शनिवार, 30 अगस्त 2008

तटबंध को बचाओ

(कुसहा के पास तटबंध को बचाने की कोशिश करते स्थानीय लेकिन सरकारी प्रयास नदारद , भीषण रूप लेती कोशी )

टूटे तटबंध की चौडाई लगातार बढ़ती जा रही है लेकिन सरकार बाँध को बचाने के लिए कुछ खास नहीं कर रही है। कोशी और पुरनिया प्रमंडल के ३५ लाख लोगों को अगर बचाना है तो तटबंध को बांधना ही होगा । दूसरा कोई उपाय नहीं है ।

मंगलवार, 26 अगस्त 2008

विधवा विलाप छोड़िये और तटबंध को बांधिये


रंजीत
कोशी और पूर्णिया प्रमंडल में आयी अभूतपूर्व और अप्रत्याशित बाढ़ को लेकर अब नेताओं ने विधवा विलाप करना शुरू कर दिया है। बिहार सरकार और उसका प्रशासनिक महकमा राहत और बचाव उपाय छोड़कर मगरमच्छी आंसू बहाने में जुटा हुआ है। नेता और अधिकारी की या तो मति मर गयी है या फिर उनका पुरुषार्थ खत्म हो गया है। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार समेत तमाम हुकूमती अमला इलाके को खाली करने का नपुंसक और तर्कहीन सलाह दे रहे हैं। इतना ही नहीं वे लोगों में पैनिक भी फैला रहे हैं। उनकी मति को शायद लकवा मार गया है या फिर वे राजशी सन्निपात के शिकार हो गये हैं। आखिर उन्हें ये बात समझ में क्यों नहीं आ रही कि जलप्लावित प्रखंडों के सारे सम्पर्क मार्ग खत्म हो चुके हैं। सुपौल, अररिया, मधेपुरा और पूर्णिया जिले के लगभग 20 प्रखंडों के 200 गांवों के सारे सम्पर्क मार्ग घ्वस्त हो चुके हैं। सरकार लोगों को भागने की सलाह दे रही है, क्या आपदाग्रस्त लोगों को सरकार के कहने पर पंख लग जायेंगे कि वे चिड़िया की तरह उड़कर बाहर निकल जायेंगे। न तो लोगों के पास नाव हैं और न ही प्रशासन के पास। तो फिर वे कैसे बाहर निकल जायेंगे? दूसरी बात यह कि जिन क्षेत्रों में पानी नहीं पहुंचा है या जहां से लोग अभी भी निकल सकने की स्थिति में हैं , ऐसे लोगों की संख्या लगभग 14 लाख के करीब है। ये चौदह लाख लोग आखिर कहां जायेंगे ? सहरसा शहर में पचास हजार अतिरिक्त लोगों को समायोजित करने की क्षमता नहीं है, जबकि खुद सहरसा भी महफूज नहीं है। लोग न तो पूरब की ओर जा सकते हैं और न ही दक्षिण और न ही उत्तर की ओर। पश्चिम की ओर जाने का तो कोई सवाल ही नहीं उठता क्योंकि उधर कोशी का विशाल और अभेद्यय दियारा है। सरकार की सलाह की सच्चाई यही है। दस दिन में जो सरकार दो सौ नावों की भी व्यवस्था नहीं कर सकी वे अगले दो-तीन दिनों में हजारों नाव लाकर लोगों को निकाल लेगी, ऐसी कल्पना कोई विक्षिप्त व्यक्ति भी नहीं कर सकता।
बाढ़ में फंसे लगभग 30 लाख लोगों को जलसमाधि लेने से रोकने का एकमात्र विकल्प है, टूटे तटबंधों की मरम्मत। जबकि इस ओर कोई ध्यान नहीं दिया जा रहाहै। यहां तक कि इसकी बात भी नहीं की जा रही है। ऐसा मान लिया गया है कि तटबंध को अभी बांधा ही नहीं जा सकता। लड़ाई लड़ने से पहले समर्पण करने का ऐसा कायरतापूर्ण मानसिकता भारत के पिछले एक हजार वर्ष के इतिहास में कभी देखा-पढ़ा नहीं गया होगा। आखिर क्यों नहीं बांधा जा सकता 1 लाख क्यूसेक की एक धारा को। जिस देश में समुद्र को बांधने की परियोजना के लिए सरकार तत्पर हो उस देश में नदी की एक धारा को नहीं बांधा जा सकता। ऐसा नहीं है कि इसकी तकनीक मौजूद नहीं है। तकनीक भी है और तरीका भी है। जरूरत है इच्छाशक्ति की। केंद्र सरकार चाहे तो एक सप्ताह के अंदर टूटे तटबंध को बांधा जा सकता है। हां, इसमें अतिरिक्त संसाधन जरूर लगेंगे और सेना के इंजीनियरों की मदद लेनी पड़ेगी। तो क्यों नहीं इसके प्रयास किए जा रहे। चीन के पास टूटे तटबंध को बांधने की उन्नत तकनीक मौजूद है अगर सरकार चाहे तो उससे भी मदद ली जा सकती है। लेकिन किसी को फिकर नहीं है। क्या यह बिहार का मामला है इसलिए या फिर यह ग्रामीण और पिछड़े इलाकों के लोगों का कष्ट है इसलिए ? सरकार का रुख देखकर तो ऐसा ही लगता है। मुंबई में बरसाती पानी से बाढ़ आ जाती है तो पूरा देश उसकी राहत में लग जाता है। लेकिन बिहार में 30 लाख लोग मौत के कगार पर खड़े हैं, लेकिन केंद्र सरकार के कानों पर जू तक नहीं रेंग रही।

