मंगलवार, 30 मार्च 2010

सब्सिडी से जुड़ा एक सवाल

बात बहुत पुरानी नहीं है। सत्तर-अस्सी के दशक में देश की सरकारी तेल कंपनियां सरकार को औसतन 15 से 20 हजार करोड़ रुपये का सालाना लाभ देती थीं। आज सरकार इन कंपनियों को हर वर्ष 50-60 हजार करोड़ रुपये चुकाती है और हर साल इसका आकार बढ़ रहा है। जी हां, मैं पेट्रोलियम सब्सिडी की बात कर रहा हूं। हमारी सरकार पेट्रोल, डीजल और घरेलू गैस पर आज भी भारी सब्सिडी दे रही है। एक सर्वेक्षण रिपोर्ट है कि आज लगभग 60 प्रतिशत घरेलू गैस उपभोक्ता आर्थिक तौर पर इतने समृद्ध हैं कि उन्हें सब्सिडीयुक्त रसोई-गैस की आवश्यकता नहीं है। यह उपभोक्ता-वर्ग चाहता है कि उन्हें समय पर सिलिंडर की आपूर्ति की गारंटी मिले, तो वे हंसी-खुशी सिलिंडर की पूरी कीमत (जो आज की तारीख में लगभग 600 रुपये प्रति सिलिंडर पड़ेगा) चुका देगा। आधिकारिक जांच-पड़ताल में भले ही इस सर्वेक्षण के आंकड़े थोड़े आगे-पीछे खिसक जायें, लेकिन यह सच्चाई से परे नहीं है। और इस पर सहज विश्वास किया जा सकता है। वह इसलिए कि आज भी देश की 95 प्रतिशत आबादी तक रसोई-गैस के कनेक्शन नहीं पहुंचे हैं। और मुझे लगता है कि आम ग्रामीणों तक यह सुविधा कभी पहुंचेगी भी नहीं। यह संभावना भी प्रबल है कि हमारी आने वाली पीढ़ियां जब गैस और सिलिंडर का इतिहास पढ़ेंगी तो वे यह भी पढ़ेंगी कि जब भारत में लोकतंत्र का बागीचा पूरे शबाब पर था तो यहां भी रसोई-गैसों का आगमन हुआ। लेकिन यह सुविधा आयी, लोकप्रिय हुई और खत्म भी हो गयी, लेकिन देश की बहुसंख्यक ग्रामीण आबादी इससे सदा वंचित ही रही। कहने की जरूरत नहीं कि पेट्रालियम गैस की कहानी 2040-50 तक खत्म होनी है। इस कहानी को खत्म होने से कोई नहीं रोक सकता। जो भी हो, भारत का अब तक का इतिहास तो भेदभाव की दास्तानों से पिरिपूर्ण रहा है। अगर इसमें गैस भेदभाव का यह रोमांचक सच भी जुड़ जायेगा, तो कौन-सा आसमान टूटेगा।

यहां सवाल उठता है कि विशुद्ध अर्थशास्त्र के आधार पर सरकार चलाने का दावा करने वाले यूपीए के विद्वान नेताओं को यह बात मगज में क्यों नहीं घूसती। सरकार इन 60 प्रतिशत उपभोक्ताओं को सब्सिडी से वंचित क्यों नहीं करती? अगर ऐसा कर दिया जाये तो सरकार को भारी सब्सिडी के बोझ से भी मुक्ति मिलेगी और सब्सिडी का लाभ उन्हें मिलेगा जो वास्तव में इसके हकदार हैं और आर्थिक रूप से पीछे छूटते चले जा रहे हैं? अब जबकि राज्य की सरकारें सिलिंडर की सब्सिडी को खत्म कर रही है, तो निम्न मध्यमवर्ग की एक बड़ी आबादी का हलक सूख रहा है। यह वो आबादी है जो महंगाई की मार से पूरी तरह टूट चुकी है और जो अपने तमाम कष्टों को आइपीएल मैचों में भूला देने को ही समझदारी मानती है।

बुधवार, 17 मार्च 2010

विनाश काले विपरीत बुद्धि

(कब उठेगा यह लाल पर्दा ? स्थान- प्रतापगंज, जिला- सुपौल )

दहाये हुए देस का दर्द -62

19 महीने में धरती सूर्य का डेढ़ बार चक्कर लगा लेती है। इतनी अवधि में ब्रह्मांड में बहुत-से तारे, ग्रह और नक्षत्र एक छोर से दूसरे छोर पर पहुंच जाते हैं। बड़े-बड़े युद्ध अपने अंजाम को प्राप्त हो जाते हैं। 19 महीने में एक भारतीय नागरिक पांव-पैदल देश की चौहदी माप सकता है। लेकिन 19 महीने में सात किलोमीटर की क्षतिग्रस्त रेलवे पटरी को दुरुस्त नहीं किया जा सकता ! यह दुनिया के शीर्ष रेलवे नेटवर्क में शुमार किए जाने वाले भारतीय रेल की असलियत है।

