सोमवार, 20 दिसंबर 2010

चीन के इशारे पर नाचता नेपाल

(प्रायोजित काररवाई: तिब्बती शरणार्थी पर जुल्म ढाती नेपाली पुलिस )

मुझे याद है कि पिछले साल जब मैं बदलते नेपाल के राजनीतिक-सामाजिक हालात पर रिपोर्टिंग करने के क्रम में नेपाल के लोगों से चीन के बारे में पूछता था, तो उनमें से अधिकतर भड़क उठते थे। कुछ लोग तो यह आरोप भी लगाते थे कि यह भारतीय लोगों की औपनिवेशिक मानसिकता है कि वह नेपाल-चीन के सामान्य रिश्ते को भी शक के नजरिये से देखते हैं। हालांकि, मुझे
पक्की जानकारी थी कि नेपाल पिछले पांच-दस वर्षों से चीन के इशारे पर नाच रहा है। अमेरिका में रहने वाले एक नेपाली महोदय ने तो मेरी भर्त्सना तक की। वैसे मैं नेपाल-चीन के संदिग्ध गठजोड़ पर सवाल उठाता रहा
माओवादी नेताओं के भारत विरोध अभियान के बाद, तो शक यकीन में बदलता प्रतीत हो रहा था। कई अवसरों पर माओवादी नेताओं ने अपनी हरकतों से इस बात के संकेत दिये थे कि वे चीन के इशारे पर भारत के खिलाफ साजिश रच रहे हैं। वे योजनाबद्ध ढंग से भारत के खिलाफ षडयंत्र रचने में निरंतर सक्रिय हैं। लेकिन नेपाल के पत्रकार और बुद्धिजीवी कभी भी इस आरोप को सच मानने के लिए तैयार नहीं हुये। इस विषय पर लिखने के कारण नेपाल के कुछ बुद्धिजीवियों ने मेरी जबर्दस्त आलोचना भी की थी। लेकिन अब विकीलिक्स ने सारे रहस्यों पर से पर्दा उठा दिया है। उसने नेपाल-चीन के नापाक गठजोड़ का भंडा फोड़ दिया है।
विकीलिक्स ने एक दस्तावेज जारी किया है, जिसके अनुसार नेपाल में चीन के विरोध में होने वाले तिब्बतियों के प्रदर्शन को कुचलने के लिए चीन वहां की सरकार पर धन की बारिश करता है। तिब्बती प्रदर्शनकारियों को कुचलने के लिए नेपाल सरकार पर दबाव बनाने के साथ चीन ने वहां की पुलिस को पैसे बांटकर कई तिब्बतियों को गिरफ्तार भी करवाया है। विकीलीक्स की ओर से जारी किए गए अमेरिकी विदेश मंत्रालय के गोपनीय संदेशों में यह बात सामने आयी है कि चीन की सरकार नेपाल के पुलिस अधिकारियों को नकद ईनाम देती है जो चीन छोड़कर भागने की कोशिश कर रहे तिब्बतियों को गिरफ्तार कर उन्हें चीन के हवाले कर देते हैं। दिल्ली स्थित अमेरिकी दूतावास से 22 फरवरी 2010 को अमेरिकी प्रशासन को भेजे गये इस गोपनीय संदेश में अज्ञात सूत्र का हवाला देते हुए कहा गया है कि चीन के दबाव में नेपाल निर्वासित शरणार्थियों पर नियंत्रण कस रहा है। दिल्ली डायरी नाम से भेजे गये इस संदेश को गोपनीय संदेश की सूची में रखा गया है।
संदेश में नेपाल के एक अखबार के हवाले से कहा गया है कि पिछले कुछ वर्षों के दौरान भारत में प्रवेश करने वाले तिब्बतियों की संख्या में कमी आयी है। बीजिंग ने काठमांडू से नेपाल की सीमा पर चौकसी बढ़ाने के लिए कहा है जिससे तिब्बतियों के लिए नेपाल में घुसना मुश्किल हो इसमें कहा गया है कि मार्च 2008 के बाद भारत में प्रवेश करने वाले तिब्बतियों की संख्या कम हुई है।
गौरतलब है कि नेपाल में करीब 20,000 तिब्बती शरणार्थी हैं और ल्हासा में 2008 में हुई हिंसा के बाद काठमांडू में चीन विरोधी प्रदर्शन होते रहते हैं। पश्चिमी देशों की ओर से नेपाल पर दबाव है, फिर भी नेपाल मानता है कि तिब्बत चीन का अभिन्न हिस्सा है। मुझे नहीं पता कि इस खुलासे के बाद भारत विरोधी नेपाली बुद्धिजीवियों की प्रतिक्रिया क्या होगी, लेकिन अब भारत को जरूर चौकन्ना हो जाना चाहिए, क्योंकि नेपाल में चीन का बढ़ता हस्तक्षेप भारत के लिए बहुत बुरा संकेत है।

