बुधवार, 30 जुलाई 2008

भादो के कादो

रंजीत
तीन बजे रात से ही मिरगिसरा(मृग नक्षत्र) बरसने लगा... झम-झमाझम-झमझम, गरगर-गरगरररर... बादलों ने जैसे आसमान में गुड्डी- कबड्डी का खेल शुरू कर दिया है। धम-धम-चररररर , चराक ! साहोड़ ! साहोड़ !!! चंद्रेश्वरा सांझ से मंसुयाल है। सहत (मछली पकड़ने का देसी हथियार) पीजा कर रख दिया है मचान पर । एक्को कब्बईया-पोठिया- सिंगिया- मंगुरिया नै छोड़ेंगेभाई । जैसे-जैसे बूंदों की रफ्तार तेज हो रही है वैसे-वैसे उसका मंसूबा भी बढ़ता जा रहा है। गरगर-गरगर .... नाद में सानी तैयार है... ई गोला बाछा सरवा भर पेट खाकर सुस्ता रहा है। गरगर-गरगर.... सरवा के पते नहीं है कि आज जे तीन बिगहा खेत में चाैकी पड़ा है कल ऊ सबका कदवा होगा। ई पानि में नै रोपायेगा ते, समझो हाथ से गिया कट्ठा मन के मंजा ... गरगर-गरगर, झमझमाझम... भकोस-भकोस के खालो , कल जब गरदन पर जूवा पड़ेगा तो हिहिंचना नै, सरवा चंद्रेश्वरा के हाथ का पोसायल है, कोनो मजाक नहीं है... जेठ भर खूब बैसाढ़ी किया है , भादो में कादो ते लगवे करेगा।
कोसी नदी के पूर्वी कछार पर बसे हमारे गांवों में उन दिनों सावन-भादो की शामों-सुबह कुछ इसी तरह गुजरती थी। एक अजीब-सा उल्लास गांवों को अपने आगोश में ले लेता था। जिसे देखो उसी के चेहरे दमकते नजर आते थे। किसान , मजदूर , हलवाहा, चरवाहा , सबके सब उत्साहित रहते थे। हर मेड़ चहकने लगता था आैर खेतों का दृश्य देखते ही बनता था। लगता था पूरी दुनिया की उमंग खेतों में बिछ गयी है , जिस पर किसान नाच रहे हैं। हर ओर धान रोपाई का काम चालू हो जाता था। पूरे दिन पानी आैर कीचड़ में रह-रहकर किसानों के पैर सूज जाते थे, लेकिन उन्हें इसकी फिकर नहीं रहती। शाम को जले हुए बैट्री से तैयार की गयी दवा लगा लेते थे आैर कहते थे- भादो के कादो है, जितना लगेगा उतना शुभ। जब भादो में लगेगा कादो तब न अगहन में होगा नवान्न। हम बच्चों की खुशी का तो कोई ठिकाना नहीं रहता था। हम 15 अगस्त की प्रभात फेरी के लिए तरह-तरह के तिरंगा बनाने के जुगाड़ लगाते रहते थे। आपस में गहरी प्रतिद्वंिद्वता होती थी कि किसका झंडा कितना ऊंचा बनता है। इसके लिए घंटों-घंटों हम खेतों में काटकर जमा किए गये पटुए (जूट) के तनाओं का माप-मुआयना करते थे। उन दिनों गांवों में रेडीमेड तिरंगे नहीं मिलते थे। स्कूल के शिक्षकों की स्पष्ट हिदायत होती थी कि तिरंगा अपने से बनाना है आैर पूरी तरह ठीक बनाना है। हम बच्चों में इस बात को लेकर भी प्रतिद्वंिद्वता होती थी हममें से काैन सबसे सही तिरंगा बनाता है।
शाम को जब खेत रोपकर किसान-मजदूर घर लाैटते थे तो हम उन्हीं के साथ पंगत में बैठकर खाना खाते थे। भदैया धान की भात आैर कलकतिया आम। साथ में देसी पटुआ का साग। अंधेरा होने तक रोप-भोज चलते रहता था। इस बीच अगर बारिश शुरू हो गयी तो फिर क्या कहना। जबतक बारिश खत्म नहीं होती हम पंगत से उठ नहीं सकते। हमलोग आमों की गुठली गिनकर बताते कि रवि दास ने 11 हजम किया आैर बद्रीया तो 15 खाकर अभी तीन आैर का छिलका छुड़ा रहा है। इस बात से दादी गुस्सा जातीं आैर हमें डांट कर चुप करातीं। कहतीं- खाने वालों की थाली नहीं गिनी जाती। लेकिन हम कहां मानने वाले। अगले दिन बिद्रया का नाम पड़ता- अट्ठारहिया भगवान।
अब तो इनकी यादें ही रह गयींहैं। गांवों में भादो के मायने बदल गये हैं। ज्यादातर परंपरागत किसान खेती छोड़ चुके हैंआैर जो खेती कर रहे हैं उनके लिए क्या भादो , क्या सावन। हर माैसम एक समान हो गया है। अब तो बारहों महीने धानों की बुआई-रोपाई होती है। तरह-तरह के हाइब्रिड धान की नस्ल आ गयी है। खेती भी हाइटेक हो गयी है। उपज की दर भी बढ़ी है। लेकिन उत्साह कम हो गया है। लोग बताते हैंकि अब खेतों में सहत लेकर मछली पकड़ने लोग नहीं निकलते। क्योंकि जंगली मछली रही ही नहीं। जंगली मछलियां तेजी से खत्म हो रही हैं। यहां तक कि मेड़ों में रहने वाले केकड़े आैर कछुए भी विलुप्त हो चुके हैं। अब कोई चंद्रेश्वरा सहत नहीं पिजाता। कलकतिया आम अभी भी मिल जाते हैं, लेकिन पंगत में बैठकर खाने का नजारा शायद ही कहीं दिखे। बच्चे भी 15 अगस्त को लेकर स्टीरियोटाइप हो गये हैं। सुबह में उठेंगे आैर झंडोतोलन में भाग लेकर सीधे घर को लाैट आयेंगे। तब रात के अंधेरे में ही हम प्रभात फेरी के लिए निकल पड़ते थे- 15 अगस्त ? स्वतंत्रता दिवस ।।।
महात्मा गांधी- अमर रहे, सरदार पटेल- अमर रहे.. .
इंकलाब, जिंदाबाद- जिंदाबाद ...
अब ये शोर गांव की गलियों में नहीं गुंजते हैं। गांव सचमुच बदल चुका है। शायद इसलिए सावन-भादो भी बदल गये हैं।

