बुधवार, 29 जून 2011

बरसात में बाढ़-राग

 दहाये हुए देस का दर्द-76 
सरिसृप वर्ग के कई जंतुओं में हाइबर्नेशन (सुसुप्तावस्था में रहने की प्रवृत्ति)  पर जाने की विशिष्ट प्रवृत्ति होती है। हाइबर्नेशन पीरियड में ये जंतु अपने-अपने बीलों से बाहर नहीं निकलते। महीनों तक सोये रहते हैं, न हीलते हैं, न डोलते हैं। आंख-कान दोनों बंद कर लेते हैं। बरसात आने के साथ ही इनका हाइबर्नेशन टूटता है। और जब टूटता है, तो यह चार-चार हाथ उछलने लगते हैं। चारों ओर अजीब-सा कोलाहल मच जाता है। मेढकों, झिंगुरों, अंखफोड़ों, उचरिनों आदि के शोर कान का पर्दा अलगाने लगते हैं। टर्र-टूर्र, झिर्रर्रर्रर्रर्रर्ररररर, झिंननननननन, मेको-मेको-गुममममम, झिन्नन्नननननन...झनाकककक। बुढ़े लोग तंग आकर कहने लगते हैं,"मरे कें दिन आयल तअ पेट में जनमल पांखि।''  ऐसा लगता है मानो ये जीव एक ही साथ रो-हंस-गा रहे हैं। तब यह पता लगाना बूते से बाहर हो जाता है कि वास्तव में कौन-सा जीव, कौन-सी आवाज निकाल रहा है।
कुछ ऐसी ही स्थिति इन दिनों कोशी को लेकार बिहार में है। जैसे-जैसे नदी में पानी बढ़ रहा है, विलाप के स्वर भी उसी रफ्तार में बढ़ते जा रहे हैं। टेलीविजन चैनलों और अखबार के पन्नों विलाप-कथाओं से भरने लगे हैं। क्या सत्ताधारी, क्या विपक्षी, सबके सब एक साथ विलाप के कोरस गाने लगे हैं। जिन्होंने कोशी में कभी कदम नहीं रखा, वे बतौर विशेषज्ञ कोशी का इंजीनियरिंग समझा रहे हैं। आंधे घटे तक ये चैनलों पर बहस करते हैं, लेकिन पूरी एकाग्रता से सुनने के बाद भी मेरे मगज में यह सवाल तनतनाता  रह जाता है कि आखिर ये कह क्या रहे हैं ? ना लड़ रहे हैं, न झगड़ रहे हैं, न होलिका गा रहे हैं, न फाग, तो आखिर ये बोल क्या रहे हैं ? शायद गौरू खेल ! गाय के नये-नये गौरू आपस में इसी तरह सिर भीड़ाते हैं, लेकिन घंटों की रगड़ारगड़ी के बावजूद किसी को चोट नहीं लगती। अंत में ये एक-दूसरे का मूंह चाटने लगते हैं। गैया सब समझती है। क्या पता जन-गैया कुछ समझ रही है या नहीं ।
बहरहाल, कोशी में पानी बढ़ रहा है या दूसरे शब्दों में कहें तो प्रलय की पृष्ठभूमि तैयार हो रही है। एक जगह हो, तो कह दें कि अभियंत्रण-महकमा कुछ कर लेगा। इस बार पूर्वी तटबंध में दो दर्जन जगहों पर स्थिति नाजुक है। राजाबास, प्रकाशपुर,कुसहा, भटनिया, सरायगढ़, नौवहट्टा समेत कई बिंदुओं पर नदी तटबंध के पास पहुंच चुकी है। सरकार कह रही है कि वह हर तरह से तैयार है। मैंने कोशी के एक बड़े नेता से पूछा, क्या तैयारी है, उन्होंने कहा "तटबंधों को बचाने की तैयारी भी है और बाढ़ से निपटने की भी मुकम्मल तैयारी है।'  