शनिवार, 29 मई 2010

नीतीश की विश्वास यात्रा और परती की परिकथा

दहाये हुए देस का दर्द-65
बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का "विश्वास मेल'' आज कालजयी कथा शिल्पी फणीश्वरनाथ रेणु की जन्म भूमि औराही हिंगना (सिमराहा) पहुंचने वाला है। कोशी अंचल में मुख्यमंत्री की विश्वास यात्रा का यह अंतिम पड़ाव होगा। मुख्यमंत्री का "विश्वास मेल'' सहरसा, सुपौल, कटिहार और मधेपुरा से गुजर चुका है। मुझे नहीं मालूम कि इन जिलों के लोगों का विश्वास जीतने में मुख्यमंत्री कितने कामयाब हुये। हालांकि मैं अच्छी तरह जानता हूं कि कोशी अंचल की लगभग एक करोड़ आबादी बड़ी बेसब्री से नीतीश के "विश्वास मेल' का बाट जोह रही थी। लोग जानना चाहते थे कि कुसहा हादसा के बाद मुख्यमंत्री ने उनसे जो बड़े-बड़े वादे किए थे, उनका क्या हुआ। कहे थे कि पहले से बढ़िया कोशी अंचल बनायेंगे। उखड़े हुए खूंटे फिर से गाड़ेंगे और कोशी की प्रचंड धारा में भसिया गयी बस्तियों को दोबारा बसायेंगे। रेत के कारण परती (बंजर) हुई जमीनों को उपजाऊ बनाने के लिए हर संभव उपाय किया जायेगा। किसानों को ट्रेनिंग दी जायेगी, मिट्टी की जांच होगी वगैरह-वगैरह। अब जब "विश्वास मेल'' पास कर गया है, तो कुछ दिल फेंक युवक कहते हैं- "...वादे तो टूट जाते हैं।'' बात सही भी है। वादे तो प्रधानमंत्री ने भी तोड़ दिया। राष्ट्रीय आपदा कहकर जो दिल्ली गये, सो गये ही रह गये।
आखिर वही हुआ जो कोशी में सदियों से होता आ रहा है। पहले बाढ़ फिर विपत्ति और उसके बाद परती खेतों की अंतहीन परिकथा- परती परिकथा। वही फणीश्वरनाथ रेणु की "परती परिकथा।'' दूर-दूर तक रेत ही रेतऔर रेत से लड़ती मानवीय जिजीविषा। मानो कह रहे हो, नियति को जो हो मंजूर, हम तो हार नहीं मानेंगे। कुछ ने ककड़ी लगायी, कुछ ने खिरा, कहीं-कहीं परबल... लेकिन लाख प्रयास के बाद भी धान और गेहूं इन रेतों में नहीं उगे।
दिन बीता, महीने बीते और अब तो कुसहा की दूसरी वर्षी भी आने वाली है। लेकिन न तो परती जमीन में फसल लहलहाई और न ही उखड़े हुए खूंटे पर टाट और ठाट चढ़े। लेकिन हर गांव में कुछ आलीशान मकान जरूर बन गये हैं। मुखिया, वार्ड सदस्य, प्रखंड सदस्य और पंचायत सेवक साहेब लोगों के दोनों गाल में पान ही पान है। बीडीओ, प्रखंड प्रमुख और जिला पार्षदों का क्या कहना ! उनकी तो दसों उंगली घी में है। मजाल है कि आप उनसे कबूल करवा लें कि कोशी त्रासदी के भुक्तभोगियों को कुछ नहीं मिला। "पान तो आप खा गये, लोगों को तो उसकी डंटी भी नहीं मिली हजूर ?''। ऐसा कहते ही वे जोर से ठहाका लगायेंगे। गलफर के कोने से लीक करते पान के पीत को आपकी धोती से पोंछ लेंगे। अगर आपके ताल्लुकात कलम-अखबार या कैमरा-माइक आदि से है, तो वे आप के साथ हल्की-फुल्की दिललगी भी कर लेंगे। यह जताने के लिए वे आपकी बात को लंगोटिया यार की तरह ले रहे हैं, अगर दूसरा कोई होता तो बीच सड़क पर दौड़ा देते। बोलेंगे, "आप भी न गजबे करते हैं। मुख्यमंत्री का प्रोग्राम चल रहा है यार। काहे दाल-भात में मूसलचंद बनते हो, फटे में टांग डालते हो जी!''
पर मुख्यमंत्री को विश्वास चाहिए। जनता का विश्वास ! इसलिए वे सभाओं में ब्यौरे दे रहे हैं। पुरानी योजनाओं की खूबी गिना रहे हैं और नयी योजनाओं की धड़ाधड़ घोषणा भी कर रहे हैं। पर पिछली घोषणाओं का मूल्यांकन करना नहीं चाहते। स्थानीय-नेता और अधिकारी ने जो कह दिया, वह ब्रह्म बात। वही एक सांच, बाकी सब झूठ। रेणुग्राम में भी यही सब होना है। यह रेणु के देहावसान के चार दशक बाद की "परती परिकथा'' है। चचा फणीसर, आप नहीं रहे, लेकिन कोशी की धरती पर परती की परिकथा जारी है।

