रविवार, 6 जून 2010

तैरती-बहती बस्ती



Whenever Babuji Sah walks towards his village, Birbar, he says he feels like an ageing camel struggling to find his new address in the sand-filled desert. That is because Birbar is forced to move location every three to four years. The pathways and byways of the village are constantly eroded by the fast-flowing river. Mr Sah is not alone in his predicament. As the Kosi's embankment is eroded, the river deposits silt and sand on more than 380 villages located between the embankments forcing the villagers to set up camp elsewhere. The villages affected by this phenomenon are known locally as "floating villages" - because they are constantly on the move.

Constantly moving

Rajendra Jha, who works for the welfare of the people living in these "floating villages" through his organisation, Barh Mukti Abhiyan, says "the only constant in the lives of these villagers is the name of their village". "The villagers hold on to their identity by retaining the name of their village," he says. Mr Sah's Birbar village has changed its location three times and is gearing up for its fourth move as the monsoon approaches. It is a worrying prospect for Mr Sah and many of his neighbours like Jiya Lal Yadav, Lucho Sharma, Shyam Sharma and Anandi Thakur. "Again, we have to move to another place with a new address," says Anandi Thakur. Like Birbar, the residents of neighbouring Sirbar, Charnia, Bishanpur and Dahnuj villages are also looking for vacant spots in the landscape to migrate to when the Kosi river devours their present location. "We have no option. We're trapped between embankments. Our agricultural land is located here," Mr Thakur says pointing towards his land covered by silt brought in by the turbulent Kosi. The shifting sands have reduced the villagers to paupers while their environment, culture, social fabric, flora and fauna have all been dramatically affected.

Wasteland

"Villagers who live outside the embankment refuse to marry their daughters to boys living in these floating villages," says Dinesh Kumar Mishra, Kosi expert and convener of Barh Mukti Abhiyan. In many places the farmland is covered in sand and has turned into wasteland which has been taken over by bandits and criminals, he says. Bihar has around 3,440km (2,137 miles) of river embankments, nearly all in the north of the state. According to an assessment done in 1994, the flood-prone area in the state increased to nearly 7 million hectares from 2.5 million hectares in 1952. "Embankments provide partial protection to people by preventing the river from overflowing its banks during times of floods, but they also prevent the flood water from going back into the river and this leads to a major problem," Mr Mishra explains. In August 2008, the Kosi breached its embankment at Kusaha in Nepal causing a catastrophe in northern Bihar with huge loss of human life and property. Ever since 1963 when the Kosi barrage was constructed at Bhimnagar (in Nepal), river water has inundated Bihar's northern villages 37 times. And for villages sandwiched between embankments, every monsoon is a time of dread. "Nothing grows on waterlogged and eroded land covered in sand and silt," complains Shyam Sharma of Birbar.

The villagers say they continue to pay government taxes - 22 rupees per acre each year - for their submerged land because "we have no idea when the Kosi will change its course and if we will be able to reclaim our land".

'Illegal'

"My father protected the submerged land for me and now I'm protecting it for my sons and grandsons," Mr Sharma says। In government records, however, these villages on the move are "illegal" and not entitled to any compensation. In 1956 when the Kosi embankment was being constructed, the government offered a relocation package which included land for a house outside the embankment, but no agricultural land. "For villagers it was tough to live outside the embankment and take their cattle for agriculture inside the embankment. So they decided to live inside the embankment and bear the brunt," Mr Mishra says. Local government official Parmanand Sah admits that there is no provision for compensating the villagers for their displacement. "Every year villages inside the embankment submerge and they [the villagers] move to a new location," he says. But district officials also say that land revenue is collected from the villagers for farmland. "Government rules allow only irrigation inside the embankment and the human population is not allowed," an official said. For those living in these floating villages, life is tough - there is no hospital, no school, no government ration shop, no police station and no post office. The only way to reach them is by boat. Little wonder that migrations from these villages are as frequent as the Kosi flood. The young men generally migrate to work as agricultural and construction labourers, whereas children find work in the carpet industry in neighbouring Uttar Pradesh state. "Only the elderly and women remain in these villages to float with life and the turbulent Kosi waters," says a villager.

(Courtesy-BBC)

शनिवार, 29 मई 2010

नीतीश की विश्वास यात्रा और परती की परिकथा

दहाये हुए देस का दर्द-65
बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का "विश्वास मेल'' आज कालजयी कथा शिल्पी फणीश्वरनाथ रेणु की जन्म भूमि औराही हिंगना (सिमराहा) पहुंचने वाला है। कोशी अंचल में मुख्यमंत्री की विश्वास यात्रा का यह अंतिम पड़ाव होगा। मुख्यमंत्री का "विश्वास मेल'' सहरसा, सुपौल, कटिहार और मधेपुरा से गुजर चुका है। मुझे नहीं मालूम कि इन जिलों के लोगों का विश्वास जीतने में मुख्यमंत्री कितने कामयाब हुये। हालांकि मैं अच्छी तरह जानता हूं कि कोशी अंचल की लगभग एक करोड़ आबादी बड़ी बेसब्री से नीतीश के "विश्वास मेल' का बाट जोह रही थी। लोग जानना चाहते थे कि कुसहा हादसा के बाद मुख्यमंत्री ने उनसे जो बड़े-बड़े वादे किए थे, उनका क्या हुआ। कहे थे कि पहले से बढ़िया कोशी अंचल बनायेंगे। उखड़े हुए खूंटे फिर से गाड़ेंगे और कोशी की प्रचंड धारा में भसिया गयी बस्तियों को दोबारा बसायेंगे। रेत के कारण परती (बंजर) हुई जमीनों को उपजाऊ बनाने के लिए हर संभव उपाय किया जायेगा। किसानों को ट्रेनिंग दी जायेगी, मिट्टी की जांच होगी वगैरह-वगैरह। अब जब "विश्वास मेल'' पास कर गया है, तो कुछ दिल फेंक युवक कहते हैं- "...वादे तो टूट जाते हैं।'' बात सही भी है। वादे तो प्रधानमंत्री ने भी तोड़ दिया। राष्ट्रीय आपदा कहकर जो दिल्ली गये, सो गये ही रह गये।
आखिर वही हुआ जो कोशी में सदियों से होता आ रहा है। पहले बाढ़ फिर विपत्ति और उसके बाद परती खेतों की अंतहीन परिकथा- परती परिकथा। वही फणीश्वरनाथ रेणु की "परती परिकथा।'' दूर-दूर तक रेत ही रेतऔर रेत से लड़ती मानवीय जिजीविषा। मानो कह रहे हो, नियति को जो हो मंजूर, हम तो हार नहीं मानेंगे। कुछ ने ककड़ी लगायी, कुछ ने खिरा, कहीं-कहीं परबल... लेकिन लाख प्रयास के बाद भी धान और गेहूं इन रेतों में नहीं उगे।
दिन बीता, महीने बीते और अब तो कुसहा की दूसरी वर्षी भी आने वाली है। लेकिन न तो परती जमीन में फसल लहलहाई और न ही उखड़े हुए खूंटे पर टाट और ठाट चढ़े। लेकिन हर गांव में कुछ आलीशान मकान जरूर बन गये हैं। मुखिया, वार्ड सदस्य, प्रखंड सदस्य और पंचायत सेवक साहेब लोगों के दोनों गाल में पान ही पान है। बीडीओ, प्रखंड प्रमुख और जिला पार्षदों का क्या कहना ! उनकी तो दसों उंगली घी में है। मजाल है कि आप उनसे कबूल करवा लें कि कोशी त्रासदी के भुक्तभोगियों को कुछ नहीं मिला। "पान तो आप खा गये, लोगों को तो उसकी डंटी भी नहीं मिली हजूर ?''। ऐसा कहते ही वे जोर से ठहाका लगायेंगे। गलफर के कोने से लीक करते पान के पीत को आपकी धोती से पोंछ लेंगे। अगर आपके ताल्लुकात कलम-अखबार या कैमरा-माइक आदि से है, तो वे आप के साथ हल्की-फुल्की दिललगी भी कर लेंगे। यह जताने के लिए वे आपकी बात को लंगोटिया यार की तरह ले रहे हैं, अगर दूसरा कोई होता तो बीच सड़क पर दौड़ा देते। बोलेंगे, "आप भी न गजबे करते हैं। मुख्यमंत्री का प्रोग्राम चल रहा है यार। काहे दाल-भात में मूसलचंद बनते हो, फटे में टांग डालते हो जी!''
पर मुख्यमंत्री को विश्वास चाहिए। जनता का विश्वास ! इसलिए वे सभाओं में ब्यौरे दे रहे हैं। पुरानी योजनाओं की खूबी गिना रहे हैं और नयी योजनाओं की धड़ाधड़ घोषणा भी कर रहे हैं। पर पिछली घोषणाओं का मूल्यांकन करना नहीं चाहते। स्थानीय-नेता और अधिकारी ने जो कह दिया, वह ब्रह्म बात। वही एक सांच, बाकी सब झूठ। रेणुग्राम में भी यही सब होना है। यह रेणु के देहावसान के चार दशक बाद की "परती परिकथा'' है। चचा फणीसर, आप नहीं रहे, लेकिन कोशी की धरती पर परती की परिकथा जारी है।

