शुक्रवार, 29 जनवरी 2010

कहां पाऊं वो वनफूल

जैसे उकन्न (विलुप्त) गये पंझाली, लालसर, सिंगारा, पेरवापांखि जैसे धानों की दर्जनों सनातन प्रजातियां, कुछ-कुछ उसी तरह सनै-सनै लुप्त हो रहे हैं गांवों के गांवपन। गांवों से गुम हो रही हैं देसी लोकोक्तियां, अपनत्व-ममत्व से भरे संबोधन, माटी के बरतन, अनुरागों से सिक्त मन । अब तो गांवों की गलियों में भी सुनाई देते हैं- फिकर नॉट, फिकर नॉट के फिकरे। न जाने कहां-कहां की जुबान गांवों में प्रवेश कर गयी हैं । राह चलते हाल पूछना गांव का सनतान संस्कार है। शायद इसलिए एक दिन राह चलते नोनिया टोले के किशुनदेव से यूं ही पूछ लिया, "कि हो किशुन, गौना ठीक-ठाक से हो गेलअ न ?' किशुनदेव बोला- "किशुन नहीं, किशन कहिए ब्रदर, सब मस्त रहा। हजार टका भाड़ा देकर मारूति लाये थे, सकिंड मैरिज के लिए।' गांव इतने बदल गये हैं कि आंगन के प्रवेश द्वार पर अगर खांस दिए, तो बस्ती के छोकरे महीनों तक आपका मजाक उड़ाते रहेंगे। दातून से दांत साफ करने वालों को अब गांव में पिछड़ा समझा जाने लगा है। जिसे शादी में दहेज की मोटी राशि नहीं मिलती, वो खुद को अभागा मानता है। अपराधबोध से ग्रस्त हो जाता है। बला यह कि दहेज लेना और देना स्टेटस सिंबल बन गया है। इसलिए लोग पचास हजार लेते हैं, तो दो लाख बताते हैं और दो लाख देते हैं , तो पांच लाख गिनने का प्रचार करते हैं।
नब्बे के दशक के बाद से गांवों में अजीबोगरीब धाराएं बहने लगी हैं । उपभोक्तावाद की मादक-लहरें शहरों की अट्टालिकाओं से टकराकर गांवों की झोपड़ियों तक में लहरा रही हैं। चौके से चौपाल तक बाजारवाद का उत्स फैल गया है। धनोपार्जन के बदले धन-लिप्सा की मानसिकता जन-जन को अपने आगोश में ले रही है। उपभोग और विलासिता सबसे बड़े आदर्श बनने लगे हैं। कर्म तंत्र से मीलों आगे है पहुंच गया है- धन तंत्र। जिसके पास धन नहीं, मानो वह जन नहीं।
वे अपने बच्चों को स्कूल नहीं भेजते, लेकिन बाजार से मोबाइलों के अद्यतन मॉडल खरीद लाते हैं। बगैर काम किए, सब कुछ हासिल कर लेना चाहते हैं। नरेगा के फर्जीबाड़े में दिल खोल कर हिस्सा लेते हैं। सरकारी योजनाओं की खबर रखते हैं, लेकिन सिर्फ और सिर्फ निजी स्वार्थ के लिए। जो मुंहदुब्बर हो उनकी आवाज दवा दो, उनका हक छिन लो। रुपये लेकर मुखिया, प्रमुख के हर गलत कामों को सही ठहराते दो। इंदिरा आवास के लिए मिले रुपये से जमीन खरीद लो । अगर अधिकारी जांच करने पहुंचे तो उन्हें खस्सी-मुर्गी खिला दो। दो-चार किलो देसी घी उनकी गाड़ी की डिक्की में रख दो।
चुनाव के दरम्यान तो गांवों का नजारा चमत्कृत कर देता है। सभी उम्मीदवारों से पैसे लेते हैं, लेकिन वोट गिराने नहीं जाते। मुंहदुब्बरों के मत का सौदा करते हैं और उन्हें मतदान से वंचित कर देते हैं। मुंहदुब्बरों का साधने के लिए वे तरह-तरह के हथकंडे अपनाते हैं। कभी हुक्का-पानी बंद कर देते हैं, तो कभी राह चलते पीट देते हैं।