है न कमाल का जवाब ! इसको कहते हैं- चीत भी मेरा पट भी मेरा। यानी उनको तटबंध की स्थिति का कोई ज्ञान नहीं है। तटबंध टूट भी सकता है, नहीं भी ! नहीं टूटेगा तो वे कहेंगे, "देखा हमारी सरकार ने तटबंध को टूटने से बचा लिया।'' अगर बाढ़ आ गयी, तो वे भागकर पटना आ जायेंगे और कैमरा में घेंच तानकर बयान देंगे- "हमारी सरकार पहले से तैयार थी, एक भी बाढ़पीड़ितों को मरने नहीं दिया जायेगा।'' दुहाई माई कोशिकी ! 
 अब थोड़ी तैयारी का भी जायजा ले लें। जिला प्रशासन ने तटबंध के नाजुक बिंदुओं पर होमगार्डस के जवान को तैनात किया है। वे 24वों घंटे नदी की निगरानी करेंगे। खतरा होने पर प्रशासन को सूचित करेंगे। यह अलग बात है कि बेचारे होमगार्डस के जवान तटबंध के चार किलोमीटर दूर से ही सबकुछ देख रहे हैं। उनसे पूछेंगे तटबंध का हाल तो वे बतायेंगे- "आज तो मुखिया जी के यहां लोग कह रहे थे, जुलुम संकट आने वाला है। ऐ बेर तो ई बैरजवा साला समझिये की गिया काम से...'' है न कमाल की बाता। दुहाई माई कोशिकी !!
लेकिन एक बात सोलह आने सच है। वह यह कि बरसात जब आ गयी तो सरकारी महकमा कोशी-कोरस गा भी रहे हैं और सुन भी रहे हैं। अन्यथा हम तो सालों भर कोशी-कोशी करके गला फाड़ लें, उन्हें कुछ भी सुनाई नहीं देता। हाइबर्नेशन फीनोमेना ! कुसहा कटान के बाद से हमारे जैसे लोग लगातार कहते रहे हैं कि कोशी पर हाइ लेवल रिसर्च टीम गठित किया जाये। मेगाप्लान बनाकर इसे डिसिल्ट करने पर विचार किया जाये। एक्सपायर हो चुके बैरज की जगह वैकल्पिक बैरज बनाया जाये। सुपौल, सहरसा, मधेपुरा, अररिया, पूर्णिया और खगड़िया के लोगों को बाढ़ से निपटने के लिए प्रशिक्षण दिया जाये। और सबसे बड़ी बात यह कि कुसहा कटान के दोषी को सजा दी जाये और कमीशन की रिपोर्ट जल्द सार्वजनिक किया जाये। बरसात के मौसम में लोगों को सही सूचना देने के लिए रेडियो से हर दो-चार घंटे पर बुलेटिन प्रसारित किया जाये। लेकिन कोशी के रग-रग से अवगत लोगों की बात सरकार को नहीं सुहाती, उसे तो अपने इंजीनियरों का सुझाव ही देव-आदेश लगता है। सनद रहे कि इन इंजीनियरों ने 50 सालों में कोशी प्रोजेक्ट में लूट मचाकर उसे इतना खतरनाक बना दिया है कि अब यह नदी शोक नहीं आदमखोर हो गयी है। 50 साल पहले यह बाढ़ लाती थी अब सुनामी लाती है। अंतिम सच यह कि दुनिया का कोई इंजीनियर और कोई सरकार अब ज्यादा समय तक कोशी को तटबंधों के बीच नहीं बहा सकती। तो सब कुछ कोशी की मर्जी पर है, राखे या मार दे। जब तक वह दया दिखा रही है, तब तक कोशी-कोरस का मजा लीजिए। और एक बेर परेम से कहिये- दुहाई माई कोशिकी!!!