शनिवार, 18 दिसंबर 2010

एक गाथा का समापन

आज समाजवादी धारा का एक निर्झर सोता सदा के लिएसूख गया। प्रसिद्ध समाजवादी नेता, विचारक और चिंतकसुरेंद्र मोहन हमारे बीच नहीं रहे। सुरेंद्र मोहन भारत के उनगिने-चुने नेताओं में थे, जो राजनीति को गुरु सामाजिक जिम्मेदारी मानते थे। वे समकालीन सत्तापिपाशु राजनीति के दौर के दुर्लभ नेता थे। मोह राष्ट्रीय आंदोलन के दौर मेंसमाजवादी आंदोलन से जुड़े थे और आजीवन इसके लिएकाम करते रहे। माजवाद में उनका विश्वास उतना हीअटूट था, जितना जड़ को जमीन पर विश्वास होता है। आज के दौर में जब समूचा राजनीतिक तंत्र भ्रष्टाचार में आकंठ डूबा हुआ है , तो राजनीति की इस काल कोठरी में सुरेंद्र मोहन किसी अपवाद पुरुष की तरह खड़े रहे और हमेशा बेदाग रहे।
सन्‌ 1948 में कांग्रेस में शामिल समाजवादी दल के नेताओं ने कांग्रेस से अलग होकर सोशलिस्ट पार्टी का गठन किया तो सुरेंद्र मोहन अंबाला में पार्टी के जिला सचिव बने। पार्टी ने उनकी लगन और विचारधारा के प्रति उनकी प्रतिबद्धता को देखते हुए 1960 में उन्हें युवा संचालक बनाया और बाद में वह पार्टी के सह-सचिव बनाये गये। सन्‌ 1977 में जब कांग्रेस, भारतीय लोकदल, भारतीय जनसंघ और सोशलिस्ट पार्टी को मिलाकर मोरारजी देसाई के नेतृत्व में जनता पार्टी का गठन किया गया, तो सुरेंद्र मोहन लाल कृष्ण आडवाणी के साथ नवगठित जनता पार्टी के महामंत्री बने। आपातकाल के बाद हुये चुनाव में जनता पार्टी को भारी बहुमत मिला और मोरारजी देसाई के नेतृत्व में केंद्ग में पहली गैर-कांग्रेसी सरकार बनी। सुरेंद्र मोहन को केंद्र सरकार में मंत्री बनाए जाने का प्रस्ताव दिया गया, लेकिन उन्होंने बड़ी विनम्रता से इसे ठुकरा दिया। एक साल बाद 1978 में वह बहुत मनाने के बाद राज्यसभा सदस्य बनने को तैयार हुये। 1979 में जनता पार्टी के विघटन होने के बाद मोहन चंद्रशेखर की अध्यक्षता वाली जनता पार्टी के महासचिव बने । सन्‌ 1988 में जनता पार्टी का जनता दल में विलय हो जाने के बाद वे जनता दल से जुड़े।सन्‌ 1990 में तत्कालीन प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने मोहन को पहले बिहार का राज्यपाल और बाद में राज्यसभा सदस्य मनोनीत करने का प्रस्ताव किया, लेकिन उन्होंने इसे ठुकरा दिया। 84 वर्ष की उम्र में भी वे आंदोलनधर्मी बने रहे। जनता के पक्ष में आखिरी सांस तक लड़ने वाला यह योद्धा आजीवन अपराजित रहा। वे न तो सत्ता से डरे, न ही सत्ता की वासना ही उन्हें अपनी ओर आकर्षित कर सकी। 17 दिसंबर को भी वे जंतर-मंतर पर एक धरने पर जाकर बैठे थे।
सुरेंद्ग मोहन के देहावसान के साथ ही भारत में समाजवादी विचारधारा की एक गाथा का समापन हो गया है। वे प्रेम भसीन, राजनारायण, मधुलिमये, मधु दंडवते, कर्पूरी ठाकुर, जॉर्ज फर्नांडिस (!) और रामसेवक यादव की समाजवादी श्रृंखला की अंतिम कड़ी थे। यह कड़ी आज हमसे अलग हो गयी। जब दुनिया समकालीन बाजारवाद से घुटन महसूस करने लगेगी, तो समाजवाद का पुनर्जन्म होगा। तब शायद सुरेंद्र मोहन की विरासत की पूरी दुनिया खोज करेगी। समाजवाद के इस योद्धा को नमन।