शुक्रवार, 24 जुलाई 2009

मोरे द्वार ख़डे अकाल

सन्‌ 64 का अकाल देख चुके भरथी कमार अब सत्तर के ऊपर के हो चले हैं । कभी न सूखने वाले बोचहा पोखर के महार पर केले के भालर (सूखी डाल) की तरह ख़डे भरथी कभी सूखे ताल की थाल को घूरते हैं तो कभी सफेद रूई का कारवां हांकते बादलों को। जैसे वे बादल नहीं, झग़डकर नैहर भागती निर्मोही जोरू हो। सावन के इन बेवफा बादलों को भरथी लगातार घूर रहा है। कुछ इस तरह जैसे शिकार के बचकर भाग जाने के बाद शिकारी कभी हथियार को तो कभी निशाने चूके हाथ को देखते हैं। और बाद में मन-ही-मन दोनों को कोसकर चुप हो जाते हैं। पैरों पर च़ढते बदतमीज लहरचिट्टे को बायें हाथ से झा़डते भरथी बुदबुदाते हैं- " किछ दिन आउर रूक सार, फेर तें नै तू बचेगा नै हम ! जे 64 में बइच (बच) गिया था सेहो नै बचेगा एही साल!! ''
महार पर ही बरगद का एक विशाल वृक्ष है। एक महीना पहले तक यह वृक्ष सारस, पनकाैआ, बगुला और गरूर के शोर से हर पल गुलजार रहता था। लेकिन अब उनके घोंसले खाली हो चुके हैं। जीवन के जुगा़ड में ये उत्तर की ओर निकल गये हैं... शायद हिमालय की ओर। गृहस्थ की गैरहाजिरी का उदविलाव और धामिन सांप ने जमकर फायदा उठाया है। बड़े पक्षियों के अंडों को चट करने के बाद अब उनकी नजरें मैनों, बगड़ों और धनचिहों जैसी कमजोर चिि़डयों के गेलहों व अंडों पर पर हैं। ठीक बस्ती के धनवानों और प्रखंड एवं अनुमंडल कार्यालयों के बाबू-अधिकारियों की तरह। इन बाबुओं के गालों पर जगह-जगह चौअन्नी मुस्कान उभरने लगा है। आखिर क्यों न उभरे ? अकाल की तिजारत तो इन्हें ही करनी है ना ! अकाल की फसल खूब लहलाहायेगी एही बेर , का हो यादव जी ! हें -हें -हें .... देखिये , पहले विधायक -मंत्री से बचेगा , तबे न !! हें -हें -हें ...
यह बिहार के उत्तर-पूर्वी जिले अररिया के कुसमौल गांव का एक दृश्य है, जो अब समूचे बिहार में पसर गया है। सूख कर पुआल बन चुके धान के बिचड़े और खेतों में उड़ते धूल इस दृश्य को भयावह बना रहे हैं। नाद पर बंधे बैलों की जोड़ी, जो मानसून की बेवफाई से बेकार हो गये हैं, अक्सर एक-दूसरे के माथे को चाटते रहते हैं। पता नहीं, एक-दूसरे को सांत्वना दे रहे या मातम मना रहे ! कहते हैं कि पशुओं को अनिष्ट का भान पहले हो जाता है।
उधर खेतों में मानसून के अत्यधिक विलंब के कारण खरीफ के सीजन में ही रवी का नजारा है। रोपनी के लिए तैयार हाथ रेलवे स्टेशनों पर पंजाब, लुधियाना, सूरत और दिल्ली की टिकट खरीद रहे हैं। फारबिसगंज, कटिहार, सहरसा, बरौनी, समस्तीपुर, हाजीपुर, रक्सौल, दरभंगा, पटना जैसे स्टेशनों पर पलायन करने वालों का हुजूम उमड़ रहा है। बेटे तो पलायन करके पेट पाल लेंगे, लेकिन गांव में रह जाने वाले बूढ़े मां-बाप, बहन, बेटी, पत्नी और बच्चों का क्या होगा? भरथी कहता है- "आब जे होगा, से देखा जायेगा। ऊपर वाले की मर्जी होगी तो बइच जायेंगे, नहीं तो ???? ... मर जायेंगे !!! ''