गुरुवार, 16 जून 2011

बाबा मेरा

पुष्पराज

बाबा मेरा  नहीं मरा है , नहीं मरेगा 
दिल्ली की छाती पर चढ़कर उधम करेगा
जनवादी जो अलग -अलग गुट, अलख लाल हें
आड़े -तिरछे ,टेढ़ -टाड को सोझ करेगा
सबको मुक्के मार-मार कर ठोस  करेगा
बाबा मेरा नहीं मरा है , नहीं मरेगा 

(पटना में बाबा नागार्जुन जन्म शताब्दि समारोह के बीच पुष्पराज ने यह कविता लिखी )
 

बुधवार, 15 जून 2011

एक और कुसहा का इंतजार ?

कुसहा हादसा के बाद बिहार और केंद्र सरकार ने वादा किया था कि भविष्य में इस तरह की त्रासदी दोबारा नहीं होने दी जायेगी। उन्होंने कहा था कि कोसी को नियंत्रित करने के लिए नये सिरे से योजना-परियोजना चलायी जायेंगी। लेकिन तीन साल के बाद ही कोसी ने दूसरे कुसहा की पृष्ठभूमि तैयार कर दी है। सरकारें इस समस्या पर गंभीर नहीं दिख रहीं। "द पब्लिक एजेंडा" ने अपने नवीनतम अंक में इस विषय को गंभीरता से उठाया है। पूरी स्टोरी को पढ़ने के लिए ऊपर की तस्वीर पर क्लिक करें।

