( कभी नहीं भूलूंगा इस अनुभव को : नाव से कोशी नदी पार कर गुलरिया जाते (ऊपर ) और ग्रामीणों से बात करते बिल गेट्स )
दहाये हुए देस का दर्द-64
वैषम्य (कंट्रास्ट) में अचरज होता है और हर अचरज समाचार होता है। इससे बड़ा कंट्रास्ट और क्या हो सकता है कि दुनिया के सबसे अमीर शख्सों में शुमार होने वाला कोई अमीरजादा बिहार के कोशी दियारा के निर्धनतम लोगों की बस्ती में पहुंच जाये । उस बस्ती में जहां आज तक देश की कोई सरकार नहीं पहुंच सकी। न कोई रोड पहुंच सका और न ही कोई स्कूल, अस्पताल खुल सका। अभी 12 मई को ऐसा ही हुआ जब माइक्रोसॉफ्ट कंपनी के मालिक बिल गेट्स बिहार के खगड़िया जिले के गुलरिया गांव पहुंच गये। उन्होंने जिले के अलौली प्रखंड में स्थित एक दलित गांव- गुलरिया को गोद लिया है। (याद रहे यह वही अलौली है जहां रामविलास पासवान जैसे नेता का जन्म हुआ और जो पिछले दिनों भीषण नरसंहार का गवाह बना) गेट्स की स्वयंसेवी संस्था- "बिल एंड मिलिंडा फाउंडेशन' इस गांव में कल्याण कार्य करना चाहती है। इसके लिए उन्होंने बिहार सरकार के साथ एक एमओयू भी किया है।
घटना में कंट्रास्ट है, अचरज है और एडवेंचर भी है। एक ऐसे दौर में जब आर्थिक लाभ और हानि ही आदमी के सारे कर्मों के सबसे बड़े निर्धारक-तत्व बन गये है, तब अगर कोई आदमी (खासकर बड़ी कॉरपोरेट हस्ती) सामाजिक कल्याण के बास्ते सात समुद्र पार से गुलरिया जैसे दुर्गम-दरीद्र गांव पहुंच जाये, तो इसे एक अद्भूत घटना ही मानी जायेगी। यही कारण है कि मीडिया बिल गेट्स की इस यात्रा को हाथों-हाथ ले रहा है। यह बात दीगर है कि गुलरिया गांव के निरक्षर-निर्धन ग्रामीण गेट्स के जाने के तीन दिन बाद भी इस घटना का मतलब समझ नहीं पाया है। वे हेलीकॉप्टर उतरने की जगह को उसी तरह निहार रहा है जैसे कक्षा का कोई कमजोर विद्यार्थी शिक्षक के जाने के बाद ब्लैक बोर्ड को अपलक निहारता है। लेकिन गांव में पहली बार हेलीकॉप्टर उतरा, हेलीकॉप्टर से सूट-बूटधारी गोरे-चमकीले लोग उतरे और कैमरे के फ्लैश से फूस के घर जगामगा उठे। इसलिए उन्हें लगता है कि कोई चमत्कार होने वाला है। हालांकि अंधकार में रहने के आदि गुलरिया के स्त्री-पुरुषों को नहीं मालूम कि आगंतुक महोदय कौन थे, यहां क्यों आये थे। वे अपने अनुभवों से पूरे वाकये को समझने की कोशिश करते हैं, तो और भी उलझ जाते हैं। उनके अनुभव तो यही बताते हैं कि बिहार के गांवों में हेलीकॉप्टर चुनाव के दिनों में ही उतरता है, जिनसे हाथ जोड़े नेता अवतरित होते हैं, जो वोट मांगकर चले जाते हैं और फिर पांच साल तक बिला (गुम) जाते हैं। जैसे बिला जाती है दियारा की जमीन, कोशी और करेह नदियों की धाराओं में या फिर कोई नबालक बच्चा जनमअष्टमी के मेले में। लेकिन इस शख्स ने तो न वोट मांगा और न ही हाथ जोड़ा। माजरा कुछ भी समझ में नहीं आता है, गुलरिया के अम्मन सदा को। पत्रकार पूछते हैं- "आपके गांव में दुनिया के सबसे धनी व्यक्ति आये हैं, बोलिए आप कैसा महसूस कर रहे हैं ?' अम्मन सदा कहता है,"का कहें हुजूर बचवा लोग बहुते खुश है, पहली बार उनको हेलीकप्टर देखे के मिला। हमहूं खुश हैं कि आप सब हमर जर-जनानी के फुटो घींच रहे हैं।'
