गुरुवार, 25 फ़रवरी 2010

गिरोहों के बीच

बासी मांड़ और बासी भात खाकर
पूरब की पहली किरण के साथ
सालों तक बैलों के संग जुतते रहने के बाद
और चढ़े सूरज के नीचे
उसने
गरमाये मुराठे को उतारा
और झुलसायी चमड़ी पर मिट्टी का लेप लगाकर
उसने
बगुले की चोंच में ढपाढप समाते केंचुए को देखा
और जाना
कि इस देश में उसकी औकात
'जौ-तील-कुस' से बेसी नहीं है
जिसे अंतत स्वाहा हो जाना है
'इहागच्छत, इहतिष्ठित' जैसे मंत्रों के साथ,
जानते-जानते उसने यह भी जाना
कि पांचवीं वर्षी के बाद प्रेत पितर बन जाता है
और पिण्ड दान के साथ ही इतिहास खत्म हो जाता है
लेकिन दुनिया चलती ही रहती है
जंगली और शहरी गिरोहों के साथ
लिखित-अलिखित कानूनो के साथ
लाइसेंसी या गैरलाइसेंसी बंदूकों के साथ
++
मुंबई की पिटाई
और गुवाहटी के चीरहरण के बाद
उसने चिल्लाकर कहा कि
देश
संसद में 273 कुर्सियों के इंतजाम का ही दूसरा नाम है
और संविधान
बुढ़िया की टांगों पर चढ़े पलस्तर से ज्यादा कुछ नहीं
और
'हम भारत के लोग'
हैं भी क्या
एक वोट के सिवा
'भारत को'
देंगे भी क्या
एक वोट के सिवा