मंगलवार, 25 मई 2010

इस दिल्ली में

कोई दो आषाढ़ पहले
लायी गयी थी मां
'कुसहा' से कोसों दूर
इस दिल्ली में

खोजती है मां
खड़, खेत और खलिहान
बांस के जंगल और चिड़ियों की चहचहाहट
इस दिल्ली में

बेटा-बहु करते है खूब सेवा
पोता रोज ले जाता है पार्क
लेकिन
नहीं लगता मां का मन
इस दिल्ली में

बुदबुदाती है मां
अकेल में
न परिछन, न डहकन ना चुमाउन,!
न कोहवर न अरिपन !!
रामा हो रामा !
कैसी-कैसी शादी !!
इस दिल्ली में

सोचती है मां
क्या कभी आयेगी कोशी
राह भटक कर
इस दिल्ली में

शुक्रवार, 14 मई 2010

गरीबी, गेट्‌स और गुलरिया


( कभी नहीं भूलूंगा इस अनुभव को : नाव से कोशी नदी पार कर गुलरिया जाते (ऊपर ) और ग्रामीणों से बात करते बिल गेट्स )
दहाये हुए देस का दर्द-64
वैषम्य (कंट्रास्ट) में अचरज होता है और हर अचरज समाचार होता है। इससे बड़ा कंट्रास्ट और क्या हो सकता है कि दुनिया के सबसे अमीर शख्सों में शुमार होने वाला कोई अमीरजादा बिहार के कोशी दियारा के निर्धनतम लोगों की बस्ती में पहुंच जाये । उस बस्ती में जहां आज तक देश की कोई सरकार नहीं पहुंच सकी। न कोई रोड पहुंच सका और न ही कोई स्कूल, अस्पताल खुल सका। अभी 12 मई को ऐसा ही हुआ जब माइक्रोसॉफ्ट कंपनी के मालिक बिल गेट्‌स बिहार के खगड़िया जिले के गुलरिया गांव पहुंच गये। उन्होंने जिले के अलौली प्रखंड में स्थित एक दलित गांव- गुलरिया को गोद लिया है। (याद रहे यह वही अलौली है जहां रामविलास पासवान जैसे नेता का जन्म हुआ और जो पिछले दिनों भीषण नरसंहार का गवाह बना) गेट्‌स की स्वयंसेवी संस्था- "बिल एंड मिलिंडा फाउंडेशन' इस गांव में कल्याण कार्य करना चाहती है। इसके लिए उन्होंने बिहार सरकार के साथ एक एमओयू भी किया है।
घटना में कंट्रास्ट है, अचरज है और एडवेंचर भी है। एक ऐसे दौर में जब आर्थिक लाभ और हानि ही आदमी के सारे कर्मों के सबसे बड़े निर्धारक-तत्व बन गये है, तब अगर कोई आदमी (खासकर बड़ी कॉरपोरेट हस्ती) सामाजिक कल्याण के बास्ते सात समुद्र पार से गुलरिया जैसे दुर्गम-दरीद्र गांव पहुंच जाये, तो इसे एक अद्‌भूत घटना ही मानी जायेगी। यही कारण है कि मीडिया बिल गेट्‌स की इस यात्रा को हाथों-हाथ ले रहा है। यह बात दीगर है कि गुलरिया गांव के निरक्षर-निर्धन ग्रामीण गेट्‌स के जाने के तीन दिन बाद भी इस घटना का मतलब समझ नहीं पाया है। वे हेलीकॉप्टर उतरने की जगह को उसी तरह निहार रहा है जैसे कक्षा का कोई कमजोर विद्यार्थी शिक्षक के जाने के बाद ब्लैक बोर्ड को अपलक निहारता है। लेकिन गांव में पहली बार हेलीकॉप्टर उतरा, हेलीकॉप्टर से सूट-बूटधारी गोरे-चमकीले लोग उतरे और कैमरे के फ्लैश से फूस के घर जगामगा उठे। इसलिए उन्हें लगता है कि कोई चमत्कार होने वाला है। हालांकि अंधकार में रहने के आदि गुलरिया के स्त्री-पुरुषों को नहीं मालूम कि आगंतुक महोदय कौन थे, यहां क्यों आये थे। वे अपने अनुभवों से पूरे वाकये को समझने की कोशिश करते हैं, तो और भी उलझ जाते हैं। उनके अनुभव तो यही बताते हैं कि बिहार के गांवों में हेलीकॉप्टर चुनाव के दिनों में ही उतरता है, जिनसे हाथ जोड़े नेता अवतरित होते हैं, जो वोट मांगकर चले जाते हैं और फिर पांच साल तक बिला (गुम) जाते हैं। जैसे बिला जाती है दियारा की जमीन, कोशी और करेह नदियों की धाराओं में या फिर कोई नबालक बच्चा जनमअष्टमी के मेले में। लेकिन इस शख्स ने तो न वोट मांगा और न ही हाथ जोड़ा। माजरा कुछ भी समझ में नहीं आता है, गुलरिया के अम्मन सदा को। पत्रकार पूछते हैं- "आपके गांव में दुनिया के सबसे धनी व्यक्ति आये हैं, बोलिए आप कैसा महसूस कर रहे हैं ?' अम्मन सदा कहता है,"का कहें हुजूर बचवा लोग बहुते खुश है, पहली बार उनको हेलीकप्टर देखे के मिला। हमहूं खुश हैं कि आप सब हमर जर-जनानी के फुटो घींच रहे हैं।'