आपको याद होगा कि 18 अगस्त 2008 को जब कोशी ने पूर्वी बिहार में तांडव नृत्य किया था, तो उसने जहां-तहां रेल पटरियों को तोड़-मरोड़ दिया था। तब उसका कहर बिहार के सुपौल, सहरसा, अररिया और मधेपुरा जिले की लाइफ लाइन कही जाने वाली सहरसा-फारबिसगंज रेल लाइन भी पर जमकर बरपा था। बाढ़ की चपेट में आकर जहां-तहां रेल-सड़क और बिजली के खंभे ध्वस्त हो गये थे। हालांकि पानी हटने के बाद पता चला कि सौभाग्य से बाढ़ में रेल-पटरी और स्टेशनों को ज्यादा नुकसान नहीं हुआ है और कुल मिलाकर छह-सात किलोमीटर की पटरी ही बुरी तरह प्रभावित हुई है। पानी के बावजूद प्रतापगंज, छातापुर और ललितग्राम स्टेशन तब सुरक्षित बच गये थे। हां, इस प्रलयंकारी बाढ़ में सात-आठ छोटे पुल जरूर पूरी तरह ध्वस्त हो गये थे। पानी हटने के बाद तत्कालीन रेल मंत्री लालू प्रसाद ने इलाके के लोगों को आश्वस्त किया था कि जल्द ही इस लाइन की रेल सेवा को दोबारा बहाल कर दिया जायेगा। लेकिन महीना-दर-महीना बीतता रहा, पर सहरसा-फारबिसगंज रेल सेवा चालू नहीं हुई। इसे लेकर कई बार स्थानीय लोगों ने आंदोलन तक किया, लेकिन रेल महकमा कान में रूई और तेल लेकर सोता रहा। रेल के किसी भी आला अधिकारी ने क्षतिग्रस्त पटरियों और पुलों के पुनर्निमाण में कोई दिलचस्पी नहीं दिखायी। परिणामस्वरूप मरम्मत का काम बीरबल की खिचड़ी की कहावत को चरितार्थ करती रही।इस बीच कुसहा में कोशी के टूटे तटबंध को बांध भी दिया गया। इसके बाद तो रेल अधिकारी के पास यह बहाना भी नहीं बचा कि पानी के कारण मरम्मत के काम में बाधा उपस्थित हो रही है। आज भी रेलवे के कोई अधिकारी यह बताने की स्थिति में नहीं है कि इस लाइन पर दोबारा कब रेल के इंजन और डिब्बे का दर्शन हो सकेगा।

यहां एक साथ कई सवाल उठते हैं। सबसे पहला सवाल यह कि क्या अगर सहरसा-फारबिसगंज रेल लाइन महाराष्ट्र, पंजाब, बंगाल, गुजरात, दिल्ली या दक्षिण के राज्यों में होती, तो रेलवे का ऐसा ही सलूक होता ? उत्तर बिहार में अगर बाढ़ के कारण रेल लाइन क्षतिग्रस्त होती है तो तटीय राज्यों में समुद्री तूफानों के कारण आये दिन रेल,सड़क, बिजली आदि की लाइनें क्षतिग्रस्त होती रहतीं हैं। तब भारतीय रेल पूरी तत्परता से आगे आता है और क्षतिग्रस्त पटरी को दुरुस्त भी कर लेता है। लेकिन पूर्वोत्तर बिहार के साथ उसने इतना भद्दा मजाक क्यों किया है ? इसलिए कि इस इलाका का उल्लेख पूंजीपतियों की डायरी में नहीं है और यहां के लोग बात-बात पर हथियार नहीं उठाते हैं ? भले ही रेल मंत्री या शीर्ष रेल अधिकारी ऐसे सवालों का जवाब देना जरूरी नहीं समझे, लेकिन हकीकत यही है। हकीकत यह है कि दिल्ली में बैठे देश के नीति-नियंता अब बाजार, हिंसा और वोट बैंक को छोड़ दूसरी कोई भी भाषा नहीं समझते। इसे बिडंबना नहीं तो क्या कहा जाये। वैसे भी अपने यहां एक प्राचीन कहावत काफी प्रचलित है- विनाश काले विपरीत बुद्धि !