गांवों में सामूहिक प्रेम, सामूहिक दायित्व की भावना दम तोड़ रही है। प्रेम, निश्छलता, करुणा, भलमनसाहत अब गांवों में भी दुर्लभ हो गये हैं। बूढ़े बाप-मां बेटे-बहू के लिए बोझ बनते जा रहे हैं। बेटे को सुबह में पता चलता है कि ओसारे पर सोये बाप ने रात के किसी पहर में अकेले दम तोड़ दिया।
किसी ने कहा था कि अंततः प्रेम इस दुनिया को बर्बाद होने से बचा लेगा और भारत को भारत के गांव बचा लेंगे। बाजारवाद की आंधी में लगातार गुमराह होते समाज से व्यथित लोगों को यह वाक्य एक ढांढस बंधाता है। लेकिन अब तो गांव के अस्तित्व पर ही सवालिया निशान लग गया है। जब बांस ही नहीं रहेगा तो बंशी कहां से बजेगी। गांव नहीं रहेगा, तो भारत का डूबना निश्चित है। जब हम ऐसा कह रहे हैं, तो इसका अर्थ यह नहीं है कि हम गांवों के विकास की आलोचना कह रहे हैं। मेरा आशय गांवों की लुप्त होती जिजीविषा, गांवों की परंपरा, गांवों के संस्कार और गांवों की अस्मिता से है। यह सच है कि हमारे यहां गांव और गरीबी को पर्यायवाची मान लिया गया है, लेकिन भारत के गांव महज एक सुदूर गरीब इलाके के प्रतीक नहीं हैं, बल्कि ये एक व्यापक जीवन-दर्शन के प्रतिनिधि और वाहक भी हैं। हमारे गांव इंसानी संवेदनाओं, मानवीय करुणा , भाइचारे, सहअस्तित्व, प्रेम और ममत्व का सनातन प्रतिनिधि है। शहरों में यह बहुत पहले खत्म हो चुका है।
बाजारवाद और उपभोक्तावाद का फलसफा है कि यह इंसान को इंसान से अलग कर देता है । यह मनुष्य को मानवीय संवेदनाओं से काटता है। प्रेम और भाइचारे को अप्रासंगिक बना देता है। भंवरे क्या करे ? सौरभ की तलाश में जंगल पहुंचे भंवरे को नहीं मालूम कि जंगल ने वनफूलों से तौबा कर लिया है।
पर यह एपेक्स नहीं है। क्लाइमेक्स अभी बाकी है। बाजारवाद जब क्लाइमेक्स पर पहुंचेगा, तो इंसान के पास कुछ नहीं होगा सिवाय धन के। और धनविहीन इंसान किसी अपराधी से कम नहीं होगा। जिसके पास धन नहीं होगा उसे सांस लेने के लिए हवा नहीं मिलेगी, चलने के लिए रास्ते नहीं दिए जायेंगे, न तो जन्म लेने के लिए कोख मिलेगी और न ही मौत के लिए दो गज जमीन। आंख होंगी पर दृष्टि के लिए अनुमति लेनी होगी। जिसके पास बैलेंस नहीं होगा, वह आंखों का उपयोग नहीं कर सकेगा। इंसान के पास जुबान होगी पर बोलने के लिए हर शब्द की कीमत चुकानी होगी। आकाश, पताल, पहाड़, हवा, पानी, रोशनी, शब्द, भाषा, पहनावा आदि निजी मिल्कियत होगी। इसके उपयोग के लिए भाड़े चुकाने होंगे। कविता और कवि एक तो होंगे नहीं अगर होंगे तो उन्हें शैतान घोषित कर दिया जायेगा।
 