रविवार, 14 फ़रवरी 2010

तस्कर बनते मेहनतकश







(भारत-नेपाल सीमाः नेपाल की लकड़ी और भारत का खाद)
दहाये हुए देस का दर्द-61
रोटी तो सभी खाते हैं, लेकिन सब की रोटी एक-जैसी नहीं होती। कोई हलाल की रोटी खाते हैं, तो कोई हराम की। किसी की रोटी पसीने से आती है, तो किसी की फरमाइश से। रोटी-रोटी में फर्क का यह अन्यायी सिलसिला न जाने कब से चलते आ रहा है। हालांकि रोटी से खेलने वाले इसओर कभी ध्यान नहीं देते और उनकी नजरों में सभी रोटियां अंततः अनाज की ही होती हैं। रोटी से खेलने वाले कभी नहीं स्वीकारते कि "रोटी'' और "इज्जत'' में किसी भी तरह की कोई रिश्तेदारी हो सकती है। लेकिन मेहनतकशों को पसीने की रोटी पर हमेशा नाज रहा है। किसान और मजदूरों के बीच रहने वाले लोग इस सच से निश्चित तौर पर अवगत होंगे। भूख और उसूल के दोहरे भार से दबे मेहनतकशों से पूछिए, उनका जवाब होगा- "हम गरीब जरूर हैं, लेकिन इज्जत की रोटी खाते हैं।'' कौन होगा जो ऐसे ईमानदार व मासूम आत्म-गौरव पर रीझ-पसीज न जाये। कवियों ने इसे विरॉट मानवीय सौंदर्य माना है और लेखकों ने इससे प्रेरणा लेकर दर्जनों ऐतिहासिक रचना की है। फणीश्वनाथ रेणु का संपूर्ण साहित्य श्रमशील सर्वहारा के निश्चल प्रेम और उच्च मानवीय मूल्य की ही बात करता है। लेकिन लगता है कि अब मेहनतकशों को भी "इज्जत की रोटी और पसीने की कमाई '' जैसी मुहावरों से चिढ़ होने लगी है।
बिहार का कोशी अंचल भी बुनियादी तौर पर मेहनतकश किसान-मजदूरों का इलाका है। प्रकृति और शासकों के निष्करूण प्रहारों को सदियों तक झेलते रहने के बाद भी इस समाज ने मानवीय मूल्यों से कभी भी समझौता नहीं किया। मेहनत और मजूरी पर नाज करने की संस्कृति यहां प्राचीन काल से ही रही है। लेकिन कुछ वर्षों से इस संस्कृति में तेजी से एरोजन हो रहा है। मेहनतकश बाप-दादाओं के पोते अब खेत में बैलों के साथ बहने से जी चुराने लगे हैं। उनके अरमानों को बाजारवाद का पंख लग गया है। उन्हें भी घूमने के लिए बाइक चाहिए और पहनने के लिए आधुनिक जिंस और बात करने के लिए महंगे मोबाइल। जाहिर है खेतों में पसीना बहाकर उपभोग की ये सामग्रीयां उन्हें एक जनम में तो कभी भी नसीब नहीं होने वाली, इसलिए वे तमाम तरह के अपराधों में शामिल हो रहे हैं। कोई आइएसआइ का एजेंट बन रहा है, तो कोई लश्कर-तैइबा का हमदर्द। हालांकि इस तरह के हाइप्रोफाइाल अपराध में अभी बहुत कम युवक ही शामिल हैं, लेकिन अंतरराष्ट्रीय तस्करी तो इस इलाके में एक पेशा का रूप ले चुका है।
