपना प्रतिस्पर्धी मानते हैं।

दूसरी बात। भारत में क्रिकेट आम लोगों का खेल है। इसका कारोबारी इस्तेमाल हो सकता है, इसलिए भारत को जिताना जरूरी है। भारत-पाकिस्तान-लंका तीनों देशों में क्रिकेट के प्रति दीवानगी है। बांग्ला देश को भी अंतिम ४ में आना था, लेकिन बीच में किसी ने खाने के बाद भी धोखा दिया होगा, जिसके चलते न्यूजीलैंड वाले पहुंच गए।

तीसरी बात, अगर श्रीलंका की जगह पाकिस्तान दूसरे नंबर पर आ जाता दो भारतीय राष्ट्रीयतावादी लोगों की मर्दानगी कुछ कम लगती, तीसरे नंबर पर हैं तो ज्यादा तुष्टि होती है। जहां इस खेल के प्रति पागलपन है, उसी जगह के लोगों को फाइनल, सेमीफाइनल नहीं जिताया जाएगा तो उत्पाद क्या खाक बिकेगा?

कचहरी में बैठा मदारी सांप का खेला दिखाकर यौनवर्धक दवाई बेच देता है तो ये बड़ी-बड़ी कंपनियां बेवकूफ थोड़े ही हैं!

दिगम्बर नासवा ने कहा…

सच कहा क्रिकेट तो पैसे इकट्ठा करने का बहाना मात्र बन कर रह गया है ... ख़ास कर भारत देश में ...

BrijmohanShrivastava ने कहा…

बिलकुल सत्य है बन्धु प्रेम इन्सानियत की निशानी है और घृणा असभ्यता की । ाबार बार मन मे सवाल...............कुंठा तो नहीं यह आपका लेख कटूसत्य है