मंगलवार, 25 मई 2010

इस दिल्ली में

कोई दो आषाढ़ पहले
लायी गयी थी मां
'कुसहा' से कोसों दूर
इस दिल्ली में

खोजती है मां
खड़, खेत और खलिहान
बांस के जंगल और चिड़ियों की चहचहाहट
इस दिल्ली में

बेटा-बहु करते है खूब सेवा
पोता रोज ले जाता है पार्क
लेकिन
नहीं लगता मां का मन
इस दिल्ली में

बुदबुदाती है मां
अकेल में
न परिछन, न डहकन ना चुमाउन,!
न कोहवर न अरिपन !!
रामा हो रामा !
कैसी-कैसी शादी !!
इस दिल्ली में

सोचती है मां
क्या कभी आयेगी कोशी
राह भटक कर
इस दिल्ली में

शुक्रवार, 14 मई 2010

गरीबी, गेट्‌स और गुलरिया


( कभी नहीं भूलूंगा इस अनुभव को : नाव से कोशी नदी पार कर गुलरिया जाते (ऊपर ) और ग्रामीणों से बात करते बिल गेट्स )
दहाये हुए देस का दर्द-64
वैषम्य (कंट्रास्ट) में अचरज होता है और हर अचरज समाचार होता है। इससे बड़ा कंट्रास्ट और क्या हो सकता है कि दुनिया के सबसे अमीर शख्सों में शुमार होने वाला कोई अमीरजादा बिहार के कोशी दियारा के निर्धनतम लोगों की बस्ती में पहुंच जाये । उस बस्ती में जहां आज तक देश की कोई सरकार नहीं पहुंच सकी। न कोई रोड पहुंच सका और न ही कोई स्कूल, अस्पताल खुल सका। अभी 12 मई को ऐसा ही हुआ जब माइक्रोसॉफ्ट कंपनी के मालिक बिल गेट्‌स बिहार के खगड़िया जिले के गुलरिया गांव पहुंच गये। उन्होंने जिले के अलौली प्रखंड में स्थित एक दलित गांव- गुलरिया को गोद लिया है। (याद रहे यह वही अलौली है जहां रामविलास पासवान जैसे नेता का जन्म हुआ और जो पिछले दिनों भीषण नरसंहार का गवाह बना) गेट्‌स की स्वयंसेवी संस्था- "बिल एंड मिलिंडा फाउंडेशन' इस गांव में कल्याण कार्य करना चाहती है। इसके लिए उन्होंने बिहार सरकार के साथ एक एमओयू भी किया है।
घटना में कंट्रास्ट है, अचरज है और एडवेंचर भी है। एक ऐसे दौर में जब आर्थिक लाभ और हानि ही आदमी के सारे कर्मों के सबसे बड़े निर्धारक-तत्व बन गये है, तब अगर कोई आदमी (खासकर बड़ी कॉरपोरेट हस्ती) सामाजिक कल्याण के बास्ते सात समुद्र पार से गुलरिया जैसे दुर्गम-दरीद्र गांव पहुंच जाये, तो इसे एक अद्‌भूत घटना ही मानी जायेगी। यही कारण है कि मीडिया बिल गेट्‌स की इस यात्रा को हाथों-हाथ ले रहा है। यह बात दीगर है कि गुलरिया गांव के निरक्षर-निर्धन ग्रामीण गेट्‌स के जाने के तीन दिन बाद भी इस घटना का मतलब समझ नहीं पाया है। वे हेलीकॉप्टर उतरने की जगह को उसी तरह निहार रहा है जैसे कक्षा का कोई कमजोर विद्यार्थी शिक्षक के जाने के बाद ब्लैक बोर्ड को अपलक निहारता है। लेकिन गांव में पहली बार हेलीकॉप्टर उतरा, हेलीकॉप्टर से सूट-बूटधारी गोरे-चमकीले लोग उतरे और कैमरे के फ्लैश से फूस के घर जगामगा उठे। इसलिए उन्हें लगता है कि कोई चमत्कार होने वाला है। हालांकि अंधकार में रहने के आदि गुलरिया के स्त्री-पुरुषों को नहीं मालूम कि आगंतुक महोदय कौन थे, यहां क्यों आये थे। वे अपने अनुभवों से पूरे वाकये को समझने की कोशिश करते हैं, तो और भी उलझ जाते हैं। उनके अनुभव तो यही बताते हैं कि बिहार के गांवों में हेलीकॉप्टर चुनाव के दिनों में ही उतरता है, जिनसे हाथ जोड़े नेता अवतरित होते हैं, जो वोट मांगकर चले जाते हैं और फिर पांच साल तक बिला (गुम) जाते हैं। जैसे बिला जाती है दियारा की जमीन, कोशी और करेह नदियों की धाराओं में या फिर कोई नबालक बच्चा जनमअष्टमी के मेले में। लेकिन इस शख्स ने तो न वोट मांगा और न ही हाथ जोड़ा। माजरा कुछ भी समझ में नहीं आता है, गुलरिया के अम्मन सदा को। पत्रकार पूछते हैं- "आपके गांव में दुनिया के सबसे धनी व्यक्ति आये हैं, बोलिए आप कैसा महसूस कर रहे हैं ?' अम्मन सदा कहता है,"का कहें हुजूर बचवा लोग बहुते खुश है, पहली बार उनको हेलीकप्टर देखे के मिला। हमहूं खुश हैं कि आप सब हमर जर-जनानी के फुटो घींच रहे हैं।'
