सोमवार, 31 अक्तूबर 2011

हजार साल पुराने गांव में

नवकी नेरू होती, तो पकड़कर बांध देते बथान में
उसे रोकना  नामुमकिन था
कोशिकी माय की तरह
अखबारी भाषा में वह पलायन था
गोबरधनियां की माय की जुबान में
उधार का वैधव्य
"बोंगमरना आठ महीना पैंजाब रहता है
आते ही कहता है -
 तोहर चाल-चलन ठीक नहीं , खोपा में गमकौवा तेल क्यों है !
 कपरजरूआ, गत्तर में जाबी क्यों न बांध जाता है ? ''

गांव हजार साल पुराना था
वैसे बांसुरी की जगह अब मोबाइल था
बिजली नहीं, खुट्टा पर तार तन आया था
हां, हजरबरसा वह गांव
पाखड़ के पेड़ पर लटके निस्पंद घोंसलों की  तरह था
दाना के लिए चिड़िया जिसे छोड़ गयी थी
चारा के लिए अजगर उसे निगल रहा था
 उसे हथियाने के लिए बंदर कतार में खड़ा था

राह-बाट पर लगे सरकारी बोर्ड, सबूत थे
कि गांव अब भी जिंदा था
खेत और मेड़ भी कायम थे
जैसे मुंडेरों पर रहते हैं घुन-खाये कुम्हड़
बाहर पुष्ट अंदर ठूठ
शायद इसलिए
सूरज उगने के साथ
जिन्हें होना था मेड़ पर
और सूरज डूबने के बाद
सोना था मकई के मचान पर
 वे उस दूकान पर थे
जिसे राजकीय भाषा में प्रखंड विकास कार्यालय कहा जाता है
जहां इंदिरा दीवार पर
और आवास दलालों की जेबों में बसते हैं
 जहां मनरेगा चास और मुखिया समार हैं
पंचायती राज हाइ यील्ड बीज की  तरह है
रिश्वत का खाद डालो
कट्ठा में बीस मन काट ले जाओ
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अपने गांव में
सूरज सिर पर होने का एक मतलब है
मैंने सिटी भी सुनी
बरह-बज्जी रेलगाड़ी जा  चुकी  थी
बावजूद, हलवाहे नदारद थे
बारह बजे दिन में
खेत के सुनसान होने का भी एक मतलब है
इसलिए झलफल  शाम में
मैं गांव के सबसे पुराने पोखर पर था
मेरे पास महार पर
गांव के सबसे बूढ़े किसान की लाश थी
उसके माथे पर 20 लाख का बैंक-कर्ज था
लोटा लेकर मैदान जाता एक दूसरा बूढ़ा
मातमी शाम में भी प्राती गा रहा था
शाम में
प्राती गाने का भी एक मतलब है
क्योंकि वह बूढ़ा पागल नहीं था
उसकी मालिस से मरे मेमने भी मिमियाने लगते थे
जिस दिन वह कदवा करता
मेघ भी उसी दिन बरसता
उस बूढ़े ने कहा-
" एक फोन पंजाब-दिल्ली- सूरत से आवेगा
एक फोन कलेक्टर को जावेगा
फिर मुखिया का मुबाइल बजेगा
दारोगा रास्ते से लौट जायेगा ''
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जो कोशी से लड़ते हुए जवान हुआ
अकाल में भी आठ बेटे का बाप बना रहा
वह फंसरी पर कैसे चढ़ा ?
हजार साल पुराने गांव में
इस सवाल का अब कोई मतलब नहीं है

रविवार, 2 अक्तूबर 2011

विकास की वेदीः खेती की कुर्बानी

 कृषि प्रधान भारत में  खेत, खेती और खेतिहर अब सबसे उपेक्षित उपक्रम बन गया है। संक्षेप में कहें तो हमारी खेती संकटों के मकड़जाल में फंस चुकी है। सरकार की प्राथमिकताओं से तो खेत, खेतिहर अब गायब हो ही चुके हैं, लेकिन चौथे खंबे का भी इस ओर ध्यान नहीं है। यह बात अलग है कि खाद्यान्न असुरक्षा से बड़ी असुरक्षा कुछ नहीं हो सकती। राष्ट्रीय हिंदी पत्रिका द पब्लि एजेंडा ने अपने नवीनतम अंक में खेत,खेती और खेतिहरों के वर्तमान और भविष्य पर आवरण कथा की है। ऊपर की तस्वीर पर क्लिक कर  मुख्य रिपोर्ट पढ़ी जा सकती है।- रंजीत