सोमवार, 10 नवंबर 2008

एक गाथा का समापन

सौरव चंडीदास गांगुली। यह सिर्फ एक नाम नहीं, बल्कि प्रतीक और प्रेरणा जैसे शब्दों का पर्यायवाची है । एक ऐसा प्रतीक, जो जीतने की जिजीविषा पैदा करता है। एक ऐसी प्रेरणा जो नाउम्मीदी के घने अंधकार में भी रोशनी की आस जगाये रखती है। सौरव को कौन भूल सकता है ? सौरव, तो वह शिला-पट्ट है जिस पर घिस-घिसकर आज का यह धारदार क्रिकेट-नवदल तैयार हुआ है। जबतक इस दल में धार रहेगी, जबतक इसकी तेज रहेगी, तबतक सौरव रहेंगे। बल्कि यूं कहिए कि आने वाले वक्त में जब-जब कोई भारतीय क्रिकेट टीम जीत के लिए अपनी सबकुछ झोंकती दिखेगी तब-तब अचानक सौरव याद आयेंगे। जबतक छूरी में धार है और उसमें काटने की आखिरी शक्ति बची है, तबतक वह शिला-पट्ट भी है जिस पर घिस-घिस कर, जिसके सान पर बार-बार उस छूरी को चढ़ाया और उतारा गया और लोहे के उस भोथर पत्तर में काटने की शक्ति पैदा की गयी।
मुझे याद आता है 1996- 2008 के 12 वर्षों का सौरवनीत- समयांतराल। यह वक्त की अंतहीन नदी का वह कालखंड है, जिसमें नदी की मौज ने अपने यौवन को प्राप्त किया; जिसमें भारतीय क्रिकेट क्रिकेट का नया व्याकरण पैदा किया। चोटियों पर चढ़कर ऊंचाइयों का मतलब समझा और क्रिकेट की नई-पौध के लिए उर्वर जमीन तैयार की। मुझे याद आता है वर्ष 1996 को सहारा कप। मुझे याद आता है 1998 का एशिया कप का फाइनल। मुझे याद आता है 2001-02 का अफ्रीका दौरा। मुझे याद आता है 2003 का विश्व कप। सहारा कप में इस पतले-दुबले खिलाड़ी ने अकेले अपने दम पर पाकिस्तान को धूल चटा दी। तब के कप्तान सचिन को कहना पड़ा यह खिलाड़ी नहीं, बल्कि सेकरेट वीपन है। बैट थामा तो रन बरसाये, गेंद पकड़ी तो गिल्लियां बिखेरीं और भारत ने अपने चिरप्रतिद्वंदी पाकिस्तान को मात दे दी।
बांग्लादेश की राजधानी ढाका में फाइनल मुकाबले जीतने के लिए भारत को 318 रनों का विशाल लक्ष मिला था, सचिन रूपी चकौचोंध बिना जले ही बुत कर पवैलियन लौट चुका था। लेकिन सौरव ने रॉबिन सिंह के साथ मिलकर ढाका की पीच पर खूंटा गाड़ दिया और शानदार शतक बनाकर एशिया कप भारत की झोली में डाल दिया। यह वह खिलाड़ी था जो बड़े मैचों और तगड़ी टीमों से डरता नहीं था। जब कभी टीम को जरूरत पड़ती सौरव का बल्ला गरजने लगता था। उनके शाट बिजली की भांति ऑफ साइड की सीमा लांघ जाती और विपक्षी टीम के कप्तान निस्सहाय दिखने लगते।
यह सौरव ही है, जिसने भारतीय बल्लेबाजों को क्रीज छोड़कर बाहर निकलना और ऊंचा शाट मारना सिखाया । सौरव से पहले शायद भारतीय बल्लेबाजों को मालूम भी नहीं था कि कैसे क्रीज छोड़कर छक्के लगाये जाते हैं। नवजोत सिंह सिद्धो ने स्पीनरों के खिलाफ ऐसे कुछ शाट जरूर खेले, लेकिन वे जितने छक्के लगा पाये उससे ज्यादा दफे आउट हुए। लेकिन सौरव ! जेफ बायाकॉट ने तो एक बार कहा था- अगर सौरव ने क्रीज छोड़ दी तो गेंद सीमा रेखा के बाहर ही जायेगी, कोई भी गेंदबाज तब