दहाये हुए देस का दर्द- 72
मिथक मशहूर है। किसी बड़े आयोजन या ब्याह-शादी के दिन अगर बूंदाबांदी हो, तो शुभ। बारिश हो , तो थोड़ा कम शुभ । लेकिनब्याह के दिन अगर मूसलाधार बारिश पड़ जाये, आंधी-तूफान आ जाये, तो अशुभ ही अशुभ। गांव के कनहा-कोतरा (महत्वहीन लोग) भी कहने लगते हैं- "अभागल के ब्याह हो रहा है। गाय-माल को ओस्थर (घास-भूषा) दे दो और खुद ओढ़ना ओढ़ के सो जाओ। "डाढ़ी खोक' के बरात जाओगे तो पछताओगे बाबू।'
बिहार के कोशी अंचल में आज भी ये सब देखने-सुनने को मिल जाते हैं। गनीमत है कि चुनावी-आयोजन पर ये सब टोना-टोटका लागू नहीं होता। कल और परसों कोशी में एक बार फिर आंधी आयी, मूसलाधार बारिश और आसमानी पत्थर ने गेहूं, मकई और केले की फसल को खेत में ही खेत कर दिया। करीब आठ लोगों के प्राण गये और दो दर्जन गंभीर रूप से घायल हुये। अगले दिन पंचायतों के "नव-अंग्रेज बहादुरों' के निर्वाचन के लिए प्रथम चरण के मतदान हुए। रिपोर्ट है कि किशनगंज में रिकॉर्डतोड़ 75 प्रतिशत मतदान हुआ। सुपौल, मधेपुरा, अररिया और सहरसा में भी मतदान केंद्रों पर मतदाताओं की भारी भीड़ थी। हालिया विधानसभा चुनाव की तरह पंचायत चुनाव में भी स्त्रीगण पुरुषगण पर भारी रहीं। हर केंद्रों पर औरतों की कतार पुरुषों से लंबी थी।
"काहे को ? पुरुष कहां गये ?'
जी, उ सब परदेस में हैं। कोई पंजाब में, कोई लुधियाना में, काेई हरियाणा, सूरत और कश्मीर में है। कोई-कोई दुबई और कतर में भी है। इसलिए नजर नहीं आ रहे। पर ई मत समझिये कि मतदान में उनको कोई दिलचस्पी नहीं है। पहर-दुपहर में घरवाली के मुबाइल पर फोन आते रहता है।
"ताकिद पर ताकिद हो रही है। पूबरिया टोल के गणपत जादव को भोट नहीं देना है। भोट, दछिनवरिया टोला के लखना महतो को ही देना है। पर भोट देने के लिए घर से तभी बहराना जब टका खुईचा (आंचल) में आ जाये। टका नहीं दे, तो किसी बभना (ब्राह्मण) को ही भोट दे देना। बभना जीतेगा तो नहिंये, तब लखनमा सरवा भी नहिंये जीतेगा। हमर भोट कोनों फोकट में आया है। पांच सवांग हैं, पांच ठो पंचसहिया (पांच सौ) के नोट लेंगे, तभिये ठप्पा मारेंगे।'
"हे जी, गाम में हल्ला है कि सबसे ज्यादा टका उतरवरिया टोल के पुरना मुखिया (पूर्व मुखिया) दुरजोधन जादव बांट रहा है? '
"भक, बोंगमरनी ! ऊ सार बेईमान है। याद नहीं है कि पिछला बेर सबको नेपाली फर्जी नोट बांटकर मुखिया बन गिया था। मुखियागरी करके खाकपति से लाखपति बन गिया। चाइर-चक्की पर चढ़ने लगा है। आउर हम एक ठो इंनिरा आवास मांगने गिये, तो बोला- पांच हजार खरचा लगेगा। उ सार को भोट नहीं देना है।'
"ठीक है, रात में फेर फोन कीजियेगा। अभी दरवाजे पर सब महाजन (उम्मीदवार) बैठा हुआ है। सब काउलैत (गिड़गिड़ा) कर रहा है। भोट हमको ही दीजिए, जोगबनी वाली! भूवन दास तंे संबंधों फरिया रहा है। कह रहा हमर पित्ती (चाचा) और तोहर बाप बाउन (दोस्त)थे। हम तें तोहर सवांग जैसन हैं।'
"छोड़-छोड़। ई सब भोट के रिश्ता है। जीतेगा तें मुंह दिस नहीं ताकेगा। हं ! टका सहेजकर रखना। जनमअठमी (जन्मअष्टमी) के मेला में सब टिकली-फूल में फूक नहीं देना। हम आवेंगे, तो सब हिसाब लेंगे।'
जी हां। चाहे जितना शोर मचा लीजिए। सत्ता विकेंद्रीकरण, महिला सशक्तिकरण का फाग गा लीजिए। पंचायती संस्था और पंचायत चुनाव की यही हकीकत है। अन्यथा कोई कारण नहीं था कि सबसे निचले स्तर के चुनाव में कोशी के लोग, कोशी की समस्या की बात नहीं करते। कुछ दिन पहले जब मैंने गांवों में मुखिया, जिला परिषद और पंचायत समिति के उम्मीदवारों को पूछा कि क्या वे चुनाव में कोशी नदी की समस्या को उठा रहे हैं, तो वे भौंचक्क रह गये। जब मैंने बताया कि पंचायत चुनाव ग्रास रूट लेवल की राजनीति है, अगर वहां जमीनी समस्याएं नहीं उठेंगी, तो फिर कहां उठेंगी ? तो अधिकतर ने जो जवाब दिया उसका आशय था कि यहां लोग अपने निजी तात्कालिक हित के हिसाब से सोचते हैं। प्रत्याशी यह सोचकर चुनाव लड़ते हैं कि जीतने के बाद उनका बैंक बैलेंस और रूतबा दोनों बढ़ जायेगा। मतदाता यह देखते हैं िक कौन-से उम्मीदवार उन्हें प्रति वोट सबसे ज्यादा रकम दे सकता है और जीतने के बाद ज्यादा-से-ज्यादा सरकारी मुफ्तखोरी करवा सकता है।
यही कारण था कि भीषण आंधी-तूफान के दिन भी मतदान केंद्रों पर मतदाताओं की भारी भीड़ थी। खेतों में मकई, गेहूं और केले की बबार्दी साफ दिख रही है। पर उधर किसी का ध्यान नहीं । एक बूढ़े व्यक्ति से जब मैंने सवाल किया, तो उसका जवाब था, "टका लिये हैं भोट तो देना ही होगा ! भोट नहीं देंगे, तो मुआवजा से भी वंचित कर देगा।'
बहरहाल,सचिवालय का बुलेटिन कुछ और है, जिसे संक्षेप में कुछ इस तरह बयां किया जा सकता है- "बिहार में पंचायती राज का तीसरा महापर्व चल रहा है। चुनाव शांतिपूर्ण माहौल में हो रहा है। बिहार की महिलाएं अब बहुत जागरूक हो गयी हैं। मतदान में बढ़-चढ़कर हिस्सा ले रही हैं। यह लोकतंत्र के लिए शुभ संकेत है।'