आज समाजवादी धारा का एक निर्झर सोता सदा के लिएसूख गया। प्रसिद्ध समाजवादी नेता, विचारक और चिंतकसुरेंद्र मोहन हमारे बीच नहीं रहे। सुरेंद्र मोहन भारत के उनगिने-चुने नेताओं में थे, जो राजनीति को गुरुतर सामाजिक जिम्मेदारी मानते थे। वे समकालीन सत्तापिपाशु राजनीति के दौर के दुर्लभ नेता थे। मोहन राष्ट्रीय आंदोलन के दौर मेंसमाजवादी आंदोलन से जुड़े थे और आजीवन इसके लिएकाम करते रहे। समाजवाद में उनका विश्वास उतना हीअटूट था, जितना जड़ को जमीन पर विश्वास होता है। आज के दौर में जब समूचा राजनीतिक तंत्र भ्रष्टाचार में आकंठ डूबा हुआ है , तो राजनीति की इस काल कोठरी में सुरेंद्र मोहन किसी अपवाद पुरुष की तरह खड़े रहे और हमेशा बेदाग रहे।
सन् 1948 में कांग्रेस में शामिल समाजवादी दल के नेताओं ने कांग्रेस से अलग होकर सोशलिस्ट पार्टी का गठन किया तो सुरेंद्र मोहन अंबाला में पार्टी के जिला सचिव बने। पार्टी ने उनकी लगन और विचारधारा के प्रति उनकी प्रतिबद्धता को देखते हुए 1960 में उन्हें युवा संचालक बनाया और बाद में वह पार्टी के सह-सचिव बनाये गये। सन् 1977 में जब कांग्रेस, भारतीय लोकदल, भारतीय जनसंघ और सोशलिस्ट पार्टी को मिलाकर मोरारजी देसाई के नेतृत्व में जनता पार्टी का गठन किया गया, तो सुरेंद्र मोहन लाल कृष्ण आडवाणी के साथ नवगठित जनता पार्टी के महामंत्री बने। आपातकाल के बाद हुये चुनाव में जनता पार्टी को भारी बहुमत मिला और मोरारजी देसाई के नेतृत्व में केंद्ग में पहली गैर-कांग्रेसी सरकार बनी। सुरेंद्र मोहन को केंद्र सरकार में मंत्री बनाए जाने का प्रस्ताव दिया गया, लेकिन उन्होंने बड़ी विनम्रता से इसे ठुकरा दिया। एक साल बाद 1978 में वह बहुत मनाने के बाद राज्यसभा सदस्य बनने को तैयार हुये। 1979 में जनता पार्टी के विघटन होने के बाद मोहन चंद्रशेखर की अध्यक्षता वाली जनता पार्टी के महासचिव बने । सन् 1988 में जनता पार्टी का जनता दल में विलय हो जाने के बाद वे जनता दल से जुड़े।सन् 1990 में तत्कालीन प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने मोहन को पहले बिहार का राज्यपाल और बाद में राज्यसभा सदस्य मनोनीत करने का प्रस्ताव किया, लेकिन उन्होंने इसे ठुकरा दिया। 84 वर्ष की उम्र में भी वे आंदोलनधर्मी बने रहे। जनता के पक्ष में आखिरी सांस तक लड़ने वाला यह योद्धा आजीवन अपराजित रहा। वे न तो सत्ता से डरे, न ही सत्ता की वासना ही उन्हें अपनी ओर आकर्षित कर सकी। 17 दिसंबर को भी वे जंतर-मंतर पर एक धरने पर जाकर बैठे थे।
सुरेंद्ग मोहन के देहावसान के साथ ही भारत में समाजवादी विचारधारा की एक गाथा का समापन हो गया है। वे प्रेम भसीन, राजनारायण, मधुलिमये, मधु दंडवते, कर्पूरी ठाकुर, जॉर्ज फर्नांडिस (!) और रामसेवक यादव की समाजवादी श्रृंखला की अंतिम कड़ी थे। यह कड़ी आज हमसे अलग हो गयी। जब दुनिया समकालीन बाजारवाद से घुटन महसूस करने लगेगी, तो समाजवाद का पुनर्जन्म होगा। तब शायद सुरेंद्र मोहन की विरासत की पूरी दुनिया खोज करेगी। समाजवाद के इस योद्धा को नमन।
