मंगलवार, 26 अगस्त 2008
विधवा विलाप छोड़िये और तटबंध को बांधिये
रंजीत
कोशी और पूर्णिया प्रमंडल में आयी अभूतपूर्व और अप्रत्याशित बाढ़ को लेकर अब नेताओं ने विधवा विलाप करना शुरू कर दिया है। बिहार सरकार और उसका प्रशासनिक महकमा राहत और बचाव उपाय छोड़कर मगरमच्छी आंसू बहाने में जुटा हुआ है। नेता और अधिकारी की या तो मति मर गयी है या फिर उनका पुरुषार्थ खत्म हो गया है। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार समेत तमाम हुकूमती अमला इलाके को खाली करने का नपुंसक और तर्कहीन सलाह दे रहे हैं। इतना ही नहीं वे लोगों में पैनिक भी फैला रहे हैं। उनकी मति को शायद लकवा मार गया है या फिर वे राजशी सन्निपात के शिकार हो गये हैं। आखिर उन्हें ये बात समझ में क्यों नहीं आ रही कि जलप्लावित प्रखंडों के सारे सम्पर्क मार्ग खत्म हो चुके हैं। सुपौल, अररिया, मधेपुरा और पूर्णिया जिले के लगभग 20 प्रखंडों के 200 गांवों के सारे सम्पर्क मार्ग घ्वस्त हो चुके हैं। सरकार लोगों को भागने की सलाह दे रही है, क्या आपदाग्रस्त लोगों को सरकार के कहने पर पंख लग जायेंगे कि वे चिड़िया की तरह उड़कर बाहर निकल जायेंगे। न तो लोगों के पास नाव हैं और न ही प्रशासन के पास। तो फिर वे कैसे बाहर निकल जायेंगे? दूसरी बात यह कि जिन क्षेत्रों में पानी नहीं पहुंचा है या जहां से लोग अभी भी निकल सकने की स्थिति में हैं , ऐसे लोगों की संख्या लगभग 14 लाख के करीब है। ये चौदह लाख लोग आखिर कहां जायेंगे ? सहरसा शहर में पचास हजार अतिरिक्त लोगों को समायोजित करने की क्षमता नहीं है, जबकि खुद सहरसा भी महफूज नहीं है। लोग न तो पूरब की ओर जा सकते हैं और न ही दक्षिण और न ही उत्तर की ओर। पश्चिम की ओर जाने का तो कोई सवाल ही नहीं उठता क्योंकि उधर कोशी का विशाल और अभेद्यय दियारा है। सरकार की सलाह की सच्चाई यही है। दस दिन में जो सरकार दो सौ नावों की भी व्यवस्था नहीं कर सकी वे अगले दो-तीन दिनों में हजारों नाव लाकर लोगों को निकाल लेगी, ऐसी कल्पना कोई विक्षिप्त व्यक्ति भी नहीं कर सकता।
बाढ़ में फंसे लगभग 30 लाख लोगों को जलसमाधि लेने से रोकने का एकमात्र विकल्प है, टूटे तटबंधों की मरम्मत। जबकि इस ओर कोई ध्यान नहीं दिया जा रहाहै। यहां तक कि इसकी बात भी नहीं की जा रही है। ऐसा मान लिया गया है कि तटबंध को अभी बांधा ही नहीं जा सकता। लड़ाई लड़ने से पहले समर्पण करने का ऐसा कायरतापूर्ण मानसिकता भारत के पिछले एक हजार वर्ष के इतिहास में कभी देखा-पढ़ा नहीं गया होगा। आखिर क्यों नहीं बांधा जा सकता 1 लाख क्यूसेक की एक धारा को। जिस देश में समुद्र को बांधने की परियोजना के लिए सरकार तत्पर हो उस देश में नदी की एक धारा को नहीं बांधा जा सकता। ऐसा नहीं है कि इसकी तकनीक मौजूद नहीं है। तकनीक भी है और तरीका भी है। जरूरत है इच्छाशक्ति की। केंद्र सरकार चाहे तो एक सप्ताह के अंदर टूटे तटबंध को बांधा जा सकता है। हां, इसमें अतिरिक्त संसाधन जरूर लगेंगे और सेना के इंजीनियरों की मदद लेनी पड़ेगी। तो क्यों नहीं इसके प्रयास किए जा रहे। चीन के पास टूटे तटबंध को बांधने की उन्नत तकनीक मौजूद है अगर सरकार चाहे तो उससे भी मदद ली जा सकती है। लेकिन किसी को फिकर नहीं है। क्या यह बिहार का मामला है इसलिए या फिर यह ग्रामीण और पिछड़े इलाकों के लोगों का कष्ट है इसलिए ? सरकार का रुख देखकर तो ऐसा ही लगता है। मुंबई में बरसाती पानी से बाढ़ आ जाती है तो पूरा देश उसकी राहत में लग जाता है। लेकिन बिहार में 30 लाख लोग मौत के कगार पर खड़े हैं, लेकिन केंद्र सरकार के कानों पर जू तक नहीं रेंग रही।
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