बावजूद इसके, बिल गेट्‌स की इस पहल का स्वागत किया जाना चाहिए। अगर उनकी पहल गरीबों के कल्याण की भावना से प्रेरित है, तो यह निश्चित रूप से पुनीत कार्य और प्रशंसा की बात है। गेट्‌स "कॉरपोरेट वेलफेयर' की जिस नयी अवधारणा को मूर्त रूप देना चाह रहे हैं, उसका स्वागत दुनिया के कई बुद्धिजीवि पहले ही कर चुके हैं। व्यक्तिगत स्तर पर मैं भी इसे एक सकारात्मक पहल मानता हूं।
लेकिन बात यहीं पूरी नहीं होती। बात इससे काफी आगे तक जाती है। कॉरपोरेट वेलफेयर, सोसल रेसपांसिबलिटी जैसी चीजों के अलावा इस घटना में कुछ हिडेन मैसेज भी हैं, जिनसे हम नजर नहीं बचा सकते। क्या हमारे लिए यह शर्म की बात नहीं है कि आज भी हमारे गांव पश्चिमी देशों के लिए एक एडवेंचरस प्लेस से ज्यादा कुछ नहीं । जहां की गरीबी से वे द्रवित नहीं, बल्कि रोमांचित होते हैं। गेट्‌स भी रोमांचित हुए, बोले- "व्हाट इज दिस ?' एक अधिकारी ने जवाब दिया- "दिस इज इंडीजिनस ओवन सर, मेड बाय स्वायल।'
अब थोड़ा इतिहास देख लें। दो-ढाई सौ वर्ष पहले भी अंग्रेज हमारे गांव जाते थे। हमारी गरीबी, भुखमरी, फटेहाली उनके लिए गहरे रोमांच का विषय होता था और हमारे सड़कविहीन-साधनविहीन दुर्गम गांव उनकी नजरों में "एडवेंचरस स्पॉट्‌स' हुआ करते थे। पलासी के युद्ध से पहले वे हमारी गरीबी, हमारे पिछड़ेपन के प्रति सहानुभूति व्यक्त करते रहे और पलासी का युद्ध जीतते ही उन्होंने भारत के सारे संसाधनों पर कब्जा जमा लिया। हम उनके उपनिवेश बनकर रह गये । दो सौ वर्षों तक वे हमारे ही संसाधन लूटकर हम पर अपना हुक्म चलाते रहे। हम गरीब से दरीद्र हो गये और वे हमारे संसाधनों के बल पर दुनिया के सभ्यतम और समृद्धतम नागरिक बन बैठे।
लेकिन 1947 के बाद गौर वर्ण वालों का यह काला कारनामा खत्म हो गया। पर क्या कहानी खत्म हुई ? अगर कहानी खत्म होती तो आज न कोई गुलरिया होता और न ही किसी गेट्‌स का "पोवर्टी टुरिज्म' होता। पिछले 63 वर्षों में गरीबी उन्मूलन की बातें तो खूब हुई, लेकिन क्या सच में गरीबी खत्म हो सकी ? हालांकि इसके लिए साल-दर-साल योजनाएं बनायी गयीं, उस पर अकूत राशि भी खर्च हुई, लेकिन न तो गांव समृद्ध हुआ और न ही ग्रामीणों की स्थिति में सुधार आया। हालांकि यह भी सच नहीं है कि पिछले 63 वर्षों में देश में विकास का काम बिल्कुल हुआ ही नहीं। पिछले छह दशकों में देश ने कई मोर्चे पर उल्लेखनीय तरक्की की, लेकिन उसका फायदा सीमित लोगों और सीमित क्षेत्रों में सिमट कर रह गया। बिहार और कोशी इसका सबसे ज्वलंत प्रमाण है। अगर स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद का आर्थिक इतिहास सामने रखकर देखें, तो पता चलता है कि कोशी इलाके के साथ सभी सरकारों ने भारी अन्याय किया है। चाहे वह सरकारी योजना चलाने की बात हो या फिर बुनियादी ढांचे के निर्माण या फिर औद्योगिकीकरण की पहल, कोशी को हमेशा उपेक्षित रखा गया। यही कारण है कि अब यह इलाका बिल गेट्‌स जैसे लोगों के लिए "पोवर्टी टुरिज्म' का स्पॉट बन बैठा है।
सरकार समेत तमाम पढ़े-लिखे लोगों को पता है कि बिल गेट्‌स के प्रयास से भारत की गरीबी कम नहीं होने वाली। हां, ऐसे प्रयासों से चंद लोगों, चंद एनजीओ और चंद अधिकारियों की जेबें जरूर गर्म होंगी। गुलरिया के बुढ़ों को एक कहानी मिल जायेगी, जिसे वे अपने पोते-परपोते को सुनायेंगे। लेकिन दियारा के गांव में गरीबी की लू व शीतलहरी यों ही चलती रहेगी। साल-दर-साल। हां, यह बात अलग है कि इसके कारण बिल गेट्‌स को कॉरपोरेट वेलफेयर का मसीहा करार दिया जायेगा। कई पुरस्कार और सम्मानों से उन्हें नवाजा जायेगा। बाजारवाद के अनुयायियों को एक "शेफ्टी वाल्व' मिल जायेगा। ताकि वे सेमिनारों और अखबारों में चीख-चीखकर कह सके कि बाजारवाद, समाजवाद का दुश्मन नहीं है। बाजारवाद को भी गरीबी और गरीबों की बराबर फिक्र है। बस, इससे ज्यादा कुछ नहीं। आमीन।