मंगलवार, 14 जून 2011

ऐब के लिए भी हुनर चाहिए


दहाये हुए देस का दर्द- 75
गालिब के एक शेर का मिसरा है- ऐब के लिए भी गालिब, हुनर चाहिए। यूं तो अपने देश के नेता गुमराह करने, बरगलाने आदि के फन में माहिर होते हैं, लेकिन मुझे लगता है कि इस "कला' में बिहार के नेता सब पर भारी पड़ेंगे। "जंगल राज' के नायक लालू प्रसाद यादव हों या "सुशासन राज' के खिताबधारी नीतीश कुमार, जनता को बरगलाने में कौन किससे कम है, यह तय करना मुश्किल है। लालू सामाजिक न्याय का सोमरस पिलाकर जनता को ठगते रहे और पिछले कुछ साल से नीतीश कुमार "विकसित बिहार', "सुशासन राज'आदि का अफीम सूंघाकर सत्ता की मलाई मार रहे हैं।
कोशी में कुसहा जल-प्रलय के समय नीतीश ने कहा था,"कोशी अंचल को पहले से ज्यादा विकसित बनायेंगे। कुसहा कटाव के लिए जिम्मेदार अधिकारियों को बक्शा नहीं जायेगा। उन्हें सजा मिलेगी ताकि भविष्य में कोई अभियंता, अधिकारी, ठेकेदार कोई लापरवाही न कर सके। अब सालों भर तटबंधों की निगरानी की जायेगी ताकि बरसात के समय आपातकालीन परिस्थितियां उत्पन्न ही न हो।'í बात माकूल थी, इसलिए बाढ़ में डूबते-उमगते लोगों को भी कुछ भरोसा जागा। अब इस हादसे के तीन साल पूरे होने वाले हैं। लेकिन इन तीन साल का उपसंहार यह है कि नीतीश का एक-एक शब्द झूठा साबित हो चुका है। पुनर्वास का काम अभी तक अधुरा है। कुसहा हादसे के दोषी अधिकारियों-कर्मचारियों की शिनाख्त तक नहीं हो सकी, सजा तो दूर की बात है।
बहरहाल, बरसात के आगमन के साथ ही कोशी ने "डोल-डालीचा'' कोशी इलाके का एक खेल जिसमें पेड़ पर चढ़ने और उस पर से कूदने की प्रतियोगिता होती है) का खेल शुरू कर दिया है। नदी के साथ अधिकारी- अभियंता-राजनेता; सबके-सब उफान मारने लगे हैं। नदी तटबंध को धमका रही है, तो नेता बड़े अधिकारी को और बड़े अधिकारी छोटे अधिकारी को हड़का रहे हैं- "संभल जाओ नहीं तो भुगतोगे !''  कल की ही बात है। जल संसाधन विभाग के अभियंता प्रमुख ने बीरपुर के मुख्य अभियंता को कहा, कागजबाजी नहीं कीजिये, आदेश का पालन कीजिये। अगर आप नहीं सुधरेंगे तो आपके खिलाफ कड़ी कार्रवाई की जायेगी। लेकिन ये बीरपुर वाले इंजीनियर साहेब भी कम "जरदगव'' नहीं हैं। कुसहा कांड में केंद्रीय भूमिका निभाने के बावजूद उनका एक रोआं तक कोई नहीं उखाड़ पाया था। उनका कहना है कि तटबंध की सुरक्षा सामग्री के लिए जो टेंडर हुआ है, वह त्रुटिपूर्ण है। हमने जानना चाहा कि आखिर माजरा क्या है, तो पता चला कि सब "कमीशन'' का खेला है। ऊपर वाले अधिकारी नीचे वाले को बाइपास करके सामग्री खरीदना चाह रहे हैं, लेकिन नीचे वाले को यह कतई मंजूर नहीं। भले ही इस बीच कोशी कई कुसहा की पृष्ठभूमि ही न क्यों तैयार कर दे, लेकिन वे ऐसे टेंडरों को कभी पूरे नहीं होने देंगे जो उनसे उनकी बैली आमदनी का हक मार ले।
इसलिए एक बार फिर मुझे "सुशासन बाबू'' के वादे याद आ रहे हैं। उन्होंने बाढ़ के नाम पर लूट मचाने की संस्कृति को खत्म करने के लिए ही कुसहा हादसा के बाद पटना उच्च न्यायालय के अवकाश प्राप्त जज न्यायमूर्ति राजेश बालिया के नेतृत्व में कोसी जांच आयोग (कोशी इनक्वायरी कमीशन) का गठन किया था। तब मेरे जैसे लोगों ने राहत की सांस ली थी। हमें उम्मीद थी कि दोषियों को सजा मिलेगी। लाखों लोगों को जल-कीड़ा बनने के लिए मजबूर कर देने वाले "जरदगवों'' को सजा मिलेगी। लेकिन हम इंतजार करके थक गये, आयोग की जांच पूरी नहीं हुई। सरकार के अधिकतर मंत्री को तो अब याद भी नहीं है कि ऐसा कोई आयोग अस्तित्व में है। याद दिलाने पर वे इस सवाल को ऐसे लेते हैं मानो हमने उनसे सहरसा-फारबिसगंज लोकल ट्रेन की समय-सारणी पूछ ली हो।
लेकिन व्यतिरेक देखिये, इलाके में जबर्दस्त प्रचार हो रहा है। लोकल मीडिया में हर दिन खबरें आती हैं कि सरकार तटबंध की सुरक्षा के लिए पूरी तरह मुस्तैद है। सचिवालय से लेकर जिला मुख्यालय तक मोर्चा संभाल लिया है। कोशी में किसी तरह की अनहोनी नहीं होने दी जायेगी। इसलिए, जनता निश्चंत है। गुमराह होना उनकी नियति है। यह सिलसिला हमेशा जारी रहता है। तटबंध टूटने से पहले भी और टूटने के बाद भी जनता सच नहीं जान पाती।  

