सोमवार, 20 दिसंबर 2010

चीन के इशारे पर नाचता नेपाल

(प्रायोजित काररवाई: तिब्बती शरणार्थी पर जुल्म ढाती नेपाली पुलिस )

मुझे याद है कि पिछले साल जब मैं बदलते नेपाल के राजनीतिक-सामाजिक हालात पर रिपोर्टिंग करने के क्रम में नेपाल के लोगों से चीन के बारे में पूछता था, तो उनमें से अधिकतर भड़क उठते थे। कुछ लोग तो यह आरोप भी लगाते थे कि यह भारतीय लोगों की औपनिवेशिक मानसिकता है कि वह नेपाल-चीन के सामान्य रिश्ते को भी शक के नजरिये से देखते हैं। हालांकि, मुझे
पक्की जानकारी थी कि नेपाल पिछले पांच-दस वर्षों से चीन के इशारे पर नाच रहा है। अमेरिका में रहने वाले एक नेपाली महोदय ने तो मेरी भर्त्सना तक की। वैसे मैं नेपाल-चीन के संदिग्ध गठजोड़ पर सवाल उठाता रहा
माओवादी नेताओं के भारत विरोध अभियान के बाद, तो शक यकीन में बदलता प्रतीत हो रहा था। कई अवसरों पर माओवादी नेताओं ने अपनी हरकतों से इस बात के संकेत दिये थे कि वे चीन के इशारे पर भारत के खिलाफ साजिश रच रहे हैं। वे योजनाबद्ध ढंग से भारत के खिलाफ षडयंत्र रचने में निरंतर सक्रिय हैं। लेकिन नेपाल के पत्रकार और बुद्धिजीवी कभी भी इस आरोप को सच मानने के लिए तैयार नहीं हुये। इस विषय पर लिखने के कारण नेपाल के कुछ बुद्धिजीवियों ने मेरी जबर्दस्त आलोचना भी की थी। लेकिन अब विकीलिक्स ने सारे रहस्यों पर से पर्दा उठा दिया है। उसने नेपाल-चीन के नापाक गठजोड़ का भंडा फोड़ दिया है।
विकीलिक्स ने एक दस्तावेज जारी किया है, जिसके अनुसार नेपाल में चीन के विरोध में होने वाले तिब्बतियों के प्रदर्शन को कुचलने के लिए चीन वहां की सरकार पर धन की बारिश करता है। तिब्बती प्रदर्शनकारियों को कुचलने के लिए नेपाल सरकार पर दबाव बनाने के साथ चीन ने वहां की पुलिस को पैसे बांटकर कई तिब्बतियों को गिरफ्तार भी करवाया है। विकीलीक्स की ओर से जारी किए गए अमेरिकी विदेश मंत्रालय के गोपनीय संदेशों में यह बात सामने आयी है कि चीन की सरकार नेपाल के पुलिस अधिकारियों को नकद ईनाम देती है जो चीन छोड़कर भागने की कोशिश कर रहे तिब्बतियों को गिरफ्तार कर उन्हें चीन के हवाले कर देते हैं। दिल्ली स्थित अमेरिकी दूतावास से 22 फरवरी 2010 को अमेरिकी प्रशासन को भेजे गये इस गोपनीय संदेश में अज्ञात सूत्र का हवाला देते हुए कहा गया है कि चीन के दबाव में नेपाल निर्वासित शरणार्थियों पर नियंत्रण कस रहा है। दिल्ली डायरी नाम से भेजे गये इस संदेश को गोपनीय संदेश की सूची में रखा गया है।
संदेश में नेपाल के एक अखबार के हवाले से कहा गया है कि पिछले कुछ वर्षों के दौरान भारत में प्रवेश करने वाले तिब्बतियों की संख्या में कमी आयी है। बीजिंग ने काठमांडू से नेपाल की सीमा पर चौकसी बढ़ाने के लिए कहा है जिससे तिब्बतियों के लिए नेपाल में घुसना मुश्किल हो इसमें कहा गया है कि मार्च 2008 के बाद भारत में प्रवेश करने वाले तिब्बतियों की संख्या कम हुई है।
गौरतलब है कि नेपाल में करीब 20,000 तिब्बती शरणार्थी हैं और ल्हासा में 2008 में हुई हिंसा के बाद काठमांडू में चीन विरोधी प्रदर्शन होते रहते हैं। पश्चिमी देशों की ओर से नेपाल पर दबाव है, फिर भी नेपाल मानता है कि तिब्बत चीन का अभिन्न हिस्सा है। मुझे नहीं पता कि इस खुलासे के बाद भारत विरोधी नेपाली बुद्धिजीवियों की प्रतिक्रिया क्या होगी, लेकिन अब भारत को जरूर चौकन्ना हो जाना चाहिए, क्योंकि नेपाल में चीन का बढ़ता हस्तक्षेप भारत के लिए बहुत बुरा संकेत है।

शनिवार, 18 दिसंबर 2010

एक गाथा का समापन

आज समाजवादी धारा का एक निर्झर सोता सदा के लिएसूख गया। प्रसिद्ध समाजवादी नेता, विचारक और चिंतकसुरेंद्र मोहन हमारे बीच नहीं रहे। सुरेंद्र मोहन भारत के उनगिने-चुने नेताओं में थे, जो राजनीति को गुरु सामाजिक जिम्मेदारी मानते थे। वे समकालीन सत्तापिपाशु राजनीति के दौर के दुर्लभ नेता थे। मोह राष्ट्रीय आंदोलन के दौर मेंसमाजवादी आंदोलन से जुड़े थे और आजीवन इसके लिएकाम करते रहे। माजवाद में उनका विश्वास उतना हीअटूट था, जितना जड़ को जमीन पर विश्वास होता है। आज के दौर में जब समूचा राजनीतिक तंत्र भ्रष्टाचार में आकंठ डूबा हुआ है , तो राजनीति की इस काल कोठरी में सुरेंद्र मोहन किसी अपवाद पुरुष की तरह खड़े रहे और हमेशा बेदाग रहे।
सन्‌ 1948 में कांग्रेस में शामिल समाजवादी दल के नेताओं ने कांग्रेस से अलग होकर सोशलिस्ट पार्टी का गठन किया तो सुरेंद्र मोहन अंबाला में पार्टी के जिला सचिव बने। पार्टी ने उनकी लगन और विचारधारा के प्रति उनकी प्रतिबद्धता को देखते हुए 1960 में उन्हें युवा संचालक बनाया और बाद में वह पार्टी के सह-सचिव बनाये गये। सन्‌ 1977 में जब कांग्रेस, भारतीय लोकदल, भारतीय जनसंघ और सोशलिस्ट पार्टी को मिलाकर मोरारजी देसाई के नेतृत्व में जनता पार्टी का गठन किया गया, तो सुरेंद्र मोहन लाल कृष्ण आडवाणी के साथ नवगठित जनता पार्टी के महामंत्री बने। आपातकाल के बाद हुये चुनाव में जनता पार्टी को भारी बहुमत मिला और मोरारजी देसाई के नेतृत्व में केंद्ग में पहली गैर-कांग्रेसी सरकार बनी। सुरेंद्र मोहन को केंद्र सरकार में मंत्री बनाए जाने का प्रस्ताव दिया गया, लेकिन उन्होंने बड़ी विनम्रता से इसे ठुकरा दिया। एक साल बाद 1978 में वह बहुत मनाने के बाद राज्यसभा सदस्य बनने को तैयार हुये। 1979 में जनता पार्टी के विघटन होने के बाद मोहन चंद्रशेखर की अध्यक्षता वाली जनता पार्टी के महासचिव बने । सन्‌ 1988 में जनता पार्टी का जनता दल में विलय हो जाने के बाद वे जनता दल से जुड़े।सन्‌ 1990 में तत्कालीन प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने मोहन को पहले बिहार का राज्यपाल और बाद में राज्यसभा सदस्य मनोनीत करने का प्रस्ताव किया, लेकिन उन्होंने इसे ठुकरा दिया। 84 वर्ष की उम्र में भी वे आंदोलनधर्मी बने रहे। जनता के पक्ष में आखिरी सांस तक लड़ने वाला यह योद्धा आजीवन अपराजित रहा। वे न तो सत्ता से डरे, न ही सत्ता की वासना ही उन्हें अपनी ओर आकर्षित कर सकी। 17 दिसंबर को भी वे जंतर-मंतर पर एक धरने पर जाकर बैठे थे।
सुरेंद्ग मोहन के देहावसान के साथ ही भारत में समाजवादी विचारधारा की एक गाथा का समापन हो गया है। वे प्रेम भसीन, राजनारायण, मधुलिमये, मधु दंडवते, कर्पूरी ठाकुर, जॉर्ज फर्नांडिस (!) और रामसेवक यादव की समाजवादी श्रृंखला की अंतिम कड़ी थे। यह कड़ी आज हमसे अलग हो गयी। जब दुनिया समकालीन बाजारवाद से घुटन महसूस करने लगेगी, तो समाजवाद का पुनर्जन्म होगा। तब शायद सुरेंद्र मोहन की विरासत की पूरी दुनिया खोज करेगी। समाजवाद के इस योद्धा को नमन।