बावजूद इसके, बिल गेट्स की इस पहल का स्वागत किया जाना चाहिए। अगर उनकी पहल गरीबों के कल्याण की भावना से प्रेरित है, तो यह निश्चित रूप से पुनीत कार्य और प्रशंसा की बात है। गेट्स "कॉरपोरेट वेलफेयर' की जिस नयी अवधारणा को मूर्त रूप देना चाह रहे हैं, उसका स्वागत दुनिया के कई बुद्धिजीवि पहले ही कर चुके हैं। व्यक्तिगत स्तर पर मैं भी इसे एक सकारात्मक पहल मानता हूं।
लेकिन बात यहीं पूरी नहीं होती। बात इससे काफी आगे तक जाती है। कॉरपोरेट वेलफेयर, सोसल रेसपांसिबलिटी जैसी चीजों के अलावा इस घटना में कुछ हिडेन मैसेज भी हैं, जिनसे हम नजर नहीं बचा सकते। क्या हमारे लिए यह शर्म की बात नहीं है कि आज भी हमारे गांव पश्चिमी देशों के लिए एक एडवेंचरस प्लेस से ज्यादा कुछ नहीं । जहां की गरीबी से वे द्रवित नहीं, बल्कि रोमांचित होते हैं। गेट्स भी रोमांचित हुए, बोले- "व्हाट इज दिस ?' एक अधिकारी ने जवाब दिया- "दिस इज इंडीजिनस ओवन सर, मेड बाय स्वायल।'
अब थोड़ा इतिहास देख लें। दो-ढाई सौ वर्ष पहले भी अंग्रेज हमारे गांव जाते थे। हमारी गरीबी, भुखमरी, फटेहाली उनके लिए गहरे रोमांच का विषय होता था और हमारे सड़कविहीन-साधनविहीन दुर्गम गांव उनकी नजरों में "एडवेंचरस स्पॉट्स' हुआ करते थे। पलासी के युद्ध से पहले वे हमारी गरीबी, हमारे पिछड़ेपन के प्रति सहानुभूति व्यक्त करते रहे और पलासी का युद्ध जीतते ही उन्होंने भारत के सारे संसाधनों पर कब्जा जमा लिया। हम उनके उपनिवेश बनकर रह गये । दो सौ वर्षों तक वे हमारे ही संसाधन लूटकर हम पर अपना हुक्म चलाते रहे। हम गरीब से दरीद्र हो गये और वे हमारे संसाधनों के बल पर दुनिया के सभ्यतम और समृद्धतम नागरिक बन बैठे।
लेकिन 1947 के बाद गौर वर्ण वालों का यह काला कारनामा खत्म हो गया। पर क्या कहानी खत्म हुई ? अगर कहानी खत्म होती तो आज न कोई गुलरिया होता और न ही किसी गेट्स का "पोवर्टी टुरिज्म' होता। पिछले 63 वर्षों में गरीबी उन्मूलन की बातें तो खूब हुई, लेकिन क्या सच में गरीबी खत्म हो सकी ? हालांकि इसके लिए साल-दर-साल योजनाएं बनायी गयीं, उस पर अकूत राशि भी खर्च हुई, लेकिन न तो गांव समृद्ध हुआ और न ही ग्रामीणों की स्थिति में सुधार आया। हालांकि यह भी सच नहीं है कि पिछले 63 वर्षों में देश में विकास का काम बिल्कुल हुआ ही नहीं। पिछले छह दशकों में देश ने कई मोर्चे पर उल्लेखनीय तरक्की की, लेकिन उसका फायदा सीमित लोगों और सीमित क्षेत्रों में सिमट कर रह गया। बिहार और कोशी इसका सबसे ज्वलंत प्रमाण है। अगर स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद का आर्थिक इतिहास सामने रखकर देखें, तो पता चलता है कि कोशी इलाके के साथ सभी सरकारों ने भारी अन्याय किया है। चाहे वह सरकारी योजना चलाने की बात हो या फिर बुनियादी ढांचे के निर्माण या फिर औद्योगिकीकरण की पहल, कोशी को हमेशा उपेक्षित रखा गया। यही कारण है कि अब यह इलाका बिल गेट्स जैसे लोगों के लिए "पोवर्टी टुरिज्म' का स्पॉट बन बैठा है।