गुरुवार, 2 जून 2011

शुरू हो गयी कोशी की तलवारबाजी

       प्रकाशपुर में पूर्वी तटबंध को निगलने की कोशिश में कोशी

दहाये हुए देस का दर्द- 74 
लाख जतन कर लें, धरती को आसमान और गगन को धरा कर लें या फिर पैसे को पानी और पानी को पैसा बना दें; अब कोशी को  ज्यादा  समय  तक  नियंत्रण में रखना लगभग नामुमकिन है। अभी मानसून आया भी नहीं और कोशी ने तांडव नृत्य शुरू कर दिया है। सूचना है कि नेपाल में प्रकाशपुर (यह सप्तकोशी टापू के पास है, जहां से नदी पहाड़ से मैदान में दाखिल होती है) के पास कोशी ने स्परों को काटना चालू कर दिया है। पूर्वी तटबंध के डाउन स्ट्रीम में 25.57 से 26.40 आरडी के बीच नदी पिछले चार-पांच दिनों से भारी कटाव कर रही है। विरॉटनगर नेपाल से मिली सूचना के मुताबिक, प्रकाशपुर में नदी की धारा और पूर्वी तटबंध के बीच महज 25 मीटर की दूरी रह गयी है। स्पर को बचाने के लिए चार दिन पहले कुछ जाली-क्रेट आदि लगाये गये थे, जिन्हें नदी ने बहा-दहा दिया। स्थानीय लोगों का कहना है कि स्पर और तटबंध को बचाने के प्रयास लगातार विफल हो रहे हैं। यही हाल भीमनगर बराज के बाद अपस्ट्रीम में भी दिख रहा है, जहां नदी लगातार पूर्वी तटबंध की ओर खिसकती चली जा रही है। आश्चर्य की बात यह कि ऐसी स्थिति जून के पहले सप्ताह में है, जब नदी में पानी की मात्रा सामान्य से भी कम है। "कुसहा हादसा' से पहले ऐसा कभी नहीं हुआ था कि नदी ने मानसून से पहले ही तांडब शुरू कर दी हो। डरावना सवाल यह है कि जुलाई और अगस्त में जब नदी सबाब पर होगी, तो क्या होगा ? इस बात की कल्पना करके ही कलेजा मुंह में आ जाता है।

दरअसल, 2008 के कुसहा कटान के बाद कोशी का रूख पूरी तरह बदल गया है और तब से नदी संकेत दे रही है कि वह अब पूरब की ओर बहना चाहती है। कुसहा में तटबंध को मरम्मत करने के दौरान पायलट चैनल बनाकर इसे पूर्वी और पश्चिमी तटबंधों के मध्य में लाने की कोशिश की गयी थी, लेकिन एक ही साल में यह चैनल गाद से भरकर निष्क्रिय हो गया। वैकल्पिक पायलट चैनल का काम अभी तक पूरा नहीं हो सका है। अगर मानसून से पहले इसका निर्माण नहीं हुआ तो इस बार कोशी को रोकना लगभग नामुमकिन होगा।
पिछले दो साल में इस बात के तमाम संकेत मिले हैं कि भीमनगर बराज के उत्तर और पश्चिम की ओर डाउनस्ट्रीम में नदी का तल काफी ऊंचा हो गया है। इसके परिणामस्वरूप अब नदी की धारा प्रकाशपुर से ही पूरब की ओर बढ़ने की कोशिश कर रही है। गौरतलब है कि कुसहा का कटाव भी ऐसी ही परिस्थिति में हुआ था। इसके बावजूद सरकारें समझने के लिए तैयार नहीं हैं। सरकारें नदी को जबर्दस्ती तटबंधों के अंदर बहाना चाहती हैं। अचरज की बात यह है कि इसमें तीन सरकारें, मसलन बिहार सरकार, केंद्र सरकार और नेपाल सरकार शामिल है और तीनों की मति मारी चली गयी है। तो दुखड़ा किसे सुनाया जाये ? इसे सुनेगा कौन और समझेगा कौन ? अगर वे सुनते तो नदी में गाद की मात्रा इतनी असह्य स्थिति में नहीं पहुंच गयी होती। नहीं मालूम कि सरकारें क्या सोचती हैं, लेकिन इतना तय है कि आगामी चार महीने कोशी के पचास लाख लोगों के लिए कयामत के महीने होंगे, क्योंकि कोशी ने तलवार भांजना शुरू कर दिया है।