सोमवार, 29 नवंबर 2010

गरीब राज्य की अमीर विधानसभा


बिहार गरीब है, लेकिन बिहार विधानसभा में अब गरीबों के लिए जगह कम होती जा रही है। यह गरीब नेताओं के लिए नो एंट्री प्लेस बनती जा रही है। ठीक लोकसभा की तरह। अब देश की सर्वोच्च पंचायत- लोकसभा भारत की नहीं, बल्कि इंडिया का प्रतिनिध सदन बनकर रह गयी है। हाल में पंद्रहवें बिहार विधानसभा के लिए कुल 243 विधायक निर्वाचित हुये हैं और इनमें 47 विधायक करोड़पति हैं। गौरतलब है कि चौदहवीं विधानसभा में करोड़पति विधायकों की संख्या महज आठ थी। यह आंकड़ा विधायकों के शपथ पत्र पर आधारित है, इसलिए इसे अंतिम सच नहीं माना जा सकता। हकीकत में करोड़पति विधायकों की संख्या सवा सौ से ज्यादा होगी, क्योंकि यह बात अब किसी से छिपी हुई नहीं है कि शपथ पत्र में प्रत्याशी अपनी संपत्ति का सही ब्यौरा नहीं देते।
नवनिर्वाचित विधायकों का प्रोफाइल देखने पर और कई चौंकाने वाले तथ्य सामने आते हैं। देश भर में ऐसा प्रचार हो रहा है कि इस बार बिहार विधानसभा में दागी विधायकों का सफाया हो गया है, लेकिन शपथ पत्र के अनुसार, कुल 243 विधायकों में 141 आपराधिक मामलों के आरोपी हैं और उन पर विभिन्न न्यायालयों में मुकदमा लंबित है। दिलचस्प बात यह कि पिछली विधानसभा में सिर्फ 117 विधायकों के विरुद्ध ही आपराधिक मामले चल रहे थे। हां, नयी बात यह जरूर हुई है कि सत्ताधारी दल के टिकट पर चुनाव लड़ने वाले दागी प्रत्याशी तो इस बार विधानसभा पहुंच गये हैं, लेकिन विपक्षी पार्टियों के दागी उम्मीदवार इसमें असफल रहे।
इन तथ्यों से स्पष्ट है कि हालिया बिहार चुनाव में कोई सफाई-क्रांति नहीं हुई है, जैसा कि कहा जा रहा हां, इतना जरूर हुआ है कि इस गरीब प्रदेश की
विधानसभा अचानक अमीर जरूर हो गयी है। यह चुनाव में धन बल के बढ़ते प्रभुत्व का क्रांतिकारी उदाहरण है। संकेत साफ है कि देश का लोकतंत्र बहुत तेजी से पूंजीतंत्र में बदलता जा रहा है। अगर यह सिलसिला यों ही चलता रहा, तो आने वाले समय में चुनाव अमीरों का खेल बनकर रह जायेगा। उसमें आम नागरिक की भूमिका मतदान तक सीमित हो जायेगी। जिनके पास पैसा नहीं होगा, वे तमाम योग्यताओं-सरोकारों आदि के बावजूद जनप्रतिनिधि नहीं बन सकेंगे।

गुरुवार, 25 नवंबर 2010

विकास नहीं विकास की आस की जीत

बिहार विधानसभा चुनाव में एनडीए की जीत के विश्लेषण में राजनीतिक पंडित एक बार फिर सामान्यीकरण सिद्धांत का सहारा ले रहे हैं। बात को आसान बनाने के लिए वे बहुत आसानी से नीतीश की जीत को काम का इनाम कह रहे हैं। लेकिन यह आधा सच है। पूरा सच यह है कि एनडीए गठबंधन की जीत विकास की आस की जीत है। जनता ने नीतीश सरकार पर भरोसा किया है और उन्हें लगता है कि यह सरकार बिहार की तकदीर बदल सकती है। इस भरोसे के पीछे कुछ ठोस वजह है। अपने पहले कार्यकाल में नीतीश सरकार ने सड़क, स्वास्थ्य, शिक्षाा और विधि-व्यवस्था को सुधारने की जो कोशिश की , उसके कारण बिहार की जनता में एक विश्वास पैदा हुआ। जिस तरह अंधेरे में रोशनी का सूक्ष्म पुंज भी दूर से ही चिह्नित हो जाता है, उसी तरह नीतीश के थोड़े-से सुधार भी जनता को साफ-साफ नजर आये । चूंकि राजद के शासन में बिहार हर तरह से अंधकारमय हो गया था, इसलिए भी नीतीश के थोड़े काम की भी मैराथन चर्चा हुई। वैज्ञानिक दृष्टिकोण से यह विकास की आस का नतीजा है।

गुरुवार, 11 नवंबर 2010

न्यूट्रल वोटर्स लिखेंगे बिहार की तकदीर


देश के चुनावी इतिहास में नया अध्याय जोड़ने वाला बिहार विधानसभा चुनाव-2010 (जो यह बतायेगा कि विकास और गुड गवर्नेंस के नाम पर इस देश में चुनाव जीते जा सकते हैं या नहीं) के परिणामों के बारे में तरह-तरह के विश्लेषण-आकलन, अनुमान-पुर्वानुमान हो रहे हैं। हर मन में एक ही सवाल है कि बिहार में इस बार क्या होगा ? नीतीश का जादू चलेगा या फिर लालू-रामविलास की जोड़ी बाजी मार ले जायेगी? कहीं चंद्रबाबू की तरह नीतीश के विकासवाद की हवा तो नहीं निकल जायेगी ?
हालांकि अधिकतर एग्जिट पोल में राजग की जीत बतायी जा रही है, लेकिन किसी के पास अपनी बात के समर्थन में ठोस सबूत या तर्क नहीं हैं। सभी आकलन परंपरागत फॉमूर्ले पर आधारित हैं, जिनमें जातीय समीकरणों को मुख्य तर्क बनाया जा रहा है। नीतीश कुमार की सरकार की उपलब्यिों को बहस में शामिल तो की जाती है, लेकिन इसे परिणाम-निर्धारक बात नहीं मानी जाती। चूंकि एग्जिट पोल के सैंपल्स शहरी इलाके के हैं, इसलिए इसके आधार पर अगली विधानसभा की शक्लो-सूरत के बारे में साफ-साफ कुछ भी नहीं कहा जा सकता। ग्रामीण बिहार में इस बार मतों का रूझान इस कदर मिलाजुला है कि पड़ोस वाले को नहीं मालूम कि उनके पड़ोसी ने किस निशान पर बटन दबाया।
दूसरी ओर यह भी सच है कि बिहार में अभी जातीय समीकरण का अस्तित्व खत्म नहीं हुआ है और इस बार भी लगभग तमाम जातियों ने अपने-अपने परंपरागत जाति-प्रेम, गोत्र-मोह या पूर्वाग्रह में मतदान किये हैं। लेकिन यह ट्रेंड भी इस कदर जटिल है कि इसके आधार पर भी नहीं बताया जा सकता कि चुनावी पलड़ा राजद के पक्ष में झुकेगा या राजग के पक्ष में। वह इसलिए कि इस बार दोनों पक्षों का जातीय जनाआधार लगभग बराबर है। अगर यादव जाति राजद के पक्ष में इनटैक्ट है, तो कुर्मी-कोइरी राजग के पक्ष में और इन दोनों की संख्या-ताकत लगभग बराबर है। मुस्लिम और तथाकथित अगड़ी जातियों के मतों में विभाजन हुआ है और इन दोनों समुदाय के मत अच्छे-खासे प्रतिशत में कांग्रेस को मिले हैं, जो पिछले चुनाव में राजग को मिले थे। राजद को मुस्लिम मतों का नुकसान तो हुआ है, लेकिन इसका फायदा राजग को नहीं मिलने जा रहा। वहीं राजग को सवर्ण मतों का जो नुकसान हुआ है, उसकी भरपाई वे दलित मतों में सेंधमारी करके पूरा करते दिख रहे हैं। इस लिहाज से दोनों प्रमुख दल मसलन राजद और राजग मोटे तौर बराबर की स्थिति में है।
इसलिए इस बात की पूरी संभावना है कि इस बार बिहार विधानसभा की तस्वीर न्यूट्रल मतदाताओं के मतों से ही निर्धारित होगी। और यही मतदाता इस बार यह तय करेंगे कि बिहार में अगली सरकार किसकी बनेगी। गौरतलब है कि बिहार में ऐसी करीब एक दर्जन जातियां हैं, जो किसी भी दल का कट्टर समर्थक नहीं हैं। इनमें धानुक, बनिया, खतवे, सूड़ी, कमार-सोनार, कुम्हार, मालाकार, पनबाड़ी आदि प्रमुख हैं। ये बिहार की कुल आबादी के लगभग 16-17 प्रतिशत हैं। अगर मंडल के दौर को छोड़ दें, तो आज तक ये जातियां कभी भी किसी पार्टी का कट्टर समर्थक नहीं रही हैं। कोई संदेह नहीं कि इनका लालू यादव और उनकी राजनीति से मोह भंग हो चुका है और संकेत है कि इस चुनाव में इन जातियों के अधिकतर मत राजग को मिले हैं। अगर सच में एक मुश्त रूप में ऐसा हुआ है, तो नीतीश की वापसी तय समझिये। अगर ऐसा नहीं हुआ तो बिहार में त्रिशंकु विधानसभा की संभावना ही दिखती है, क्योंकि यह साफ है कि शहरी क्षेत्र में जद (यू)-भाजपा क्लीन स्वीप करने जा रही है। ग्रामीण इलाके में मुकाबला कांटे का है, इसलिए जिस पक्ष में ये न्यूट्रल जातियां झुकेंगी, वही अगले 24 नबंवर को पटना में झंडा फहरायेगा।

मंगलवार, 9 नवंबर 2010

वो सिर्फ ओबामा

वो प्रबल राष्ट्र
वो सबल समाज
जिनका अपना न कोई इतिहास
जिनका है यह अटल विश्वास
बिना शिकार
जीवन बेकार
देश बेकार
दुनिया बेकार
उस प्रचंड राष्ट्र के राष्ट्रपति
न हो सकते हैं यात्री
वो आये और लौट गये
संग 'चौर-चीत' भी लेते गये
अब सेंध पड़ेगा टाट में
सब कुछ होगा हाट में

मत समझो उसे सुदामा
वह सिर्फ ओबामा, सिर्फ ओबामा

शुक्रवार, 29 अक्तूबर 2010

जानकर अनजान बनने का दौर (वेल्थ ड्रेन के नये ट्रेंड्‌स पर एक खुदरा चिंतन)

कहते हैं कि दादा भाई नैरोजी के ड्रेन ऑफ वेल्थ सिद्धांत के प्रकाशन से पहले तक भारत के लोगों को नहीं मालूम था कि वे गुलाम हैं, जिसके कारण सालों-साल तक अंग्रेज भारत को अपना उपनिवेश बनाये रखने में कामयाब हुये। लेकिन आज का भारत उतना बदनसीब नहीं है। देश जागरूक हो गया है। आज लोगों को बाजार की गुलामी के बारे में पता है। हर जानकार और चिंतनशील लोग बाजार की गुलामी को समझ रहे हैं, लेकिन फिर भी विद्रोह की आवाज कहीं से नहीं उठ रही। तो कैसे मान लिया जाये कि हम जाग्रत समाज के नागरिक हैं।
बाजार की गुलामी किसी भी लिहाज से ब्रिटीश गुलामी से कम नहीं है। ढ़ाई सौ वर्षों में जितने धन अंग्रेज यहां से विदेश ले गये होंगे, उससे कई गुना ज्यादा धन आज देश से बाहर जा रहा है। स्विस बैंक की राशि, अंग्रेजों द्वारा बटोरी गयी राशि से कम नहीं होगी ! बाजार ने वेल्थ ड्रेन के नये द्वार खोल दिये हैं, भूंमंडलीकरण ने इसे वैधता का लबादा पहना दिया है। भारत में कुछ लोगों का जीवन-स्तर बढ़ रहा है, जिसके बहाने बाजार को न्यायसंगत ठहराया जा रहा है। याद रहे अंग्रेजी गुलामी के दौर में भी देश के कुछ लोगों के जीवन-स्तर लगातार उठते गये थे। बाजार टिकाउ और समरस विकास कभी नहीं कर सकता। यह इसके मौलिक कांसेप्ट में ही नहीं है। कोसी अंचल की एक कहावत है- अंधरा कें जागने कून , अंधरा कें सुतने कून।