बावजूद इसके, बिल गेट्‌स की इस पहल का स्वागत किया जाना चाहिए। अगर उनकी पहल गरीबों के कल्याण की भावना से प्रेरित है, तो यह निश्चित रूप से पुनीत कार्य और प्रशंसा की बात है। गेट्‌स "कॉरपोरेट वेलफेयर' की जिस नयी अवधारणा को मूर्त रूप देना चाह रहे हैं, उसका स्वागत दुनिया के कई बुद्धिजीवि पहले ही कर चुके हैं। व्यक्तिगत स्तर पर मैं भी इसे एक सकारात्मक पहल मानता हूं।
लेकिन बात यहीं पूरी नहीं होती। बात इससे काफी आगे तक जाती है। कॉरपोरेट वेलफेयर, सोसल रेसपांसिबलिटी जैसी चीजों के अलावा इस घटना में कुछ हिडेन मैसेज भी हैं, जिनसे हम नजर नहीं बचा सकते। क्या हमारे लिए यह शर्म की बात नहीं है कि आज भी हमारे गांव पश्चिमी देशों के लिए एक एडवेंचरस प्लेस से ज्यादा कुछ नहीं । जहां की गरीबी से वे द्रवित नहीं, बल्कि रोमांचित होते हैं। गेट्‌स भी रोमांचित हुए, बोले- "व्हाट इज दिस ?' एक अधिकारी ने जवाब दिया- "दिस इज इंडीजिनस ओवन सर, मेड बाय स्वायल।'
अब थोड़ा इतिहास देख लें। दो-ढाई सौ वर्ष पहले भी अंग्रेज हमारे गांव जाते थे। हमारी गरीबी, भुखमरी, फटेहाली उनके लिए गहरे रोमांच का विषय होता था और हमारे सड़कविहीन-साधनविहीन दुर्गम गांव उनकी नजरों में "एडवेंचरस स्पॉट्‌स' हुआ करते थे। पलासी के युद्ध से पहले वे हमारी गरीबी, हमारे पिछड़ेपन के प्रति सहानुभूति व्यक्त करते रहे और पलासी का युद्ध जीतते ही उन्होंने भारत के सारे संसाधनों पर कब्जा जमा लिया। हम उनके उपनिवेश बनकर रह गये । दो सौ वर्षों तक वे हमारे ही संसाधन लूटकर हम पर अपना हुक्म चलाते रहे। हम गरीब से दरीद्र हो गये और वे हमारे संसाधनों के बल पर दुनिया के सभ्यतम और समृद्धतम नागरिक बन बैठे।
लेकिन 1947 के बाद गौर वर्ण वालों का यह काला कारनामा खत्म हो गया। पर क्या कहानी खत्म हुई ? अगर कहानी खत्म होती तो आज न कोई गुलरिया होता और न ही किसी गेट्‌स का "पोवर्टी टुरिज्म' होता। पिछले 63 वर्षों में गरीबी उन्मूलन की बातें तो खूब हुई, लेकिन क्या सच में गरीबी खत्म हो सकी ? हालांकि इसके लिए साल-दर-साल योजनाएं बनायी गयीं, उस पर अकूत राशि भी खर्च हुई, लेकिन न तो गांव समृद्ध हुआ और न ही ग्रामीणों की स्थिति में सुधार आया। हालांकि यह भी सच नहीं है कि पिछले 63 वर्षों में देश में विकास का काम बिल्कुल हुआ ही नहीं। पिछले छह दशकों में देश ने कई मोर्चे पर उल्लेखनीय तरक्की की, लेकिन उसका फायदा सीमित लोगों और सीमित क्षेत्रों में सिमट कर रह गया। बिहार और कोशी इसका सबसे ज्वलंत प्रमाण है। अगर स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद का आर्थिक इतिहास सामने रखकर देखें, तो पता चलता है कि कोशी इलाके के साथ सभी सरकारों ने भारी अन्याय किया है। चाहे वह सरकारी योजना चलाने की बात हो या फिर बुनियादी ढांचे के निर्माण या फिर औद्योगिकीकरण की पहल, कोशी को हमेशा उपेक्षित रखा गया। यही कारण है कि अब यह इलाका बिल गेट्‌स जैसे लोगों के लिए "पोवर्टी टुरिज्म' का स्पॉट बन बैठा है।
सरकार समेत तमाम पढ़े-लिखे लोगों को पता है कि बिल गेट्‌स के प्रयास से भारत की गरीबी कम नहीं होने वाली। हां, ऐसे प्रयासों से चंद लोगों, चंद एनजीओ और चंद अधिकारियों की जेबें जरूर गर्म होंगी। गुलरिया के बुढ़ों को एक कहानी मिल जायेगी, जिसे वे अपने पोते-परपोते को सुनायेंगे। लेकिन दियारा के गांव में गरीबी की लू व शीतलहरी यों ही चलती रहेगी। साल-दर-साल। हां, यह बात अलग है कि इसके कारण बिल गेट्‌स को कॉरपोरेट वेलफेयर का मसीहा करार दिया जायेगा। कई पुरस्कार और सम्मानों से उन्हें नवाजा जायेगा। बाजारवाद के अनुयायियों को एक "शेफ्टी वाल्व' मिल जायेगा। ताकि वे सेमिनारों और अखबारों में चीख-चीखकर कह सके कि बाजारवाद, समाजवाद का दुश्मन नहीं है। बाजारवाद को भी गरीबी और गरीबों की बराबर फिक्र है। बस, इससे ज्यादा कुछ नहीं। आमीन।

बुधवार, 12 मई 2010

वह देहाती आदमी

सड़कों पर चलने के लिए
शायरन और लालबत्तियां अनिवार्य हो जायेंगी
और टेलीविजन के सीरियल
घर में रहने की शर्त बन जायेंगे
तो वह देहाती आदमी
खिड़की के रास्ते लौट जायेगा अपना गांव
जहां के मेड़ पांवों में नहीं चुभते
और आज भी
'आदमी' कोई एक्सक्लूसिव न्यूज नहीं होता