बुधवार, 12 मई 2010

वह देहाती आदमी

सड़कों पर चलने के लिए
शायरन और लालबत्तियां अनिवार्य हो जायेंगी
और टेलीविजन के सीरियल
घर में रहने की शर्त बन जायेंगे
तो वह देहाती आदमी
खिड़की के रास्ते लौट जायेगा अपना गांव
जहां के मेड़ पांवों में नहीं चुभते
और आज भी
'आदमी' कोई एक्सक्लूसिव न्यूज नहीं होता

एक दिन वह देहाती आदमी
इस शहर को राम-राम कहेगा
सड़कों पर रोप देगा मुलायम दूब
झोपड़ी के बच्चों में बांट देगा
मंडी के सब अमरूद
उठती इमारतों में लगा देगा
बांस का सोंगर
और संसद के सामने गायेगा आल्हा-उदल
और हां !
वह देहाती आदमी
जाते-जाते एक पत्थर जरूर फेंकेगा
शहर के सबसे सुरक्षित घर पर

सोमवार, 3 मई 2010

आखिरी पहर

तीन बार टूट चुका है चांद
तीन बार खांस चुकी हैं दादी
तीन गिलास पानी पी चुका हूं मैं
और पास के बरसाती खंतों (गड्‌ढे) से
अब तीसरे मेढक की कराह आ रही है
शायद यह पहले दोनों का बच्चा रहा होगा
जिसे खंते के सांप ने ही निगला होगा
मेरा मन कहता है वह धामिन होगा
कवि मन कहता है वह दोमुंहा होगा
मैं क्या करूं
मेरी बस्ती सो रही है
अपनी देह में दूसरे की नींद
शायद यह रात का आखिरी पहर है