गुरुवार, 18 सितंबर 2008

कौन सरकार ? कहां की सरकार ??


दहाये हुए देस का दर्द- 6

रंजीत
राजनीति शास्त्र के पंडितों का कहना है कि तंत्र (लोकतंत्र, राजतंत्र या फिर तानाशाही तंत्र) कोई भी हो, वह चलता है शासन के इकबाल (प्रताप) से । सरकार, हर जगह, हर समय, हर किसी के लिए नहीं हो सकती; लेकिन उसका प्रभाव, उसका हस्तक्षेप आैर उसकी जिम्मेदारी हर जगह नजर आनी चाहिए। दुनिया से राजशाही आैर तानाशाही इसलिए खत्म होती गयी क्योंकि वह लोकोन्मुख नहीं हो सकी। प्रजातंत्र इसलिए फूलता-फैलता गया क्योंकि वह यह भरोसा दिलाने में सफल रहा कि यह तंत्र कम-से-कम लोगों से दूर नहीं होगा आैर लोगों के सुख-दुख में बराबर का हिस्सेदार रहेगा। क्या भारत की विभिन्न सरकारें (कोसी प्रलय के संदर्भ में) इस सिद्धांत की कसाैटी पर खरा उतर रही हैं? खासकर भ्रष्टाचार के दैत्य के उदय के बाद के दाैर में क्या सरकारों को आम लोगों के कष्ट से कोई रागात्मक रिश्ता रह गया है ? क्या यहां की सरकारों का अर्थ, चुनाव जीतने, संसद या विधानसभा में अंकगणित साबित करने तक तो सीमित नहीं होते जा रहा है। यह सवाल अक्सर ही उठता रहता है। अलगाववाद का जन्म इन्हीं सवालों के कोख से होता हैऔर हुआ भी है। उपेक्षित होकर बेटा भी बाप के विरूद्ध खड़ा हो जाता है। भले ही यांित्रक लोकतंत्र के समर्थक इन्हें अन्य चीजों से जोड़ें आैर राज्य शिक्त के बदाैलत अपनी विफलताओं को छिपाने की कोशिश करें।
कोशी अंचल में पिछले दिनों सरकारों की जो भूमिका रही और जो भूमिका वह अभी निभा रही है, उसने उस अंचल के लगभग चालीस लाख लोगों का भरोसा तोड़ दिया है। आप एक सामान्य नागरिक की हैसियत से सुदूर गांवों में जाइये आैर विपदाग्रस्त लोगों की भावनाओं को टटोलिए। विस्थापितों के गुस्से का आलम यह है कि आपसी बातचीत के क्रम में अगर सरकार शब्द का गलती से भी उल्लेख हो जाये तो वे भढ़क उठते हैं। सुपौल जिला के निर्मली गांव के बाढ़पीड़ितों को जब मैंने सरकारी राहत की बात कही, तो वे बुरी तरह भढ़क उठे। उन्होंने हमसे आक्रामक लहजे में सवाल किया- कौन-सी सरकार ? कहां की सरकार ??
यह गुस्सा पानी घटने के साथ-साथ बढ़ता ही जा रहा है। यह पटना-दिल्ली में बैठों को भले ही विचित्र और आशा के विपरीत लगे, लेकिन सच्चाई यही है। यत्र-तत्र सिर छिपाये लोगों को जैसे ही पानी कम होने की सूचना मिल रही है वे बेतहाशा अपने गांवों-घरों की ओर भागे जा रहे हैं। इस उम्मीद के साथ कि देखें तो कहीं उनके माल-मवेशी जिंदा तो नहीं ! उनके घर जमीन पर हैं कि नहीं ! कोशी के कहर से उनके खेतों में लगी फसल आंशिक रूप से भी बच पाये हैं कि नहीं! यानी आशा के खिलाफ भी आशा कर रहे हैं लोग। लेकिन गांव पहुंचते ही उनकी उम्मीदों पर बज्रपात हो जाता है। छातापुर, बसंतपुर, आलमनगर, कुमारखंड, त्रिवेणीगंज, मूर्लीगंज, जदिया और उदाकिशुनगंज जैसे प्रखंडों में घर तो दूर कई गांवों तक को पहचानना मुश्किल हो रहा है। घटते हुए पानी में जो एक चीज उगकर सामने आ रही है वह है- रेत का सफेद मैदान और मवेशियों एवं इनसानों की बिखरी एवं सड़ती हुई लाशें। यानि कहर में बचे लोगों की बची-खुशी आशाए,ं गांव की सीमा में दाखिल होते ही दम तोड़ रही है। एक भयावह भविष्य उनके सामने सुरसा की तरह मुंह बाये खड़ा हो जा रहा है। उजड़े घर कैसे बने? झोपड़ी-झुग्गी बनाकर अगर सिर छिपा भी लिया तो खाओगे क्या? खेत बंजर हो चुके हैं। मवेशियां पानी में बह चुकी हैं। चापानल काम नहीं कर रहा। घर या तो बह गये या रहने लायक नहीं है। संक्रामक बिमारियां घोड़े की रफ्तार में दौड़ रही हैं।
.. . और सरकार ? वह जिला मुख्यालय से बाहर निकल ही नहीं सकती। इनके रहनुमाओं को प्रेस-कैमरा व माइक से फुर्सत नहीं है। घोषणा-दर-घोषणा हो रही है और लोग मारे जा रहे हैं। पहले पानी के कहर से अब बिमारियों से। ऐसा नहीं है कि सरकारी रहनुमा को पता नहीं है कि लोगों को उनकी जरूरत है। उन्हें मालूम है कि बाढ़ पीड़ितों के लिए एक तिनका भी अभी आशियाने के समान है। माचिस की एक तिली भी उनके लिए किसी स्वर्ण-संपदा से कम नहीं है। फिर भी उनकी जनविमुखता कायम है। शायद उन्हें डर है कि कहीं जनाक्रोश उन्हें लील न जाये। जान बचेगी तो राजनीति होती रहेगी। यानी लापरवाही के बाद अब पलायनवाद का सहारा ...
ऐसे में अगर लोगों के बीच जाने की हिम्मत करने वाले पत्रकारों को कौन सरकार और कहां की सरकार जैसे नारे सुनने पड़ रहे हैं तो इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है। सैकड़ों स्थलों पर मैंने खुद स्थानीय प्रतिनिधि- विधायक, संासद, मुखिया, प्रखंड प्रमुख एवं जिला परिषदों के सदस्यों के खिलाफ भदेस गालियां सुनी। सरकारी अधिकारी को स्वतंत्रता प्राप्ति के 62 वर्षों के बाद भी कोसी अंचल के लोग सरकार-बहादुर (अंग्रेज अधिकारी) ही कहते हैं। अगर समय रहते राहत-पुनर्वास का काम युद्ध स्तर पर नहीं हुआ तो ये गालियां स्थायी जनाक्रोश का रूप भी ले सकती है। तब इसके लिए जिम्मेदार कौन होंगे ? समाजशास्त्रियों और विद्ध- जनों को अभी से इसका जवाब ढूंढना चाहिए ताकि कम-से-कम इतिहास तो सही-सही लिखा जा सके।

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