मंगलवार, 26 अक्तूबर 2010

कुछ गूंगी और कुछ बहरी तस्वीरें

दहाये हुए देस का दर्द-69







यह कौन-सी जगह है, यह कैसा दयार है ? किसका निजाम है यह, यहां किसकी हुकूमत है ? इन चित्रों को देखकर आपके मन में भी ये सवाल उठ सकते हैं। जिनके जवाब हैं- यह पूर्वोत्तर बिहार के सुपौल-अररिया जिले का एक इलाका है, दो साल पहले कोशी की बाढ़ में ये पुल ध्वस्त हो गये थे, यहां पिछले पांच साल से तथाकथित विकास पुरुष नीतीश कुमार की हुकूमत है। अगली हुकूमत के लिए जनादेश संकलन का काम फिलहाल चल रहा है। कोशी अंचल में यह पूरा हो चुका है। चुनाव में ये तस्वीरें किसी दल के लिए मुद्दे नहीं थीं। किसी पार्टी के किसी नेता को ये तस्वीरें नजर नहीं आयीं । जी हां, अब तस्वीरें चुनाव के मुद्दे नहीं होते। सिर्फ और सिर्फ "नाम'' ही मुद्दा होता है। नेताओं के नाम ही मुद्दे होते हैं। मसलन एक मुद्दे का नाम नीतीश कुमार है, दूसरे मुद्दे का नाम लालू प्रसाद है, तीसरे का नाम राहुल गांधी है। लेकिन जनता है कि "नाम'' को ही मुद्दा मान बैठी है। मसलन नीतीश माने "विकास'', लालू माने "जातिवाद'' और राहुल माने "युवा''। मेरी खोपड़ी तो यही कहती है ! यह मौजूदा राजनीतिशास्त्रके सापेक्षवाद का सिद्वांत है, जहां गरीबी का गरीब से और तस्वीरों का तदवीर से कोई नाता-रिश्ता नहीं होता है। अगर यह सच नहीं होता, तो ये तस्वीरें इस चुनाव में हर जगह बोल रही होतीं ; इस कदर गूंगी-बहरी नहीं होतीं ।
(ये तस्वीरें सुपौल जिले के इंजीनियरिंग के एक छात्र सौरभ कुमार झा ने उपलब्ध करायी, उन्हें धन्यवाद)

बुधवार, 20 अक्तूबर 2010

पहली परीक्षा कोशी में








दहाये हुए देस का दर्द-68


चुनाव
की महिमा अपरमपार है। यह ऐसा शय है कि राई को पर्वत और चोटी को खाई बना दे। जहां बारहों महीने अमावश्या रहता हो, चुनाव वहां पूनम का चांद चमका सकता है। इसलिए अगर चुनाव के दौरान कोशी में मुझे काशी दिख रही है, तो आपको चकित नहीं होना चाहिए। हालांकि कोशी और काशी में कोई साम्य नहीं, लेकिन मुझे इन दिनों कोशी में काशी का नजारा दिखाई दे रहाहै ।

काशी में कोने-कोने से लोग मुरादें लेकर आते हैं। बाबा विश्वनाथ सामने माथा टेकते हैं । भगवान को खुश करने के लिए पंडा को चढ़ावा देते हैं और अपने-अपने घरों को लौट जाते हैं। वैसे कोशी में ऐसा कोई तीर्थस्थान नहीं है, इसलिए बड़े लोग सकारण भी इधर का रुख नहीं करते। भले ही कोशी में कोई प्रतापी मंदिर न हो, लेकिन यहां बिहार विधानसभा की साढ़े तीन दर्जन "जाग्रत' सीटें जरूर हैं। बिहार का चुनावी इतिहास बताता है कि जिस पार्टी को कोशिकी माई का आशीर्वाद मिलता है वही पाटलिपुत्र की सत्ता पर विराजती है। कोशी जिस पार्टी की ओर मुड़ गयी उसका कल्याण हो गया, जिससे मुंह मोड़ लिया उसका सर्वनाशतय है। इसलिए यहां पिछले डेढ़-दो पखवारे से तरह-तरह के वेश-भूषा में भांति-भांति के "चुनावी श्रद्धालु ' पहुंच रहे हैं। सोनिया से लेकर राहुल तक और लालू से लेकर तेजस्वी तक कोशी में चुनावी तीर्थाटन कर चुके हैं। वोटर भगवान को बड़े-बड़े वादे कबूल चुके हैं। सभी चुनावी श्रद्धालु वोटर भगवान को खुश करने के लिए चुनावी पंडाओं (दलाल, माफिया, ठेकेदार ) को भारी चढ़ावा कर रहे हैं। आज रात इसका क्लाइमेक्स होगा क्योंकि कल सुबह ईवीएम के पट खुलेंगे। गांवों में पिछले कई शामों से दारू-शराब की "कोशी' बह रही है आज शाम वह कई जगह "बांधों' को तोड़ देगी।
यह संयोग नहीं, बल्कि शांत क्षेत्र (गैर-नक्सल) होने का तोहफा है कि निर्वाचन आयोग ने इस बार बिहार विधानसभा चुनाव का आगाज कोशी से किया है। वैसे यहां सामान्य दिनों में शासन के तमाम अवसर, योजना- आयोजना और सुविधाएं सबसे बाद में पहुंचते हैं और कभी-कभी कोशी की सीमा में दाखिल होने से पहले ही पूरे हो जाते हैं। कोशी तक आते-आते सरकारों (राज्य और केंद्र दोनों सरकार) की तमाम "नदियां' सूख जाती हैं। पूर्व रेल मंत्राी ललित नारायण मिश्र के निधन के बाद इस इलाके में रेलवे की एक इंच नयी पटरी नहीं बिछी। पांच दशक में पर व्यक्ति सड़क और पर कैपिटा इनकम लगभग स्थिर है। बिजली सपने में और रोजगार पंजाब-हरियाण-दिल्ली में मिलते हैं। यह लिस्ट इतनी लंबी है कि मैं इस पर एक किताब लिख रहा हूं।
बहरहाल चुनावी मौसम है, तो चुनाव की ही बात करते हैं। कोशी में कल यानी 21 अक्तूबर को मतदान होने हैं। प्रचार खत्म हो चुका है। सभी पार्टियों के प्रचार का फलाफल "जीरो बटे सन्नाटा' है। हालांकि कोशी के लोगों को नहीं मालूम कि विकास किस चिड़िया का नाम है, लेकिन सत्ताधारी दल पूरे डेढ़ महीने तक यहां नीतीश-राग में विकास के कोरस गाते रहे। लोग कोशी की प्रलयंकारी बाढ़ के मलहम की उम्मीद लगाये बैठे थे, लेकिन सरकार ने उन्हें विकास का बेसुरा संगीत सुनाकर आराम करने की सलाह दी। वे यह भूल गये की दोजख में जन्नत की बात किसी को समझ में नहीं आती और प्रसव पीड़ा की बात में कुंआरियों की दिलचस्पी नहीं हो सकती। सत्ताधारी नेता साथ में यह आश्वासन भी देते गये अगली बार मुकम्मल इलाज करेंगे। कोशी की प्रलयंकारी बाढ़ को राष्ट्रीय आपदा कहकर मुकर जाने वाली कांग्रेस और उसके नेता एंटी नीतीश-राग गाकर ही अपने कर्त्तव्यों से इतिश्री कर लिये। लालू का क्या कहना, वे तो बाढ़ को गरीबी का सौगात मानते हैं। बाढ़ पीड़ितों को याद है कि उन्होंने एक बार कहा था,"बाढ़ तो गरीबों के लिए वरदान है। बाढ़ में गरीबों को सिंगी-मांगूर, कब्बई, गरई मछली मिलती है। अगर बाढ़ें नहीं आयेंगी तो गरीबों को ये मछलियां कभी नसीब नहीं होंगी।' खुद को ठेठ देहाती कहने वाले लालू को शायद नहीं मालूम कि अब बाढ़ में मछलियां नहीं आतीं, क्योंकि इन्हें इनके उद्‌गम में ही खत्म कर दिया गया है।
बहरहाल, कुछ घंटे बाद ही कोशी में मतदान आरंभ होने वाला है, तो मेरे जेहन में कई सवाल उठ रहे हैं। कि इस बार कोशी के मतदाता क्या करेंगे, किधर जायेंगे? जहां तक उनके मूड को मैं समझ पाया हूं, कोशी के लोग उदास हैं। कुछ-कुछ हताश भी। उनका सभी दलों से मोहभंग हो चुका है। इसलिए यहां इस बार निर्दलीयों की अच्छी संभावना है। चूंकि लोग हताश-उदास है, इसलिए मतदान का प्रतिशत बहुत कम रहेगा। हालांकि लोग सत्ताधारी दल को भी पसंद नहीं करते, लेकिन वे खाई और कुआं की तर्ज पर राजद-लोजपा के बदले जद (यू) और भाजपा की ओर ही जायेंगे। लेकिन सबसे बड़ी बात यह कि इस बार कोशी में कांग्रेस का पुनर्जन्म होने वाला है। उसे सीट तो ज्यादा नहीं मिलेगी, लेकिन हर इलाके में अच्छा-खासा वोट मिलेगा। इसका संकेत पिछले लोकसभा चुनाव में भी देखने को मिला था, जिसका फायदा कांग्रेस उठा नहीं सकी। अगर वह कोशी की उपेक्षा को लक्ष्य करके केंद्रीय स्तर से कुछ पहल करती तो आज इस इलाके में कांग्रेस की तस्वीर कुछ और होती। लेकिन ग्रास रूट तक पहुंचने की बात करने वाले राहुल गांधी को किसी ने यह बात शायद नहीं बतायी। राजनीतिक रूप से जागरूक कोशी के मतदाता को यह हकीकत भी मालूम है। देखना है कि इस बार कोशी बिहार के ताज पर किसे बिठाती है, क्योंकि यहां जिसे बहुमत मिलेगा, वही बिहार में अगली सरकार बनायेगा। इसमें कोई संदेह नहीं। नेतागण कृपया इतिहास देख लें।

शुक्रवार, 8 अक्तूबर 2010

समूचा शहर बहुरुपिया होगा


उल्के जलने लगे हैं
तकिया भींगने लगा है
अक्सर देर से आती है नींद
उधर अंधेरे में गुम हो गये
बुझते हुए उल्के के अग्निचिह्न
अब दिन में नहीं आता कोई शायर
इसलिए नींद में आता है एक युवक
यही कोई 19-20 साल का
उसने देखा है जंगल
कोई दस साल से
शहर में रमा है
संसद को गमा है
" उजला आदमी, काला आदमी, हरा आदमी, लाल आदमी
सुबह का आदमी, शाम का आदमी
दिन का आदमी, रात का आदमी
आदमी-आदमी, किते आदमी ''
का पहाड़ा पढ़ा है

++


कोई दरवाजे पर फेंक देगा एक अखबार
सचिवालय के बाबू
हवा खाने निकलेंगे
औरतों की लंबी कतारें
टपकते नलों पर टूट पड़ेंगी
और सुबह हो जायेगी
जिससे निकलेगा एक दिन
जो रात से भी काला होगा
हर चेहरे पर लग जायेंगे नकाब
पूरा शहर बहुरूपिया होगा
बच्चे का टिफीन, मैडम खा जायेंगी
मैडम भी शाम तक साबूत नहीं बचेंगी
नहीं
पता
अगली रात नींद कब आयेगी !