 

मंगलवार, 19 जनवरी 2010

बाजार में मरीज

बेशक
आदमी की आस और आदमी की जान
बड़ी हैं
गांव और शहर के बीच की दूरी से
वरना
"वह कौन-सी बीमारी है
जो झाड़ने-फूंकने से ठीक नहीं होती''
लेकिन
सात दिन पहले ही हुआ था सतना का गौना
और आठवें दिन
सुबह से ही उसे खून की उल्टी आ रही थी
शायद इसलिए
गांव के सभी "ओझा'' गायब हो गये
शायद उन्हें दया आ गयी थी
सतना पर
या फिर सात दिन के गौने पर
++
बड़े "इस्पीताल'' में किसी बड़े "डागडर'' की तलाश में
बारह घंटे बाद शहर पहुंचा था, बेहोश सतना
और एक नामचीन क्लिनीक के
बाहरी गेट के थोड़ा-सा बाहर
निजी सुरक्षा गार्डों से गुजारिश करता रहा
सतना का लाचार बाप
उसकी लाचार बीवी
मगर
गेट नहीं खुले
(-------)
एक गरीब बाप
एक लाचार बीवी
और एक बेहोश आदमी क्या है
डॉक्टरों की माने तो
वे मरीज नहीं
''किसी सफाईवाले का ठेला है''
(माफ़ करें डॉक्टर साहेब , जिनका यह बयान है )
जो धोखे से दूकान को अस्पतलाल समझ बैठा है
उन्हें नहीं मालूम
कि एटीएम के जवाने में
गुजारिश बेवकूफी है
फटी धोती, झुकी कमर और बटुए की रेजगारी
बाजार की सबसे बड़ी गाली है
++
हाय !
बाजार के बीचो-बीच खड़े उस बेजार बाप को
सीथ की सिंदूर से मुठभेड़ करती उस नवयौवना को
कोई तो बता दे
उस "इस्पीताल'' का पता
जहां "डागडर बाबू'' बैठते हैं