गुरुवार, 23 जुलाई 2009

सौंदर्य और भरोसा

इस पेड़ को पिछले साल सुपौल जिले के दौलतपुर गांव में देखा था । कोशी की प्रलयंकारी बाढ़ में यह बाल-बाल बच गया था। पहली बार जब इसे देखा तो देर तक निहारते रह गया। तकरीबन 10 मिनट तक। फिर इसके नीचे बेमतलब घंटों बैठा रहा। आसपास के लोगों ने समझा - " शायद दुखियारा है, ग्राम देवता को मनोती रखने आया है।'' जब तस्वीर उतारी तो वे हैरत में पड़ गये और बोले- " कोई सरकारी आदमी होगा, गाछी (पेड़) का नापी-जोखी कर रहा है।'' तस्वीर शहरी मित्रों को दिखाई, तो उन्होंने पेड़ का नाम पूछा और कहा- "क्या मस्त पेड़ है, यार ? लेकिन तुम इसे इतना महत्व क्यों दे रहे हो ? क्या खास बात है इसमें ? '' मैंने कहा- इसमें सौंदर्य है। यह मुझे भरोसा दिलाता है कि दुनिया में अब भी सुंदरता बची हुई है।
 

सोमवार, 20 जुलाई 2009

... तो चिड़िया उड़ा दूंगा रनवे पर ! (एक अजूबे शख्स की कहानी )

जादूगर नहीं है वह और न ही कोई आतंकवादी है, लेकिन वह अकेले हवाई जहाजों को उ़डान भरने से रोक सकता है। उसके करतब फंतासी कहानी जैसी है। जो भी उसे देखता है बस दांतों तले अंगुली दबा कर रह जाता है। वह हवाईअड्डे के रनवे को जाम कर सकता है। उन पर चिडयों का प्रदशर्न करवा सकता है, उनसे धरना दिलवाकर एयर ट्रैफिक कंट्रोल के इंजीनियरों को निस्सहाय कर सकता है। विमानन कंपनियों के टाइम-टेबल की ऐसी की तैसी कर सकता है, क्योंकि उसके एक इशारे पर हजारों चिड़िया जान देने के लिए न्योछावर रहती हैं। वह जब जहां चाहे वहां हजारों चिडियों को बुला सकता है। उसकी आवाज सुनते झुंड-के-झुंड पंक्षियां भागे-उ़डे चले आते हैं।
इस अद्‌भुत शख्स का नाम है- गौतम सप्तकोसा। 25 वर्ष का यह युवक तराई नेपाल के गधीगांव, मकवानपुर का रहने वाला है और अलग-अलग प्रजातियों की 175 चिडियों की आवाज निकालने में माहिर है। गौतम सप्तकोसा चिडियों का नकल ही नहीं करता, बल्कि चिडियों की आवाज में ही उनसे संवाद व समन्वय भी कायम कर लेता है। पल भर में चिडिया उसका गुलाम बन जाती है और सामने आदेशपाल की तरह हाजिर रहती है।
गौतम ने यह हैरतअंगेज गुर एक दिन में नहीं सिखा है। बकौल गौतम , " चिडियों की भाषा समझने के लिए मैंने अकेल चार वषर् घने जंगलों में बिताया है। लाख कष्ट उठाकर दिन-रात मेहनत की हैै। मुझे मालूम है कि चिडिया कब काैन-सा स्वर निकालेगी। मैं जानता हूं कि चिडिया उ़डने से पहले, प्रणय निवेदन से पहले, घोंसला में लाैटते वक्त और लाैटने से पहले कैसी-कैसी आवाज निकालती है। मैंने चिडियों के आपसी संवाद आैर समन्वय प्रक्रिया का बारीक अध्ययन किया है कि वह किस गतिविधि के लिए कैसी आवाजें निकालती है। बस इसी जानकारी के बल पर मैं उन्हें अपने पास बुला लेता हूं।'
गौतम अपनी इस अजीबोगरीब उपलब्धि को गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकार्ड में दर्ज करवाना चाहता है। इसके लिए उसने नेपाल सरकार को कई मतर्वे चिट्ठी लिखी और गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड के ऑथिरिटी से भी संपर्क किया। लेकिन अभी तक वह इसमें कामयाब नहीं हो सका है। ग्रामीण पृष्ठभूमि के गौतम का कहना है कि सरकारी अधिकारी उनकी मदद नहीं कर रहे। सरकारी असहयोग के कारण वह काफी दुखी है।
सरकार के असहयोग से हतोत्साहित गौतम ने हाल में ही नेपाल सरकार को धमकी देते हुए कहा है कि अगर उनकी इस अनूठी उपलब्धिक को वर्ल्ड रिकॉर्ड में शामिल कराने लिए प्रयास नहीं हुये, तो वह काठमांडू के त्रिभुवन हवाईअड्डे पर विमानों का परिचालन बंद करवा देंेगे। बकौल गौतम,"मैं गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकार्ड में शामिल होने के लिए लंबे समय से प्रयास कर रहा हूं। हमने सारी औपचारिकताएं पूरी कर ली हैं। देश के विदेश, वित्त और वन मंत्रालय को भी सारे कागजात व सबूत मुहैया करा दिये हंै, लेकिन उनकी ओर से कोई जवाब नहीं मिल रहा है। कोई मेरी सहायता नहीं कर रहा। अगर सरकार मेरी नहीं सुनेगी, तो मैं तीन महीने बाद त्रिभुवन हवाईअड्डे पर विमानों का परिचालन ठप करवा दूंगा। मेरी आवाज पर हजारों चिड़िया रनवे के ऊपर मंडराने लगेंगी और सब देखते रह जायेंगे।'
लेकिन यह बात समझ में नहीं आ रही कि दुनिया भर के पक्षीशास्त्री (ऑरनिथोलॉजिस्ट) गौतम से संपर्क क्यों नहीं कर रहे ? अगर वास्तव में इस युवक ने पक्षियों की चहचहाहट को डिकोड किया है, तो यह मानवेत्त्ार भाषा विज्ञान के क्षेत्र की एक युगांतकारी घटना है। गौतम की मदद से चिड़ियों के बारे में कइर् अनसुलझे सवालों को सुलझाया जा सकता है। गौतम चिड़ियों की विलुप्तप्राय प्रजातियों को पहचानने और उनके संरक्षण के काम में भी ब़डा योगदान दे सकता है।