बुधवार, 29 सितंबर 2010

फणीश्वरनाथ रेणु के पुत्र हुए भाजपा उम्मीदवार

बिहार विधानसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने एक बड़ी तीर मारी है। उसने कोशी अंचल की फारबिसगंज विधानसभा सीट से कालजयी कथा शिल्पी फणीश्वरनाथ रेणु के बड़े बेटे पदमपराग राय बेणु को अपना उम्मीदवार बनाया है। सवाल उठ सकता है कि इसमें बड़ी बात क्या है ? लेकिन यह बड़ी बात है। यह कई कारणों से बहुत बड़ी बात है। पहला कारण तो यह कि रेणु जीवनपर्यंत समाजवादी विचारधारा से जुड़े रहे। रेणु ने अपने जीवन काल में कभी भी कांग्रेस और भाजपा (तब जनसंघ) का समर्थन नहीं किया। वे इन दोनों पार्टी के कट्टर आलोचक रहे। यही कारण है कि रेणु के पुत्र का भाजपा में जाना, आश्चर्य में डालता है। उल्लेखनीय है कि रेणु खुद सक्रिय राजनीति में भाग लेने के समर्थक थे और उनका मानना था कि सियासत में प्रत्यक्ष रूप से शामिल हुए बगैर समाज को बदला नहीं जा सकता। उन्होंने फारबिसगंज के बगल में स्थित बथनाहा विधानसभा सीट पर सोश्लिस्ट पार्टी के उम्मीदवार के रूप में चुनाव भी लड़ा था, लेकिन वे जीत हासिल नहीं कर सके। कई लोगों को यह बात अजीब लग रही है, लेकिन पदमपराग की नजर में भाजपा सबसे बेहतर पार्टी है। उनका कहना है कि देश की वर्तमान चुनौतियों से निपटने मेंभाजपा से बेहतर पार्टी आज कोई नहींहै
दूसरी ओर फारबिसगंज के स्थानीय लोग भाजपा के इस फैसले से हैरत में है। पढ़े-लिखे समझदार लोगों को भी विश्वास नहीं हो रहा है कि आज के दौर में कोई पार्टी जातीय समीकरण को नजरअंदाज कर उम्मीदवार का चयन कर सकती है। गौरतलब है कि फारबिसगंज के जातीय समीकरण में पदमपराग कहीं फिट नहीं बैठते। लेकिन भाजपा ने यहां अपने सीटिंग विधायक लक्ष्मीनारायण मेहता और उनकी जाति को दरकिनार करके बेणु को टिकट दिया है। जबकि पूर्व भाजपायी विधायक मायानंद ठाकुर ने लोजपा का दामन थाम लिया है। फिर भी भाजपा को उम्मीद है कि बेणु को अपने पिता की प्रतिष्ठा और लोकप्रियता का भरपूर फायदा मिलेगा। मैंने जब इस मुद्दे पर फारबिसगंज के अपने कुछ मित्रों से बात की, तो उनका कहना था कि बेणु को पढ़े-लिखे लोग रेणु के पुत्र के रूप में जानते हैं और मानते हैं कि उसकी जीत रेणु जी को सम्मानित करने जैसी होगी। इसलिए पढ़े-लिखे लोग तमाम लाइन्स को छोड़कर उन्हें मत देंगे। लेकिन यह फॉर्मूला अल्पसंख्यक मतदाताओं पर लागू नहीं होगा क्योंकि इस इलाके में धार्मिक ध्रुवीकरण साल-दर-साल बढ़ता ही गया है। बांग्लादेश से होने वाले घुसपैठ के कारण इलाके की जनसांख्यिकी तेजी से बदल रही है, जो कई तरह के विवादों को जन्म दे रही है और इलाके के पारंपरिकसांप्रदायिक सौहार्द्र को सांप्रदायिक धु्रवीकरण में बदल रही है।
जो भी हो, अपने गांव औराही हिंगना के मुखिया पदमपराग के लिए विधानसभा चुनाव लड़ना आसान नहीं है। वे धनबल और जातिबल दोनों में कमजोर हैं। लेकिन इसमें कोई दोमत नहीं कि बेणु की उम्मीदवारी को लोग रेणु के सम्मान से जोड़कर देख रहे हैं और उस इलाके में भाजपा के इस कदम की खूब प्रशंसा हो रही है।

सोमवार, 20 सितंबर 2010

24 साल में 44 बार


By Dinesh Kumar Mishra
The Gandak breached its right embankment in village Semaria of Barauli block of Gopalgunj district in Bihar on the 19th September. This is the 44th breach in the Gandak embankment since 1987 and the according to the Annual Report of the Water Resources Department (WRD) of Bihar as 43 breaches are reported before 2010 floods.
The river had played havoc in 2002, 2004 and 2007 also and the same is going to be repeated this year too. Since the WRD cannot maintain the embankments and tried to prevent the water from flowing into the protected countryside for the past few days by building sand walls, which it chooses to call ring bundh or a retired line. It was this retired line that collapsed yesterday, the main embankment had already given way on the 16th.
Life of the people living in Gopalganj, Siwan and Saran is at stake just as it was in the Kosi basin a couple of years ago. The Government, however, can cpme out with an excuse that it cannot maintain the embankment that were constructed way back in 1750s by Dhausi Rai, a deputy of Nawab Mir Kasim of Bengal.
But before that excuse is given, the onus now falls on the Disaster Management Department DMD of the state to take care of the people hit by floods which essentially means distribution of relief and enforcing provisions of CRF and NCCF apart from plugging the breach in collaboration with WRD. A repeat exercise of Kusaha on the Kosi is in offing and the state machinery is gearing up for the same and talks about Mega Relief Camps are already in air. Relief is the second best option in such cases of dealing with the rivers but it is slowly progressing to the top post.
Vrinda Prasad Rai ‘Virendra’ , referring to the floods of the Kosi and Kareh, way back in 1966 had said in Bihar Vidhan Parishad, “…Yoy have built embankments on the Kosi and Kareh without making any provision for the escape of excess water… You enjoy watching the people in distress and you also enjoy distributing relief among them. This is what you have been doing for the past nineteen years.” Vrinda Prasad Rai is not there with us any more but his words still resonate in the ears of any right thinking person even after sixty three years and not nineteen years of independence.
Unfortunately, there is nobody left in the political sector to advise the Government on those lines. We all clamour for relief and get it as a matter of right now. How simple the solution is made out to be? Distribute relief after any foreseeable disaster and then pat your own back for helping the people and the people, in turn, forgetting that the basic reason for their miseries is one who is distributing relief, return the gesture by sending one to parliament or legislature.
Much before what Vrinda Prasad Rai had said in 1966, Ram Briksha Benipuri, a famous literary figure of Bihar had cautioned the Government (Bihar Vidhan Sabha) in 1956 saying, :…There are people in this country who always keep on look for emergencies and profit from them. They know that if the October rains fail, relief distribution would start and they start making rounds visiting the collectors, SDOs and ministers. These sharks wait for the opportunity that they will have a big fun once the relief operations start.
I suggest that an all party relief committee should be formed to keep a vigil on the relief operations and all precautions taken to prevent the vested interests taking advantage of the situation. You remember that sometimes ago when flood relief was in progress, criminal cases had to be instituted against 150 persons. I must say, if the relief operations are to be carried out, they should be carefully executed so that the history is not repeated.”
It is also a poser for the NGOs and their donors who presume that it is none of their business to go into the causes of the disaster. That the people are in distress and need help, they must be given. It is a job only half done if they shy away from going into the reasons of the disaster, learn their lessons and act accordingly.
(Dinesh Kumar Mishra is an Eminent Hydro-Scientist and Convenor of Brah Mukti Abhiyan, Bihar)

शनिवार, 18 सितंबर 2010

Prisoners of Kosi

A pair of guard dams built inside the embankments of the Kosi river has now put at stake the survival of nearly 70,000 residents of 52 villages located in Nirmali and Saraigarh Bhaptiahi blocks of Supaul district. The structure acts as a bow-shaped funnel designed to make a 15 km wide river pass through a narrow 1.8 km passage underneath a rail-cum-road bridge being constructed at Sanpataha, Nirmali. The rise in the water level caused due to funneling of the high intensity flows of Kosi water through the narrow passage has led to full or partial submergence of 52 villages in Nirmali and Saraigarh Bhaptiahi blocks of Supaul district in Bihar.

Current situation (August 24, 2010)

Most of the affected habitations have been abandoned by their residents. Thousands of affected villagers have fled and taken refuge on the highways and embankments. Some have moved to villages that are not fully submerged yet. Nearly every household has someone with fever, Diarrhea or other water-borne diseases. No relief has been provided to people marooned in the villages, who are facing acute starvation and surviving with great difficulty. Supply of PDS commodities has been completely stalled in the area for several months. With the Govt. of Bihar declaring all the 38 districts drought-affected and with the electoral code of conduct likely to be imposed any day in the run-up to the elections to the legislative assembly, people have little hopes of receiving any support from the government.

Premonitions of being wiped away weigh heavy in the minds of the inhabitants of the area. The submergence of the 52 villages came about at a moderate discharge of around 1.5 lakh cusecs of water through the Kosi barrage in Nepal, which is less than a fifth of the peak rate of discharge through the barrage. According to villagers, the situation wasn’t so grim even in 1969 when over 9 lakh cusecs of water had been discharged through the barrage. Now with the guard dams subjecting them to face sudden spurts in water level, they have no option but to make up their minds to move away to other areas, abandoning their community relationships, legacies of the past and household resources!