रविवार, 14 मार्च 2010

शोर मचाओ, शोर मचाओ

शोर मचाओ, शोर मचाओ

जोर-जोर से सब चिल्लाओ

गला फाड़ो, माइक उठाओ

लेख-आलेख- कविता लिखो

बहस-मुबाहिसे जारी रखो

बहनें खुश हैं !

माएं खुश हैं !

दादी-नानी-मौसी खुश हैं !

नर्सरी की नैंसी खुश है !

काठ की कठपुतली खुश है !

कूड़ा चुनती कुसिया खुश हैं !

दिल्ली से हम देख रहे हैं

अस्मत खोयी बेवा खुश है

"दुमकावाली'' मुर्दा खुश है

लकड़ी चुनती बुढ़िया खुश हैं !

भूखनगर की भूतिया खुश हैं !

तैंतीस प्रतिशत

जिंदावाद

तैंतीस प्रतिशत

मुर्दावाद

प्रतिशत में प्रतिशत

जिंदावाद

भूख लगी है ?

शोर मचाओ ...

बिन दाना के मां मरी है ??

मुखर्ता है शोक मनाना

शोर मचाओ, शोर मचाओ ...

शंख बाजे

काल भागे

घंट बाजे

पिशाच भागे

शोर बाजे

भूख भागे

शोर बाजे

महगी भागे

इसलिए

शोर मचाओ, शोर मचाओ

जोर-जोर से शोर मचाओ

 

 

गुरुवार, 4 मार्च 2010

जल नीति के मसौदे पर सुझाव आमंत्रित

बिहार जल संपदा से परिपूर्ण राज्य है किंतु फिर भी यहां जल उपलब्धता कम रहती है। भौगोलिक परिस्थितियों एवं अन्य कारणों से जल के विभिन्न उपयोगों जैसे सिंचाई, पीने और घरेलू उपयोग, औद्योगिक, तापीय और जल विद्युत आदि के लिये बढ़ती हुई मांगों को पूरा करने के लिये जल का समुचित प्रबंधन आवश्यक हो गया है। भौगोलिक स्थिति और वर्षा के असमान वितरण के कारण बिहार का उत्तरी भाग बाढ़ की चपेट में रहता है तो दक्षिणी भाग सूखे की मार झेलता है। राज्य में कुल जल उपलब्धता तो अधिक है लेकिन उपयोग योग्य जल कम है।राज्य का कुल भौगोलिक क्षेत्रफल 94।163 लाख हेक्टेयर है जिसमें से 56.68 लाख हेक्टेयर पर ही खेती होती है 9.44 लाख हेक्टेयर अन्य परती जमीन है जिसे प्रोत्साहन देकर कृषि योग्य बनाया जा सकता है। राज्य की वर्तमान आबादी 8.288 करोड़ है जबकि 2025 तक 13.13 करोड़ तक अनुमानित है। वर्तमान में सिंचाई एवं अन्य कृषि निवेशों से 1.675 टन प्रति हेक्टेयर की उत्पादकता का स्तर प्राप्त हुआ है जो अन्य राज्यों की तुलना में काफी कम है। भविष्य की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिये 3.5 टन प्रति हेक्टेयर उत्पादकता का लक्ष्य प्राप्त करना होगा। इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिये जल संसाधनों के प्रबंधन में सुधार लाना आवश्यक हो गया है।इन परिस्थितियों में राज्य जल नीति को नए सिरे से सूत्रीकृत करने की आवश्यकता महसूस की गई और मुख्य उद्देश्यों की प्राप्ति के लिये राज्य जल नीति 2009 प्रतिपादित की जा रही है।राज्य जल नीति, 2009 का जलसंसाधन विभाग, बिहार द्वारा प्रारूप तैयार किया गया है। इस मसौदे को http://wrd.bih.nic.in और www.prdbihar.org पर देखा जा सकता है।राज्य जल नीति के इस प्रारूप पर आम जनता की राय, सुझाव और मंतव्य आमंत्रित हैं।
यदि आप कोई सुझाव या राय देना चाहते हैं तो इंडिया वाटर पोर्टल या water।community@gmail.com पर एक माह के भीतर भेज सकते हैं । आप अपने सुझाव सीधे wrd-bih@bih.nic.in पर भी भेज सकते हैं। आप अपने सुझाव यहां कमेंट के रूप में भी डाल सकते हैं जिन्हें हम नीति निर्माताओं तक पहुंचाएंगे ।

यदि इस संदर्भ में कोई विशेष जानकारी चाहिए तो आप मगध जल जमात के संयोजक श्री रविन्द्र पाठक जी से बात कर सकते हैं। उनका मो- 09431476562 है।

(इंडिया वाटर पोर्टल से साभार )