सोमवार, 25 अगस्त 2008

हजारों मरे, लाखों जान खतरे में

रंजीत
सुनामी ! जी हां, नदीनिर्मित सुनामी !! सरकार निर्मित सुनामी !!! कल ही मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने बाढ़ प्रभावित इलाका का दौरा किया था , लेकिन उनके अधिकारियों को शायद भयानक दृष्टिदोष हो गया था या फिर उन्होंने गांधारी की तरह आंख पर पट्टी बांध ली थी कि उन्हें हजारों की संख्या में बहती लाशें नहीं दिखी। फारबिसगंज से एक बाढ़ प्रभावित ने बताया है कि तिलावे धार से होकर दर्जनों की संख्या में लाशें बह रही हैं। ये लाशें तटबंध टूटने के बाद विकसित हुई मुख्य धारा के आसपास के गांवों की हैं। ऐसे तो भयानक रूप से प्रभावित बसंतपुर अनुमंडल से लेकर ग्वालपाड़ा तक के इलाके की फोन सेवाएं ध्वस्त हो चुकीं हैं और इसके कारण वास्तविक तस्वीर से पूरी दुनिया अज्ञात हैं। लेकिन विभिन्न स्रोतों से जो खबर मुझे मिल रही है उसके मुताबिक बसंतपुर से ग्वालपाड़ा के बीच अवस्थित लगभग तीन सौ गांवों में भारी जानमाल की हानि हो चुकी है। क्योंकि ये क्षेत्र नदी के उदर में समा चुके हैं। वीरपुर, भीमनगर शहर और सीतापुर, बबुआन, घूरना, तिलाठी, टड़हा, कोरियापट्टी,बलुआ बाजार, छातापुर, राजेश्वरी जैसे गांवों में अबतक सैकड़ों मौतें हो चुकी है। लगभग सभी मीडिया हाउस के रिपोर्टर पूर्णिया शहर में कैंप किए हुए हैं, जहां से हादसे की सही तस्वीर का पता लगाना असंभव है। सभी मीडिया हाउस अनुमान के आधार पर समाचार दे रहे हैं, क्योंकि स्थानीय रिपोर्टर से उनका संबंध स्थापित होना नामुमकिन है। लेकिन सरकार को कुछ भी नहीं दिख रही। न ही राज्य सरकार को और न ही केंद्र सरकार को ! यह महाशक्ति बनने का दावा करने वाले भारत का सच है कि वह एक तटबंध को नहीं बचा पा रहा।

सरकारों कुछ करो !!!

दहाये हुए देस का दर्द (भाग-2)
रंजीत
नेपाल में कुसहा के पास पूर्वी कोशी तटबंध के टूटने से बिहार के कोशी और पूर्णिया प्रमंडल के जिले- सहरसा, सुपौल, अररिया, मधेपुरा , पूर्णिया में अभूतपूर्व बाढ़ आ गयी है । इस बाढ़ का चरित्र और इससे हो रही तबाही उत्तर बिहार में हर बर्ष आने वाली नियमित बाढ़ के चरित्र और तबाही से पूरी तरह अलग है , जबकि राज्य और केंद्र सरकार इसे नियमित बाढ़ की माइंड सेट में देख रही है। तटबंधों के अंदर कैद पानी समुद्री तूफान की तरह नेपाल के दो जिलों के लगभग 100 गांवों के अलावा कोशी और पूर्णिया प्रमंडल के सैकड़ों गांवाें में घूस रहा है, जहां तटबंध निर्माण के बाद पिछले 50 वर्षोसे बाढ़ नहीं आ रही थी। पानी की तेज प्रवाह के कारण लगातार टूटे हुए तटबंध की चौड़ाई बढ़ रही है और कोशी नदी का 95 प्रतिशत पानी टूटे तटबंधों से बहने लगा है। इस कारण सैकड़ों गांवों में अथाह जल प्रवेश कर रहा है और लगातार प्रभावित क्षेत्रों का क्षेत्रफल बढ़ रहा है। इसे प्राकृतिक आपदा से ज्यादा मानव निर्मित आपदा कहना ज्यादा तर्कसंगत होगा। क्योंिक कोशी नदी के विशेष जल चरित्र (हाइड्रोलॉजी) और विशेष भूगोल को जानने के बावजूद सरकार ने लापरवाही बरती। उल्लेखनीय है कि कोशी नदी में बड़े पैमाने पर सिल्टिंग होती है। इस कारण इसकी धाराएं खिसकती रहती हैं। चूकि कोशी बाराज के पास पानी को रोका जाता है इसलिए बाराज से उत्तर में नदी के बेड लगातार सिल्टिंग के कारण उठते रहते हैं। प्रावधानों के अनुसार बेड की टोपोग्राफी को संतुलित रखने के लिए हर वर्ष अतिरिक्त सिल्टिंग को हटाया जाना चाहिए। लेकिन विगत 20 वर्षों से इस कार्य में भारी लापरवाही बरती गयी। कोशी प्रोजेक्ट लगभग एक दशक से डिफंग है । इसके परिणामस्वरूप तटबंधों के रखरखाव में भारी उदासीनता बरती गयी।
अब जब नदी ने बाराज से उत्तर ही तटबंध को तोड़ दियाा है तो नदी की दक्षिण की ओर निकासी लगभग स्थिर हो गयी है। इसका मतलब यह हुआ कि कोशी और पुर्णिया प्रमंडल में रातों-रात एक नई नदी पैदा हो गयी। अगर किसी सूखे क्षेत्र में अचानक कोई नदी उतर आये तो जो स्थिति हो सकती है कुछ वैसी ही कुछ स्थिति इन दिनों इन क्षेत्रों की है। दूसरी ओर हादसा के एक सप्ताह बाद तक टूटे तटबंध की मरम्मत में भारी लापरवाही बरती गयी। बात को टालने के लिए नेपाल सरकार पर असहयोग का आरोप लगा दिया गया। जबिक वही समय था जब टूटे तटबंध की मरम्मत की जा सकती थी। अब स्थिति इतनी विकराल हो गयी है कि केंद्रीय हस्तक्षेप और विश्व की उन्नत से उन्नत तकनीक का सहारा लिए बगैर नवंबर से पहले टूटे तटबंध को दुरूस्त करना और नदी को अपने पुराने कोर्स में लाना असंभव है। बिहार सरकार स्थिति के विकरालता को अविलंब केंद्र सरकार के पास रखे और अपनी पूरी शक्ति लगाकर तटबंध को मरम्मत करें। इसके लिए अंतर्राष्ट्रीय मदद से भी परहेज नहीं किया जाना चाहिए। नीतीश जी, आप खुद अभियंता हैं, आप स्थिति को समझने की कोशिश कीजिए अन्यथा इतिहास आप लोगों को कभी माफ नहीं करेगा। यह राजनीति नहीं पुरुषार्थ की परीक्षा का समय है।
अगर ऐसा नहीं हुआ तो आगे क्या होगा, इसकी कल्पना से ही किसी जानकार के रोंगटे कांप जा रहे हैं। क्योंकि रिकार्ड के अनुसार कोशी नदी में सितंबर में सबसे ज्यादा पानी निष्कासित होता है। कभी-कभी यह 10 लाख क्यूसेक तक पहुंच जाता है। अभी नदी में महज 1 लाख क्यूसेक पानी ही डिस्चार्ज हो रहा हैऔर इतने पानी ही सैकड़ों गांवों को लील चुका है अगर 10 लाख क्यूसेक पानी टूटे तटबंधों से बहने लगेगा तो इन चारों जिलों के कई गांव और शहर बाद में ढूंढने से भी नहीं मिलेंगे।

