बुधवार, 16 नवंबर 2011

कवि तुम कब आओगे

बर्फ
सब
पिघल गयी
सांस भी
अब 
दवा हुई
देह ही है देश में
लोग बस  नारा है
भरोसा था जिस शोर पर
चौक पर
शराब हुई
शर्म
से बहुत आस थी
सुबह-सुबह
खतम हुई
कवि !
तुम कब आओगे

शुक्रवार, 4 नवंबर 2011

ना वो नगरी ना वो ठाम (ठांव)



दहाये हुए देस का दर्द-78
बोल बम, दशहरा, कोजगरा, दीवाली, शुकराती, भ्रातिद्वितीया के बाद छठ पूरा हुआ और प्रवास का चौमासा भी। शहर जाती रेलगाड़ियां फिर से ठसाठस है
ट्रेनों के डिब्बे कर्राटे के ट्रेनिंग कैंप में तब्दील होने लगे हैं। अंदर जा पाना जंग जीतने जैसा है। सब की छुट्टी खत्म हो चुकी हैऔर हर कोई सही समय पर दिल्ली, अमृतसर, सूरत,लुधियाणा, गुवाहटी आदि पहुंच जाना चाहते हैं। लोग ज्यादा हैं, डिब्बे कम।  इसके उलट गांवों में डिब्बे ज्यादा हैं,  लोग कम ।
वे प्रवासी चिड़ियों की तरह आये और प्रवास-उपवास-त्यौहार के बाद लौट गये। कुछ ने बकरे की बलि दी, कुछ ने सिहेंश्वर बाबा को जल चढ़ाया और कुछ ने मंदिर में घंटी बांधकर उस पर अपना नाम खुदवा लिया- " ... मैया मनोकामना पूरी करे, तो अगले साल जोड़ा छागर चढ़ावेंगे (काटेंगे)।''
अब अगले चौमासे में ही लौटेंगे ये । जब कभी उनकी जरूरत होगी,  मोबाइल फोन और बैंक के दस नंबरी खाते से काम चला लिया जायेगा। तभी तो उस दिन मुनाई मड़र की पत्नी चहककर रामाधीनमा से कह रही थी-"जमाना बदल गिया है। टाका टेम पर आ जाता है। हां, बैंक का नवका मनिजर जनी-जाति (महिलाओं) सब को तुरंत टाका नहीं देता। हियां-हुआं पचीस जगह अंगुरी के टीप लेता है, बजरखसोना (बज्रपात करने वाला) !''
रामाधीनमा बायें-दायें, आगे-पीछे देखता है, फिर जवाब देता है- "ऐं, तोरा संग तो ऐसा कभियो नहीं हुआ, हे  बनेलवाली भाउजी ? मनिजरवा तोरे खोपा (बाल) पर मेहरबान जे है, हें-हें-हें !''
"धूर्र जिन्नदहा (जिन्न के संग रहने वाला) !!''
बनेलवाली लजा जाती है । कनखी से रामाधीनमा की ओर देखती है और  फुसफुसाती है-"बजरखसुआ राकश, आइये राइत से देहेर (देहरी) पर घुड़दौड़ करने लगेगा !!''
मुझे साल भर पहले पटना के एक दार्शनिक लेखक और अंग्रेजी पत्रकार की कही बातें याद आयीं। उन्होंने टाइम्स ऑफ इंडिया बिल्डिंग के बगल की चाय दुकान पर कहा था- "... इट्‌स नेचुरल डिमांड ऑफ बॉडी यार।  डू यू नॉट वांट टू प्लीज्ड योर बॉडी? आइ एम राइटिंग अ बुक ऑवर लेबर माइग्रेशन बट माई थीम इज डिफरेंट। माइग्रेशन वर्सस हाइब्रिडेजाइशन ! यह  शीर्षक कैसा रहेगा ??? ''
मैंने तकरीर की । " दादा, अभी तो माइग्रेशन पर बहस होनी चाहिए। एक पत्रकार के नाते पहले आपको  इस समस्या के असल कारणों के बारे में दुनिया को बताना चाहिए, लेकिन आप तो दीपा मेहता बनने पर उतारू हैं। आठ घंटे खेत में काम करने के बाद जब घर लौटेंगे, पांच-छह बच्चे को संभालेंगे, बुढ़े सास-ससुर की सलगी-नुआ (विछावन और वस्त्र) सुखायेंगे, तो भूल जायेंगे कि बॉडी प्लीजर किसे कहते हैं ...  '' 
दादा गंभीर हो गये । बोले, " प्वाइंट। वैलिड प्वाइंट। गो अहेड... ''
खेतों में धान पकने लगे हैं। दस-पंद्रह दिनों में काटने योग्य हो जायेंगे। लेकिन फसल काटने के लिए लेबर की चिंता से किसान दुबले हो रहे हैं। अब सबकी नजरें, जनी-जन (महिला कामगार) पर हैं। लेकिन कोई जनी खाली नहीं। उन्हें पहले खुद की फसल काटनी है। उगहनी से लेकर दाउनी (ढोन  से लेकर फसल तैयार करने तक) भी महिलाओं को ही करनी पड़ेगी। घर के तमाम जवान पुरुष सदस्य पंजाब-लुधियान जा चुके हैं। चौपाल के मचान पर बैठे यमुना यादव कहते हैं, "अगले साल से हम भी खेती छोड़ देंगे बबुआ। अप्पन इलाका में खेती करना आब ककरो वश के बात नहीं रह गिया है। लाख जतन से रोपाई किये थे। चार बीगहा में गरमा (धान की एक संकर किस्म) है। खूब लगा है ऐहि बेर गरमा, लेकिन चारों टोल घुम आये,  कटनी के लिए एको ठो जन (मजदूर) नहीं मिला।''   
मैंने पूछा, "चचा आपको कटनी के लिए जन नहीं मिल रहा है। उधर मुखिया कहते हैं कि गांव में इस साल मनरेगा में 20 लाख रुपये का काम हुआ है।''