शुक्रवार, 17 जुलाई 2009

एक जरूरी किताब

जनपक्षीय पत्रकारिता के लिए प्रतिबद्ध कलमकार पुष्पराज की पुस्तक "नंदीग्राम डायरी' का बीते बुधवार को नयी दिल्ली के इंडिया हैबिटेट सेंटर में लोकार्पण हुआ। पुस्तक का लोकार्पण प्रसिद्ध पत्रकार प्रभाष जोशी और कुलदीप नैयर के हाथों संपन्न हुआ। समारोह में देश के कई जाने-माने लेखक-पत्रकारों ने नंदीग्राम डायरी और इसके लेखक पर अपने विचार रखेे। इनमें प्रिसद्ध हिन्दी आलोचक नामवर सिंह व मैनेजर पांडेय और मशहूर सामाजिक कार्यकर्ता मेधा पाटेकर शामिल हैं। लोकार्पण समारोह में समकालीन हिन्दी साहित्य के महत्वपूर्ण कवि-पत्रकार मंगलेश डबराल और कवि मदन कश्यप व अशोक चक्रधर भी उपस्थित थे। इनके अलावा प्रसिद्ध पत्रकार वेंकटेश रामकृष्णन , आनंद स्वरूप वर्मा, अजीत भट्टाचार्या, पुण्य प्रसून वाजपेयी, अरविंद मोहन और कथाकार हिमांशु जोशी समेत कई जाने-माने बुद्धिजीवी लोकार्पण समारोह में उपस्थित हुये।
"नंदीग्राम डायरी ' पुष्पराज के लगभग डेढ़ वर्षों के गहन परिश्रम के बाद सामने आयी है। नंदीग्राम हादसे का पुष्पराज गवाह रहे हैं। उन्होंने नंदीग्राम हादसे पर कई अखबारों के लिए रिपोर्टिंग भी की थी।
पुस्तक का प्रकाशन पेंगुइन बुक्स के हिन्दी इकाई यात्रा बुक्स ने किया है। यात्रा बुक्स पेंगुइन प्रकाशन के लिए भारत में समन्वय का काम करता है। 326 पृष्ठों की पुस्तक का मूल्य 250 रुपये रखा गया है। पुस्तक विभिन्न वितरकों के माध्यम से देशभर में उपलब्ध होगी अथवा सीधे यात्रा बुक्स से संपर्क करके भी इसे प्राप्त किया जा सकता है।
बिहार की माटी के कलमकार पुष्पराज ने विगत के वर्षों में कलिंगनगर में आदिवासियों के विस्थापन के मुद्दे से लेकर प्लाचीमाडा, केरल में कोका कोला के खिलाफ जन उभार और कोशी बाढ़ तक पर बेहतरीन रिपोर्टिंग की है। उनकी अपनी विशिष्ट लेखन शैली है और वे आम जन की बोलियों में संवाद करते हैं। उनका लेखन बरबस फणीश्वरनाथ रेणु की याद दिला देती है। यही कारण है कि "नंदीग्राम डायरी ' के प्रति मेरी जिज्ञाशा काफी बढ़ गयी है, लेकिन जबतक पुस्तक पढ़ नहीं लेता हूं तबतक इस पर कोई कमेंट नहीं करूंगा। ग्लोबल पूंजीवाद बनाम रूरल इंडिया के अंतर्द्वंद्व का नंदीग्राम एक ऐतिहासिक बिंदु है। और जब तक यह अंतर्द्वंद्व कायम रहेगा तबतक नंदीग्राम प्रासंगिक रहेगा। इस कारण भी नंदीग्राम की घटना के अंदरुनी सच को जानना बेहद जरूरी हो जाता है। उम्मीद है कि 'नंदीग्राम डायरी' के जरिये यह सच आम जन के सामने प्रकट होगा।
 