पिछले कुछ दिनों में कोशी अंचल से सटे नेपाल और बांग्लादेश की सीमाओं पर भारी तादाद में ऐसे युवकों की गिरफ्तारी हुई है, जिनकी पृष्ठभूमि मेहनतकशों की रही है। जिनके बाप-दादा ये कहते हुए गुजर गये कि '' आधे पेट खाया, लेकिन पराये खेत की ओर कभी नहीं झाँका । आज अररिया, किशनगंज और सुपौल जिले के सीमावर्ती इलाके के कई गांव तस्करों के गढ़ बन चुके हैं। यहां तक कि इन युवकों की सांठगांठ अब पूर्वोत्तर राज्यों के बड़े तस्कर समेत विदेशी तस्करों तक से हो चुकी है। हालांकि ज्यादातर स्थानीय तस्करों की भूमिका अभी भी कैरियर (समान को सीमा के पार पहुंचाने वाला)की ही है। सबसे चिंताजनक बात यह है कि पुलिस और प्रशासन इन्हें रोकने के बदले बढ़ावा ही दे रहे हैं। क्योंकि इस गोरखधंधे में उनकी जेबें भी गरम हो रही हैं।
दरअसल, अररिया, किशनगंज और सुपौल जिले से नेपाल की लगभग साढ़े तीन सौ किलोमीटर की सीमा लगती है, जो पूरी तरह से खुली हुई है। अकेले अररिया जिले में नेपाल के साथ लगभग 110 किलोमीटर की सीमा-रेखा है। अररिया के बेला बसमतिया से सिकटी से होकर लहसुन, सुपाड़ी, चीनी , धान, उर्वरक, पेट्रोलियम, चरस, गांजा, हेराईन, ब्राउन सुगर, नकली भारतीय करेंसी व विस्फोटक हथियारों तक की तस्करी होती है। इतना ही नहीं, तस्करों ने अररिया और किशनगंज के सीमाई इलाके में सदियों से मौजूद बांस के जंगल को साफ कर दिया है। महज दस वर्ष पहले तक यहां बांस के घने जंगल होते थे, जिनमें सैकड़ों किस्म के हजारों वन्य प्राणी रहते थे। लेकिन आज यह जंगल साफ हो चुका है और वन्य प्राणी तो खोजने से भी नहीं मिलते।
हाल की कुछ प्रमुख तस्करी घटना पर गौर करें तो सितंबर 2009 से अब तक अररिया के कुआड़ी ओपी क्षेत्र में करीब दो करोड़ से अधिक कीमत की चंदन की लकड़ी पकड़ी गयी। इससे कुछ समय पहले कुर्साकाटा के मरातीपुर में पुलिस ने चरस के साथ एक तस्कर को गिरफ्तार किया था, जिसने पुलिस को बताया था कि हर महीने नेपाल से अकेले कुर्साकाटा में तीन से चार क्विंटल तक चरस की तस्करी होती है। गौरतलब है कि कुछ वर्ष पहले अररिया के फारबिसगंज के डीएसपी ने थाइलैंड निर्मित हेरोइन के साथ कुछ विदेशी तस्करों को गिरफ्तार किया था।
लेकिन ये खुलासे और गिरफ्तारियां तो महज दिखावा है। सच्चाई तो यह कि 90 प्रतिशत से ज्यादा मामले या तो पुलिस के पकड़ से दूर रहते हैं या फिर पुलिस की सहमति से खुलेआम चलते रहते हैं। हाल यह है कि कोशी इलाके के छोटे-छोटे हाट-बाजारों में भी भारी मात्रा में गांजे उपलब्ध रहते हैं। गौरतलब है कि नेपाल में गांजें की खुलेआम खेती होती है, जिन्हें तस्करी के जरिये बिहार और भारत के अन्य हिस्सों में खपाया जाता है।
संक्षेप में कहें तो तस्करी ने कोशी इलाके के सामाजिक सौंदर्य को निगल लिया है। गरीबी में भी ईमानदार बने रहना कोशी इलाके का सामाजिक सौंदर्य है। पसीने की रोटी खाने वाले लोगों का यह 'यू टर्न' हमें हैरत में डालता ही है , साथ ही इस तथ्य को भी साबित करता है कि भूख और उसूल की लड़ाई में उसूल अंततः हार ही जाता है। लेकिन उन्हें कौन समझाये कि उसूल की हार, भूख से भी ज्यादा खतरनाक है। क्या बाजारवाद ने विरोध और बदलावों के रास्ते भी बंद कर दिए हैं ? लगता तो ऐसा ही है। अगर यह सच नहीं होता, तो ये युवक आज तस्कर नहीं विद्रोही होते।
 