सन् 1948 में कांग्रेस में शामिल समाजवादी दल के नेताओं ने कांग्रेस से अलग होकर सोशलिस्ट पार्टी का गठन किया तो सुरेंद्र मोहन अंबाला में पार्टी के जिला सचिव बने। पार्टी ने उनकी लगन और विचारधारा के प्रति उनकी प्रतिबद्धता को देखते हुए 1960 में उन्हें युवा संचालक बनाया और बाद में वह पार्टी के सह-सचिव बनाये गये। सन् 1977 में जब कांग्रेस, भारतीय लोकदल, भारतीय जनसंघ और सोशलिस्ट पार्टी को मिलाकर मोरारजी देसाई के नेतृत्व में जनता पार्टी का गठन किया गया, तो सुरेंद्र मोहन लाल कृष्ण आडवाणी के साथ नवगठित जनता पार्टी के महामंत्री बने। आपातकाल के बाद हुये चुनाव में जनता पार्टी को भारी बहुमत मिला और मोरारजी देसाई के नेतृत्व में केंद्ग में पहली गैर-कांग्रेसी सरकार बनी। सुरेंद्र मोहन को केंद्र सरकार में मंत्री बनाए जाने का प्रस्ताव दिया गया, लेकिन उन्होंने बड़ी विनम्रता से इसे ठुकरा दिया। एक साल बाद 1978 में वह बहुत मनाने के बाद राज्यसभा सदस्य बनने को तैयार हुये। 1979 में जनता पार्टी के विघटन होने के बाद मोहन चंद्रशेखर की अध्यक्षता वाली जनता पार्टी के महासचिव बने । सन् 1988 में जनता पार्टी का जनता दल में विलय हो जाने के बाद वे जनता दल से जुड़े।सन् 1990 में तत्कालीन प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने मोहन को पहले बिहार का राज्यपाल और बाद में राज्यसभा सदस्य मनोनीत करने का प्रस्ताव किया, लेकिन उन्होंने इसे ठुकरा दिया। 84 वर्ष की उम्र में भी वे आंदोलनधर्मी बने रहे। जनता के पक्ष में आखिरी सांस तक लड़ने वाला यह योद्धा आजीवन अपराजित रहा। वे न तो सत्ता से डरे, न ही सत्ता की वासना ही उन्हें अपनी ओर आकर्षित कर सकी। 17 दिसंबर को भी वे जंतर-मंतर पर एक धरने पर जाकर बैठे थे।
सुरेंद्ग मोहन के देहावसान के साथ ही भारत में समाजवादी विचारधारा की एक गाथा का समापन हो गया है। वे प्रेम भसीन, राजनारायण, मधुलिमये, मधु दंडवते, कर्पूरी ठाकुर, जॉर्ज फर्नांडिस (!) और रामसेवक यादव की समाजवादी श्रृंखला की अंतिम कड़ी थे। यह कड़ी आज हमसे अलग हो गयी। जब दुनिया समकालीन बाजारवाद से घुटन महसूस करने लगेगी, तो समाजवाद का पुनर्जन्म होगा। तब शायद सुरेंद्र मोहन की विरासत की पूरी दुनिया खोज करेगी। समाजवाद के इस योद्धा को नमन।
7 टिप्पणियां:
भारत को अच्छे और बेदाग़ नेताओं की ज़रूरत है ... कैसे पूर्ण होगी यह ज़रूरत ... यह रिक्त स्थान क्या रिक्त ही रहेगा ?
बहुत अच्छे इंसान को खो देना बहुत दुखदायी है।
कैसे-कैसे लोग रुख़सत कारवां से हो गये
कुछ फ़रिश्ते चल रहे थे जैसे इंसानों के साथ।
समाजवाद के इस योद्धा को नमन।
समाजवादी विचारधारा के स्तम्भ के रूप में जाने जाते रहे है सुरेन्द्र मोहन जी ... उनका निधन देश की क्षति है ...
जब भी कोई स्थान खाली होता है तो उसे भरने वाला कोई न कोई आता ही। मोहन जी को श्रद्धांजलि देते हुए यही उम्मीद करता हूं कि उनके विचारों की कड़ी चलती रहेगी।
Please remove Mr. George Fernandes Name from the list sir. . . KAPHAN CHOR, RSS kaa dost . . . no more a socialist . . . please
@Dr. Manish kumar
I can understand your anger. I am sure that 2nd half of G F is far away from Socialism. But we can not forget his first half. That is a part of the history of rich indian socialism movement. I can dare an exclamatory punctuation against his name in Bracket.Pz excuse me.
regards
Ranjit
sarthak post...
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