आसमान ही फट गया, दर्जी कितना सिता

वह अपूर्व था। जमाने में उससे ब़डा दर्जी एक न था । हर ओर उसका नाम, हर किसी में थी उसकी पहचान। सिलाई का ऐसा उस्ताद दोबारा फिर कभी इस धर्ती पर नहीं जन्मा। फटे को सिना उसका काम था। वह अपने काम में भगवान तो नहीं पर उनसे कम भी न था। उसके पास हर फटे का इलाज था। चाहे जैसा फटा हो, चाहे जितना फटा हो, मैला हो या कुचला; वह सबको पल भर में जोड़ देता था। लेकिन जमाना भी कम न था। वह लोकतंत्र का साठ सालगिरह मना चुका था। जमाना तेजी से बदल रहा था। वह कीचड़ में भी अब टहलने लगा था। उसे फाड़ने और कुचलने में मजा आता था। इसलिए उसे इस दर्जी से चीढ़ होने लगी। दर्जी को हताश करने के लिए उसने अपनी फटाई ब़ढानी शुरू कर दी। क्या छोटा, क्या बड़ा, क्या औरत, क्या मर्द ; जिसे देखो फाड़ने और फोड़ने में जी-जान से जुट गया। क्या ऊपर, क्या नीचे, क्या आगे और क्या पीछे ; हर दिशा दो-फाड़ हो रहा था। दर्जी सिता गया और लोगों की फटाई ब़ढती गयी। और एक दिन ऐसा हुआ कि पूरा आसमान ही फट गया। उसने इसे अपनी नैतिक जिम्मेदारी मानी और आसमान को टांकना शुरू कर दिया, जो कभी पूरा नहीं हुआ। कहते है कि प्राण त्यागने से एक क्षण पहले तक उसने हार नहीं मानी। मरने के बाद भी उसके हाथों में सुई और धागे मौजूद थे। लेकिन वह अंततः हार गया। दर्जी की हार पर जमाना बहुत खुश हुआ। इसके बाद तो सारे 'दर्जी' दोमुंहे हो गये और हर सिलाई जैसे नकली हो गयी...