रविवार, 17 जनवरी 2010

सूर्य ग्रहण की दो तस्वीर

कुदरत के अद्भुत कारनामे को निहारती एक जोड़ी
धीरे -धीरे घटता सूरज

गुरुवार, 7 जनवरी 2010

एक लाख की नौकरी

बेरोजगारी,गरीबी,असमानता जैसे अभिशापों से घिरे देश में "नौकरी' से ज्यादा जन-मोहक शब्द कुछ नहीं हो सकता। और अगर बात झारखंड की हो, तो फिर "नौकरी' एक शब्द भर कहां रह जाता है। यहां यह शब्द राजनीतिक रामबाण बन जाता है। अगर झारखंड पठारों का राज्य है, तो बेरोजगारी , गरीबी और आर्थिक असमानता इन पठारों की डरावनी खाइयां हैं। इन खाइयों की हकीकत बहुत कड़वी है, इसलिए कोई भी सरकार कभी भी इनमें उतरने की कोशिश नहीं करती। अगर वे इन खाइयों के पास खड़े होकर देखते, तो उन्हें साठ साल के तमाम तथाकथित पराक्रम की असलियत भी मालूम हो जाती। यकीनन सभी स्वतांत्रयोत्तर पराक्रम बौने साबित हो जाते। झारखंड के राजनीतिक दल इस सच को बखूबी जानते हैं। इसलिए वे कभी भी इन खाइयों में उतरने की कोशिश नहीं करते। हां , इन खाइयों के दोहन में वे माहिर हैं।
झारखंड के नवनिर्वाचित मुख्यमंत्री शिबू सोरेन ने विश्वास मत प्राप्त करने के बाद एक लाख लोगों को नौकरी देने का शिगूफा छोड़ दिया है। राज्य विधानसभा में गुरुवार को विश्र्वास प्रस्ताव पर चर्चा के बाद सरकार की ओर से जवाब दे रहे शिबू सोरेन ने कहा कि उनकी सरकार आने वाले समय में एक लाख बेरोजगारों को नौकरी देगी। इसके अलावा उन्होंने ग्रामीण जनता की त्रासदियों की भी खूब चर्चा की। अकाल, भुखमरी, कुपोषण से लेकर पलायन तक पर शिबू अपने निपट देसी अंदाज में बोले, जिसे सुनकर सहानुभूति होती है और साथ-साथ हंसी भी छूट जाती है। शिबू इतने भोले तो नहीं कि इस जन्नत की हकीकत उन्हें नहीं मालूम।
इसमें कोई दो राय नहीं कि शिबू सोरेन ने झारखंड की गरीब जनता की जिन त्रासदियों की बात की, वे सोलह आने सच है। लेकिन क्या शिबू सोरेन के पास इससे निपटने की कोई ठोस योजना है ? अगर शिबू सोरेन के राजनीतिक रोड-मैप और पिछले रिकॉडों पर गौर करें, तो इस सवाल का जवाब बहुत आसानी से मिल जाता है। शिबू सोरेन अब तक तीन बार राज्य की मुख्यमंत्री की कुर्सी संभाल चुके हैं। इससे पहले वे लगभग चार साल तक झारखंड स्वायत्त परिषद के अध्यक्ष के पद को भी सुशोभित कर चुके हैं । लेकिन आज तक उन्होंने राज्य की गरीबी, आर्थिक असमानता, पलायन, विस्थापन, अकाल और बीमारियों की समस्याओं से लड़ने के लिए एक भी कदम नहीं बढ़ाया। वे राज्य की सत्तर प्रतिशत वंचित आबादी को न्याय दिलाने की बात तो करते हैं, लेकिन जब उनसे पूछा जाता है कि इसके लिए उन्होंने क्या नीति बनाई है , तो वे कोई जवाब नहीं दे पाते। सच तो यह है कि शिबू सोरेन की दिलचस्पी गरीबी, असमानता, अन्याय आदि की चर्चा करने तक सीमित है। इन अभिशापों से निजात पाने की उनकी मंशा नहीं है। तमाम अनुभव यही बताते हैं। अगर सहज भाषा में कहें तो शिबू की राजनीति अब धीरे-धीरे लालू प्रसाद की नब्बे दशक की राजनीतिक शैली की ओर बढ़ रही है। गौरतलब है कि पहली बार सत्ता में आने पर लालू यादव ने भी बिहार के एक लाख लोगों को सरकारी नौकरी देने का शिगूफा छोड़ा था, जिसे कभी पूरा नहीं किया गया। लाख की बात तो छोड़िये लालू प्रसाद के शासन में बिहार में नियमित नियुक्तियां भी प्रायः बंद हो गयी थीं।
पता नहीं शिबू सोरेन को राज्य के संसाधन, स्रोत, जरूरत, प्रशासनिक क्षमता-दक्षता, ब्यूरोक्रेटिक-इंडस्ट्रियलिस्ट कॉकस आदि का कितना ज्ञान है (क्योंकि उनकी प्रशासनिक समझ संदेहास्पद है), लेकिन जिनको इसकी सच्चाई मालूम है, वे शिबू सोरेन की घोषणाओं की चर्चा करने पर चौअन्नी मुस्कान बिखेर देते हैं। इसका मतलब साफ है। राज्य की प्रशासनिक दक्षता लगभग खत्म हो चुकी है, क्योंकि यहां काबिल अधिकारियों के टोटे हैं। पूरे आइएएस कैडर में दक्ष और निपुण अधिकारियों की संख्या पांच-छह ही रह गयी है। कार्य-संस्कृति दरीद्र हो चुकी है। भ्रष्टाचार, लापरवाही, दलाली आदि सरकारी तंत्र के अंग-अंग में व्याप्त है। असलियत तो यह है कि मौजूदा प्रशासनिक तंत्र से शिबू सोरेन की सरकार नियमित दैनिक कार्यों का निष्पादन भी नहीं करा सकते। खनन्‌ नीतियों को बदलने, सत्ताई कॉकस, आर्थिक असमानता और गरीबी को दूर करना तो दिवास्वप्न है। एक लाख लोगों को नौकरी देने के लिए शिबू को शायद एक हजार कार्यालयों का कई हजार बार औचक निरीक्षण और निगरानी करना होगा और कई अधिकारियों-कर्मचारियों को निलंबित करना होगा । और यह भी तब संभव हो सकेगा जब वे बचे-खुचे ईमानदार अधिकारियों की सही-सही पहचान कर ले। जाहिर है शिबू सोरेन की न तो इतनी इच्छा शक्ति है और न ही उनके पास इतनी राजनीतिक शक्ति है। वे भाजपा और आजसू की अवसरवादी राजनीति के कारण बेमेल गठबंधन से सत्ता तक पहुंचे हैं। मुख्यमंत्री की कुर्सी उनका इष्ट है, जो उन्हें मिल चुकी है। फिर भी मुगालते में जीना, जनता की नियति है शिबू "सत्ता-सत्ता ' जप रहे हैं और जनता को "नौकरी-नौकरी' सुनाई दे रही है। बस।