(भाग २ में हम किन्हीं कारणवश कोशी का वैज्ञानिक विश्लेषण नहीं कर पा रहे हैं , लेकिन यह हम जल्द आपके पास लेकर आयेंगे )

शुक्रवार, 22 अगस्त 2008

‘Non-maintenance by India led to Koshi havoc’

BY THIRA L BHUSAL
KATHMANDU, Aug 23 - A high-level government team that inspected areas devastated by the flooded Koshi River has held India responsible for the havoc. The devastation took place as the Indian side did not carry out repair and maintenance work on the Koshi barrage and the embankment along the river, thereby violating the Nepal-India Koshi agreement, said top officials. India is entirely responsible for repair and maintenance work and operation of the barrage, as per the bilateral agreement signed in 1954. "Every year in the past the Indian side used to do at least some maintenance work. But this year they did not carry out the repairs," Khom Raj Dahal, Deputy Director General of the Department of Water Induced Disaster Prevention (DWIDP), told the Post. "This was the main reason why the Koshi breached the embankment and submerged about 10,000 hectares of cultivated land and villages." The Indian side used to contact the Regional Directorate of the Department of Irrigation (DoI) in Biratnagar. The DoI plays a facilitating role as and when requested by the Indian teams. "But, this year they did not contact the DoI regional office" Dahal said.
However, issuing a strongly worded press statement on the matter Tuesday, the Indian embassy in Kathmandu blamed Nepali authorities for the disaster. "The Indian technical team mobilized required resources and has remained in readiness to carry out the required work to strengthen the embankment but it was prevented from reaching the site. As a consequence, thousands of people in Nepal and India have been forced to suffer a calamity that could have been avoided," the embassy said.
When the Indian technical team arrived at the Koshi River as in past years, it was too late to control the situation, according to Dahal. "They arrived there when the river had already started damaging the spurs whereas the maintenance work should have been done before the monsoon to prevent such a tragedy," he added. Another major reason for the river's diversion is the increasing level of the riverbed. "The riverbed is two to three meters higher than the countryside (areas outside of embankment)," Dahal said. About 32 kilometer stretch of the embankment from the Koshi barrage to Chakraghatti is in a vulnerable condition. "Thorough reconstruction of that total area is the permanent solution," he added. After bilateral talks an Indian team has agreed to immediately start work at the site. The two sides have reached a seven-point agreement. Deputy Director General of DoI Anil Kumar Pokharel led the Nepali delegation. Dahal of DWIDP, Regional Director of DoI Kamal Prasad Regmi and Senior Divisional Engineers Hemant Kumar Jha and Basistha Raj Adhikari were members of the Nepali team. Likewise, the Deputy Secretary of Water Resource Department of the Government of Bihar led the six-member team of India.
The Nepali side has agreed to back the Indian team in establishing link and access roads to the damaged areas. For that, the displaced people who have been staying along the safe embankment areas need to be relocated to safer places. The embankment areas are also being used as roads. Nepali authorities will help establish roads through the Koshi Tappu Wildlife Reserve, Dahal informed. Then only will the Indian side start reinstatement of the damaged areas. "The reconstruction work needs to be completed prior to the monsoon in 2009 so as to avoid any disaster next year," Dahal said.
Embankment not permanent solution: Expert
Ajay Dixit, Director of the Nepal Water Conservation Foundation, has said that there is a need for rethinking the very concept of building embankments for flood control. "Embankment is an easy way to address flooding but not a sustainable solution. The notion that technology can solve all types of problems is wrong," Dixit told the Post, adding, "Preventing water from its natural flow is not a permanent solution but to give it an outlet is the right way. Drainage or other types of outlets can be better options." Hydro expert Dixit, suggested that the concept of an open basin allowing a river's main course to expand to its flood plain may be a better option.
(यह स्टोरी कांतिपुर डॉट कॉम से साभार है और इसे प्रकाशित करने का उद्देश्य यह है की लोग नेपाल सरकार का पक्ष भी जान सके )

दहाये हुए देस का दर्द (भाग-1)

