शुक्रवार, 1 जून 2012

छूटना


गांव में था
गाड़ी छूट जाती थी
गाड़ी में हूं
गांव छूट गया है
पर  सांसें अब तक फुल रही हैं
गांव हो या गुड़गांव

'छूटहों'  के लिए
दोनों समानार्थक होते हैं

निरर्थकता का एहसास !
जैसे पटरी जमीन पर नहीं
देह पर बिछी  हो
हजारों सफर के बाद
जिन्हें पड़े रहना है
नहीं !
यह बिछुड़न नहीं 
विरह के गीत भी नहीं
छूटना
लुप्त होना है
फोन मां को लगाओ
बात मैने से होगी
बेटा परदेश में
बाड़ी के आम कौए खा रहे
कोंटी की लीची, 'खरुवान'
छूटना !!
अंततः दुखना है
कहा था, पेड़ों ने
जिन्हें शाखाविहीन कर दिया था
ज्येष्ठ की आंधी 

लाल-लाल लस्से निकल आये थे
पेड़ की देह पर
लस्से का सच कौन बताये 

इस तूफानी समय में
सब कुछ लस्सा है

जो छूट गये हैं, जड़ से
लस्से उनकी देह में भी हैं
पेड़ों की तरह बेजुबान
और अव्यक्त


(शब्दार्थ- छूटहा- जो पीछे छूट गये हो। खरुवान- आवारा बच्चों की टोली )

कोई टिप्पणी नहीं: