शुक्रवार, 19 सितंबर 2008

कुहन-खराबे में अपनों की तलाश

(बेलही राहत - स्थल पर अपने परिवार से बिछुड़ी एक महिला )

दहाये हुए देश का दर्द -7
रंजीत

विरक्ति और वैराग्य से भरे किसी क्षण में शायर मीर तकी मीर ने लिख दिया होगा- इस कुहन- खराबे (सुनसान रेगिस्तान) में आबादी न कर मुनीम/ एक शहर नहीं यहां जो सहरा (खण्डहर) न हुआ हो। इन पंक्तियों को लिखते वक्त मीर साहेब ने सोचा भी नहीं होगा कि धरती पर पलक झपकते ही दर्जनों शहर और सैकड़ों बस्तियां कुहन-खरापे में बदल सकते हैं। अगर आज मीर साहेब की आत्मा कोशी अंचल को देख रही होगी तो पूछती होगी कि ये शहर सहरा क्यों हुआ और आबादी कहां गयी मुनीम ? कोई चेहरा तो दिखा जो रोया न हुआ हो।
कोशी की प्रलयंकारी बाढ़ के मारों के गमों-दर्द को शब्दों में बयां करना अब बहुत कठिन होते जा रहा है। राहत-शिविरों, मैदानों, नहरों, खेतों तथा यत्र-तत्र आश्रय लिए हुए लोगों से मिलने के बाद संसार से विरक्ति होने लगती है। क्या आधुनिक मानव-समाज; प्रकृति की श्रेष्ठ रचना- मानवऔर उसके जीवन का यही इष्ट है ? कि पलक झपकते मनुष्य इंसानी जीवन के सारे मुलभूत तौर-तरीके, जरूरत और आवश्यकताओं के बगैर जीने की आदत डाल ले ? कि कीचड़ से सनी झुग्गियों-झोपड़ियों में वे गंदे जानवरों की तरह रहनेे लगे? कि भूख से बिलबिलाते बच्चे पेट दबाकर बेहोश हो जाये और उसे एक कौर निवाला तक न मिल सके ? कि गर्भवती स्त्रियां आने वाले बच्चों से आग्रह करें कि वह कुछ दिनों के लिए अपने जन्म को टाल दे ? कि डायरियाग्रस्त बच्चे माता-पिता की गोदी में कय करते-करते दम तोड़ दें, लेकिन मां-पिता उसे चिकित्सक से दिखाना तो दूर घरेलू दवा तक न पिला सके? अगर मानव-जीवन का यही इष्ट है, तो शायद मौत इससे बेहतर होती होगी !!!
कोई दो दिनों से भूखा है तो कोई तीन दिनों से। कोई खुद बीमार है तो किसी के बच्चे बीमार हैं। कोई आंखें शून्य में अपने विछड़े बंधु-बांधव को तलाश रही है, तो कोई आंखें धरती में जम गयीं हैं। सुपौल के बेलही आश्रय-स्थल (मैं इन झुग्गियों को शिविर नहीं कहूंगा) के आसपास हजारों कराहते-कुहरते मानव समुदायों में मेरी नजर एक अधेड़ महिला पर टिक जाती है। कुछ भी पूछने का साहस नहीं होता, क्योंकि मुझे मालूम है कि मैं इनके गमों को हल्का नहीं कर सकता। फिर भी साहस बटोरकर उसके पास जाता हूं। कुछ पूछने से पहले ही वह महिला, जिसका नाम रेणु देवी है ; रोने लगती हैं। उसे अपने बिछड़े बेटे-बेटियों-दामादों और पति की तलाश है। यह महिला अपने गांव चुन्नी से बाहर निकलते समय नाव तक अपने दो बेटे, एक बेटी और पति के साथ आयी थी। अफरातफरी में वह अपने कुनबे से अलग हो गयी। क्योंकि उस सरकारी नाव में महिला और बच्चों को ही बिठाया गया था। इसके बाद वह बेलही में आश्रय ली हुई है, लेकिन परिवार के बांकी लोगों का कोई अता-पता नहीं है। रेणु देवी कि आंखों से अविरल धारा रूकने का नाम नहीं ले रही। आश्रय-स्थलों में दिन-रात बिता रहे ऐसे लोग अपने को भाग्यशाली मान रहे हैं, जिनके परिवार के सभी सदस्य एक साथ हैं। हर दूसरा व्यक्ति अपनों से अलग होने के गम से दो-चार है। अब जबकि कुसहा हादसा के 32 दिन बीत गये हैं, तब भी किसी सरकारी या गैरसरकारी एजेंसी का इस ओर ध्यान नहीं है। स्थानीय अधिकारियों ने कुछ रटे-रटाये जवाब तैयार कर लिए हैं। सवाल कोई भी हो जवाब यही होगा- मेगा कैंप में शिफ्ट करने के बाद ... यानी जबतक लोग मेगा कैंप में शिफ्ट नहीं हो जाते वे उनके लिए कुछ नहीं कर सकते।
अब मेगा कैंप का हाल जान लीजिए । सहरसा जिला मुख्यालय के पटेल मैदान में बिहार सरकार एक मेगा कैंप चला रही है। हर दिन यहां से न्यूज चैनल का लाइव कवरेज हो रहा है। बड़ी-बड़ी बातें की जा रहीं है। यहां तक कि वे बच्चों के पढ़ने से लेकर मनोरंजन तक की व्यवस्थाओं का दावा करते हैं। इसी पटेल मैदान के बगल में मेरे एक रिश्तेदार का घर है। सुबह से शाम तक कम से कम आठ-दस लोग उनके घर का दरवाजा खटखटाते हैं। एक दिन, दोपहर के समय एक वृद्ध पहुंचते हैं और भोजन की मांग करते हैं। घरवाले उन्हें खाने के लिए देते हैं। वृद्ध को आधा भोजन करने के बाद अचानक जैसे कुछ याद आ जाता है। वह थाली में बचे जूठे भोजन को अंगोछा में बांधने लगता है। मेरे लाख मना करने के बाद भी वह पूरा भोजन नहीं करता है। पूछता हूं - बाबा, आप इस जूठे खाना का क्या करेंगे ? जवाब आता है - बुदरूआ सब के लेल बाबू , द्विव सांझ से भूखले छै (बच्चों के लिए बाबू, दो शाम से भूखा है)! पूछता हूं- कहां ठहरे हुए हैं ? जवाब आता है- पेटेल मीदां में (पटेल मैदान में)।
अंग्रेजी में मेगा का मतलब होता है- महा। मेगा कैंप यानि महा कैंप ! महान कैंपेन !!

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