एक दिन वह देहाती आदमी
इस शहर को राम-राम कहेगा
सड़कों पर रोप देगा मुलायम दूब
झोपड़ी के बच्चों में बांट देगा
मंडी के सब अमरूद
उठती इमारतों में लगा देगा
बांस का सोंगर
और संसद के सामने गायेगा आल्हा-उदल
और हां !
वह देहाती आदमी
जाते-जाते एक पत्थर जरूर फेंकेगा
शहर के सबसे सुरक्षित घर पर

सोमवार, 3 मई 2010

आखिरी पहर

तीन बार टूट चुका है चांद
तीन बार खांस चुकी हैं दादी
तीन गिलास पानी पी चुका हूं मैं
और पास के बरसाती खंतों (गड्‌ढे) से
अब तीसरे मेढक की कराह आ रही है
शायद यह पहले दोनों का बच्चा रहा होगा
जिसे खंते के सांप ने ही निगला होगा
मेरा मन कहता है वह धामिन होगा
कवि मन कहता है वह दोमुंहा होगा
मैं क्या करूं
मेरी बस्ती सो रही है
अपनी देह में दूसरे की नींद
शायद यह रात का आखिरी पहर है

बुधवार, 28 अप्रैल 2010

फिर कांग्रेस के जाल में शिबू

झारखंड के राजनीतिक संकट पर त्वरित टिप्पणी
मुख्यमंत्री की कुर्सी को अपनी पुश्तैनी संपत्ति समझने की गलतफहमी के शिकार शिबू सोरेन एक बार फिर कांग्रेस के जाल में फंस गये हैं। उनकी स्थिति " शिकारी आयेगा, जाल बिछायेगा, दाना डालेगा, लोभ से उसमें फंसना नहीं...' का जाप करने वाले तोते के समान हो गयी है। जिस तरह कहावती तोता "शिकारी आयेगा... ' का जप करते-करते शिकारी के जाल में फंस गया था, ठीक उसी तरह शिबू सोरेन भी "कांग्रेस धोखेबाज है, कांग्रेसी धोखेबाजी की राजनीति करते हैं... ' का मंत्र जपते-जपते उनके बिछाये हुए जाल में फंसकर अपने प्राण से प्रिय मुख्यमंत्री की कुर्सी से बेदखल होने की स्थिति में पहुंच गये हैं। हैरत की बात यह कि वह पहले भी इस जाल में दो बार फंस चुके हैं, लेकि सबक लेना उनकी फितरत में नहीं है । उनकी स्थिति कुमहार के बैल की तरह है जो हर उस आदमी के पीछे हो लेता है , जिसके हाथ में मिट्टी लगी हो।
गठबंधन धर्म के उल्लंघन के आरोप में भाजपा ने उनकी सरकार से अपना समर्थन वापस ले लिया है और शिबू सोरेन की चार महीने की अल्पवय सरकार अल्पमत में आ गयी है। फिलहाल, इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में समर्थन वापसी की इस घटना का ताबड़तोड़ पोस्टमार्टम हो रहा है और झारखंड की आगे की राजनीतिक स्थिति को लेकर तरह-तरह के कयास लगाये जा रहे हैं। लेकिन सच यह है कि यह खेल अंदर खेला जा चुका है। कुछ भी अचानक नहीं हुआ है। न ही शिबू सोरेन ने तैश में आकर संसद में कांग्रेस के पक्ष में मत दिया और न ही भाजपा ने इसके प्रतिशोध में समर्थन वापसी का ऐलान किया। बल्कि शिबू सोरेन और कांग्रेस के बीच दो सप्ताह पहले ही सब-कुछ तय हो गया था। यह नौबत तब बनी जब भाजपा ने साफ-साफ कह दिया कि वह शिबू के बेटे हेमंत सोरेन को किसी भी कीमत पर नेता नहीं मानेंगे। जबकि शिबू को यह विश्वास हो चला था कि अब उनके विधायक चुने जाने की संभावना समाप्त हो चुकी है क्योंकि लाख कोशिश के बावजूद वे अपने पसंद की विधानसभा सीट को खाली नहीं करा पाये। चूंकि वे पिछले चार महीने से गैरविधायक मुख्यमंत्री हैं, इसलिए संवैधानिक बाध्यता के कारण अगले दो महीने में उनका सत्ता से हटना लगभग तय था। इसलिए मुख्यमंत्री की कुर्सी को बचाने और सत्ता को अपने आंगन में बनाये रखने के लिए उन्होंने दूसरा रास्ता तलाशना शुरू कर दिया। उधर कांग्रेस तो पहले से घात लगाकर बैठी ही थी, जैसे ही उसे लगा कि शिबू सोरेन निरूपाय हो चले हैं, उसने तुरंत अपना जाल फेंक दिया। सूत्रों से मिली जानकारी के अनुसार, कांग्रेस ने शिबू को एक नायाब सत्ता-पैकेज का ऑफर दिया है। इसके तहत शिबू को केंद्र में मंत्री बनाने के आश्वासन के साथ उनसे कहा गया है कि वे झामुमो, कांग्रेस, बाबूलाल मरांडी के झारखंड विकास मोर्चा के साथ गठबंधन कर नयी सरकार बनाने के लिए रास्ता तैयार करे। जाहिर है शिबू को इस पैकेज में उम्मीद की नयी किरण दिखायी दी। वे यह मानकर चल रहे हैं कि इस समीकरण के सहारे वह खुद तो केंद्र में मंत्री बनेंगे ही साथ-साथ मुख्यमंत्री की कुर्सी पर भी अपने बेटे या किसी कठपुतली विधायक को बैठाने में कामयाब हो जायेंगे।
लेकिन चीजें जितना आसान शिबू को दिख रही हैं, उतना आसान हैं नहीं। पहली दिक्कत तो यह है कि सत्ता के इस बेशर्म खेल में बाबू लाल मरांडी आसानी से शामिल होंगे नहीं। शिबू सोरेन और कांग्रेस ऐसे बेशर्म खेल तो कई बार खेल चुके हैं, लेकिन बाबूलाल मरांडी की पहचान इनसे बिल्कुल भिन्न है। एक तो बाबूलाल मरांडी हमेशा से मर्यादा की राजनीति में विश्वास करते रहे हैं, दूसरी उन्हें अच्छी तरह मालूम है कि कांग्रेस और झामुमो के इस सत्ता नोच प्रतियोगिता में शामिल होते ही, उनकी छवि रसातल में चली जायेगी। चूंकि बाबूलाल दूर की सोचते हैं, इसलिए इस बात की संभावना बहुत कम है कि वे इस पैकेज को स्वीकार करें। ऐसी स्थिति में दूसरी सूरत यह बनती है कि कांग्रेस और झामुमो मध्यावधि चुनाव से बचने का हवाला देकर बाबूलाल का बाहर से समर्थन प्राप्त कर ले। अगर ऐसा हुआ, तो भी यह तय है कि तोड़-जोड़ से बनने वाली अगली सरकार ज्यादा दिनों तक नहीं चलेगी। और अंततः राष्ट्रपति शासन के हालात उत्पन्न हो जायेंगे, जो कांग्रेस की असल मंशा है। कांग्रेस चाहती है कि जनता में यह मैसेज जाये कि कांग्रेस ही इस प्रदेश में एक स्थायी सरकार दे सकती है।
कुल मिलाकर स्थिति यह है कि झारखंड एक बार फिर राजनीतिक अस्थिरता के दुश्चक्र में फंस गया है और फिलहाल इससे मुक्ति का कोई संकेत कहीं नहीं दिख रहा। समझ में नहीं आता कि इसे बहुदलीय लोकतंत्र की विडंबना कहें या फिर सत्ताई राजनीति का फलसफा।