सरकार समेत तमाम पढ़े-लिखे लोगों को पता है कि बिल गेट्स के प्रयास से भारत की गरीबी कम नहीं होने वाली। हां, ऐसे प्रयासों से चंद लोगों, चंद एनजीओ और चंद अधिकारियों की जेबें जरूर गर्म होंगी। गुलरिया के बुढ़ों को एक कहानी मिल जायेगी, जिसे वे अपने पोते-परपोते को सुनायेंगे। लेकिन दियारा के गांव में गरीबी की लू व शीतलहरी यों ही चलती रहेगी। साल-दर-साल। हां, यह बात अलग है कि इसके कारण बिल गेट्स को कॉरपोरेट वेलफेयर का मसीहा करार दिया जायेगा। कई पुरस्कार और सम्मानों से उन्हें नवाजा जायेगा। बाजारवाद के अनुयायियों को एक "शेफ्टी वाल्व' मिल जायेगा। ताकि वे सेमिनारों और अखबारों में चीख-चीखकर कह सके कि बाजारवाद, समाजवाद का दुश्मन नहीं है। बाजारवाद को भी गरीबी और गरीबों की बराबर फिक्र है। बस, इससे ज्यादा कुछ नहीं। आमीन।
वैषम्य (कंट्रास्ट) में अचरज होता है और हर अचरज समाचार होता है। इससे बड़ा कंट्रास्ट और क्या हो सकता है कि दुनिया के सबसे अमीर शख्सों में शुमार होने वाला कोई अमीरजादा बिहार के कोशी दियारा के निर्धनतम लोगों की बस्ती में पहुंच जाये । उस बस्ती में जहां आज तक देश की कोई सरकार नहीं पहुंच सकी। न कोई रोड पहुंच सका और न ही कोई स्कूल, अस्पताल खुल सका। अभी 12 मई को ऐसा ही हुआ जब माइक्रोसॉफ्ट कंपनी के मालिक बिल गेट्स बिहार के खगड़िया जिले के गुलरिया गांव पहुंच गये। उन्होंने जिले के अलौली प्रखंड में स्थित एक दलित गांव- गुलरिया को गोद लिया है। (याद रहे यह वही अलौली है जहां रामविलास पासवान जैसे नेता का जन्म हुआ और जो पिछले दिनों भीषण नरसंहार का गवाह बना) गेट्स की स्वयंसेवी संस्था- "बिल एंड मिलिंडा फाउंडेशन' इस गांव में कल्याण कार्य करना चाहती है। इसके लिए उन्होंने बिहार सरकार के साथ एक एमओयू भी किया है।
घटना में कंट्रास्ट है, अचरज है और एडवेंचर भी है। एक ऐसे दौर में जब आर्थिक लाभ और हानि ही आदमी के सारे कर्मों के सबसे बड़े निर्धारक-तत्व बन गये है, तब अगर कोई आदमी (खासकर बड़ी कॉरपोरेट हस्ती) सामाजिक कल्याण के बास्ते सात समुद्र पार से गुलरिया जैसे दुर्गम-दरीद्र गांव पहुंच जाये, तो इसे एक अद्भूत घटना ही मानी जायेगी। यही कारण है कि मीडिया बिल गेट्स की इस यात्रा को हाथों-हाथ ले रहा है। यह बात दीगर है कि गुलरिया गांव के निरक्षर-निर्धन ग्रामीण गेट्स के जाने के तीन दिन बाद भी इस घटना का मतलब समझ नहीं पाया है। वे हेलीकॉप्टर उतरने की जगह को उसी तरह निहार रहा है जैसे कक्षा का कोई कमजोर विद्यार्थी शिक्षक के जाने के बाद ब्लैक बोर्ड को अपलक निहारता है। लेकिन गांव में पहली बार हेलीकॉप्टर उतरा, हेलीकॉप्टर से सूट-बूटधारी गोरे-चमकीले लोग उतरे और कैमरे के फ्लैश से फूस के घर जगामगा उठे। इसलिए उन्हें लगता है कि कोई चमत्कार होने वाला है। हालांकि अंधकार में रहने के आदि गुलरिया के स्त्री-पुरुषों को नहीं मालूम कि आगंतुक महोदय कौन थे, यहां क्यों