पर्वत के उस प्रतिष्ठित शिखर पर चढ़कर मैंने मैदान को हिकारत भरी नजरों से देखा। हवाई जहाज की एग्जीक्यूटीव क्लास की खिड़की से मैंने पत्थर तोड़ते मजदूरों को देखा और अपनी हथेली की गांठों से घृणा की। खेतों में हल जोतते हलवाहे मुझे बहुत कुरुप लगे। हर आदमी का कद खुद से छोटा लगा। ऊंचाई के इस सफर में मैंने हमेशा ऊपर देखा और जमीन मेरी आंखों से ओझल होती चली गयी। और इस तरह एक दिन मैंने जाना िक उठना हमेशा गिरना होता हैकि उत्थान और पतन के बीच की रेखा बहुत पतली होती है ।
शनिवार, 11 जुलाई 2009
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3 टिप्पणियां:
सोचने को विवश करती पोस्ट............. सच में आकाश देखते हुवे आकाश की तरफ जन भी तो गिरना ही होता है आकाश की जमी पर
बिलकुल सही. बधाई.
lajavav... ek saath gadaya aur padya ka advhut samisran....... sochne ko vivas karte hai...
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