मंगलवार, 20 जनवरी 2009

गुलामी का पाप और मुक्ति का शाप (पहली कड़ी)

(बसने-उजड़ने की नियति-- कोशी तटबंध के अंदर हर साल बनाने पड़ते हैं घर। तस्वीर- मुकेश कुमार की )
दहाये हुए देस का दर्द -29
मुक्ति !
भारत के प्राचीन आध्यात्मिक ग्रंथों में इसकी बहुत चर्चा की गयी है। कुछ पौराणिक कथाओं में इसकी महिमा विस्तार से बतायी गयी है कि कैसे साधु-महात्मा और संन्यासी मुक्ति के लिए वर्षों-वर्षों तक तपस्या करते रहते थे। जब परमेश्वर प्रसन्न होते, तो मुक्ति का वरदान देते थे। वरदान के साथ मनुष्य जीवन- मृत्यु, राग-द्वेष-अनुराग के लौकिक बंधनों से मुक्त हो जाते थे। इसमें परमानंद की प्राप्ति होती थी। वैज्ञानिक सिद्धांत भी कहता है कि ऊर्जा की मौलिक प्रवृत्ति संरक्षित रहने की होती है, वह रूप परिवर्तन की इच्छुक नहीं होती। लेकिन आधुनिक जीवन की जरूरतें इस अवधारणा से पूरी नहीं हो पाती। आधुनिक मानव सभ्यता को वशीकरण में ही परमानंद की प्राप्ति होती है। साम्राज्यवाद और सामंतवाद इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। साम्राज्यवाद और सामंतवाद मानव को मानव द्वारा गुलाम बनाने की इच्छा का विस्तार ही तो है। जब मानव मात्र को अधीन कर मनुष्य का मन नहीं भरा तो उसने नदी, पहाड़, जंगल तक को कैद करना शुरू कर दिया। धरा-गगन में भी सीमा रेखा खींच दी।
क्या कोशी नदी का जलप्रलय मानव के अधीनीकरण की इच्छा के विरूद्ध नद-संग्राम तो नहीं! पिछले पांच महीने से मैं इस सवाल का उत्तर खोजने का प्रयास कर रहा हूं। मेरे दिमाग में कई बातें आ और जा रही हैं। मैंने दो वर्ष पहले कोशी के तटबंध के अंदर के इलाकों की पैदल यात्रा की थी। तटबंध के अंदर के बियावान बस्तियों, दूर-दूर तक फैले रेत और झाड़ियों में घूमता रहा था। तटबंधों में जकड़ी एक नदी की धड़कन सुनने की कोशिश थी, वह यात्रा। अगस्त में कोशी ने जब कुसहा के पास तटबंध को तोड़कर पूर्वी बिहार के चार जिलों में प्रलय मचाया, तो एक बार फिर मैं नदी के साथ-साथ बहता रहा। ये दोनों यात्राएं एक-दूसरे से भिन्न थीं, लेकिन दोनों का इष्ट या फलाफल एक ही था। दोनों जगह नदी रो रही थी और इंसान कराह रहा था। इस साझे दर्द को कलमबद्ध करने का प्रयास है यह पोस्ट; एक रौद्र-रूपा नदी के बयान की तरह, ताकि सनद रहे।
तटबंध के अंदर/ बसने-उजड़ने की अकथ कहानी
वह दो दिसंबर, 2006 की बहुत ठंड सुबह थी। और उस सुबह की रात में एक लंबी बहस हो गयी थी। ससुराल के लोग भौचक्क थे। कोशी तटबंध के अंदर ? क्या करने ? उधर भी कोई भला मानुष जाता है क्या ? उस रेत भरे बियावान बस्तियों में? दिन में ही रहजनी हो जाती है। न सड़क, न पगडंडी, न बिजली न थाना, न बाजार, न दुकान ? भला आपको क्या पड़ी है। मैंने कहा -- जाना है, सो जा रहा हूं। अगर 10 लाख लोग तटबंध के अंदर बारहों महीने रहते हैं, तो मैं दो-चार दिन भी नहीं रह सकता ? सबों ने माथा पीट लिया। पत्नी कुछ बोलना चाहती थी, लेकिन कुछ सोचकर चुप ही रही। मैंने कहा-- सहरसा में टेलीविजन के रिमोट को टिपटिपाकर और साले-सालियों से दिललगी करते हुए दिन बिताने से अच्छा है, कहीं से होकर आ जाऊं। जहां सड़क-रेलवे है वहां तो हर कोई जाता-आता रहता है, कभी ऐसी जगह भी जाया जाये, जहां जाने के लिए न तो सड़क हो और न ही रेलवे। लेन-देन, काज-रोजगार के लिए तो आदमी कहीं भी चला जाता है, कभी बेमतलब, निरूद्देश्य कहीं जाकर भी तो देखें कि कैसा लगता है। उसे मेरी बात समझ में नहीं आयी। लेकिन यह आभास जरूर हो गया कि मेरी यात्रा में एक चाहत है । और जो आपको प्यार करती हो वह आपकी चाहत के मध्य कभी नहीं आती।
