सोमवार, 4 मई 2009

ये तो होना ही था

(चीन के राष्ट्रपति जिन्ताओ के साथ प्रचंड )
... और अंततः नेपाल के प्रधानमंत्री पुष्प कमल दहल उर्फ प्रचंड ने इस्तिफा दे ही दिया। इस समाचार से नेपाल समेत भारत और बांकी दुनिया स्तब्ध है। लेकिन मुझे नहीं लगता कि यह कोई अप्रत्याशित घटना है। इसकी पृष्ठभूमि तो उसी दिन तैयार हो गयी जिस दिन नेपाली कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) ने यह फैसला किया कि वह किसी भी शर्त पर अपने लड़ाके कैडरों को सेना में शामिल कराकर ही दम लेंगे। लेकिन प्रस्तावना उस दिन लिखा गया जिस दिन माओवादियों ने इसके लिए नेपाली सेना के वर्तमान सेनाध्यक्ष रूकमंद कतवाल को हटाने का फैसला कियाथा। इस फैसले के बाद नेपाल की गैर-माओवादी पार्टियों में खलबली मच गयी। उन्हें इस बात का पक्का एहसास हो गया कि माओवादी नेपाल को कम्युनिस्ट रिपब्लिक स्टेट बनाने के एजेंडे पर तेजी से आगे बढ़ रहे हैं और वर्तमान सरकार की मुख्य जिम्मेदारी के प्रति यानी संविधान निर्माण के प्रति उसकी कोई दिलचस्पी नहीं है। माओवादी पहले सेना में अपने 25 हजार लड़ाके को शामिल करेंगे फिर उसके बाद देश की सारी शक्ति मसलन न्यायपालिका, कार्यपालिका और सेना को अपने में कब्जे में करेंगे फिर उन्हें एक ही काम करना होगा। वह यह कि नेपाल को एक कम्युनिस्ट रिपब्लिक स्टेट घोषित कर देनाऔर रास्ते में आने वाले लोगों व संगठनों को बंदुक के बल पर खामोश करा देना।
जाहिर सी बात है कि नेपाल की दोनों प्रमुख पार्टियां मसलन नेपाली कांग्रेस और एमाले का इसके बाद अस्तित्व समाप्त हो जाना तय था। इसलिए इस मुद्दे पर दोनों पार्टियों के नेताओं ने बैठक की और फैसला किया कि सेनाध्यक्ष कतवाल की बर्खास्तगी को वे लोग किसी भी स्थिति में स्वीकार नहीं करेंगे। इसलिए जैसे ही प्रचंड ने सेनाध्यक्ष कतवाल को हटाने का फैसला किया, दोनों पार्टियों ने इसका विरोध कर दिया। चूंकि वर्तमान राष्ट्रपति रामबरन यादव नेपाली कांग्रेस के हैं, इसलिए उन्हें प्रधानमंत्री के फैसले को पलटने के लिए एक वाजिब अस्त्र भी मिल गया। रामबरन यादव ने प्रचंड के फैसले को असंवैधानिक करार देते हुए मानने से इंकार कर दिया। उधर एमाले ने प्रचंड सरकार से समर्थन वापसी की घोषणा कर दी। अब इसके बाद प्रचंड के पास इस्तिफा देने के सिवा कोई चारा नहीं बचा और आखिरकार अपने समर्थकों और खासकर लड़ाके कैडरों के सामने अपनी साख बचाने के लिए उन्होंने इस्तीफा दे दिया।
आगे क्या
अभी लाख टके का सवाल यह है कि नेपाल में अब आगे क्या होगा? हालांकि तत्काल इसका एकदम सटीक पुर्वानुमान लगा पाना थोड़ा कठिन है, लेकिन इतना तय है कि नेपाल में एक बार फिर अशांति की आंधी आनी तय है। अभी जो संकेत मिल रहे हैं उसके मुताबिक नेपाली कांग्रेस और एमाले और जनाधिकार फोरम मिलकर वैकल्पिक सरकार बना सकते हैं। लेकिन अगर यह सरकार बन भी जाती है तो भी इसके लिए आगे काम कर पाना और नेपाल के लिए संविधान का निर्माण करना काफी कठिन होगा। क्योंकि नेपाली कांग्रेस और एमाले भी विचारधारा के स्तर पर दो विपरीत ध्रुव की पार्टियां हैं। जनाधिकार फोरम का भी नेपाली कांग्रेस के साथ ज्यादा देर तक रह पाना कठिन ही लगता है। अगर ये तीनों पार्टियां माओवादी को कमजोर करने के लिए साथ आ भी जाती हैं तो भी संकट कम नहीं होगा। क्योंकि सरकार से हटते ही माओवादियों का सड़क पर उतरना तय है। उनके कैडरों के पास सारे हथियार और गोला-बारूद आज भी ज्यों के त्यों रखे हुए है, इसलिए प्रशासन और माओवादियों में नये सिरे से हिंसक टकराव शुरू होना अवश्यसंभावी लगता है।