शनिवार, 24 अप्रैल 2010

कविता की जरूरत

जब

देश और दातुन का फर्क मालूम न चले

जीवन का मतलब दीमक हो जाये

और किसी पेड़ के नीचे

सायास पता लगे कि

बंदूक

, गोली, बारूद से ज्यादा डरपोक कुछ नहीं

तो

कविता मजबूरी हो जाती है

जब

हम नहीं कह पाये रस्सी को सांप

गांव की उस निर्दोष बेवा को बांझ

सुबह को सांझ और किनारे को मांझ

तो

कविता मजबूरी हो जाती है

जब

हर खबर पहले से सुनी हुई लगे

प्रेम और टेस्टासटेरॉन समानार्थी हो जाये

तो कविता मजबूरी हो जाती है

तो कविता ही एक जगह बचती है

कुछ कहने के लिए

कुछ सुनने के लिए

कुछ समझने के लिए

रोने

-गाने और चिल्लाने के लिए

मर जाने या मार देने के लिए

+

कविता मेरा भ्रम नहीं

कविता मेरा श्रम नहीं

लिखने के लिए भी नहीं

और छपने के लिए भी नहीं

++

कविता

काजल की कोठरी में बेदाग की तलाश है

निरर्थक शोर के बीच अर्थ का प्रयास है

खामोशी तोड़ने का आखिरी औजार है

मां की मनाही

और प्रेमिका की हां है

कविता

आखिरी सांस तक मानव बने रहने की जिद है

बुधवार, 21 अप्रैल 2010

बिल में रहने की मजबूरी


बिहार के अररिया ज़िले के एक गॉंव के आदिवासी पिछले 13 अप्रैल को आए तूफ़ान के बाद क़ब्रनुमा घरों में जिंदगी गुज़ार रहे हैं.ये आदिवासी तूफ़ान से इतने डरे हुए हैं कि वे अपनी ध्वस्त झोंपड़ियों के बाहर छह फुट लंबे, चार फुट चौड़े और चार फुट गहरे क़ब्रनुमा घरों को सुरक्षित मान रहे हैं.कुसियार ग्राम पंचायत के संथाली टोला के संथाल जनजातियों ने अपनी ज़रूरत के मुताबिक़ इन क़बनुमा घरों का आविष्कार किया है.स्थानीय लोग इन घरों को 'बिल' कहते हैं.

तूफ़ान का डर

'बिल' में तमाम कठिनाइयों के बाद भी उन्हें इस बात का विश्वास है कि अगर फिर तूफ़ान आया तो उनके परिवार के सदस्यों को जान नहीं गंवानी पड़ेगी . तूफ़ान में कुसियार गॉंव प्रखंड में 10-12 लोगों की मौत हो गई थी, जबकि अररिया समेत पूर्णिया, सुपौल, किशनगंज, कटिहार आदि ज़िलों में मरने वालों की संख्या इससे कहीं बहुत अधिक थी. संथाली टोला के बैजनाथ मुर्मु और हप्पनमये किस्कू बताते हैं, ' हमारे पास इसके अलावा कोई रास्ता नहीं था. शुरू के दो तीन दिन हमने खुले आसमान के नीचे गुज़ारे. इस दौरान भीषण गर्मी ने हमें इन बिलों को बनाने को प्रेरित किया.' "हम हर दिन इस दहशत में जी रहे हैं कि फिर कोई जानलेवा तूफ़ान कभी भी आ सकता है. ऐसे में हमारे लिए ' बिल' से सुरक्षित कोई जगह नहीं हो सकती है. उन्होंने कहा', हम हर दिन इस दहशत में जी रहे हैं कि फिर कोई जानलेवा तूफ़ान कभी भी आ सकता है. ऐसे में हमारे लिए इससे सुरक्षित कोई जगह नहीं हो सकती'.अररिया ज़िला नेपाल की सीमा से सटा हुआ है. यह बिहार के सबसे पिछड़े इलाक़ों में से एक है.कुसियार गॉंव राष्ट्रीय राज्यमार्ग से तीन किलोमीटर की दूरी पर है. वहॉं पहुँचने के लिए इंसान और जानवरों के पैरों के निशान ही रास्ता बताते हैं.बिहार का शोक कही जाने वाली कोसी नदी की एक सहायक नदी के किनारे बसे इस गॉंव में बरसात के दिनों में नाव से ही पहुँचा जा सकता है. संथाली टोला में जनजातियों के क़रीब साठ परिवार आबाद हैं. इन लोगों ने अपने लिए 10-12 बिल बनाए हैं. इन बिलों में वे अपने बच्चों के साथ बकरियों को भी रखते हैं. जोजों टुड्डू और बोढ़न हांसदा के बच्चे भूख और गर्मी से बीमार हो गए हैं. उन्हें प्रशासन की ओर से अबतक न तो दवा मिली है और न ही खाने को अनाज.

मुश्किल ज़िंदगी

जोजों कहते हैं

, "हम भुखमरी के शिकार हैं आँधी ने हमारे चॉंपाकलों (हैंडपंप) को भी तहस-नहस कर दिया है. इससे अब पानी का इंतजाम भी बहुत मुश्किल से होता है.'उन्होंने कहा, "सरकार से न तो हमें अब तक कोई रहत सामग्री नहीं मिली है.गॉंव के प्रधान लक्ष्मी ऋषिदेव बताते हैं, "हमें आश्चर्य है कि सरकार की घोषणाओं के बाद भी स्थानीय प्रशासन ने हमारे गॉंव की अबतक सुध नहीं ली है. अब लोग उग्र होते जा रहे हैं.' इस संबंध में प्रशासन का अपना तर्क है. प्रखंड विकास अधिकारी नागेंद्र पासवान कहते हैं कि अभी नुक़सान का सर्वेक्षण हो रहा है.वहीं सर्कल इंस्पेक्टर अमरनाथ सिंह कहते हैं कि उन्हें अगले तीन दिन में सर्वेक्षण ख़त्म कर के राहत सामग्री वितरित की जाए.उन्होंने बताया कि वे लोग भी अपने लिए राहत सामग्री मांग रहे हैं जिनका कुछ नुक़सान भी नहीं हुआ है.गॉंव के प्रधान कहते हैं कि उन्हें अबतक राहत सामग्री का इंतज़ार है. उन्होंने बताया कि अभी तक कोई भी पदाधिकारी हमे देखने तक नहीं आया है तो धांधली का सवाल ही कहॉं है.संथाली जनजातियों का यह टोला सरकारी जमीन पर 50 साल पहले ही आबाद हुआ था. उनके पूर्वज रोज़गार की तलाश में यहॉं आए थे.