रंजीत
लगभग साठ वर्षों के बाद एक बार फिर सुपौल, अररिया, मधेपुरा , पुर्णिया और किशनगंज जिले के लोग कोशी मैया का कहर झेल रहे हैं। कोशी के कहर की जो कहानियां नवतुरिया लोग दादा-दादी और नाना-नानी की जुबानी सुनते थे उसे बिहार और नेपाल सरकार ने अपने संयुक्त लापरवाही से 17 अगस्त, 2008 को प्रत्यक्ष जमीन पर मंचित करके दिखा दिया। उसके बाद क्या होना था? कोशी तो तांडवी के नाम से प्रसिद्ध है ही; 60 वर्षों के बाद जब उसे एक बार फिर अपने पुराने अखाड़े मिले तो वह जमकर, कहर बरपाकर एवं बिजली गिराकर नाची। .. . लो और करो मुझे तटबंधों में कैद ! डायन कोशी की पदवी तो तुमलोगों ने मुझे एक सदी पूर्व ही दे दी थी अब देखो मेरा चुड़ैल रूप ! मेरे राह में जो आओगे, सबको दहा-बहा लूंगी। क्या सड़क , क्या नहर, क्या शहर, क्या गांव ; सब मेरे उफान में भसिया जाओगे। मैं बौराकर घुमूंगी और बौआती-ढहनाती हुई कितने को अपने साथ ले जाऊंगीइसका ठीक-ठीक मुझे भी कोई आइडिया नहीं । एक तो मुझे कैद करते हो दूजा डायन की उपाधि देते हो तीजा मेरे नाम पर करोड़ों रुपये का आवंटन कराकर मौज करते हो। मैं तो सिर्फ बदनाम हूं, तुम तो भ्रष्ट और धोखेबाज भी हो। मुझे कैद तो कर दिया, लेकिन अपने जंग खाये सीखचों की ओर कभी झांका तक नहीं। पिछले २० वर्षों में तुमलोगों ने एक कुदाली मिट्टी भी अपने तथाकथित ताकतवर तटबंधों पर डाली क्या ? कभी गौर से देखा कि जिस तटबंध के बल पर तुम मुझे कैद करने का गुमान पाल रहे हो वह मेड़ में तब्दील हो चुका है। मैंने तो कई बार कहा कि देखो अब मुझे और मत ललचाओ, तुम्हारे इस मेड़ सरीखे, जर्जर और जंग खाये तटबंधों को मैं कभी भी लांघ जाऊंगी। अगर मुझे नियंतित्र रखना है तो इन सीखचों को दुरूस्त कर लो, लेकिन तुम तो मेरी ताकत आकने पर आमदा थे। तो लो अब देखो मेरी ताकत और झेलो मेरा तांडव। ताक धिनादिन ता.. . गिरगिरररर, गरगररररर, ताक धिनादिन ता.. . भरररर, भर्रर्रररररर-भराकअअअ, भड़ाककक... गिरगिरगिर ...
हुआ भी यही। 16 अगस्त को जो बच्चे मैदान में बैट-बॉल खेल रहे थे वे 17 अगस्त की सुबह अपने मां-बाप के साथ भसियाये भैंस की तरह सुरक्षित स्थल तलाश रहे थे। सुरक्षित बचे लोग कोशकी देवी की किंवदंती सुनने-सुनाने लगे। दर्जनों बच्चे दूध के अभाव में स्थायी रूप से मूंह बा गये। बलुआ बाजार में 15 लोग एक साथ दहा गये और नरपतगंज के चैनपुर इलाके में 150 लोग एक ऊंचे स्थल पर पानी की मार खाकर सुस्ता रहे थे। लेकिन दबाड़ते-दहाड़ते वहां भी पहुंच गयी कोशिकी मैया और डेढ़ो सौ लोग पलक झपकते गायब ! ताक धिनादिन ता ... गिरगिररर, गरगरररर...
नेपाल के कुसहा में तटबंध तोड़कर निकली कोशी, तो पूरब की ओर नेपाले-नेपाल 40 किलोमीटर तक सरपट दौड़ती चली गयी। तब अचानक उसने फैसला किया कि अब और पूरब की ओर नहीं जाना, अब नेपाल में नहीं बहना ! फिर क्या था, मुड़ गयी दक्षिण की ओर । उसके बाद अररिया जिला के फारबिसगंज से लेकर सुपौल के राघोपुर तक के इलाके उसकी खूर-पेट में आ गये। अररिया जिले के घूरना,मुक्तापुर, भदेसर, बसमतिया, बलुआ, विशनपुर, वतनाहा इलाके को उसने एक ही रात में रौंद कर रख दिया। उसके बाद निशाने पर आये सुपौल और पुरनिया जिला के सैकड़ों गांव। प्रतापगंज, छातापुर प्रखंड में डूबा पानी फैल गया। बचके कहां जाओगे बच्चू ? गिरिधरपट्टी, ललितग्राम, मधुबनी, अरराहा, निर्मली, गोविंदपुर, श्रीपुर, बरमोतरा, जयनगरा, सूर्यापुर, तिलाथी , चुनी जैसे गांव के हजारों स्त्री-पुरुषों को उसने अपना जल- जलवा दिखाया। साठ बर्ष बाद नैहर लौटी हूं, तामझाम, धूम-धड़ाका तो होगा ही... गिरगिररर, ताक धिनादिन ता.. . तीसरे दिन उसके निशाने पर था- जिला मधेपुरा। मधेपुरा को पारकर ही वह शांत होती। इसलिए इस जिले के कुमारखंड, त्रिवेणीगंज, मूर्लीगंज, जदिया और उदाकिशुनगंज इलाके को नदी ने पूरी तरह से जलप्लावित कर लिया।
शुरू में एक-दो दिनों तक तो नेता-हाकिम राहत उपाय के बड़े-बड़े दावे करते रहे। उ अंग्रेजी नाम वाले विभाग के मंत्री को बहुत कुछ निर्देश भी दिया गया , आखिर उसी के चाचा (स्व. ललित नारायण मिश्र) ने तो कोशी को कैद करवाया था ... शायद इसलिए... लेकिन तीन दिनों के बाद उनके सारे दावे, बोलम-बच्नम , हवा-हवाई हो गये। सूबे के वजीरेआलम ने हेलीकॉप्टर उड़ा लिए, कहीं-कहीं एक दो जगह पैकट गिरा दिया गया और उसके बाद कवायद खत्म। घंटी बजावो और आरती ले लो । मानो वे मन ही मन कह रहे हों- कौन जाये उ डनियाही कोशिकी के फेर में पड़ने। सा... बात-बात पर मारने-डूबाने, बहाने और काट खाने की बात करने लगती है। जेकर करम ठीक होगा उ तो बचिए जायेगा। वैसे भी कौशिकी देवी के हाथों मरेगा तो सीधे बैकुंठ पहुंचेगा। वैसे भी मरम्मत के नाम पर हमलोगों को साइट विजिट करना ही है। अब तो टेंडर पास होने के बाद ही जायेंगे। तभिये कोशी के दर्शनो कर लेंगे और ? हें-हें-हे...! ऐसे भी कोशिकी उतनी निर्दयी नहीं है , जब भी उपद्रव करती है तो हमलोगों को बहुत कुछ देकर जाती है। दुहाई मैया कोशिकी.. .
(भाग- 2 में कोशी और उस क्षेत्र के भूगोल के बारे में पढ़े, जिसके द्वारा हम इस नदी की विचित्रता के वैज्ञानिक कारण जानने का प्रयास करेंगे )

