मंगलवार, 19 अगस्त 2008

एक आदिम सच की तरह

रंजीत
यह तथ्य हमारे गांवों की है जिसकी पुष्टि गत दिनों इंग्लैंड के ससेक्स और कैंट शहर में हुई। इंग्लैंड के इकोनोमिक एंड सोशल रिसर्च काउंसिल के समाज शास्त्री रूपर्ट ब्राउन ने गत दिनों अपने एक वर्ष के गहन अनुसंधान का निचोड़ रखते हुए कहा कि किसी व्यक्ति को कट्टर या सेकुलर (धर्मनिरपेक्ष) बनाने में प्राथमिक विद्यालयों का बहुत महत्वपूर्ण योगदान होता है। ब्राउन साहेब ने आनुसंधानिक सर्वेक्षण के हवाले से कहा कि अल्पसंख्यक, बहुसंख्यक, उच्च जाति, निम्न जाति जैसी भावनाएं अगर बाल्यावस्था में एक बार पैदा हो गयीं तो वे ताजिन्दगी खत्म नहीं होंती। अगर किसी तरह चेतन मन से ये भावनाएं गायब भी हो गयीं तो भी अवचेतन में वे जिंदा रहती हैं और समय-समय पर पूर्वाग्रहपूर्ण व्यवहार के द्वारा अभिव्यक्त होती रहती हैं। प्राथमिक विद्यालय वह मंच है जहां बच्चों को ऐसी परिस्थितियों से सीधा सामना होता है , जहां वे विभिन्न जाति, धर्म और नस्लीय समुदायों के साथ साझा समय व्यतीत करते हैं। अगर विद्यालय का माहौल सेकुलर हुआ तो बच्चे के सेकुलर होने की संभावना काफी ज्यादा होती है। अगर माहौल उलट रहा तो भेदभाव की ग्रंथियां विकसित होने की भी पूरी संभावना रहती है।
जी हां, बाउन साहेब आप सही कह रहे हैं।आप सौ फीसदी सही फरमा रहे हैं। यह सर्वेक्षण अचानक मुझे अपने गांवों के पुराने प्राथमिक विद्यालय और मध्य विद्यालय की याद दिला गया। जहां नौवें वर्ग तक हमलोग अल्पसंख्यक, बहुसंख्यक, बैकवर्ड और फारवर्ड जैसे शब्दों से अपरिचित थे। हमलोग आपस में लड़ते-झगड़ते जरूर थे, लेकिन ऐसा एक भी वाकया मुझे याद नहीं आ रहा है जब हमने जाति या धर्म की किसी बात पर लड़ाई, झगड़ा या गुटबंदी की हो। दिमाग पर लाख जोर देने के बाद भी किसी शिक्षक का कोई ऐसा व्यवहार या वाणी याद नहीं आता जिनमें जाति या धर्म की कोई बू रही हो। हमारे शिक्षक छात्र-छात्राओं को उपनाम जरूर देते थे, लेकिन वे विद्यार्थियों की जाति या धर्म के सूचक नहीं होते थे बल्कि उनके बाह्य गुण-अवगुण के सूचक होते थे। मुझे गणित के शिक्षक मोहमद खुरशीद आलम (सर) याद आते हैं- वे तीव्र बुद्धि के इंसान थे और उनसे बड़ा सेकुलर व्यक्ति मैंने अपने जीवन में दूसरा नहीं देखा। वे वात्सल्य की प्रतिमूर्ति थे। वे संयोगवश भी किन्हीं विद्यार्थियों को उनके वास्तविक नाम से नहीं पुकारते थे। किसी को विभीषण कहते तो किसी को तेलचट्टा तो किसी को बनसियार, किसी को भूतनाथ तो किसी को गोनू झा तो किसी को मियां नसीरुद्दीन। उन्होंने एक दिन पान की एक दुकान पर पान खाते समय खड़े-खड़े घोषणा कर दी कि अगर बोर्ड की परीक्षा साफ-सुथरी हुई तो उनके पचास छात्र और दस छात्राएं ही पास कर पायेंगेऔर प्रथम श्रेणी में सिर्फ एक लड़का ही पास करेगा। मास्टर साहेब की यह सार्वजनिक घोषणा उनके बगल में खड़े इलाके के एक दबंग को पसंद नहीं आया और उसने उन पर एक जाति विशेष की तरफदारी करने का आरोप जड़ दिया। यह बात मास्टर साहेब को इतनी बुरी लगी कि उन्होंने उस व्यक्ति से कभी बात नहीं करने की कसम ले ली। वह व्यक्ति कालांतर में विधायक और मंत्री तक बन गये, लेकिन खुरसीद आलम सर ने उनसे कभी बात नहीं की।
हालांकि आज स्थिति पूरी तरह बदल चुकी है। जातिवाद और धर्मवाद की गंदी राजनीति उन विद्यालयों में भी सांप्रदायिकता की बीज पहुंचा चुकी है। प्राथमिक कक्षा के छात्र भी बैकवर्ड, फारवर्ड, मंदिर- मस्जिद , दंगा -फसाद के मायने समझने लगे हैं। मुझे एक अन्य घटना याद आती है। तब हम आठवें वर्ग के छात्र थे और उन दिनों भागलपुर में भीषण सांप्रदायिक दंगा हो रहा था। एक दिन हमारे वर्ग के एक छात्र ने समाज शास्त्र के शिक्षक से पूछ डाला था- दंगा क्या होता है, मास्टर साहेब ? मास्टर साहब ने इसका उत्तर कुछ यूं दिया था- जब आदमीपर पागलपन का भूत सवार हो जाता है तो वह दंगा करने लगता है .. .
मैट्रिक पास करने के बाद कॉलेज में प्रवेश किया तो पहली बार अगड़ा-पिछड़ा, मंदिर-मस्जिद का अर्थ समझ में आया। इस दौरान उच्च शिक्षा के दौरान विश्वविद्यालय और कॉलेजों में कई अवसरों पर विभिन्न गुटों में शामिल कराया गयाया मजबूरी और जिज्ञाशा में खुद भी शामिल हुआ। कभी जाति के आधार पर तो कभी धर्म के आधार पर। लेकिन मुझे ये गुट कभी रास नहीं आये। आज सोचता हूं कि आखिर यह कैसे संभव है कि मैं आज भी अपने कई दोस्तों की जाति नहीं जानता। जबकि कुछ के साथ दोस्ती हुये कई वर्ष बीत चुके हैं, लेकिन मैं उनकी जाति नहीं जानता। .. . शायद मेरे विद्यालय मेरे साथ चल रहे हैं, कर्म में भी और वचन में भी और जीवन में भी .. . एक आदिम सच की तरह यह मेरे जीवन में शामिल है। हमेशा, हमेशा, हमेशा .... किसी को हो न हो भारत को तो इसपर जरूर फक्र होगा।

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