शनिवार, 11 जुलाई 2009

एक दिन मैंने जाना

पर्वत के उस प्रतिष्ठित शिखर पर चढ़कर मैंने मैदान को हिकारत भरी नजरों से देखा। हवाई जहाज की एग्जीक्यूटीव क्लास की खिड़की से मैंने पत्थर तोड़ते मजदूरों को देखा और अपनी हथेली की गांठों से घृणा की। खेतों में हल जोतते हलवाहे मुझे बहुत कुरुप लगे। हर आदमी का कद खुद से छोटा लगा। ऊंचाई के इस सफर में मैंने हमेशा ऊपर देखा और जमीन मेरी आंखों से ओझल होती चली गयी। और इस तरह एक दिन मैंने जाना िक उठना हमेशा गिरना होता हैकि उत्थान और पतन के बीच की रेखा बहुत पतली होती है ।

बुधवार, 8 जुलाई 2009

दिल्ली वालों की 'दो दृष्टि'

( कोशी बाढ़ - २००८ : जो देखा वो रोया )
दहाये हुए देस का दर्द-50
मिर्जा आसदुल्लाह बेग खान गालिब का एक हर दिल अजीज शेर है- "हम आह भी भरते हैं तो हो जाते हैं बदनाम/ वो कत्ल भी करते हैं तो चर्चा नहीं होती ।'' कल और परसों लोकसभा में इसकी बानगी देखने को मिली। हुआ यह कि बिहार के कुछ सांसद केंद्र सरकार के सौतेले व्यवहार को लेकर सदन में हंगामा करने लगे और बेल तक पहुंच गये। अध्यक्ष मीरा कुमार ने उनकी हरकतों को सदन की गरिमा के विपरीत करार दिया परिणामस्वरूप उनकी बातें हवा में उड़ा दी गयीं, पतंगे की तरह... ताकि सनद नहीं रहे इसलिए उनकी बातें सदन के रिकार्ड में भी दर्ज नहीं हो सकीं। बिहार के सांसद कह रहे थे कि केंद्र सरकार ने कोशी-पीड़ितों के प्रति सौतेला व्यवहार किया है। पहले तो उन्होंने पिछले साल की प्रलयंकारी बाढ़ से उजड़े लोगों के पुनर्वास में कोई दिलचस्पी नहीं ली और अब राहत के नाम पर दी गयीं राशियों की वापसी के लिए तकादे भेजवा रही है। चूंकि बात में दम थी, इसलिए सत्ताधारियों के ललाट की लकीरें मोटी होती दिखीं। और जब इसी तरह के एक मामले को लेकर उड़ीसा के कुछ सांसद भी बिहारी सांसदों के हमराह हो गये, तो सत्तानसीनों की भृकुटियां तमांचे की तरह तन गयीं। ऐसे हालात में प्रत्याकर्मण के लिए भगदड़ और हो-हल्ला से बेहतर कोई औजार नहीं होता , जिसका उन्होंने सहारा लिया। असल मुद्दे गौण हो गये और पल भर में जैसे पसीने गुलाल हो गये।
भले ही इस मुद्दे को लेकर हंगामा सात तारीख को हुआ, लेकिन यूपीए सरकार ने इसकी पटकथा बजट के दिन ही लिख दी थी । सरकार ने बजट में 'आइला' तूफान से पीड़ित पश्चिम बंगाल और बारिश प्रभावित मुंबई के लोगों के राहत के लिए विशेष प्रबंध किया है। इसके लिए बजट में केंद्र सरकार ने करोड़ो रुपये की व्यवस्था की है। लेकिन सूनामी सदृश हादसे के