Larger issues

The rail-cum-road project was sanctioned and initiated without any assessment of social, human or environmental costs of the bridge. Although a technical assessment was carried out, it doesn’t even mention the name of any human habitation falling in the course of the river. Several of the assumptions and projections made in the technical assessment have already proved to be faulty. Needless to say, neither any sections of local communities or elected local representatives were consulted before or during the process of construction of the guard dams, nor was any compensation ever offered to them! Even basic information regarding the likely implications of construction of the dams was denied to them.

The most critical issue relates to accountability for any probable calamities caused by the guard dams in future. Inhabitants of the area, mostly illiterate, labour-dependent rural people, know that a catastrophe has already been scripted and thrust upon them without their consent. However, it’s difficult for them to reverse the decisions taken or to change the course of things. If a calamity were to occur in future, no one is likely to be held accountable.

The injustice comes as a double blow to people, who have been forced to live with floods for nearly sixty years, since the Kosi embankments were constructed. For over three generations, people have been deprived of due compensation for their losses and successive governments have been treating the area enclosed between the embankments as virtually a no man’s land, despite its occupancy by over a million inhabitants of 380 villages, fragmented across multiple electoral constituencies and thus not forming a vote bank large enough to interest the political class.
(courtesy- Causes)

मंगलवार, 14 सितंबर 2010

टिकट दीजिए, हमहूं लड़ेंगे चुनाव

शत्रुघ्न बाबू अपनी पंचायत के मुखिया हैं। माफ कीजिए, मुखिया नहीं, मुखिया-पति हैं, लेकिन उनके समर्थक उन्हें मुखिया जी कहकर ही बुलाते हैं। पूर्णिया जिले की कसबा सीट से राजधानी पटना पहुंचे हैं। उन्हें टिकट चाहिए। उमाशंकर बाबू, जिला पार्षद हैं, वे भी पिछले पांच दिनों से पांच बोलेरो गाड़ी के साथ पटना में कैंप कर रहे हैं। उमाशंकर बाबू को भी टिकट चाहिए।
मुखिया को टिकट चाहिए, वार्ड मेंबर को टिकट चाहिए। प्रखंड समिति के मेंबरों को टिकट चाहिए और जिला परिषद वाले को तो चाहिए ही चाहिए।
दुखू को भी चाहिए और सुखू को भी चाहिए। यादव जी को चाहिए, महतो जी को चाहिए। पासवान जी को चाहिए तो राम जी को क्यों नहीं चाहिए। किसी बात की कमी नहीं है। टका है, गाड़ी है, अच्छी चुनावी जाति में जन्म लिए हैं, नारे लगाने के लिए चमचे हैं, गोली चलाने के लिए गुंडे हैं, तो विधायक का चुनाव क्यों नहीं लड़ सकते?
"लड़ेंगे तो जरूरे, साला टिकसवा मिले या न मिले। एक सिंबल नहीं मिलेगा, (मूछ पर ताव देकर) तो राम शरण यादव चुनावे नहीं लड़ेगा, बिहार में ? गजबे कहते हैं जी !'
लालू जी से डांट खाकर राजद कार्यालय के बाहर आये नेता जी ने यही कहा था, अपने समर्थकों को। मुझे आदमी दिलचस्प लगा, तो मैंने कहा- "अभी तो आप छोड़ा-माड़र (युवा) हैं। अगर राजद के सही कार्यकर्ता हैं, तो पार्टी की सोचिए। टिकट के लिए इतने बेचैन क्यों हैं ?
रामशरण ने ईमानदारी का परिचय देते हुए एक ईमानदार बात कह दी, बोला-"ई युग में पार्टी की कौन सोचता है जी, सब अपने लिए सोचता है। हमको नहीं मालूम है कि पार्टी जीतेगी, तो मुख्यमंत्री के बनेगा ? जाइये-जाइये, उचितवक्ता नहीं बनिये। जब हमहूं एमएलले बन जायेंगे, तो आइयेगा इंटरभू लेने।'
"... तो क्या निर्दलीय लेड़ेंगे ?'
"अगर टिकट नहीं देंगे तो का करेंगे, बिना टिकटवे के न लड़ेंगे। चुनाव कौनो इनकी रेलगाड़ी है कि गिरफ करवा देंगे। देखियेगा न जमानत जभ (जब्त) करवा देंगे, सबकी... '
"रामशरण बाबू ! जिंदावाद (करीब दस समर्थकों की आवाज)।'
पुलिस आती है। भीड़ को भगाती है। भीड़ भागती है, लेकिन भागकर फिर वहीं पहुंच जाती है, जहां पहले थी।
दरअसल, इन दिनों बिहार की राजधानी पटना में राजनीतिक पार्टियों के कार्यालयों के आसपास ये नजारे आम हैं। ऐसा लगता है मानो ये राजनीतिक पार्टियों के कार्यालय न होकर कोई नियोजन कार्यालय हो, जहां देश के नौजवान नौकरी के लिए टूट पड़े हों। टिकटार्थियों की भीड़ से राजधानी की सड़कें गुलजार हैं। जिस होटल में जाइये, किसी भी रेस्टोरेंट में जाइये, सफेद कुर्ता-पायजामाधारी मिल जायेंगे। यही कारण है कि पार्टियों को उम्मीदवार तय करने में पसीना छूट रहा है। एक-एक सीट से कई सौ आवेदन मिले हैं।
जिन लोगों ने दस-बीस वर्ष पहले की राजनीति कोदेखी-सुनी है, उन्हें सहसा विश्वास नहीं होता कि बिहार में राजनीति की नर्सरी अचानक इतनी समृद्ध कैसे हो गयी ? कि अब वार्ड सदस्य भी विधानसभा चुनाव लड़ने के लिए आतुर है। इसका मतलब राज्य में ग्रास रूट लेबल पर जरूर कोई-न-कोई राजनीतिक क्रांति हो गयी है। जी हां, "क्रांति' ही तो हुई है। अब तो पंचायतों के बजट भी करोड़ों में पहुंचने लगे हैं। भ्रष्टाचार देवी की कृपा से मुखिया भी लाखों में खेलने लगे हैं। प्रमोशन कौन नहीं चाहता। अब जब पॉकेट में पैसा आ गया है, तो मुखिया बने रहना उन्हें मंजूर नहीं।
आप पूछेंगे कि इतना पैसा गांव जा रहा है तब तो जनता का भी कल्याण हुआ ही होगा? इसका जवाब पाने के लिए आपको बिहार के गांवों में जाना होगा। गांव जाने पर एक-से-एक किस्से सुनने को मिलेंगे। नरेगा के बारे में! अंत्योदय के बारे में! बीपीएल-एपीएल के बारे! शिक्षक नियुक्ति से लेकर आंगनबाड़ी की सेविकाओं की नियुक्ति की रामकहानी के बारे में! और इन सारे किस्सों को क्लाइमेक्स एक जैसा होगा। ... पैसा तो पंडा ले गया, जनता निर्माल बिछ रही है! घरवाली क्या करती, छाली तो थाली खा गयी, साली !
और जनता ?
अरे उसका क्या ! वो तो आज भी बारहों महीने खरजीतिया करती है। नहीं समझे ? चार सांझ उपवास और एक सांझ भोजन।

सोमवार, 6 सितंबर 2010

तो कांग्रेस का क्या होगा

झारखंड में एक और राजनीतिक नाटक की पटकथा लिखी जा रही है। सत्ता खोकर, सत्ता के लिए बेकरार झामुमो और भाजपा में गलबहिया हो रही है, जिसके हमजोली सुदेश महतो भी बन गये हैं। ये तीनों मिलकर बहुमत का आंकड़ा बनाने में लगे हुए हैं। वैसे फार्मूला तो पुराना है, लेकिन इसे फिर से बनाया गया है। जो लोग कहते हैं कि काठ की हांडी दोबारा नहीं चढ़ती, उन्हें मुहावरा बदल देना चाहिए। ये तीनों दल एक बार फिर काठ की हांडी में सत्ता की रसोई बनाने के लिए पूरी तरह तैयार हो गये हैं। अगर कोई बड़ा उलटफेर नहीं हुआ (जिसकी गुंजाइश झारखंड में हमेशा रहती है), तो आने वाले दिनों में देश भर की जनता झारखंड में एक और राजनीतिक प्रहसन देखेगी। यह 2005 के ऐतिहासिक प्रहसन से भी ज्यादा नाटकीय हो सकता है। इसकी संभावना इसलिए भी प्रबल है कि कांग्रेस किसी भी सूरत में राज्य में नयी सरकार बनते देखना नहीं चाहतीऔर न ही खुद सरकार बनाना चाहती है। ऐसी स्थिति में पूरी संभावना है कि राज्यपाल भाजपा-झामुमो-आजसू के दावे को नहीं मानेंगे। वे बहुमत के दावे पर तरह-तरह के सवालिया निशान लगायेंगे। चूंकि आज के दौर में राज्यपालों का स्वविवेक तो कुछ होता नहीं, इसलिए पूरी संभावना है कि झारखंड के राज्यपाल वही करेंगे जो उन्हें "दिल्ली' से कहा जायेगा।
प्राप्त सूचना के मुताबिक, कांग्रेस ने झारखंड की आगामी राजनीति का एक कैलेंडर तैयार कर लिया है। इस कैलेंडर में कहीं भी नयी सरकार के गठन का जिक्र नहीं है। कांग्रेस राष्ट्रपति शासन में कुछ लोकलुभावन काम कर सीधे चुनाव में जाना चाहती है। इसके लिए उसने बकायदा एक रोड मैप तक बना लिया है। अगर नयी सरकार बन गयी, तो कांग्रेस के सपने का क्या होगा ? उसके रोड मैप का क्या होगा ?
इसलिए लगता नहीं कि राज्यपाल किसी गैरकांग्रेसी गठजोड़ को सरकार बनाने की अनुमति देंगे। ऐसे में मामला राष्ट्रपति और न्यायपालिका तक पहुंच सकता है। जमकर जुत्तम-पैजार हो सकता है। सारे संकेत यही बताते हैं। अब आगे-आगे देखिये होता है क्या ?