गुरुवार, 21 अगस्त 2008

आदमखोर अधिकारी, बेपरवाह सरकार

बिहार सरकार झूठ बोल रही है । उसके अधिकारियों ने झूठी जाँच रिपोर्ट दी और कहा की कोशी बाँध को कोई खतरा नहीं है जबकि बाँध में दरार मौजूद थे । ये अधिकारी लाखों लोगों की जान और घोर कष्ट के जिम्मेवार हैं ।

(... और जमकर उतरा गुस्सा ! अररिया जिला के नरपतगंज के विधायक जनार्दन यादव की बाढ़ पीडितों ने पिटाई कर दी )

(दुहाई माई कोशिकी ! जल में डूबा नेपाल का हरिपुर इलाका )


(कहाँ जायें ? बाढ़ में फंसे नेपाल के सुनसरी जिला के श्रीपुर गावं के लाचार बाशिंदे )

(सुपौल जिले के नेपाल सीमा के निकट स्थित गावं में बाढ़ में फंसी हताश महिलाएं )

बुधवार, 20 अगस्त 2008

और तटबंध टूट गया !



(आशियाने की तलाश में भटकते बाढ़ में फंसे सुपौल जिले के बीरपुर के आसपास के गावों के लोग )

कोशी नदी के पूर्वी तटबंध के टूटने से नेपाल और बिहार के कोशी एवं पुरनिया कमिश्नरी के लाखों लोग पानी से घिर गए हैं । सुपौल जिला के बीरपुर अनुमंडल के सैकड़ों गावों के लोग भारी संकट में हैं , लेकिन प्रशासन हाथ पर हाथ धरे बैठे है। बाँध क्यों टूटा ? यह सवाल हर कोई जानना चाहेगा , यह टूटा या फ़िर इसे तोड़ दिया गया ? नेपाल और केन्द्र के पाले में गेंद फेककर राज्य सरकार बच नहीं सकती। अगर अबिलम्ब युद्ध पैमाने पर रहत कार्य शुरू नहीं किया गया तो हजारो लोग काल के गाल में समां जायंगे ।