शिकार कोशी के बाशिंदों पर उनकी नजरें नहीं गयीं। इससे एक बार फिर स्पष्ट हो गया कि "दिल्लीवालों'' के दिल में बिहार को लेकर कितनी ममता है। यह कहने की जरूरत नहीं कि बिहार में उन्हें सत्ता वापसी की संभावना नहीं दिख रही और वे पश्चिम बंगाल की जीत से काफी उत्साहित हैं और उन्हें पूरा विश्वास है कि दशकों पहले वामपंथियों के हाथों लूटी अपनी गद्दी को वे अगले विधानसभा चुनाव में हथिया लेंगे। महाराष्ट्र भी इस सोच में फिट बैठता है। लेकिन बिहार ! बिहार के दरबाजे तो उन्हें अभी भी पूरी तरह बंद दिख रहे हैं। 'हाथ' में वो ताकत ही नहीं कि इस दरबाजे पर दस्तक देने का प्रयास भी करे।
लेकिन यह सवाल वोट बैंक आधारित कांग्रेसी नीति से आगे भी जाता है। अगर हम कांग्रेस के स्वर्णकालीन दिनों के इतिहास को खंगालें, तो पता चलता है कि इन पृष्ठों पर भी उनकी बिहार-विरोधी पंक्तियां यत्र-तत्र बिखरी पड़ी हैं। 1980 के पहले के दशकों में बिहार कांग्रेस का गढ़ हुआ करता था। 54 में चालीस-पैंतालीस लोकसभा सीटें उनके झोले में जाती थीं । लेकिन बिहारी नेताओं को केंद्रीय कैबिनेट में जगह पाने के लिए तरसकर रह जाना पड़ता था। विकास की तमाम नयी योजनाएं जब अन्य राज्यों में पुरानी पड़ जाती थीं ,आजमा ली जाती थीं , तब बिहार पहुंचती थीं। चाहे वह ' गरीबी हटाओ' के तहत चलीं योजनाएं हों या फिर '20 सूत्री कार्यक्रम' की परियोजनाएं हों। 'जवाहर रोजगार योजना' हो या फिर रेलवे के अमान परिवर्तन और विद्युतीकरण की योजनाएं हों। इस बार भी रेल बजट में भारत सरकार ने एक नयी योजना की शुरुआत की है। वह है नॉन स्टॉप ट्रेन सेवा की। लेकिन इसमें भी बिहार शामिल नहीं है। यकीन मानिये, अगले पांच-दस वर्षों तक बिहार को यह सुविधा दी भी नहीं जायेगी। यह बात विकास के हर क्षेत्र में लागू होती है। अगर विस्तार से चर्चा हो तो इस पर पूरी किताब लिखी जा सकती है। अभी तक बिहार में कोई केंद्रीय विश्वविद्यालय नहीं खुल सका और न ही यहां आइआइटी और आइआइएम जैसी कोई संस्थान कभी खोली गयी।
ऐसे में अगर कोशी क्षेत्र के लोग कहें कि मुझे नहीं मालूम कि दिल्ली किस देश की राजधानी है , तो आपको उन पर गुस्सा करने का कोई नैतिक आधार नहीं है। पिछले साल कोशी की बाढ़ को जिसने देखा, सबने कहा- यह बाढ़ नहीं, सूनामी है। लेकिन सुनामी पीड़ितों के लिए केंद्र सरकार ने हजारों करोड़ खर्च किए और कोशी पर ? ... जो दिया उसे वापस करो ! देसी जुबान में इसे 'दो दृष्टि' कहते हैं और प्रचलित भाषा में सौतेला व्यवहार ...