(बीबीसी हिंदी डॉट कॉम से साभार)


रविवार, 11 अप्रैल 2010

जनता दरबार

मैं गया "जनता दरबार''

पाया मैंने राज दरबार

मैं गया "जनता दरबार''

पाया मैंने "एक अने मार्ग''

मैं गया "जनता दरबार'

देखी मैंने महंगी कार

लेकर जो आये थे फरियाद

छोड़कर सारा घर और बार

बैठे थे कोने में लाचार

++

देर शाम को लौटै हम

सोचे ज्यादा बोले कम

मानो मुफ्त में नाटक देख आये हम

(5 अप्रैल को बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के जनता दरबार से लौटकर)

शुक्रवार, 9 अप्रैल 2010

घटवर्णी !


घटवर्णी, घटवर्णी, घटवर्णी


घाट-घाट पर घटवर्णी


बाट-बाट पर घटवर्णी


ओजस्वी जुबान में


विद्रोही बयान में


न बात न विरोध


केवल मादक-मोहिनी


घटवर्णी,घटवर्णी,घटवर्णी


कभी हाथ जोड़े आते हैं


कभी बंदूक ताने आते हैं


कभी सेवा-सेवा जपते हैं


न्याय-न्याय भी रटते हैं


सत्ता -पैसा मिल जावे तो


गंगा भी वैतरणी


घटवर्णी,घटवर्णी,घटवर्णी

गुरुवार, 1 अप्रैल 2010

बांध और बागमती


A Padyatra : 2nd April to 6th April 2010

The Bagmati is regarded as one of the holiest rivers of India but of
late this river has become a target of the vested interests who have
started making hay while the sun shines.
This river was embanked for the first time in late 1960s in its lower
reaches with a hope that such a work will protect the areas of
Darbhanga, Samastipur and Khagaria districts against recurring
floods. That was never to be. The river kept on breaching the
embankments or else the people living along the river kept on cutting
the embankments as a routine as the water logging caused by the
embankments had made their life miserable. Local production processes
came to a standstill and the people were forced to migrate to other
places in search of employment. It is hard to find a place to stand on
the platforms of the railway stations of Darbhanga or Khagaria. due to
migrant's exodus.
These embankments were extended in Sitamarhi district in upper reaches
in the 1970s and that brought nearly 95 villages within them who had
to be relocated. Only 68 villages have been provided with
rehabilitation so far and the rest 27 are still in waiting list. They
are living either within the embankments, on the embankment or along
the 20 feet wide strip of land along the embankments. They are still
waiting for relocation despite thirty years of completion of the
project. Those relocated were not paid the cost of construction of the
new house but just a paltry sum of money to move their belongings.
There was no question of land for land as that much of land was not
available at all. They are expected to cultivate their land within the
embankments. This land often gets eroded or gets sand cast and
virtually no agriculture is possible there. Loitering in search of
employment and getting humiliated all over the country is their fate.
As if that were not sufficient, effluents of two sugar mills are
discharged into the river, one from the Rauthat district in Nepal and
the other, the Riga Sugar Mill in Sitamarhi. A local MLA, Pt. Damodar
Jha had raised a question in the Bihar Vidhan Sabha about the
pollution caused by the Riga Sugar Mill way back in 1955 and the
government had promised that within a year , ie by 1956, everything
will be brought under control. That has not happened so far.
Governments have come and gone but the plight of the people never


improved. Nearly 9,000 hectares of land remains not only waterlogged
round the year but the pollution caused by the river water has caused
all sorts of health hazards there. The area is now known as Kala Pani.
The government has started raising and strengthening these embankments
almost all over the state and the Bagmati too has fallen prey to this
spree. The adverse results of this effort would be visible in years to
come because there is no likelihood of reduction in the quantity of
water and silt in the river nor there is any possibility lowering of
the river bed because of such sediments. This will add to seepage
through the embankments and the water logging will rise in future.
Then, no embankment has been constructed so far in anywhere in the
world that would not breach. Higher and stronger the embankments,
greater would be the vulnerability of the people to flood disaster.
Barh Mukti Abhiyan - Bihar, Jal Jamav Virodhee Sangharsh Samiti -
Saran, Gaon Vikas Manch - Sitramarhi, Sitamarhi Lok Sewa Sansthan -
Sitamarhi, Sitasmarhi Samaj Shodh Sansthan -Sitamarhi, Kartavya Sewa
Sangha -Awapur, Kshitij - Sonbarsa, National Council Of Social
Welfare- Bakhar, and Shyam Jan Sewa Bharti - Sonakhan have organized a
padyatra that will start from Bhanaspatti in Sitamarhi ( 28th
Kilometer from Muzaffarpur on the Muzaffarpur Sitamarhi Road) on the
2nd April 2010 and will end up in Basbhitta near Dheng bridge on the
6th April 20101 to highlight the issues faced by the people of the
basin. All are invited.

मंगलवार, 30 मार्च 2010

सब्सिडी से जुड़ा एक सवाल

बात बहुत पुरानी नहीं है। सत्तर-अस्सी के दशक में देश की सरकारी तेल कंपनियां सरकार को औसतन 15 से 20 हजार करोड़ रुपये का सालाना लाभ देती थीं। आज सरकार इन कंपनियों को हर वर्ष 50-60 हजार करोड़ रुपये चुकाती है और हर साल इसका आकार बढ़ रहा है। जी हां, मैं पेट्रोलियम सब्सिडी की बात कर रहा हूं। हमारी सरकार पेट्रोल, डीजल और घरेलू गैस पर आज भी भारी सब्सिडी दे रही है। एक सर्वेक्षण रिपोर्ट है कि आज लगभग 60 प्रतिशत घरेलू गैस उपभोक्ता आर्थिक तौर पर इतने समृद्ध हैं कि उन्हें सब्सिडीयुक्त रसोई-गैस की आवश्यकता नहीं है। यह उपभोक्ता-वर्ग चाहता है कि उन्हें समय पर सिलिंडर की आपूर्ति की गारंटी मिले, तो वे हंसी-खुशी सिलिंडर की पूरी कीमत (जो आज की तारीख में लगभग 600 रुपये प्रति सिलिंडर पड़ेगा) चुका देगा। आधिकारिक जांच-पड़ताल में भले ही इस सर्वेक्षण के आंकड़े थोड़े आगे-पीछे खिसक जायें, लेकिन यह सच्चाई से परे नहीं है। और इस पर सहज विश्वास किया जा सकता है। वह इसलिए कि आज भी देश की 95 प्रतिशत आबादी तक रसोई-गैस के कनेक्शन नहीं पहुंचे हैं। और मुझे लगता है कि आम ग्रामीणों तक यह सुविधा कभी पहुंचेगी भी नहीं। यह संभावना भी प्रबल है कि हमारी आने वाली पीढ़ियां जब गैस और सिलिंडर का इतिहास पढ़ेंगी तो वे यह भी पढ़ेंगी कि जब भारत में लोकतंत्र का बागीचा पूरे शबाब पर था तो यहां भी रसोई-गैसों का आगमन हुआ। लेकिन यह सुविधा आयी, लोकप्रिय हुई और खत्म भी हो गयी, लेकिन देश की बहुसंख्यक ग्रामीण आबादी इससे सदा वंचित ही रही। कहने की जरूरत नहीं कि पेट्रालियम गैस की कहानी 2040-50 तक खत्म होनी है। इस कहानी को खत्म होने से कोई नहीं रोक सकता। जो भी हो, भारत का अब तक का इतिहास तो भेदभाव की दास्तानों से पिरिपूर्ण रहा है। अगर इसमें गैस भेदभाव का यह रोमांचक सच भी जुड़ जायेगा, तो कौन-सा आसमान टूटेगा।