बुधवार, 1 सितंबर 2010

रिश्ते की तासीर और आदमी

आत्मा के अंतस में होने लगती है गुदगदी
खिल उठते हैं, मन के फूल
वजूद बेखुद हो जाता है
और जैसे गर्म तवे पर उड़ जाती है पानी की बूंद
उसी तरह छन-छनाकर घुल जाता है हर एक इगो
तो जन्म लेता है कोई रिश्ता

जिसने अपने कलेजे में जना हो कोई रिश्ता
जिसने भोगा हो रिश्ते की प्रसव-पीड़ा
वे जानते हैं रिश्ते को
और उसकी तासीर को

हाय !
अब रिश्ते भी बनाये जाते हैं
जैसे बनाये जाते हैं पुल
नदी पार करने को
लगायी जाती हैं सीढ़ियां
चोटी तक जाने के लिए
कंधा दुखने लगता है
और आदमी
अपने रोये में डूब जाता है
+
एक आदमी, जो रिश्ते की मौत पर रो सकता है
वह नहीं ढो सकता, रिश्ते का बोझ
आदमी, जो रिश्ते पर मर सकता है
रिश्ते को, ढो नहीं सकता

सोमवार, 23 अगस्त 2010

बिना विचारे बिन पछताये

कोफ्त होती है, झल्लाहट और आक्रोश से मन भर जाता है, जब अपनी बिरादरी के लोगों को बार-बार बचकाना गलती करते देखता हूं। इसलिए नहीं कि ये गलती करते हैं, क्योंकि गलती किसी से हो सकती है। दुख तो इस बात का है कि आज पत्रकारों ने लापरवाही को अपना शगल बना लिया है। विषय को बिना जाने ही पन्ने रंग देते हैं, प्रक्रिया को समझे बगैर निष्कर्ष निकाल देते हैं। कोई अपराधियों को "अपराधकर्मी' लिखते हैं, कोई केंद्रीय रेल मंत्री लिख देते हैं। "सुप्रीमो' जैसे शब्द तो खैर अब मान्यता हासिल कर चुका है, लेकिन "बवाल काटना' का इस्तेमाल भी खूब हो रहा है। यहां तक कि कोई-कोई पत्रकार राज्यपाल-राष्ट्रपति से लोकसभा-विधानसभा में विधेयक तक पारित करवा देते हैं। संसदीय समिति की सिफारिश को कानून बता देते हैं । जांच आयोग की सिफारिश के आधार पर किसी को ऐसे दोषी ठहरा देते हैं, मानो आयोग कोई न्यायालय हो। सेना की गतिविधियों को भी प्रशासनिक कार्रवाई बताने से इन्हें गुरेज नहीं। चुनाव के समय कई संवाददाता सेना और अर्द्धसैनिक बलों को भी प्राथमिकी लेते बता देते हैं, जिन्हें नहीं मालूम होता कि जिला प्रशासन और सेना में क्या अंतर है।
अभी पीटीआइ के एक संवाददाता ने लिख दिया कि "नेपाल द्वारा पानी छोड़े जाने के कारण उत्तर प्रदेश में बाढ़'। साधारण-सी बात है कि नदी का पानी वही छोड़ सकता है, जिसके पास पानी स्टोर करने का मैकेनिज्म हो। नेपाल से निकलने वाली नदियों पर कहीं भी नेपाली बांध या बाराज नहीं है। जो इक्के-दुक्के बाराज हैं, उन पर भारत की सरकारों (राज्य सरकार) का पूर्ण नियंत्रण है, तो फिर नेपाल कैसे पानी छोड़ सकता है ? पता नहीं क्यों पत्रकार इस बात को समझने की कोशिश नहीं करते। जब कभी बिहार और उत्तर प्रदेश की नदियों में पानी बढ़ता है, संवाददाता लिखना शुरू कर देते हैं कि ऐसा नेपाल द्वारा भारी मात्रा में पानी छोड़े जाने के कारण हुआ। स्थानीय स्ट्रिंगर या संवादसूत्र द्वारा ऐसी गलती हो, तो बात समझी जा सकती है क्योंकि वे तकनीकी रूप से न तो प्रशिक्षित हैं और न ही उन्हें विषय को समझने का अवसर मिलता है। लेकिन पीटीआइ के संवाददाता अगर इस तरह की गलती करे तो उसे लापरवाही ही कही जायेगी। यही कारण है कि नेपाल के एक जल विशेषज्ञ रतन भंडारी ने इसे पीतपत्रकारिता कह दिया है। समाज के आंख-कान माने जाने वाले पत्रकारों का इस कदर अंधा और बहरा व्यवहार, पता नहीं मीडिया की छवि को किस रसातल पर ले जाकर छोड़ेगा।
रतन भंडारी का मेल


PTI's yellow journalism!!! Koshi, Gandak and Sarda (Banbasa), Tanakpur dams and barrages built by Govt of India just near Nepal-India border. All these controversial dams and barrages are based on equal treaties and fully control by Indian government!!! Govt of India taking all advantage from these projects. Indian Govt. has built other controversial dam called Girijapuri barrage which is located 20 KM downstream of the Nepal-India border!! So how can Nepal release water from these dam ????? nonsense news !!!!!


गुरुवार, 19 अगस्त 2010

स्वार्थ

गाय को नहीं करनी राजनीति
गाय को जरूरत नहीं
नौकरी-ठेकेदारी-प्रमोशन की
चमचा-लठैत या दलालों की
न ही गाय को बनना है
किसी अखबार का संपादक
या
किसी समारोह का चीफ गेस्ट
गाय
मेरा यारा-दिलदारा भी नहीं
बंधु-बांधव, सखा-सहेली भी नहीं
पर गाय, जो सचमुच 'गउ' है
जवाने में किसी से कम नहीं
गाय भी
हाथ में हरी घास देख, मुस्कुराती है
गरदन हिलाकर पास बुलाती है
पूंछ हिलाकर प्रेम जताती है
लेकिन
खाली हाथ जाने पर
पहचानने से इनकार कर देती है

सोमवार, 9 अगस्त 2010

धीरे-धीरे देश

धीरे-धीरे ही लगता घुन
एक दिन खत्म हो जाता है लकड़ी का वजूद
उम्र के साथ
बहुत मोटी हो जाती है
बचपन की कोमल चमड़ी
धीरे-धीरे बढ़ती है बेशर्मी
झरकल (जले हुए) चेहरे भी हो जाते हैं नुमाइशी
फेंक दिये जाते हैं ओट
उतर जाता है केंचुल
पर नहीं बदलता सांप
और
सांप का सच

जबकि उन्हें भी है पता
कि देश जमीन का एक टुकड़ा नहीं
लकड़ी-चेहरा-चमड़ी का ही दूसरा नाम है
जो धीरे-धीरे बनता है

शनिवार, 31 जुलाई 2010

रैली में आदमी

अखबारों ने कहा-
"वह इतिहास की सबसे बड़ी रैली थी''
लायी गयी औरतों ने कहा-
"प़ूडी के साथ जलेबी भी बासी थी''
वहां सब कुछ थे
माइक थे, मंच थे
मुद्दे और महंथ थे
रंग-विरंगे शामियानों में एक ही रंग के नारे थे

वे बांध रहे थे हाथ
और बाट रहे थे हथियार
तालियां पीटी जा रही थीं
और मेरे हिस्से की हवा तक बेची जा चुकी थी
उधर
चैनलों पर बलात्कार की तीन खबरें आ चुकी थीं
करीब डेढ़-दो सौ लोगों की "यात्रा''
बीच सफर में ही पूरी हो चुकी थी
कैमरे चमक रहे थे
लिहाफे में छिपे आदमियों के हाथ
जमाने भर में डोलने लगे थे
वे एक और जीत के करीब थे
और अट्ठारह, उन्नीस-बीस के कुछ छोकरे
दीवाने हुए जा रहे थे
वे लगभग "क्रांति'' के करीब थे
मानो सचिन तेंदुलकर ने छक्का मार दिया हो
या विपाशा बसु ने उनके ही जिगर पर बीड़ी सुलगा ली हो

गजब की भीड़ थी, भाई
पर
वहां एक अदद आदमी नहीं था
अपराधबोध से बचने के लिए
मैंने याद की एक भटकी हुई नदी को
डूबती बस्ती को
और
बाढ़ में मारे गये वोट को
उस बुढ़िया को भी
जिसका बेटा अब भी मोर्चे पर मुस्तैद है

मैंने कल्पना की
आदम-जात की अंतिम बांझ स्त्री की
और इस तरह
मैंने बचा ली एक कविता
मेरे पास कोई और उपाय भी तो नहीं था, भाई

शुक्रवार, 23 जुलाई 2010

सुनो तो क्या कहती हैं ये पागल नदियां

दहाये हुए देस का दर्द- ६७
नेपाल स्थित हिमालय से निकलकर बिहार में बहने वाली नदियां बौरा गयी हैं, पगला गयी हैं। ये चीख रही हैं, लेकिन उन्हें तो कोई सुन रहा है, कोई समझने की कोशिश कर रहा है। परिणाम यह है कि ये नदियां पागल हाथी की तरहअपने रास्ते छोड़कर रिहायशी इलाके में दाखिल होकर तांडव मचा रही हैं। हाल में ही अररिया, किशनगंज होकर बहने वाली महानंदा की सहायक नदी बकरा ने अररिया जिले के कुर्साकाटा प्रखंड में राह बदल लिया और पलक झपकते दर्जनों गांव को अपनी चपेट में ले लिया। यही हाल कनकई का भी है । दरअसल पूर्वोत्तर बिहार में कोसी और मेची के सामांतर कम-से-कम 20 छोटी और मध्यम लंबाई की नदियां बहती हैं । ये नदियां कभी बदनाम नहीं थीं , लेकिन नेपाल में जैसे-जैसे जंगल को खत्म किया जा रहा है, वैसे-वैसे ये नदियां खतरनाक होती जा रही हैं।गौरतलब है कि पिछले एक दशक से नेपाल में बड़े पैमाने पर जंगलों की वैध-अवैध कटाई हो रही है। माओवादी इंसर्जेंसी के दौर में इसकी शुरुआत हुई थी, जो अब पाराकाष्ठा पर पहुंच गयी है। जंगलों की सतत कटाई के कारण अब बड़ी तेजी से हिमालय की चट्टान कट-कटकर इन नदियों में समाहित हो रही है। इसके कारण तमाम नदियों में गाद की मात्रा में भारी वृद्धि हुई है। ये गाद नदियों के बेड को ऊंचा कर रही है, जिसके कारण नदियों का प्रवाह बुरी तरह प्रभावित हो रहा है और ये नदियाँ यत्र-तत्र अपने रास्ते से भटक रही हैं । (साल भर पहले मैंने पब्लिक एजेंडा पत्रिकामें इस पर विस्तृत रिपोर्ट लिखी थी, जिसे इस स्टोरी के नीचे लगा रहा हूं। ताकि सनद रहे।)
यही कारण है कि बकरा नदी ने कोशी का इतिहास दोहरा दिया है। कोशी की तरह बकरा ने भी अपनी मुख्य धारा को छोड़ पुराने मार्ग को अपना लिया है। अररिया के कुर्साकाटा और सिकटी प्रखंड की सीमा पर पीरगंज गांव केपास इस नदी ने कुर्साकाटा-सिकटी पथ को तोड़ बीते बुधवार को अपना रास्ता बदल लिया। परिणामस्वरूप दोनों प्रखंडों के लगभग एक दर्जन गांव का अस्तित्व संकट में है। पीरगंज गांव अब इतिहास बनने की ओर अग्रसर है।कटाव के कारण सिकटी प्रखंड का जिला मुख्यालय से सड़क संपर्क भंग हो गया है। बकरा के रास्ता बदल लेने के कारण हजारों एकड़ में लगी जूट धान की फसलें बरबाद हो चुकी हैं। नदी के रास्ता बदलने से सिकटी प्रखंड केडैनिया, खुटहरा, तीरा खारदह, पड़रिया, पिपरा, नेमुआ, पोठिया, रामनगर, बेलबाड़ी, कुर्साकाटा प्रखंड के पीरगंज, मेघा, भूमपोखर तथा पलासी प्रखंड के धर्मगंज, भट्टाबाड़ी, जरिया खाड़ी, छपनिया, काचमोह, कोढ़ेली सहित तीनदर्जन गांवों में बाढ़ का पानी लगातार फैल रहा है। नये रास्ते की तलाश में बकरा का पानी किनारों को छोड़ कर अगल -बगल के खेतों से बहने लगा है।