मंगलवार, 7 जुलाई 2009

Growing panic among koshi resident

दहाये हुए देस का दर्द -49
Panic is rising with the water level of Kosi in the villages of Supaul, Araria, Madhepura and Saharsa districts. Breach related rumour is spreading every morning and evening. I don't Know who are behind this, but such kind of vague informations putting rural peaple at stake. They are unable to live normal life and do routine work. In the mean time main line media of the region is also unable to put real ground situation of embankment and erosion. It is duty of local administration to manage these rumours but they have no response at all. Why Govtt of Bihar not broadcasting special radio bulletine on the status of embankment . I am recieving phone-calls from the villagers of Kosi region Everyday. It is only because I am a media person. I am unable to understand why they are not calling district administration ? I am in Ranchi but DA is more nearer to them . This reflect the arrogance of so called peaple (popular) Govtt of Nitish kumar and his bureaucrat. Actually bureaucrat of Bihar are still living in British age . There is no sign of change in their attitude and charactor. In that situation who will dare to call them on phone ? Rural, hunger and depressed villagers ? This is really a million dollar question .

शनिवार, 4 जुलाई 2009

कोशी तटबंध पर भयानक खतरा

दहाये हुए देस का दर्द-48
नेपाल के कुसहा और मधुबन इलाके में कोशी नदी के नवनिर्मित पूर्वी तटबंध पर गंभीर संकट मंडराने लगा है। मिली जानकारी के अनुसार आज सुबह से दो स्पॉटस पर नदी ने तटबंध का अपरदन करना शुरू कर दिया है। कहा जाता है कि कल शाम नदी में पानी का डिस्चार्ज एक लाख 90 हजार क्यूसेक के आसपास पहुंचने के बाद तटबंध पर धारा का दबाव काफी बढ़ गया। वैसे कुसहा में नवनिर्मित स्परों पर तो पिछले एक सप्ताह से खतरा मंडरा रहा था। कल एक स्पर का मुहाना बुरी तरह क्षतिग्रस्त भी हो गया था। स्पर पर दबाव का मतलब साफ है कि नदी का अगला निशाना तटबंध ही होगा। लेकिन दो लाख क्यूसेक से कम में जब यह हाल है, तो आगे क्या होगा ? इस बात की सहज कल्पना की जा सकती है। उल्लेखनीय है कि कोशी में कभी-कभी पानी का डिस्चार्ज 8-9 लाख क्यूसेक तक पहुंच जाता है। वैसे सुखद समाचार यह है कि आज सुबह से ही पानी डिस्चार्ज की मात्रा में कमी आ रही है।
स्थानीय लोगों का कहना है कि अगर अविलंब युद्ध स्तर पर तटबंध को अपरदन से नहीं बचाया गया, तो पिछले साल की तरह एक बार फिर नदी तटबंध को तोड़ देगी। उधर सूचना यह भी है कि पानी के दबाव के कारण भीमनगर स्थित कोशी बराज का एक गेट (फाटक) बह गया है। फिलहाल 56 में से 29 गेट को खोलकर रखा गया है। लेकिन डाउन स्ट्रीम में पानी के दबाव को देखते हुए और गेट खोलने की जरूरत है। पता नहीं, बांकी गेटों को क्यों नहीं खोला जा रहा । पिछले साल भी जब कुसहा में तटबंध टूटा था, तो 30 से ज्यादा गेट बंद थे। ऐसे में सवाल उठता है कि आखिर आपात स्थितियों में भी भीमनगर बराज के सभी गेट क्यों नहीं खोले जाते? कहीं सरकार और अधिकारी किसी कड़वा सच को छिपाने की कोशिश तो नहीं कर रहे हैं? कहीं ऐसा तो नहीं है कि यह बराज अपनी सारी शक्ति खो चुका है ? कहीं ऐसा तो नहीं कि अधिकारी समझ रहे हैं कि अगर सभी गेटों को खोला गया तो बराज ध्वस्त हो सकता है ? अगर यह सच है और इसे छिपाने की कोशिश की जा रही है, तो जनता के प्रति इससे बड़ा विश्वासघात और कुछ नहीं हो सकता है। वैसे भी भीमनगर बराज का निर्धारित कार्यकाल वर्ष 1988 में पूरा हो चुका है। कुसहा हादसे के बाद बराज के सशक्तिकरण या पुननिर्माण पर ध्यान क्यों नहीं दिया गया ? किन्हीं के पास आज इस सवाल का जवाब नहीं है।
कोशी, कोशी है कोई हंसी-ठट्ठा नहीं ! पहले भी इसके साथ काफी मजाक किया जा चुका है। भ्रष्टाचार के कारण इसका तल गादों से भर चुका है। दशकों की लूट के कारण तटबंध भी मेड़ में परिणत हो चुके हैं। कोशी का फूंफकार तो पिछले वर्ष दुनिया देख ही चुकी है। अगर समय रहते नहीं चेता गया तो नदी डंसने के लिए मजबूर होगी। कोशी से खेलने वालों, जरा इस बात पर भी विचार कर लो। हमेशा तिजोरी की सोचने वालो, सोचो ! जिस दिन जनता सारी सच्चाई जान जायेगी, उस दिन तुम्हारा क्या होगा ?