आये थे। वे अपने अनुभवों से पूरे वाकये को समझने की कोशिश करते हैं, तो और भी उलझ जाते हैं। उनके अनुभव तो यही बताते हैं कि बिहार के गांवों में हेलीकॉप्टर चुनाव के दिनों में ही उतरता है, जिनसे हाथ जोड़े नेता अवतरित होते हैं, जो वोट मांगकर चले जाते हैं और फिर पांच साल तक बिला (गुम) जाते हैं। जैसे बिला जाती है दियारा की जमीन, कोशी और करेह नदियों की धाराओं में या फिर कोई नबालक बच्चा जनमअष्टमी के मेले में। लेकिन इस शख्स ने तो न वोट मांगा और न ही हाथ जोड़ा। माजरा कुछ भी समझ में नहीं आता है, गुलरिया के अम्मन सदा को। पत्रकार पूछते हैं- "आपके गांव में दुनिया के सबसे धनी व्यक्ति आये हैं, बोलिए आप कैसा महसूस कर रहे हैं ?' अम्मन सदा कहता है,"का कहें हुजूर बचवा लोग बहुते खुश है, पहली बार उनको हेलीकप्टर देखे के मिला। हमहूं खुश हैं कि आप सब हमर जर-जनानी के फुटो घींच रहे हैं।'
बावजूद इसके, बिल गेट्स की इस पहल का स्वागत किया जाना चाहिए। अगर उनकी पहल गरीबों के कल्याण की भावना से प्रेरित है, तो यह निश्चित रूप से पुनीत कार्य और प्रशंसा की बात है। गेट्स "कॉरपोरेट वेलफेयर' की जिस नयी अवधारणा को मूर्त रूप देना चाह रहे हैं, उसका स्वागत दुनिया के कई बुद्धिजीवि पहले ही कर चुके हैं। व्यक्तिगत स्तर पर मैं भी इसे एक सकारात्मक पहल मानता हूं।
लेकिन बात यहीं पूरी नहीं होती। बात इससे काफी आगे तक जाती है। कॉरपोरेट वेलफेयर, सोसल रेसपांसिबलिटी जैसी चीजों के अलावा इस घटना में कुछ हिडेन मैसेज भी हैं, जिनसे हम नजर नहीं बचा सकते। क्या हमारे लिए यह शर्म की बात नहीं है कि आज भी हमारे गांव पश्चिमी देशों के लिए एक एडवेंचरस प्लेस से ज्यादा कुछ नहीं । जहां की गरीबी से वे द्रवित नहीं, बल्कि रोमांचित होते हैं। गेट्स भी रोमांचित हुए, बोले- "व्हाट इज दिस ?' एक अधिकारी ने जवाब दिया- "दिस इज इंडीजिनस ओवन सर, मेड बाय स्वायल।'
अब थोड़ा इतिहास देख लें। दो-ढाई सौ वर्ष पहले भी अंग्रेज हमारे गांव जाते थे। हमारी गरीबी, भुखमरी, फटेहाली उनके लिए गहरे रोमांच का विषय होता था और हमारे सड़कविहीन-साधनविहीन दुर्गम गांव उनकी नजरों में "एडवेंचरस स्पॉट्स' हुआ करते थे। पलासी के युद्ध से पहले वे हमारी गरीबी, हमारे पिछड़ेपन के प्रति सहानुभूति व्यक्त करते रहे और पलासी का युद्ध जीतते ही उन्होंने भारत के सारे संसाधनों पर कब्जा जमा लिया। हम उनके उपनिवेश बनकर रह गये । दो सौ वर्षों तक वे हमारे ही संसाधन लूटकर हम पर अपना हुक्म चलाते रहे। हम गरीब से दरीद्र हो गये और वे हमारे संसाधनों के बल पर दुनिया के सभ्यतम और समृद्धतम नागरिक बन बैठे।