करे कोई और भरे कोई


नेपाल स्थित हिमालय के जंगलों में वृक्षों की अंधाधुंध कटायी के कारण आने वाले समय में उत्तर बिहार और उत्तर प्रदेश की नदियां और भीषण शक्ल अख्तियार करेंगी। इसके कारण पर्यावरण असंतुलन के साथ-साथ भूकंप और भू-स्खलन के खतरे भी उत्पन्न होंगे। रंजीत की रिपोर्ट


रतवा, कनकई, बूढ़ी कनकई, मउराहां, बकरा, परमान, नूना, लोहंदरा, खुर्राधार, चेंगा, कौल, मेची, गेहूंमा, त्रिशुला, भूतही बलान, बछराजा, करेह, बंगरी, खिरोई, दुधौरा, बुढ़नद आदि-आदि । यह सूची बहुत लंबी है। आम आदमी की बात तो छोड़ें अगर देश के नदी विशेषज्ञों से भी पूछा जाये कि वे इन नामों से परिचित हैं, तो शायद उनमें से अधिकांश कोई जवाब न दे पाये। दरअसल, ये उत्तर बिहार में बहने वाली छोटी-छोटी नदियों के नाम हैं। नेपाल स्थित हिमालय की विभिन्न पर्वत-श़ृंखलाओं से निकलने वाली ये नदियां मुख्य तौर पर महानंदा, कोसी, कमला और गंडक की सहायक नदियां हैं। पांच वर्ष पहले तक इन नदियों से बाढ़ नहीं आती थी। लेकिन पिछले कुछ वर्षों से ये नदियां भी अपने-अपने तटबंधों को तोड़ रही हैं और उत्तर बिहार में कहर बरपा रही हैं। सबसे चिंताजनक बात तो यह कि बिहार के किशनगंज, कटिहार, पूर्णिया और अररिया जिले से होकर बहने वाली कनकई, रतवा, बकरा, परमान, नूना और मउराहां जैसी भोली-भाली नदियों ने इस बार रौद्र रूप धारण कर लिया है। इसके परिणामरूवरूप सामान्यतया बाढ़ की विभीषिका से मुक्त रहने वाले इलाके भी इस बार भीषण बाढ़ की चपेट में हैं। स्थानीय लोगों को समझ में नहीं आ रहा कि आखिर माजरा क्या है। नदियों के बदले रूप को लेकर वे अचंभित हैं और पूछते फिर रहे हैं कि कल तक दोस्त रहने वाली नदियां अचानक दुश्मन क्यों बन बैठी हैं?
भले ही राज्य और केंद्र की सरकारें इस सवाल पर मौन हो, लेकिन इसका जबाव ढ़ूंढना उतना मुश्किल नहीं है। दरअसल, ये हिमालय के बिगड़ते पर्यावरण का नतीजा है। सबसे हैरत की बात तो यह कि यह कोई प्राकृतिक घटना नहीं, बल्कि मानव निर्मित आपदा है। विस्तृत खोजबीन और अध्ययन से पता चलता है कि पिछले कुछ वर्षों में नेपाल स्थित हिमालय के जंगलों में हो रही वृक्षों की अंधाधुंध कटायी इसकी सबसे बड़ी वजहहै। वृक्षों की कटायी के कारण हिमालय में भू-अपरदन बढ़ रहा है जिसके परिणामस्वरूप उत्तर बिहार की नदियों में गादों की मात्रा में आशातीत वृद्धि हो रही है। इससे नदियों की गहराई तेजी से घट रही है और पानी वहन करने की उनकी क्षमताएं दिनोंदिन कम होती जा रही हैं। कुछ वर्ष पहले तक जो नदियां महीनों की बारिश से भी नहीं उफनती थीं आज हिमालय में होने वाली महज दो दिन की तेज बारिश से ही तटबंधों को तोड़ दे रही हैं। गौरतलब है कि इस बार बिहार में तटबंध टूटने का नया इतिहास रच गया है। इस बार कोसी और गंडक को छोड़कर बिहार की लगभग हर नदियों के तटबंध एक से ज्यादा जगहों पर टूट गये हैं।
वैसे बढ़ते तापमान के कारण हिमालय के हिमनद (ग्लैशियर) और उसके पर्यावरण व पारिस्थितिकी पर मंडरा रहे खतरे को लेकर पहले भी चिंता प्रकट की है। चीन के राष्ट्रीय मौसम विभाग के प्रमुख और अंतरराष्ट्रीय ख्याति के मौसम वैज्ञानिक झेन गुओगुमांग ने दो साल पहले एक अनुसंधान के हवाले से कहा था कि बढ़ते तापमान के कारण हिमालय के ग्लैशियर तेजी से पिघल रहे हैं। इसके कारण हिमालय से निकलकर भारत में बहने वाली नदियों में पहले बाढ़ आयेगी और बाद में ये नदियां सूख जायेंगी। लेकिन हिमालय के जंगलों की कटायी और उसके परिणामस्वरूप उत्पन्न होने वाले पर्यावरण और पारिस्थितिकी के संकट की ओर अभी तक ज्यादा ध्यान नहीं दिया गया है, जबकि रिकार्ड बताते हैं कि नेपाल स्थित हिमालय के जंगल हर दिन सिकुड़ रहे हैं। नेपाल सरकार के वन विभाग से मिली सूचना के मुताबिक, वहां जंगल का क्षेत्रफल 270 हेक्टेअर प्रतिदिन की दर से घट रहा है। पिछले 17 वर्षों में वहां जंगल के क्षेत्रफल में 11 लाख 81 हजार हेक्टेअर की कमी हुई है। पिछले चार-पांच वर्षों में जंगल के सफाये की दर में भारी वृद्धि हुई है और यह 2.5 फीसद प्रति वर्ष की रफ्तार से कम हो रहे हैं। वर्ष 2005 से 2007 की अवधि में वहां कुल 7 लाख हेक्टेअर जंगल को खत्म कर दिया गया। इस मसले पर नेपाल के वन विभाग के महानिदेशक कृष्ण चंद्र पौड़ाल ने कुछ समय पहले इस संवाददाता से कहा था, "हिमालय के जंगलों को अवैध तरीके से कब्जा किया जा रहा है और जंगलों में बस्तियां बसायी जा रही हैं। जंगलों पर माफियाओं का कब्जा बढ़ता जा रहा है। वृक्षों की अंधाधुंध कटायी हो रही है और इसे देश-विदेश के बाजारों में बेचा जा रहा है।'
गौरतलब है कि माओवादियों के विद्रोह के दौरान नेपाल के जंगलों से वन विभाग के कार्यालय हटा लिये गये थे। उन दिनों कुल 74 जिला वन कार्यालयों में से 40 को माओवादियों ने ध्वस्त कर दिया था और जंगल के अधिकांश हिस्से सरकार के नियंत्रण से बाहर चले गयेथे। इसके बाद तो नेपाली जंगलों पर सशस्त्र गिरोहों का कब्जा हो गया, जो आज भी जारी है। रौताहाट, कैलाली,बांके, नवलपरासी, कंचनपुर, चुरू, सिरहा, बारा, सप्तरी, मोरंग और सुनसरी जैसे जिले के जंगलों के अधिकांश हिस्से आज भी सरकारी नियंत्रण से बाहर है। पूर्वी नेपाल के एक जिले के वन अधिकारी ने तो यहां तक कहा कि सुनसरी, सप्तरी, मोरंग, कंचनपुर और नवलपरासी, चुरू और दादेलधुरा के 75 प्रतिशत जंगल साफ हो गये हैं। उक्त वन अधिकारी कहते हैं, "नेपाल की लकड़ियां तिब्बत, भूटान, बिहार, उत्तर प्रदेश से लेकर चीन के शहरों तक पहुंच रही हैं। तिब्बत में बनने वाले लगभग हर घर में नेपाल की लकड़ी लग रही है।'
नेपाल में जंगलों की स्थिति किस कदर दयनीय हो गयी है, इसका अंदाजा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि पिछले दिनों वहां वन विभाग के एक विशेषज्ञ दल ने सरकार को सुझाव दिया कि जंगल संरक्षण लिए प्रस्तावित संविधान में प्रावधान किए जाये। दल ने कहा कि सांवैधानिक प्रावधानों द्वारा यह सुनिश्चित हो कि देश के 40 प्रतिशत हिस्से में हमेशा जंगल मौजूद रहे। पिछली मई में रौताहाट के जंगलों में वृक्षों की अंधाधुंध कटायी की जांच नेपाल के तत्कालीन वन मंत्री मात्रिका प्रसाद यादव ने खुद की थी, लेकिन भारी राजनीतिक दबाव के कारण वह कोई कार्रवाई नहीं कर सके। स्थिति यह है कि जंगल माफियाओं को कमोबेश सभी राजनीतिक पार्टियों का समर्थन हासिल है। इस मुद्दे पर फेडरेशन ऑफ कम्युनिटी फारेस्ट यूजरर्स ग्रुप, नेपाल (एफओसीएफजी) के कार्यकारी निदेशक घनश्यमाम पांडेय कहते हैं, "राजनीतिक पार्टियां जंगली जमीन अपने-अपने समर्थकों को खुलेआम बांट रही है। पिछली माओवादी सरकार ने हजारों एकड़ जंगल की जमीन अपने समर्थकों के बीच बांट दी। इससे पहले सन्‌ 2000 में भी तत्कालीन सरकार ने हजारों एकड़ जंगली जमीन अपने समर्थकों को बांटी थी। अब तो यह एक परंपरा-सी हो गयी है कि वोट लेना है, तो जंगल की जमीन का इस्तेमाल करो।'
उल्लेखनीय है कि नेपाल के जंगल, उत्तर बिहार और उत्तर प्रदेश से होकर बहने वाली दर्जनों छोटी-बड़ी नदियों का जल-संग्रहण क्षेत्र हैं। जल-संग्रहण के इन इलाकों से जैसे-जैसे वृक्ष खत्म हो रहे हैं वैसे-वैसे भू-अपरदन की रफ्तार तेज हो रही है। वैसे भी मध्य हिमालय की चट्टान काफी कमजोर और भूरभुरी मिट्टियों वाली है और इसका दक्षिण की ओर तीखा ढलान है। इसका परिणाम यह होता है कि हिमालय की पर्वत श़ृंखलाओं से अपरदित होने वाले खरबों टन बालू, कंकड़, चट्टान, मिट्टी और कीचड़ सीधे-सीधे उत्तर बिहार और उत्तर प्रदेश की नदियों में गिर रहे हैं और नदी की गहराई को कम करते जा रहे हैं।
हालांकि हाल के वर्षों में किसी भी सरकारी या गैर-सरकारी संस्था ने इन नदियों में गादों की बढ़ती दर पर कोई विस्तृत शोध नहीं किया है, लेकिन कई भूगर्भशास्त्रियों और अभियंताओं का मानना है कि इसमें अभूतपूर्व वृद्धि हो रही है। नेपाल के पूर्व जल संसाधन मंत्री और "नेपाल वाटर कंजरवेशन फाउंडेशन' के अध्यक्ष और नामी अभियंता दीपक ग्यावली कहते हैं, "सिर्फ कोसी नदी में प्रति वर्ष लगभग एक हजार लाख घनमीटर गाद जमा हो रही है और हर वर्ष इसकी मात्रा में बढ़ रही है। इसके कारण नदी का तल आसपास के धरातल से औसतन पांच फीट ऊंचा हो गया है।' गौरतलब है कि सन्‌ 1982 में एमएस कृष्णन ने कोसी की गाद पर एक अध्ययन किया था और पाया था कि इसमें प्रति वर्ष 100 लाख घनमीटर गाद जमा हो रही है। इसका अर्थ यह हुआ कि पिछले 26-27 वर्षों में इसमें दस गुना की वृद्धि हुई है। हाल में ही हिमालय से निकलने वाली नदियों की गाद पर आइआइटी कानपुर के भू-विज्ञान विभाग ने एक अनुसंधान किया है। इसके मुताबिक बढ़ती गादों के कारण गंगा नदी दुनिया की सबसे ज्यादा गाद ढोने वाली नदी बनती जा रही है। इसमें प्रति वर्ष 7 हजार 490 लाख टन गाद जमा हो रही है। इसके कारण गंगा की गहराई कम हो रही है और चौड़ाई बढ़ रही है। जाहिर बात है कि गंगा में ये गाद उसकी सहायक नदियों द्वारा ही पहुंच रही हैं। उल्लेखनीय है कि पिछले कुछ वर्षों में बिहार के मोकाम से लेकर भागलपुर के बीच गंगा के व्यवहार में एक बदलाव देखा जा रहा है। इस पट्टी में गंगा की चौड़ाई लगातार बढ़ रही है और उसके नये-नये प्रवाह-मार्ग विकसित हो रहे हैं। पिछले साल ही इसके कारण खगड़िया और नौगछिया और भागलपुर के पास सैकड़ों गांव नदी में विलीन हो गये थे।
ऐसा नहीं है कि गाद की बढ़ती मात्रा के कारण सिर्फ बाढ़ का ही खतरा है, बल्कि इससे आने वाले समय में भयानक भ-ूगर्भीय और तापमान वृद्धि के खतरे भी उत्पन्न हो सकते हैं। कई भू-गर्भ वैज्ञानिकों का मानना है कि अत्याधिक गाद आने के कारण गंगा के मैदानी इलाके में भू-स्खलन के खतरे उत्पन्न होंगे। स्थलाकृतियों में असंतुलन आयेगा जिससे भूकंप की संभावना बढ़ेगी। सबसे बड़ी बात यह कि हिमालय के सतत्‌ अपरदन के कारण नेपाल, भूटान, उत्तर भारत, तिब्बत और बांग्लादेश के मानसून पैटर्न भी बदल सकते हैं। इस मसले पर रांची विश्वविद्यालय के भूगर्भ शास्त्री नीतीश प्रियदर्शी कहते हैं,"हिमालय के भूगोल और पारिस्थितिकी के बदलाव का असर बहुत व्यापक होगा। इसके कारण बाढ़ से लेकर भू-कंप तक आ सकते हैं और पूरे इलाके भौगोलिक तौर पर अस्थिर हो सकता है।'
यह जानकर आश्चर्य होता है कि जब पूरी दुनिया पर्यावरण असंतुलन और तापमान वृद्धि के खतरे से निपटने के लिए जंगल संरक्षण और वृक्षारोपण अभियान पर जोर दे रही है, तो नेपाल में जंगलों की कटायी चरम पर है। इससे भी हैरत की बात यह कि अभी तक भारत समेत विश्व समुदाय का ध्यान इस ओर नहीं गया है।