सोमवार, 28 जुलाई 2008

मैं-तुम और अपना प्यार

रात के अंधेरे में दौड़ती हुईं रेलगाड़ियां
और
कौंधती-बलखाती-गुजरती हुईं बत्तियां
जैसे
मैं-तुम और तेरी अंगड़ाइयां
बिस्तर पर सोया हुआ नन्हा-सा बच्चा
और
अचानक उसका रोना और मां का जगना
जैसे मैं-तुम और तेरा उलाहना
जेठ की दोपहरी में रेतों के लट्टू
और
हलवाहों का हाक
जैसे मैं-तुम और तेरा प्यार

सोमवार, 7 जुलाई 2008

बाबा की खांसी


बाबा की खांसी और मौसी की उदासी
अकेली नहीं थी
उस दौर में, बावा के खांसने से
सनपतहा वाली भौजी की नींद खराब नहीं होती थी
मौसी की उदासी से घर का माहौल खराब नहीं होता था
और न ही घर का कोई कोना आरक्षित होता था , मौसेरी भावी के आदेश पर
यह तब की बात है जब
मौसी के गांव तक रेलवे इंजन की आवाज नहीं पहुंचती थी
और तत्सम में भी बड़ी व्यंजना कही जा सकती थी
और बाड़ी के बथुए लजीज लगते थे

लेकिन
अचानक जैसे युग ने पलटी खा लिया
मोबाइल फोन पर बातें होने लगीं
डाकिये को चिट्ठी बांचने से फुर्सत मिल गया
एक साथ
बाबा की खांसी और मौसी की उदासी जैसे गुम-सी हो गयी
अब हर चीज करीने से लगने लगी
बाबा के लिए ओल्ड होम बना दिये गये
और मौसी के सामने कई सारे विकल्प थे
रेल का इंजन या कीड़ा मारने की दवा ...