भारत की भूमिका
इन सारे प्रकरणों में भारत की कूटनीति एक बार फिर बुरी तरह से बिफल हुई है। भारत पूरे प्रकरण से भिज्ञ था, लेकिन अपनी कूटनीतिक भूमिका निभाने में वह असफल रहा। जब प्रचंड की सरकार बनी थी, उस समय भारत के पास मौका था कि वह नेपाल को चीन के गोदी में बैठने से बचाये। इसके लिए नेपाली माओवादियों को विश्वास में लेना जरूरी था। यह काम भारत नेपाली माओवादी के लड़ाके कैडरों को नियोजित करवाकर कर सकता था। लेकिन भारत ने प्रचंड को विश्वास में लेने के बदले नेपाली कांग्रेस और जनाधिकार फोरम पर ज्यादा भरोसा किया, जो बिफल साबित हुआ। भारत मुंह ताकते रह गया और प्रचंड चीन के गोद में बैठ गये। चीन ने उनका इतना हौसला आफजाई किया कि उसने देश की न्यायपालिका और जनता और भारत की परवाह किए बगैर नेपाली सेना में अपने पसंद के सेनाध्यक्ष खोज लिए और कतवाल को हटाने का निर्णय तक कर लिया। यह फैसला लेते हुए प्रचंड ने सोचा भी नहीं कि उसका देश जिस हवा में सांस लेता है वह भी भारत से ही आती है। चीन उन्हें मुंह से जितना समर्थन दे दे, लेकिन नेपाली-भारतीय लोगों के बीच में जो खून का रिश्ता है, क्या उसकी भरपाई चीन कर सकता है? यह बात प्रचंड ने नहीं सोची। भारत के पास इसी बात के कारण हमेशा एक अपर एज रहता आया है कि वहां की जनता भारत को अपने दिल के करीब मानती है। लेकिन इस समर्थन को कूटनीतिक रूप से भूनाने के लिए भारत को जितना प्रयास करना चाहिए था, वह उसका एकांश करने में भी असफल रहा। नेपाल की ताजा राजनीतिक घटनाएं किसी भी स्थिति में भारत के लिए शुभ समाचार नहीं है। अगर नेपाली सेना एवं माओवादी में टकराहट बढ़ी तो हो सकता है कि नेपाल के तराई इलाके में गृह युद्ध की नौबत आ जाये। ऐसी परिस्थिति में भारत में शरणार्थियों के खेप आने शुरू हो जायेंगे। पड़ोस में लगी यह आग जितनी जल्दी बुझे उतना ही अच्छा है। लेकिन चीन की गंदी राजनीति के कारण अब इस आग को जल्द बुझना किसी के मुमकिन नहीं रह गया है। बांकी तो राम ही राखे...

4 टिप्‍पणियां:

दिगम्बर नासवा ने कहा…

नेपाल........श्रीलंका और पाकिस्तान............teeno तरफ चीन आगे बढ़ रहा है.............हमारी कोई नीति होगी तो वो सफल या असफल होगी,..................जे हो soniya maata की

L.Goswami ने कहा…

दिगम्बर जी ने सही कहा कोई नीति होगी तो सफल या असफल होगी न.

इष्ट देव सांकृत्यायन ने कहा…

दिगम्बर और लवली से सहमति. एक बात और, ग़ौर करें बंगाल में कम्युनिस्टों ने भी यही किया है. नगर निगम से लेकर पुलिस और प्रशासन तक हर जगह उनके काडर ही हैं.

रंजीत/ Ranjit ने कहा…

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