' दूरगामी खतरे ज्यादा भीषण होंगे
'

रांची विश्वविद्यालय के भूगर्भ वैज्ञानिक नीतीश प्रियदर्शी ने भू-अपरदन, सेडिमेंटेशन (गादीकरण) और पर्यावरण के विषय पर काफी अनुसंधान किया है। हिमालय में जंगलों की कटायी, सेडिमेंटेशन और भू-अपरदन की समस्या पर "द पब्लिक एजेंडा' के लिए रंजीत ने उनसे लंबी बातचीत की। प्रस्तुत है उसके मुख्य अंशः


सवालः
नेपाल स्थित हिमालय में जंगलों की कटायी, उससे होने वाले भू-अपरदन और हिमालय से निकलने वाली नदियों का आपस में क्या रिश्ता है ?

जवाब- बहुत घनिष्ठ रिश्ता है। लगभग दो करोड़ वर्ष पहले भारतीय भू-खंड और एशियाई भू-खंड के बीच भीषण टक्कर हुई थी जिससे हिमालय पर्वत का निर्माण हुआ। कालांतर में हिमालय की ऊंचाई बढ़ती गयी और इसका ढलान दक्षिण की ओर हो गया, जिससे उत्तर भारत में कई नदियां उत्पन्न हुईं। हिमालय इन नदियों का जल-संग्रहण क्षेत्र है, इसलिए यहां भू-अपरदन और सेडिमेंटेशन का खतरा हमेशा बना रहता है। जंगल के पेड़-पौधे-घास भू-अपरदन को रोकने में मदद करते हैं। यह वैज्ञानिक तौर पर स्थापित तथ्य है। जैसे-जैसे जंगल कम होते जायेंगे वैसे-वैसे नदियों में सेडिमेंट (गाद) की मात्रा बढ़ती जायेगी। इसके कारण नदियां अपने मार्ग बदलेंगी और भीषण बाढ़ लायेंगी। बाढ़ तो तात्कालिक खतरे हैं, इसके दूरगामी खतरे ज्यादा भीषण होंगे। भौगोलिक और भू-गर्भीय संकट भी उत्पन्न हो सकते हैं। इसके अलावा इस इलाके के पर्यावरण और पारिस्थितिकी में असंतुलन की स्थिति उत्पन्न हो सकती है।
सवाल- यह पर्यावरण, पारिस्थितिकी और भू-गर्भीय संरचना को कैसे प्रभावित कर सकता है ?
जवाब- हिमालय उत्तर भारत, नेपाल, भूटान, बांग्लादेश और तिब्बत के मानसून और जल चक्र को सीधे नियंत्रित करता है। अगर जंगलों की कटायी होगी तो ये चक्र बाधित होंगे। परिणामस्वरूप इन इलाके का तापमान बढ़ेगा, हिमालय के ग्लैशियर पिघलेंगे और पर्यावरण एवं पारिस्थितिकी नकारात्मक रूप से प्रभावित होंगे। सेडिमेंटशन के भार के कारण भू-गर्भीय संरचना पर असर पड़ता है। अब तो यह बात साबित हो चुकी है कि भारी सेडिमेंटेेशन के कारण भूकंप भी आ सकते हैं। भू-स्खलन की बात तो प्रमाणित हो चुकी है।
सवाल- सेडिमेंटेशन से भूकंप और भू-स्खलन ?
जवाब : भूगर्भ विज्ञान के नवीनतम अनुसंधान बताते हैं कि भारी सेडिमेंटेशन भूकंप की एक वजह हो सकती है क्योंकि यह पृथ्वी की अंदरूनी संरचना पर अतिरिक्त और असंतुलित दबाव पैदा करता है, जिसके लिए पृथ्वी तैयार नहीं होती। पृथ्वी की अंदरूनी संरचना में आने वाला कोई भी विचलन, भूकंप का कारण बन जाता है। जहां तक भू-स्खलन की बात है तो भू-अपरदन और सेडिमेंटेशन के कारण पृथ्वी पर पहले से मौजूद दरार (फॉल्ट) की चौड़ाई बढ़ती हैऔर अत्याधिक दबाब में आकर भू-खंड टूटकर अलग हो जाते हैं। सभी जानते हैं कि गंगा के मैदानी इलाके में कई दरार मौजूद हैं। हाल में ही नेपाल-किशनगंज की सीमा पर एक नदी में विशाल भू-खंड टूटकर गिर पड़ा जिसके कारण इलाके के कई गांव डूब गये।
सवाल- इससे कैसे निबटा जा सकता है ?
जवाब- जंगलों की कटायी तत्काल बंद करनी होगी और वृक्षारोपण अभियान चलाना होगा। कार्बनडाइआक्साइड गैस के उत्सर्जन में कमी लाकर हिमालय के ग्लैशियर को बचाय जा सकता है। हिमालय की पारिस्थितिकी और पर्यावरण के संरक्षण के लिए भारत और नेपाल को तत्काल संयुक्त कदम उठाना चाहिए।

(साभार - पब्लिक एजेंडा , अगस्त - २००९ )