मंगलवार, 19 अगस्त 2008

एक आदिम सच की तरह

रंजीत
यह तथ्य हमारे गांवों की है जिसकी पुष्टि गत दिनों इंग्लैंड के ससेक्स और कैंट शहर में हुई। इंग्लैंड के इकोनोमिक एंड सोशल रिसर्च काउंसिल के समाज शास्त्री रूपर्ट ब्राउन ने गत दिनों अपने एक वर्ष के गहन अनुसंधान का निचोड़ रखते हुए कहा कि किसी व्यक्ति को कट्टर या सेकुलर (धर्मनिरपेक्ष) बनाने में प्राथमिक विद्यालयों का बहुत महत्वपूर्ण योगदान होता है। ब्राउन साहेब ने आनुसंधानिक सर्वेक्षण के हवाले से कहा कि अल्पसंख्यक, बहुसंख्यक, उच्च जाति, निम्न जाति जैसी भावनाएं अगर बाल्यावस्था में एक बार पैदा हो गयीं तो वे ताजिन्दगी खत्म नहीं होंती। अगर किसी तरह चेतन मन से ये भावनाएं गायब भी हो गयीं तो भी अवचेतन में वे जिंदा रहती हैं और समय-समय पर पूर्वाग्रहपूर्ण व्यवहार के द्वारा अभिव्यक्त होती रहती हैं। प्राथमिक विद्यालय वह मंच है जहां बच्चों को ऐसी परिस्थितियों से सीधा सामना होता है , जहां वे विभिन्न जाति, धर्म और नस्लीय समुदायों के साथ साझा समय व्यतीत करते हैं। अगर विद्यालय का माहौल सेकुलर हुआ तो बच्चे के सेकुलर होने की संभावना काफी ज्यादा होती है। अगर माहौल उलट रहा तो भेदभाव की ग्रंथियां विकसित होने की भी पूरी संभावना रहती है।
जी हां, बाउन साहेब आप सही कह रहे हैं।आप सौ फीसदी सही फरमा रहे हैं। यह सर्वेक्षण अचानक मुझे अपने गांवों के पुराने प्राथमिक विद्यालय और मध्य विद्यालय की याद दिला गया। जहां नौवें वर्ग तक हमलोग अल्पसंख्यक, बहुसंख्यक, बैकवर्ड और फारवर्ड जैसे शब्दों से अपरिचित थे। हमलोग आपस में लड़ते-झगड़ते जरूर थे, लेकिन ऐसा एक भी वाकया मुझे याद नहीं आ रहा है जब हमने जाति या धर्म की किसी बात पर लड़ाई, झगड़ा या गुटबंदी की हो। दिमाग पर लाख जोर देने के बाद भी किसी शिक्षक का कोई ऐसा व्यवहार या वाणी याद नहीं आता जिनमें जाति या धर्म की कोई बू रही हो। हमारे शिक्षक छात्र-छात्राओं को उपनाम जरूर देते थे, लेकिन वे विद्यार्थियों की जाति या धर्म के सूचक नहीं होते थे बल्कि उनके बाह्य गुण-अवगुण के सूचक होते थे। मुझे गणित के शिक्षक मोहमद खुरशीद आलम (सर) याद आते हैं- वे तीव्र बुद्धि के इंसान थे और उनसे बड़ा सेकुलर व्यक्ति मैंने अपने जीवन में दूसरा नहीं देखा। वे वात्सल्य की प्रतिमूर्ति थे। वे संयोगवश भी किन्हीं विद्यार्थियों को उनके वास्तविक नाम से नहीं पुकारते थे। किसी को विभीषण कहते तो किसी को तेलचट्टा तो किसी को बनसियार, किसी को भूतनाथ तो किसी को गोनू झा तो किसी को मियां नसीरुद्दीन। उन्होंने एक दिन पान की एक दुकान पर पान खाते समय खड़े-खड़े घोषणा कर दी कि अगर बोर्ड की परीक्षा साफ-सुथरी हुई तो उनके पचास छात्र और दस छात्राएं ही पास कर पायेंगेऔर प्रथम श्रेणी में सिर्फ एक लड़का ही पास करेगा। मास्टर साहेब की यह सार्वजनिक घोषणा उनके बगल में खड़े इलाके के एक दबंग को पसंद नहीं आया और उसने उन पर एक जाति विशेष की तरफदारी करने का आरोप जड़ दिया। यह बात मास्टर साहेब को इतनी बुरी लगी कि उन्होंने उस व्यक्ति से कभी बात नहीं करने की कसम ले ली। वह व्यक्ति कालांतर में विधायक और मंत्री तक बन गये, लेकिन खुरसीद आलम सर ने उनसे कभी बात नहीं की।
हालांकि आज स्थिति पूरी तरह बदल चुकी है। जातिवाद और धर्मवाद की गंदी राजनीति उन विद्यालयों में भी सांप्रदायिकता की बीज पहुंचा चुकी है। प्राथमिक कक्षा के छात्र भी बैकवर्ड, फारवर्ड, मंदिर- मस्जिद , दंगा -फसाद के मायने समझने लगे हैं। मुझे एक अन्य घटना याद आती है। तब हम आठवें वर्ग के छात्र थे और उन दिनों भागलपुर में भीषण सांप्रदायिक दंगा हो रहा था। एक दिन हमारे वर्ग के एक छात्र ने समाज शास्त्र के शिक्षक से पूछ डाला था- दंगा क्या होता है, मास्टर साहेब ? मास्टर साहब ने इसका उत्तर कुछ यूं दिया था- जब आदमीपर पागलपन का भूत सवार हो जाता है तो वह दंगा करने लगता है .. .
मैट्रिक पास करने के बाद कॉलेज में प्रवेश किया तो पहली बार अगड़ा-पिछड़ा, मंदिर-मस्जिद का अर्थ समझ में आया। इस दौरान उच्च शिक्षा के दौरान विश्वविद्यालय और कॉलेजों में कई अवसरों पर विभिन्न गुटों में शामिल कराया गयाया मजबूरी और जिज्ञाशा में खुद भी शामिल हुआ। कभी जाति के आधार पर तो कभी धर्म के आधार पर। लेकिन मुझे ये गुट कभी रास नहीं आये। आज सोचता हूं कि आखिर यह कैसे संभव है कि मैं आज भी अपने कई दोस्तों की जाति नहीं जानता। जबकि कुछ के साथ दोस्ती हुये कई वर्ष बीत चुके हैं, लेकिन मैं उनकी जाति नहीं जानता। .. . शायद मेरे विद्यालय मेरे साथ चल रहे हैं, कर्म में भी और वचन में भी और जीवन में भी .. . एक आदिम सच की तरह यह मेरे जीवन में शामिल है। हमेशा, हमेशा, हमेशा .... किसी को हो न हो भारत को तो इसपर जरूर फक्र होगा।