परिणाम यह हुआ कि सुबह आठ बजे मैं सुपौल जिले के थरबिटिया रेलवे स्टेशन पर था। अगर सामान्य दिन होता, तो इस वक्त मैं विस्तर पर ही पड़ा होता। यह स्टेशन कोशी नदी की पूर्वी तटबंध के बिल्कुल किनारे पर अवस्थित है। मुझे इतना तो मालूम था कि यह पूर्वी तटबंध है और इससे नीचे उतरते ही कोशी का विशाल दियारा क्षेत्र शुरू हो जाता है, लेकिन किधर बस्तियां हैं और किधर-किधर से आवाजाही होती है, इससे मैं पूरी तरह अनजान था। स्टेशन पर एक चाय दुकानदार से पूछा, तो उसने गांव का नाम पूछा। जब मैंने बताया कि मुझे किसी एक गांव या एक व्यक्ति से नहीं मिलना है, तो वह भौंचक्क रह गया। बोला- घूमने-उमने के लिए तो उधर कोई नहीं जाता। बीहड़ भी कोई घूमने की जगह होती है क्या ? ... कीचड़-रेत-पानी भी कोई देखने की चीज है क्या ? मैंने कहा- बस ऐसे ही... आप यह बताइये किस ओर से अंदर जाया जा सकता है। उसने कहा- कोई एक स्थायी रास्ता नहीं होता, उधर जाने का। जिसको जब जिधर से आसानी होती है, चले जाते हैं। हां, लेकिन अकेले कोई नहीं जाता! आप बांध पर जाकर खड़े हो जाइये, प्रतीक्षा कीजियेगा, घंटा-आधा घंटा में कोई न कोई टोली अंदर जाते दिख जायेगी। उन्हीं लोगों साथ हो लीजिएगा।
मैंने ठीक ऐसा ही किया। स्टेशन से पैदल चलकर तटबंध पर आ गया। पश्चिम की ओर देखा। दूर-दूर तक फैले रेत के सिवा कुछ भी नजर नहीं आया। तटबंध से लगभग आधे किलोमीटर आगे ही नदी की एक धारा बहती दिख रही थी, हालांकि पानी काफी कम था। मैंने सोचा कि अगर अंदर में लोग रहते हैं तो इस धारा को पार करके ही थरबिटिया स्टेशन आते होंगे। और अगर लोग आते-जाते होंगे तो इस धारा को पार करने के लिए कहीं-न-कहीं नाव जरूर लगता होगा। मैं इसी उधेड़बुन में खोया हुआ था कि तटबंध पर एक मोटरसाइकल की आवाज सुनाई दी। जब वह मेरे नजदीक पहुंचा, तो मैंने उसे रुकने का इशारा किया। थोड़ा आगे जाकर वह रूक गया। मैं दौड़कर उसके पास पहुंचा। उसने अपने चेहरे को मफलर में छिपा रखा था। मैंने कहा- आप अंदर जा रहे हैं क्या ? उसने सिर हिलाकर हां में जवाब दिया। पूछा- कहां जाना है ? मैंने कहा- अंदर के गांवों में ... उसने इशारे से पीछे बैठने के लिए कहा ? 1970 के जमाने के उस राजदूत मोटरसाइकल की सीट जगह-जगह से फटी थी, और उसकी आवाज किसी ट्रैक्टर से भी ज्यादा तीखी थी। फिर भी मैं बैठ गया, हालांकि उस युवक के लक्षण मुझे ठीक नहीं लग रहे थे। वह तटबंध पर ही चलता रहा और लगभग डेड़ किलोमीटर आगे जाने के बाद उसने एक जगह हैंडल को मोड़ दिया। लगभग चालीस फीट ऊंचे तटबंध से मोटर साइकल नीचे कटे पेड़ की तरह लुढ़कता चला गया। एक पल के लिए तो मुझे लगा कि जान से गया, लेकिन अगले पल मेरे आश्चर्य का कोई ठिकाना नहीं रहा। यह कोई दुर्घटना नहीं थी। उसने जानबूझकर मोटरसाइकल नीचे उतारा था और बहुत आसानी से इसमें सफलता हासिल कर ली थी। उसके लिए यह एक सामान्य ड्राइविंग थी। धारा के किनारे पहुंचकर उसने गाड़ी रोक दी। पानी की गहराई का जायजा लिया और बोला- यहां पार नहीं हो सकेंगे। आगे चलते हैं। फिर वह धारा के किनारे-किनारे बलुआही खेत में मोटरसाइकल को बढ़ाने लगा, लेकिन लगातार उसकी आंखें पानी की गहराई का जायजा लेती हुई चल रही थी। करीब आधे किलोमीटर चलने के बाद उसने कहा- यहां दो-तीन फीट से ज्यादा नहीं है। यहीं पार करेंगे। मैं ड्राइव करते निकलूंगा, आप-आप पीछे-पीछे आ जाइये। मुझे लगा वह मजाक कर रहा है। क्योंकि मेरा अनुमान था कि पानी किनारे में अगर दो-तीन फीट है तो मध्य में पांच-दस फीट जरूर होगा, इसलिए कोई भी आदमी इसे मोटरसाइकल से पार नहीं कर सकता। लेकिन वह मजाक नहीं कर रहा था। उसने इंजन स्टार्ट किया और पानी में उतर गया। मैंने देखा कि धारा के मध्य में एक जगह उसका संतुलन कुछ सकेंड के लिए खराब हुआ, लेकिन उसने पलक झपकते गाड़ी को फिर नियंत्रित कर लिया। राजदूत की इंजन कराहती रही, लेकिन उसके एक्सलेटर का जोर बढ़ता ही रहा। अगले पल वह उस पैंतीस-चालीस फीट की धारा के उस पार था।
(अगले पोस्ट में जारी)

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