रविवार, 3 जनवरी 2010

हाय, हल्लो से बाहर भी है नव वर्ष

समकालीन हिन्दी साहित्य के दिग्गज साहित्यकार राजेंद्र यादव ने कल एक जबर्दस्त बात कही । राजेंद्र यादव ने कहा कि आज साहित्य से भविष्य का सपना गायब हो रहा है। राजेंद्र यादव का यह बयान अपने आप में बहुत बड़ी खबर है। भले ही कुछ लोग इसे साहित्य की खबर माने या फिर कुछ लोग इसे बुद्धिजीवियों की तत्व-विमर्श कह कर टाल दें, लेकिन मेरे विचार से राजेंद्र यादव के कथन को सिर्फ साहित्यक परिधि में नहीं देखना चाहिए। यह महज साहित्यिक दुर्घटना नहीं है कि उससे भविष्य के सपने गायब हो रहे हैं। मेरे खयाल से यह एक भीषण सामाजिक दुर्घटना है, जिसकी परछाई साहित्यक वृत्त तक जा पहुंची है। लेकिन यह अनायास नहीं हुआ है। आज हमारा समाज जिस लीक पर चल रहा है, उसका फलसफा ऐसा ही कुछ होने वाला है। उसे इसी मंजिल पर पहुंचना था।
सच है कि आज समाज के जीवन-दर्शन, जीवन-मूल्य, जीवन-मकसदों में क्रांतिकारी परिवर्तन आ चुका है। समाज स्वकेंद्रित और क्षणजीवि हो चला है। किसी को किसी बात से तब तक कोई फर्क नहीं पड़ता है , जब तक वह बात उसके हित-अहित से सीधे तौर पर जुड़ न जाती हो। ऐसा तभी हो सकता है, जब इंसान भविष्य के बारे में, चल रहे क्रिया-कलाप, संस्कृति-प्रवृत्ति के दूरगामी प्रभाव के बारे में विचार करना (सपना देखना) छोड़ दे। इसलिए आज जो कोई भी अन्याय, असमानता, स्वकेंद्रित जीवन शैली आदि सामाजिक विघटन के बारे में सोच रहे हैं, इन दुष्प्रवितियों के खिलाफ आवाज उठा रहे हैं, वे वंदनीय हैं। क्षणजीवि सभ्यता भले इस सच्चाई से मुंह मोड़ ले, लेकिन आगामी पीढ़ियां इसका हिसाब-किताब जरूर लगायेगी।
बहरहाल, नये वर्ष के उपलक्ष्य में यहां ऐसे ही एक सख्श की कलाकृति लगा रहा हूं, जो सपने देखता है और समकालीन समस्याओं और दुष्प्रवृत्तियों के खिलाफ आवाज उठाने में भी विश्वास रखता है। इनका नाम है- पिनाकी राय। पिनाकी ने इस बार नव वर्ष-2010 के उपलक्ष्य में देश में कम होते वोटिंग परसेंट को अपने कार्ड में उकेरा है। पिनाकी पिछले 15 वर्षों से लगातार राष्ट्रीय एकता के लिए ग्रीटिंग कार्ड बना रहे हैं। आप भी इस पर गौर फरमाएं।