सोमवार, 4 अगस्त 2008

'restaurant' for vultures



By Charles Haviland BBC News, Nawalparasi, Nepal
As the early morning mist lifts on the farmlands at the edge of the jungle, Yam Bahadur Nepali embarks on a job which many would find difficult but which, for him, is a regular chore.
He wheels his tricycle cart to collect the carcass of an old and sick cow which died during the night. It is to be fed to the vultures, under a unique initiative to conserve the scavenging birds. It is called the "vulture restaurant".
With some difficulty Yam Bahadur and his wife wheel the heavy beast past houses and down across wet paddy fields to the vulture feeding area.
The "restaurant" is a big grassy area surrounded by tall, fragrant sal trees. The peaceful scene is broken only by the cattle skeletons scattered around - and the vultures nestled above.
'Kidney failure'
Nepali ornithologists have established it as a place where vultures can eat healthily.
Two of the seven vulture species in the Indian subcontinent - slender-billed and white-rumped - have declined catastrophically in number and are now endangered, explained ornithologist Dhan Bahadur "DB" Chaudhary.
[Vultures] are ugly looking, but they are really helpful for us Dhan Bahadur Chaudhary, Nepali ornithologist
"In 1997 in eastern parts of Nepal there were about 67 nests," he says. "And in four or five years, in 2001, there was zero.
"So that rapidly they declined from India, Nepal and Pakistan. And over 12 years they started declining - now more than 95% of the vultures' number has gone down."
Scientists recently pinpointed the cause - the drug, diclofenac.
Farmers often give it to their cows as a painkiller. But if the cows die soon afterwards, the drug is deadly for the vultures which feed on their flesh. Mr Chaudhary says they rapidly die of kidney failure and gout.
As Hem Sagar Baral, executive director of Bird Conservation Nepal (BCN) explains, Nepal and India have now banned diclofenac because it was harming the vultures. It has been replaced by a safe drug called meloxicam.
"It is also anti-inflammatory but has been tested against vultures and other birds of prey and general birds and does not cause damage to these birds," he says.
'Massive creature'
As Yam Bahadur skins the carcass, we go into a spacious, brand-new observation hide. With us are several of the villagers who serve as volunteers on the project committee. We watch as the vultures wait.
After half an hour we are still waiting. A stray dog starts feeding on the carcass but seems worried and keeps barking.
The birds gain confidence and 22 of them land, still just watching the dog. Nearly all are the endangered White-rumped Vultures but there is also a massive creature - the biggest, the Himalayan Griffon Vulture.
They look like a rather grotesque gathering of clergymen with their blackish coats and white "collars".
Then, suddenly, they close in on the cow's corpse. It is like a rugby scrum of vultures, all wanting to gorge on the carcass, fighting with each other, the strongest in front, the weaker behind.
One vulture attacks another which has a long strand of raw meat dangling from its mouth, already half-swallowed.
The scavenging birds jump clumsily around, their wings outstretched. I tell Mr Chaudhary I think they are truly ugly animals.
"Yes, they are ugly looking, but they are really helpful for us," he says. "See - within half an hour they finished eating all that dead animal. Only the skeleton is left. It is really helpful to clean the nature."
Nepalis even nickname these birds "kuchikar", meaning a broom.
The villagers on the project's committee are engrossed by the spectacle. One is a woman farmer, Tila Devi Bhusal.
'Preserve them'
"Traditionally we see the vulture as a very bad bird," she says. "If it passes your house, then the house has to be purified. They can bring danger.
"But that belief is disappearing. People realise that vultures eat rotten things and we must preserve them."
The vulture restaurant has many volunteers but only two full-time employees.
One is Yam Bahadur who looks after the cows when they are living, not only when they die.
The project buys elderly or sick cows from farmers, looks after them humanely and treats them, if necessary, with the safe drug, meloxicam.
The cows, considered sacred by Hindus, die a natural death.
The other employee is Ishwari Chaudhary, the educational officer. He is spreading the vulture conservation message among villagers and in veterinary shops.
"We tell them about the new medicine, meloxicam, and how we can save the birds by using it," he says.
The banned drug diclofenac is still being rounded up all over Nepal. Meloxicam is more expensive, but it is injected in much smaller doses which partly compensates.
The numbers of endangered vultures are rising again.
Mr Chaudhary says that before the project was opened, he used to see a maximum of 72 vultures around one carcass.
"Once we established the vulture restaurant, in five or six months we found double that number - the maximum number I have recorded is about 156, all at the same time on the same carcass."
BCN, with support from others like Britain's Royal Society for the Protection of Birds, now wants to open more "vulture restaurants" - and scientists in India too are now showing interest in the idea.
यह स्टोरी बीबीसी से साभार ली गयी है