लेकिन 1947 के बाद गौर वर्ण वालों का यह काला कारनामा खत्म हो गया। पर क्या कहानी खत्म हुई ? अगर कहानी खत्म होती तो आज न कोई गुलरिया होता और न ही किसी गेट्स का "पोवर्टी टुरिज्म' होता। पिछले 63 वर्षों में गरीबी उन्मूलन की बातें तो खूब हुई, लेकिन क्या सच में गरीबी खत्म हो सकी ? हालांकि इसके लिए साल-दर-साल योजनाएं बनायी गयीं, उस पर अकूत राशि भी खर्च हुई, लेकिन न तो गांव समृद्ध हुआ और न ही ग्रामीणों की स्थिति में सुधार आया। हालांकि यह भी सच नहीं है कि पिछले 63 वर्षों में देश में विकास का काम बिल्कुल हुआ ही नहीं। पिछले छह दशकों में देश ने कई मोर्चे पर उल्लेखनीय तरक्की की, लेकिन उसका फायदा सीमित लोगों और सीमित क्षेत्रों में सिमट कर रह गया। बिहार और कोशी इसका सबसे ज्वलंत प्रमाण है। अगर स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद का आर्थिक इतिहास सामने रखकर देखें, तो पता चलता है कि कोशी इलाके के साथ सभी सरकारों ने भारी अन्याय किया है। चाहे वह सरकारी योजना चलाने की बात हो या फिर बुनियादी ढांचे के निर्माण या फिर औद्योगिकीकरण की पहल, कोशी को हमेशा उपेक्षित रखा गया। यही कारण है कि अब यह इलाका बिल गेट्स जैसे लोगों के लिए "पोवर्टी टुरिज्म' का स्पॉट बन बैठा है।
सरकार समेत तमाम पढ़े-लिखे लोगों को पता है कि बिल गेट्स के प्रयास से भारत की गरीबी कम नहीं होने वाली। हां, ऐसे प्रयासों से चंद लोगों, चंद एनजीओ और चंद अधिकारियों की जेबें जरूर गर्म होंगी। गुलरिया के बुढ़ों को एक कहानी मिल जायेगी, जिसे वे अपने पोते-परपोते को सुनायेंगे। लेकिन दियारा के गांव में गरीबी की लू व शीतलहरी यों ही चलती रहेगी। साल-दर-साल। हां, यह बात अलग है कि इसके कारण बिल गेट्स को कॉरपोरेट वेलफेयर का मसीहा करार दिया जायेगा। कई पुरस्कार और सम्मानों से उन्हें नवाजा जायेगा। बाजारवाद के अनुयायियों को एक "शेफ्टी वाल्व' मिल जायेगा। ताकि वे सेमिनारों और अखबारों में चीख-चीखकर कह सके कि बाजारवाद, समाजवाद का दुश्मन नहीं है। बाजारवाद को भी गरीबी और गरीबों की बराबर फिक्र है। बस, इससे ज्यादा कुछ नहीं। आमीन।
3 टिप्पणियां:
achcha aalekh...achchi jaankaari mili...lekin hamare raajneta ise bhunanae me koi kasar na chhodenge...
जानकारी देता हुआ बढ़िया लेख .. इन सब बातों से लगता है कि कुछ खास आगे नहीं बढ़ पाया है हमारा देश ... आज भी हम विदेशियों के करम पर भरोसा करते हैं ...
aapne jameenee satya ki charcha kiya hai.Ho sakta hai, Bill Gates ke aagman kaa koi doorgami parinaam na nikale,parantu Gates oon deshi tathaa videshi kuber-putron se laakh darze achche hain, jo doosre ke bare men sochate hi naheen.Parantu kuchh aise log aaj bhi iss sansar mein hain jo apne se kamtar bhagyashali logon ki yatha sambhav seva kar rahe hain.Aappke hi rajya Jharkhand mein Deoghar ke nikat Rikhiadham me kripaya kabhi avashya jayen. Ek mahan sant kee team ne poorey panchayat ka kayakalp kar diya hai.Ve log publicity ke bhookhe nahin hain.OOnhe political support bhi nahin chahiye.Rikhia se kafee door U.P. mein bhi kuchh ho raha hai.(www.satyamsharanam.blogspot.com). Agar hamare mein positive soach ho to bahu kuchh kiya ja sakta hai.--Pranaam
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