यहां सवाल उठता है कि विशुद्ध अर्थशास्त्र के आधार पर सरकार चलाने का दावा करने वाले यूपीए के विद्वान नेताओं को यह बात मगज में क्यों नहीं घूसती। सरकार इन 60 प्रतिशत उपभोक्ताओं को सब्सिडी से वंचित क्यों नहीं करती? अगर ऐसा कर दिया जाये तो सरकार को भारी सब्सिडी के बोझ से भी मुक्ति मिलेगी और सब्सिडी का लाभ उन्हें मिलेगा जो वास्तव में इसके हकदार हैं और आर्थिक रूप से पीछे छूटते चले जा रहे हैं? अब जबकि राज्य की सरकारें सिलिंडर की सब्सिडी को खत्म कर रही है, तो निम्न मध्यमवर्ग की एक बड़ी आबादी का हलक सूख रहा है। यह वो आबादी है जो महंगाई की मार से पूरी तरह टूट चुकी है और जो अपने तमाम कष्टों को आइपीएल मैचों में भूला देने को ही समझदारी मानती है।

बुधवार, 17 मार्च 2010

विनाश काले विपरीत बुद्धि

(कब उठेगा यह लाल पर्दा ? स्थान- प्रतापगंज, जिला- सुपौल )

दहाये हुए देस का दर्द -62

19 महीने में धरती सूर्य का डेढ़ बार चक्कर लगा लेती है। इतनी अवधि में ब्रह्मांड में बहुत-से तारे, ग्रह और नक्षत्र एक छोर से दूसरे छोर पर पहुंच जाते हैं। बड़े-बड़े युद्ध अपने अंजाम को प्राप्त हो जाते हैं। 19 महीने में एक भारतीय नागरिक पांव-पैदल देश की चौहदी माप सकता है। लेकिन 19 महीने में सात किलोमीटर की क्षतिग्रस्त रेलवे पटरी को दुरुस्त नहीं किया जा सकता ! यह दुनिया के शीर्ष रेलवे नेटवर्क में शुमार किए जाने वाले भारतीय रेल की असलियत है।

आपको याद होगा कि 18 अगस्त 2008 को जब कोशी ने पूर्वी बिहार में तांडव नृत्य किया था, तो उसने जहां-तहां रेल पटरियों को तोड़-मरोड़ दिया था। तब उसका कहर बिहार के सुपौल, सहरसा, अररिया और मधेपुरा जिले की लाइफ लाइन कही जाने वाली सहरसा-फारबिसगंज रेल लाइन भी पर जमकर बरपा था। बाढ़ की चपेट में आकर जहां-तहां रेल-सड़क और बिजली के खंभे ध्वस्त हो गये थे। हालांकि पानी हटने के बाद पता चला कि सौभाग्य से बाढ़ में रेल-पटरी और स्टेशनों को ज्यादा नुकसान नहीं हुआ है और कुल मिलाकर छह-सात किलोमीटर की पटरी ही बुरी तरह प्रभावित हुई है। पानी के बावजूद प्रतापगंज, छातापुर और ललितग्राम स्टेशन तब सुरक्षित बच गये थे। हां, इस प्रलयंकारी बाढ़ में सात-आठ छोटे पुल जरूर पूरी तरह ध्वस्त हो गये थे। पानी हटने के बाद तत्कालीन रेल मंत्री लालू प्रसाद ने इलाके के लोगों को आश्वस्त किया था कि जल्द ही इस लाइन की रेल सेवा को दोबारा बहाल कर दिया जायेगा। लेकिन महीना-दर-महीना बीतता रहा, पर सहरसा-फारबिसगंज रेल सेवा चालू नहीं हुई। इसे लेकर कई बार स्थानीय लोगों ने आंदोलन तक किया, लेकिन रेल महकमा कान में रूई और तेल लेकर सोता रहा। रेल के किसी भी आला अधिकारी ने क्षतिग्रस्त पटरियों और पुलों के पुनर्निमाण में कोई दिलचस्पी नहीं दिखायी। परिणामस्वरूप मरम्मत का काम बीरबल की खिचड़ी की कहावत को चरितार्थ करती रही।इस बीच कुसहा में कोशी के टूटे तटबंध को बांध भी दिया गया। इसके बाद तो रेल अधिकारी के पास यह बहाना भी नहीं बचा कि पानी के कारण मरम्मत के काम में बाधा उपस्थित हो रही है। आज भी रेलवे के कोई अधिकारी यह बताने की स्थिति में नहीं है कि इस लाइन पर दोबारा कब रेल के इंजन और डिब्बे का दर्शन हो सकेगा।

यहां एक साथ कई सवाल उठते हैं। सबसे पहला सवाल यह कि क्या अगर सहरसा-फारबिसगंज रेल लाइन महाराष्ट्र, पंजाब, बंगाल, गुजरात, दिल्ली या दक्षिण के राज्यों में होती, तो रेलवे का ऐसा ही सलूक होता ? उत्तर बिहार में अगर बाढ़ के कारण रेल लाइन क्षतिग्रस्त होती है तो तटीय राज्यों में समुद्री तूफानों के कारण आये दिन रेल,सड़क, बिजली आदि की लाइनें क्षतिग्रस्त होती रहतीं हैं। तब भारतीय रेल पूरी तत्परता से आगे आता है और क्षतिग्रस्त पटरी को दुरुस्त भी कर लेता है। लेकिन पूर्वोत्तर बिहार के साथ उसने इतना भद्दा मजाक क्यों किया है ? इसलिए कि इस इलाका का उल्लेख पूंजीपतियों की डायरी में नहीं है और यहां के लोग बात-बात पर हथियार नहीं उठाते हैं ? भले ही रेल मंत्री या शीर्ष रेल अधिकारी ऐसे सवालों का जवाब देना जरूरी नहीं समझे, लेकिन हकीकत यही है। हकीकत यह है कि दिल्ली में बैठे देश के नीति-नियंता अब बाजार, हिंसा और वोट बैंक को छोड़ दूसरी कोई भी भाषा नहीं समझते। इसे बिडंबना नहीं तो क्या कहा जाये। वैसे भी अपने यहां एक प्राचीन कहावत काफी प्रचलित है- विनाश काले विपरीत बुद्धि !