शनिवार, 2 अगस्त 2008

इदम्‌ बाढ़म्‌ भ्यो नमः

रंजीत

उसका चेहरा बासी पांव रोटी जैसा भकुआएल था आैर उसकी बेतरतीब दाढ़ी ऐसी लगती थी जैसे डबल रोटी पर फफूंद उग आये हों। उसके पास आज भेजने लायक कोई खबर नहीं थीआैर उसे मालूम था कि इस बात को लेकर आठ बजे रात के बाद कभी भी संपादक साहब का फोन आ सकता है। संपादक के फोन का मतलब उसे बुरी तरह मालूम था, फिर भी वह निस्तेज बैठा रहा आैर मेरे बार-बार कहने के बावजूद उसने दफ्तर में रखा अस्सी दशक के कंप्यूटर को ऑन नहीं किया। वह राज्य के एक प्रमुख अखबार का ब्यूरो-प्रमुख थाआैर दो साल पहले उसे शंट करने के लिए मुख्यालय से डूबा जिला खगड़िया के यार्ड में लगा दिया गया था।
यह पांच वर्ष पहले की बात है। उस वर्ष समूचे उत्त्ार बिहार में बाढ़ नंगा नाच कर रही थी। सैकड़ों लोग जलसमाधि ले चुके थे आैर लाखों घरविहीन होकर विनाश-नृत्य के दर्शक बने हुए थे। अन्न,नमक, छत आैर पेयजल के लिए चारों ओर हाहाकार मचा हुआथा। सरकारी राहत राजधानी पटना के सचिवालय भवन से निकलकर हाकिमों के ड्राइंगरूम में ऐसे कैद हुई की लोगों को इसकी भनक तक नहीं लगी। दो वर्ष ही जाकर पता चला कि हाकिम ने राहत सामग्री में कैसी लूट मचायी थी।
किसी झक्खी की तरह मैं पटना से बाढ़ग्रस्त क्षेत्रों की ओर निकल पड़ा था, बिना कुछ सोचे, बगैर कुछ विचारे। यह यात्रा न तो किसी मीडिया हाउस की रिपोर्टरी के लिए थी आैर न ही किसी संस्था के राहत कार्यों का मददगारके रूप में थी। बल्कि यूं कहिए कि किसी सिरफिरे के संभाषण की तरह थी वह यात्रा, जिसका कोई अभिप्राय , उद्देश्य आैर अर्थ नहीं था । शायद इसके पीछे पीड़ितों के विलाप में शामिल होने या दूसरे के दर्द को खुद में महसूस करनी की अवचेतन प्रेरणा रही होगी। हालांकि यह ठीक-ठीक मैं आज भी नहीं कह सकता हूं। .... देयर इज अलवेज ए सेपरेशन, बिटवीन पर्सन हू सफर्ड एंड एन आर्टिस्ट हू किएट, एंड ग्रेटर द आर्टिस्ट ग्रेटर द सेपरेशन ...
... तो मेरे उस मित्र ने (जिसके साथ हमने स्कूल के दिनों में अनगिनत खच्छरई की थी आैर साथ मिलकर बसों के शीसे तोड़े थे आैर न जाने बाल बितण्डा के कितने कीर्तीमान रचे थे)े मुझे खगड़िया के बाढ़ग्रस्त गांवों को दिखाने का पूरा जिम्मा ले लिया। खगड़िया शहर छोड़ने से पहले उसने मुझे दस मिनट की एक बाढ़-बुलेटिन सुनायी आैर खुद को तरोताजा कर लिया। वह खबर बांच रहा था- खगड़िया तो डूबने के लिए ही बना है। हर साल डूबता-उमगता-कराहता है, इस बार भी डूब गया, तो तुम्हारे बाप का क्या गया ! सोनमा मुसहर की चारों भैंसिया कोशी में बह गयी आैर पीर आलम मियां के दोनों पोते मोइन में भसिया गये, तो क्या पटना में हवाई जहाजें नहीं उड़े ! पीर आलम मियां की बुढ़िया, पोते को ढूंढते-ढूंढते इतना बाैरा गयी कि एक दिन मानसी रेलवे स्टेशन पर खड़े ट्रेन की प्रतीक्षा कर रहे एक यात्री दंपति के बच्चों पर अपना दावा ठोक बैठी। बुढ़िया ही थी, पगला भी गयी तो क्या हुआ? कोपरिया स्टेशन के बगल की घटना है, जहां की पूरी बस्ती इन दिनों रेलवे लाइन पर आश्रय ली हुई है। मानसी-सहरसा रेलवे लाइन्स अभी भी चालू है। पूरा इलाका ट्रैक पर ही दिन-रात, धूप-बारिश बिता रहा है। गाड़ी गुजरने के समय लोग बगल हो जाते हंै फिर बीच ट्रैक पर खटिया डाल लेते हंै।
मैंने उसे बीच में टोकते हुए कहा अब चल भी यार ! अरे चलते हैं- पूरी खबर तो सुन लो, मन करे तो पेज पर लगाओ नहीं तो कूड़ेदानी में फेंक दो। लेकिन खबर पक्की है। इलाके के सभी विधायक पटना भाग गये हैं। अब चाैमासा के बाद ही आयेंगे। चाैमासी का भोज खाने। हां सुन लो, बस- टैक्सी नहीं मिलेंगे। पैदल चलना होगा या फिर नाव से। एक-एक आदमी का पचास-साै रुपये मांगेगा। बििस्कट, नमक, भूजा आदि अगर झोला में रखोगे तो कुछ रियायत मिल सकती है। ऐसा करते हैं कि कोशी का बांध धर लेते हैं आैर उसी के सहारे जहां तक हो सकेगा चलते चलेंगे। बांध की दोनों ओर जल ही जल है, जीवन उसके जकड़ में डिड़िया रहा है।
कोपरिया स्टेशन से लगभग 25 किलोमीटर उत्त्ार एक जगह साै-दो साै लोगों का समूह किसी फरिश्ता का इंतजार कर रहा था। हालांकि वह आने वाला नहीं था। वह तब भी नहीं आया जब बाढ़ राहत के नाम पर करोड़ों मारने वाले नेता केंद्र में मंत्री बन गये। हम भी उस समूह में शामिल हो गये। हमने पूरी कोशिश की , लेकिन हमारे चेहरे उनके जैसे नहीं हो सके। उनके चेहरे अनन्त अवसादों के वज्रगृह थे, जबकि हमारे चेहरे दर्द भरे अंत वाले सिनेमा देखकर सिनेमा हॉल से निकल रहे दर्शकों के जैसे थे। वे सभी पस्त थे आैर हम ठस्स। सहानुभूति की आंसू बनाने की कला हमें आती नहीं थी अगर आती तो शायद हम भी नेता सरीखे दिखते। खैर, वहां खड़े बच्चे-बूढ़े, आैरत-मर्द हर किन्हीं की आंखें गांव से लाैटती हुई नावों की ओर लगी थीं। पांच दिन पहले कोशी नदी ने उनके गांवों को अपने आगोश में ले लिया था। रात को अचानक नदी उफना गयी आैर देखते ही देखते लोगों के घरों के टाटों (कच्चे दीवार) को पानी ने छेद दिया। सोयी हुई बस्ती में हाहाकार मच गया। निंदाती बस्ती अचानक चुंधिया गयी। उठने-जगने और भागने का की वक्त नहीं दी निगोड़ी कोशी ने। जान बचाकर भागने की हड़बड़ी में सैकड़ों मवेशी खूंटे से बंधे रह गये। जबतक पानी उतरेगा तबतक तो उनकी लाशें भी सड़ जायेंगी।
अचानक मुझे एक साल पहले की एक घटना याद आ गयी। तब बाढ़ की रिपोर्ट के लिए मैं बाढ़ पीड़ितों से मिला था। बांध पर आश्रय लिए पीड़ितों में से कुछ युवक ने तब डूबे हुए गांव से बचा-खुचा समान लाने निकले नवीन नाम का एक युवक उस दिन हमारी आंखों के सामने देखते ही देखते नदी की धारा में समा गया था। उसे बचाने के लिए पांच युवकों ने पानी में छलांगें लगा दी थीं। आबै चियो भाई, आबि गेलयो भाई ... डरियै नै! लेकिन उन पांच में से दो ही वापस लाैट सके थे। तीन युवकों ने काफी देर तक पानी की तेज धारा से संघर्ष किया, लेकिन धीरे-धीरे वे बहते चले गये। जब उनके संघर्षरत हाथ दिखने बंद हो गये तो मेरे बगल में खड़ी एक बुढ़िया ने भगवान को नाम लेकर गाली दी थी...
वापस जब हम खगड़िया लाैटे तो मेरे साथी ने याद दिलाया, स्कूल के दिनों के उस पागल बूढ़े की, जिसे हमलोग अक्सर तंग किया करते थे । उसने बताया, दरअसल उस बूढ़ा का जवान बेटा भी इसी तरह बाढ़ में डूबकर मर गया था। तब से वह लगातार बाढ़ देवी के नाम पर यत्र-तत्र होम करते रहता है। वह बूढ़ा कहीं भी बैठ जाता आैर आम की कुछ सूखी डालियों को सुलगाकर उसमें लोटा से बूंद-बूंद पानी गिराता आैर बकता- इदम्‌ बाढ़म भ्यो नमः , इदम्‌ बाढ़म भ्यो नमः ...