शुक्रवार, 3 जुलाई 2009

अब पूंछ भी बढ़ा ही डालो

विकासवाद का सिद्धांत कहता है कि मनुष्य भी लाखों-लाख साल पहले जानवर ही था। अन्य जानवरों की तरह वह भी चार पैराें पर चलता था और नंग-धड़ंग रहता था। न जाने उसके दिमाग में कहां से सभ्यतावाद का कीड़ा प्रवेश कर गया कि वह अपने को अन्य जानवरों से अलग करने लगा। जैसे-जैसे इंसान की बुद्धि बढ़ती गयी वैसे-वैसे सभ्य होने का कारवां भी तेज होते गया। उन्होंने जंगलों से तौबा कर ली और मैदानों में आ बसे। भोजन व्यवहार बदला और बातचीत के लिए भाषा तक का इजाद कर लिया। फिर कबीले बनाकर समूह में रहने की आदत डाली। पहले टोला बनाया फिर कबीला और अंततः समाज तक रच डाला। जब इंसान समाज में रहने लगा तो उन्हें कुछ कानून-कायदों की आवश्यकता भी महसूस होने लगी। इसके लिए उसने देश बनाया, हथियार बनाया और आखिरकार चीजों को नियंत्रण करने के लिए सरकार व संस्थाएं तक बना डालीं। कहते हैं कि इन्हीं के बदौलत वे लगातार सभ्य होते गये और लाखों जीव-जंतुओं को पछाड़कर अंततः ईश्वर की सबसे खूबसूरत कृती बन बैठे। उन्होंने जानवर-सरीखे आदतों पर मिट्टी डाल दिया और जो भी पुरानी आदतों से लाचार पाये गये उन्हें सीखचों में कैद कर डाला। अगर इससे भी नहीं हुआ तो जान भी ले ली। मसलन यौन संबंधों के "व्याकरण' बनाये गये और कहा गया कि हम आदमी हैं, इसलिए जानवरों की तरह जब जिसके साथ मन किया यौन संबंध नहीं बना सकते। हमें पाश्विक विचारों का दमन करना होगा और मनुष्य बने रहने के लिए नैतिक नियमों का पालन करना होगा। भले ही हमें कितनी भी भूख लगे हम हाथ के बदले पैर से नहीं खायेंगे। काम उत्तेजना चाहे हमारी जान ले लें हम कहीं भी किसी समय किन्हीं के साथ हमबिस्तर नहीं हो सकते।
लेकिन लगता है कि मानव अब सभ्यतावाद के इस इकहरे वन डायरेक्शनल सफर से ऊब गया है। इसलिए वे सभ्यतावाद की इस गाड़ी को रिवर्स गियर में डालने को आतुर है। नंग और अर्द्धनंग रहने को वह फैशन कह रहा है। पश्चिमी देशों में लगातार नंगे रहने का अभ्यास हो रहा है। समुद्री बीच से लेकर सड़क तक। स्वीडेन में सड़क और पार्कों में यौन-संबंध बनाये जाने लगे हैं। खुल्लमखुल्ला। ऐसे कि कुत्ते और कुत्तिया भी शर्मा जाये। सिनेमा, फैशन शो, मॉडल शो, सौंदर्य प्रतियोगिताओं के जरिए वे नंगई को स्थापित करने की जीतोड़ जद्दोजहद में लगे हुए हैं। फ्रांस में कुछ दिनों पहले बाकायदे एक नंग-धड़ंग कार्यक्रम का आयोजन भी किया गया। सैकड़ों स्त्री-पुरुषों ने इसमें भाग लिया और इसके फायदे गिनाये। लेकिन वापस पशु योनि में जाने के लिए उन्हें अभी लाखों मिल का सफर तय करना है। उन्हें यौन संबंधों के सदियों पुराने कायदों को बदलना है। इसके लिए पहले अप्राकृतिक यौन संबंधों को मान्यता देनी होगी। इसलिए वे समलैंगिकता को स्थापित करने में लगे हुए हैं। पांच महीने पहले ही उन्हें इस दिशा में बड़ी कामयाबी भी मिली है। फरवरी में आइसलैंड में एक समलैंगिक महिला जोहाना सिगुरदरदोत्री को वे प्रधानमंत्री बनवाने में सफल हुए हैं। लेकिन अधिकतर देश अब भी इससे परहेज कर रहे हैं, लेकिन उन्हें विश्वास है कि रिवर्स सभ्यतावाद का यह सफर एक दिन मंजिल तक अवश्य पहुंचेगा। शायद वे सही हैं, अब तो भारत में भी समलैंगिकता को मंजूरी मिल गयी है। लेकिन अभी बहुत सारे असभ्य आचरण को मंजूरी दिलानी हैै, उन्हें। जंगल पहुंचने से पहले उन्हें अपने पीछे में पूंछ विकसित करनी पड़ेगी। सभी तरह के कानून, बंदिश, सरकार, संस्था, आस्था को तिलांजलि देनी होगी। चार पैरों पर चलने का अभ्यास करना पड़ेगा और अराजकतावाद को पराकाष्ठा पर पहुंचाना पड़ेगा। जानवर से इंसान बनने में उन्हें करोड़ों वर्ष लगे थे, लेकिन पता नहीं वापसी में कितना समय लगेगा?