कुछ नहीं कर सकता। अगर वह गेंद की पीच पर नहीं पहुंच पायेगा तो इनसाइड आउट मार देगा और आप कवर बाउंड्री के बाहर से गेंद लायेंगे और अगर उसका बल्ला गेंद की पीच पर पहुंच गया तो फिर बाउंड्री कोई भी हो सकता है। सौरव जिधर चाहे उधर उसे पहुंचा देगा। वह आपको मीडविकेट के ऊपर, लांग आन, लांग आफ या फिर स्ट्रेट आफ द बालर हेड, कहीं भी भेज सकता है। सौरव के 190 से ज्यादा छक्के इस बात का प्रमाण है। मुझे याद आता है - सौरव का 2001-02 का अफ्रीका दौरा। इसमें सौरव ने अफ्रीका की नामी पेस तिकड़ी- एलन डोनाल्ड, मखाया एनतिनी और शान पोलाक के खिलाफ लगाये गये 18 छक्के । सौरव ने इस श्रृंखला में इनसाइड आउट छक्के से इन गेंदबाजों की नींद हराम कर दी थी। टीवी के एक्शन रिप्ले में इन छक्कों को देखना एक अमिट अनुभव था। मानो कोई कोई चित्रकार ग्लासी कागज पर अपने ब्रश-कुचे चला रहा हो। गेंद और बल्ले का स्पर्श सुहाना, गेंद का ट्रेजेक्टरी अनोखा और तय की गयी दूरी- सौ मीटर । एक प्रोजेक्टाइल की तरह निकलती थी गेंद और दर्शक दीर्घा में समा जाती थी।
सौरव विज्ञापन की एय्यारी-फैंटेसी दुनिया द्वारा तैयार किया गया ग्लैमर-ब्वाय नहीं था। न ही वह रूटीन मैचों और फ्लैट पीचों का शेर था। वह बड़े मैच का बड़ा खिलाड़ी था। वह बड़े मैच का अनोखा नेता था, जो 11 खिलाड़ियों से मैच जितना चाहता था। यह कैप्टनशीप के उसके अद्वितीय नेतृत्व-प्रतिभा का द्योतक है। सौरव जैसे खिलाड़ियों को जो सम्मान मिलना था वह नहीं मिला। जमाने ने हमेशा उसे अपना निशाना बनाया। परदेशियों ने मजाक उड़ाया और अपनो ने धोखा दिया। आज कोई नहीं कहता- सौरव नहीं होता तो धोनी भी न होता; दादा न होता तो युवराज भी न होता; न सेहवाग होता और हरभजन। सौरव क्या ऐसी ही विदाई का हकदार था। क्या वह बंगाली था, इसलिए या वह क्रिकेट के उस जोन से आता था- जिसे कभी बेदी जैसे लोग ननक्रिकेटिंग रीजन कहते थे, इसलिए! मैं आजतक नहीं समझ पाया।
सौरव चिंतनशील व्यक्ति हैं। वह आत्ममुखी स्वभाव के हैं। वह जान गये कि अब हिज्र की घड़ी आ गयी है, इसलिए उसने क्रिकेट को भारी मन से बाय-बाय कह दिया। लेकिन सौरव के हिज्र के साथ ही भारतीय क्रिकेट की एक गाथा का समापन हो गया। एक ऐसी गाथा, जिसे सचिन जैसे रिकार्डों के पहाड़धारी भी नहीं रच सके। सौरव की विदाई के बाद मुझे किसी शायर की चार पंक्तियां दोहराने का मन करता है
किसी के सव-ए- वश्ल हंसते कटे हैं
किसी के सव-ए- हिज्र रोते कटे हैं
यह कैसा सव है या खुदा !
न हंसते कटे हैं न रोते कटे है

2 टिप्‍पणियां:

ओमप्रकाश अगरवाला ने कहा…

सौरभ का सौरभ क्रिकेट जगत और क्रिकेट इतिहास को हमेश सुवासित रखेगा. दादा की इस जुझारू पारी को नमन और आपका धन्यबाद की आपने उनकी यात्रा को इतने सुंदर शब्दों में पिरोया है.
ओमप्रकाश अगरवाला
MERIKHABAR.BLOGSPOT.COM

Udan Tashtari ने कहा…

एक अध्याय की समाप्ति..भविष्य के लिए शुभकामनाऐं.