रविवार, 14 मार्च 2010

शोर मचाओ, शोर मचाओ

शोर मचाओ, शोर मचाओ

जोर-जोर से सब चिल्लाओ

गला फाड़ो, माइक उठाओ

लेख-आलेख- कविता लिखो

बहस-मुबाहिसे जारी रखो

बहनें खुश हैं !

माएं खुश हैं !

दादी-नानी-मौसी खुश हैं !

नर्सरी की नैंसी खुश है !

काठ की कठपुतली खुश है !

कूड़ा चुनती कुसिया खुश हैं !

दिल्ली से हम देख रहे हैं

अस्मत खोयी बेवा खुश है

"दुमकावाली'' मुर्दा खुश है

लकड़ी चुनती बुढ़िया खुश हैं !

भूखनगर की भूतिया खुश हैं !

तैंतीस प्रतिशत

जिंदावाद

तैंतीस प्रतिशत

मुर्दावाद

प्रतिशत में प्रतिशत

जिंदावाद

भूख लगी है ?

शोर मचाओ ...

बिन दाना के मां मरी है ??

मुखर्ता है शोक मनाना

शोर मचाओ, शोर मचाओ ...

शंख बाजे

काल भागे

घंट बाजे

पिशाच भागे

शोर बाजे

भूख भागे

शोर बाजे

महगी भागे

इसलिए

शोर मचाओ, शोर मचाओ

जोर-जोर से शोर मचाओ

 

 

गुरुवार, 4 मार्च 2010

जल नीति के मसौदे पर सुझाव आमंत्रित

बिहार जल संपदा से परिपूर्ण राज्य है किंतु फिर भी यहां जल उपलब्धता कम रहती है। भौगोलिक परिस्थितियों एवं अन्य कारणों से जल के विभिन्न उपयोगों जैसे सिंचाई, पीने और घरेलू उपयोग, औद्योगिक, तापीय और जल विद्युत आदि के लिये बढ़ती हुई मांगों को पूरा करने के लिये जल का समुचित प्रबंधन आवश्यक हो गया है। भौगोलिक स्थिति और वर्षा के असमान वितरण के कारण बिहार का उत्तरी भाग बाढ़ की चपेट में रहता है तो दक्षिणी भाग सूखे की मार झेलता है। राज्य में कुल जल उपलब्धता तो अधिक है लेकिन उपयोग योग्य जल कम है।राज्य का कुल भौगोलिक क्षेत्रफल 94।163 लाख हेक्टेयर है जिसमें से 56.68 लाख हेक्टेयर पर ही खेती होती है 9.44 लाख हेक्टेयर अन्य परती जमीन है जिसे प्रोत्साहन देकर कृषि योग्य बनाया जा सकता है। राज्य की वर्तमान आबादी 8.288 करोड़ है जबकि 2025 तक 13.13 करोड़ तक अनुमानित है। वर्तमान में सिंचाई एवं अन्य कृषि निवेशों से 1.675 टन प्रति हेक्टेयर की उत्पादकता का स्तर प्राप्त हुआ है जो अन्य राज्यों की तुलना में काफी कम है। भविष्य की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिये 3.5 टन प्रति हेक्टेयर उत्पादकता का लक्ष्य प्राप्त करना होगा। इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिये जल संसाधनों के प्रबंधन में सुधार लाना आवश्यक हो गया है।इन परिस्थितियों में राज्य जल नीति को नए सिरे से सूत्रीकृत करने की आवश्यकता महसूस की गई और मुख्य उद्देश्यों की प्राप्ति के लिये राज्य जल नीति 2009 प्रतिपादित की जा रही है।राज्य जल नीति, 2009 का जलसंसाधन विभाग, बिहार द्वारा प्रारूप तैयार किया गया है। इस मसौदे को http://wrd.bih.nic.in और www.prdbihar.org पर देखा जा सकता है।राज्य जल नीति के इस प्रारूप पर आम जनता की राय, सुझाव और मंतव्य आमंत्रित हैं।
यदि आप कोई सुझाव या राय देना चाहते हैं तो इंडिया वाटर पोर्टल या water।community@gmail.com पर एक माह के भीतर भेज सकते हैं । आप अपने सुझाव सीधे wrd-bih@bih.nic.in पर भी भेज सकते हैं। आप अपने सुझाव यहां कमेंट के रूप में भी डाल सकते हैं जिन्हें हम नीति निर्माताओं तक पहुंचाएंगे ।

यदि इस संदर्भ में कोई विशेष जानकारी चाहिए तो आप मगध जल जमात के संयोजक श्री रविन्द्र पाठक जी से बात कर सकते हैं। उनका मो- 09431476562 है।

(इंडिया वाटर पोर्टल से साभार )

गुरुवार, 25 फ़रवरी 2010

गिरोहों के बीच

बासी मांड़ और बासी भात खाकर
पूरब की पहली किरण के साथ
सालों तक बैलों के संग जुतते रहने के बाद
और चढ़े सूरज के नीचे
उसने
गरमाये मुराठे को उतारा
और झुलसायी चमड़ी पर मिट्टी का लेप लगाकर
उसने
बगुले की चोंच में ढपाढप समाते केंचुए को देखा
और जाना
कि इस देश में उसकी औकात
'जौ-तील-कुस' से बेसी नहीं है
जिसे अंतत स्वाहा हो जाना है
'इहागच्छत, इहतिष्ठित' जैसे मंत्रों के साथ,
जानते-जानते उसने यह भी जाना
कि पांचवीं वर्षी के बाद प्रेत पितर बन जाता है
और पिण्ड दान के साथ ही इतिहास खत्म हो जाता है
लेकिन दुनिया चलती ही रहती है
जंगली और शहरी गिरोहों के साथ
लिखित-अलिखित कानूनो के साथ
लाइसेंसी या गैरलाइसेंसी बंदूकों के साथ
++
मुंबई की पिटाई
और गुवाहटी के चीरहरण के बाद
उसने चिल्लाकर कहा कि
देश
संसद में 273 कुर्सियों के इंतजाम का ही दूसरा नाम है
और संविधान
बुढ़िया की टांगों पर चढ़े पलस्तर से ज्यादा कुछ नहीं
और
'हम भारत के लोग'
हैं भी क्या
एक वोट के सिवा
'भारत को'
देंगे भी क्या
एक वोट के सिवा