सोमवार, 9 अगस्त 2010

धीरे-धीरे देश

धीरे-धीरे ही लगता घुन
एक दिन खत्म हो जाता है लकड़ी का वजूद
उम्र के साथ
बहुत मोटी हो जाती है
बचपन की कोमल चमड़ी
धीरे-धीरे बढ़ती है बेशर्मी
झरकल (जले हुए) चेहरे भी हो जाते हैं नुमाइशी
फेंक दिये जाते हैं ओट
उतर जाता है केंचुल
पर नहीं बदलता सांप
और
सांप का सच

जबकि उन्हें भी है पता
कि देश जमीन का एक टुकड़ा नहीं
लकड़ी-चेहरा-चमड़ी का ही दूसरा नाम है
जो धीरे-धीरे बनता है

2 टिप्‍पणियां:

दिगम्बर नासवा ने कहा…

पर आज देश को भी घुन लग गया है .... कहीं टूट न जाए ये भी लकड़ी की तरह .....

राजन अग्रवाल ने कहा…

बहुत खूबसूरत..