 

शुक्रवार, 5 फ़रवरी 2010

सियार कोतवाल

कौन-सा हाल
किसका हाल
कैसा समाचार
किसका समाचार,
जोंकों का राज
और सियार कोतवाल ।

बुधवार, 3 फ़रवरी 2010

घिनौनी हरकत पर उतरे नेपाली माओवादी

भारत का अंधविरोध नेपाली माओवादियों का जन्मजात शगल है। यह उनकी तंगदिल सोच और प्रदूषित रणनीति का हिस्सा है। इसलिए नेपाल के माओवादी नेता रह-रहकर भारत के खिलाफ विषवमन करते रहते हैं। वे कभी भारत को विस्तारवादी की संज्ञा देते हैं, तो कभी नेपाल की राजनीतिक-सामाजिक अस्थिरता के लिए भारत को जिम्मेदार ठहरा देते हैं। हालांकि उनकी हरकतों के कारण नेपाली जनमानस में भारत के प्रति शंकालु दृष्टि जरूर उत्पन्न हुई है, लेकिन सौभाग्यवश अभी भी नेपाल की आम जनता भारत को अपना दुश्मन नहीं मानती। हालांकि नफरत का जहर फैलाने के लिए माओवादी ने कोई कोर-कसर नहीं छोड़ा है। चाहे वह भारत-नेपाल की मैत्री संधि हो या फिर कोसी परियोजना संधि, माओवादी हमेशा इन संधियों का मुखालफत करते हैं और नेपाली लोगों के मन में भारत के खिलाफ जहर भरते रहते हैं। वैसे माओवादियों के तमाम दुष्प्रचार के बावजूद आज भी बड़ी संख्या में नेपाली लोग भारत को अपना शुभचिंतक मानते हैं। ये बात माओवादियों को हजम नहीं हो रही । यही कारण है कि अब नेपाली माओवादी बौखला गये हैं और घिनौनी हरकतों पर उतर आये हैं। भारत और नेपाल के बीच वैमनस्यता फैलाने में लगे नेपाली माओवादी ने पिछले दिनों जो घिनौनी करतूत की, उसकी अपेक्षा किसी को नहीं थी। इस कारण बिहार के अररिया और किशनगंज जिले के सीमाई इलाके के सरहदी वाशिंदे सकते में हैं। पिछले दिनों नेपाली माओवादियों ने भारत-नेपाल सीमा पर अवस्थित गांवों में भारत के राष्ट्रीय ध्वज का जमकर अपमान किया। उन्होंने तिरंगे के जूते बनाकर सीमाई चेक पोस्टों पर लटका दिया। कुछ जगहों पर उन्होंने अश्लील और अपमानजक पोस्टर चिपकाये, जिनमें राष्ट्रध्वज का अपमान किया गया है। पोस्टरों में भारत के राष्ट्रीय ध्वज और अशोक स्तंभ के साथ भद्दे मजाक किये गये हैं। कहीं अशोक स्तंभ में जूते टांग दिए गये तो कहीं ध्वज को कुचलते दिखाया गया।
हालांकि भारत सरकार हमेशा नेपाली माओवादियों की घृणित चाल को नजरअंदाज करती रही है। लेकिन माओवादियों की इन घृणित हरकतों ने सीमाई भारतीय वाशिंदों के सब्र को तोड़ दिया। हजारों लोग नेपाली माओवादियों के विरोध में सड़क पर उतर आये। सीमावर्ती क्षेत्रों में लगातार तीन दिनों तक नेपाली माओवादियों के खिलाफ प्रदर्शन होते रहे। आक्रोशित लोगों ने जगह- जगह सीमा पर बैरियर और अवरोध लगाकर आवागमन को अवरुद्ध कर दिया माओवादियों के विरोध में नारे लगाये। कई जगहों पर माओवादी नेता प्रचंड का पुतला भी फूंका गया। जोगबनी (अररिया) में तो लोग उग्र हो गये और नेपाली प्रशासन के खिलाफ कार्रवाई करने की मांग तक करने लगे।
हालांकि प्रशासन की मध्यस्ता के बाद लोगों का आक्रोश कम जरूर हुआ है, लेकिन सरहदी वाशिंदे के मन में नेपाली माओवादियों के खिलाफ स्थायी घृणा फैल गयी है। इसके कारण नेपाल के सरहदी वाशिंदों को दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है। गौरतलब है कि सीमाई क्षेत्र के हजारों नेपाली का गुजारा भारत से ही होता है। वे भारत में मजदूरी और अन्य रोजगार करने आते हैं। लेकिन तनाव के चलते पिछले कुछ दिनों से वे अपने घरों से नहीं निकल रहे हैं। इसके अलावा सीमाई इलाके के लोग अपने रिश्तेदारों को लेकर भी चिंतित हैं। उल्लेखनीय है कि सरहदी इलाकों के लोगों के बीच सदियों से बेटी-रोटी का संबंध है।
इस बीच भारत के दौरे पर आयी नेपाल की रक्षा मंत्री विद्या भंडारी ने आश्वासन दिया कि उनकी सरकार ऐसे तत्वों के खिलाफ कार्रवाई करेगी। लेकिन नेपाल के राजनीतिक हालात को देखकर लगता नहीं है कि नेपाल की सरकार माओवादियों की नापाक हरकतों पर अंकुश लगाने में सक्षम हैं। अगर ऐसा होता, तो राजधानी काठमांडू में भारत के खिलाफ आपत्तिजनक नारे नहीं लगाये जाते। चीन की नीतियों को जिस प्रकार वर्तमान नेपाल सरकार अमलीजामा पहना रही है, उससे लगता है कि वे भी पर्दा के पीछे से भारत विरोध की रणनीति को समर्थन दे रही है। हाल के दिनों में सीमावर्ती नेपाल में कई चीनी स्टडी सेंटरों खोले गये हैं। हालांकि कहने के लिए तो ये अध्ययन केंद्र हैं, लेकिन वास्तव में ये केंद्र भारत के खिलाफ चीन की जासूसी सेंटर का काम कर रहा है। जाहिर है, नेपाल सरकार भी इस बात से अनभिज्ञ नहीं है। इसके अलावा हाल के दिनों में चीन ने नेपाल के साथ कई रणनीतिक समझौते भी किए है। इनमें चीन-नेपाल के बीच सीधा सड़क मार्ग खोलना और नेपाली सैनिकों को चीन से प्रशिक्षण दिलवाना शामिल है। यह अलग बात है कि सत्तारूढ़ नेपाली कांग्रेस और एमाले खुले तौर पर इस बात को स्वीकार नहीं करती।
दरअसल, नेपाली माओवादी पार्टी सत्ता से दूर होने के बाद पूरी तरह से विचलित हो गयी है। चूंकि नेपाल के मधेशियों को विश्वास में लिए बगैर कोई भी नेपाली पार्टी सत्ता में नहीं आ सकती, इसलिए माओवादी चाहते हैं कि वह भारत विरोध के नाम पर गैर मधेशियों को गोलबंद कर, बहुमत का वोट-बैंक जुटा लें। इसके अलावा चीन से सैन्य व आर्थिक मदद पाने के लिए वे भारत का विरोध करते हैं। हालांकि अभी तक इसका परिणाम माओवादियों के खिलाफ ही गया है। भारत विरोधी प्रदर्शनों के कारण मधेशी इलाके में माओवादी पार्टियों का रहा-सहा जनाधार भी कमजोर पड़ते जा रहा है। कुछ महीने पहले ही उनके एक धाकड़ मधेशी नेता मात्रिका प्रसाद यादव ने पार्टी छोड़कर नयी पार्टी बना ली। कई अन्य माओवादी नेता मधेशी जनाधिकार फोरम में चले गये हैं। लेकिन इन सबके बावजूद नेपाली माओवादी सबक नहीं ले रहे हैं।