"धुर्र ! के ? जलेसरा मुखिया !  उ बेइमनमा ते बड़का-बड़का नेता के कान काट रहा है। सब फर्जी है। मशीन से काम होता है। जभ कार्ड (जॉब कार्ड) वाले को दस-बीस देकर टीप ले लेता है बही में । उ कि बात करेगा ?  जब से मुखिया हुआ है, खेती करता है उ ?  काहे नहीं पूछे किआप काहे खेती छोड़ दिये? बाप-दादा के अरजल (अर्जित) 40 बीघा  धनहर खेत तो ओकरो पास है !'
मैंने पूछा- "तो फिर गांव का क्या होगा चचा ? ''
"कुछो नहीं। सब पैंजाब-हरियाणा चला जावेगा। जे गाम (गांव) में रहेगा ओ नेता-दलाल बनकर ब्लॉक में घुमेगा। सांझ में बोतल पीकर सोयेगा, सुबह में झक उजर (उजला) कुर्ता पहनकर घुमेगा।  हमर जैसे बढ़ू कुकुर (कुत्ता) भगायेगा। हेंहेंहें !  जनी-जाति सब अभी तो सब सह रही है। एक दिन इहो सब विद्रोह कर देगी। छोड़ा सबके निशा (नशा) में जनी-जाति जभ्भ (हलाल) हो रही है।''
"उसके बाद ?''
"ओकर बाद ?  नै (ना) ओ नगरी नै ओ ठाम ! नै राम नै रहीम। नै छागर नै जल। सब सदावरत ! सदावरत !!  शुकर (शुक्र) है सिंहेश्वर बाबा कें कि ई सब देखे के लेल (लिए) हम लोग जिंदा नहीं रहेंगे। जे जीवेगा से देखेगा। ''