शुक्रवार, 30 अक्तूबर 2009

आदमी की उल्टी यात्रा

1
आदमी के भेष में जिंदा आदमी
बहुत दूर हो गया आदमियत से
हालांकि गलतफहमी बनी रही
कि वे एक पति , एक पत्नी , एक भाई और एक नागरिक हैं
कि उसके पास विश्वविद्यालय की बड़ी-बड़ी डिग्रियां हैं
कि उसके पास गाड़ी-बंगला और भारी एकाउंट भी हैं
लेकिन आदमी
बेकरार हो जाता अक्सर
शर्महीन संसर्ग के लिए
किसी जवान- गौरी-चिट्ठी नवयौवना के वास्ते तत्काल तलाक के लिए
किसी लंबे-तगड़े मनमाफिक हमविस्तर के वास्ते आखिरी मुकदमा के लिए
2
आदमी के भेष में जिंदा आदमी
आदमी के बीच था
पर आदमी नहीं था
वह हर रिश्तों से इतर
और तमाम एहसासों अनभिज्ञ था
जैसे अनजान होता है एक कुता, एक भेड़िया, एक भैंसा
अपने ही मां-बाप, भाई और बहनों से
3
आदमी के भेष में जिंदा आदमी
उत्तर-आधुनिक युग में था
वह नित नया कानून बनाता था
और उसे बेहिचक तोड़ता चला जा रहा था
वह हंसना भूल चुका था
और प्रेम करना भी
वह हर डर से निडर हो चुका था
रक्तों में नहाकर भी वह बेफिक्र था
जैसे कुछ हुआ ही नहीं
जैसे कुछ होगा ही नहीं
4
आदमी के भेष में जिंदा आदमी
बहुत दूर हो गया आदमियत से
और डार्विन सिद्वांत के
काफी नजदीक पहुंच चुका था
 
 
 

सोमवार, 26 अक्तूबर 2009

वीर भोग्या वसुंधरा

इन दिनों भारत और चीन के संबंधों को लेकर लगातर चर्चा हो रही है। प्रधानमंत्री की अरुणांचल यात्रा के बाद चीन ने जो बयान दिया, उससे पूरा देश हतप्रभ है। हालांकि हमारे नेताओं ने चीन के बयान का कड़ा प्रतिवाद किया है, लेकिन देश की सवा सौ करोड़ जनता सकते में है। देश के शीर्ष पत्रकार हरिवंश ने इस मुद्दे पर पिछले दिनों दैनिक प्रभात खबर में एक ऐतिहासिक आलेख लिखा है। हाल के कुछ समय में मैंने ऐसा विचारोत्तेजक आलेख नहीं पढ़ा है। यह आलेख दिलो-दिमाग को हिलाकर रख देता है और हमें आत्मघाती मुगालते से बाहर निकलने का संदेश देता है। इसमें स्पष्ट किया गया है कि कैसे चारित्रिक पतन एक राष्ट्र के तेज और स्वाभिमान को कुंद कर सकता है - रंजीत ।

भारत की रीढ़ पर हथौड़े पड़ रहे हैं, पर कहीं आह भी नहीं. केंद्र सरकार इस आह को तोपना-दबाना चाहती है. विपक्ष के लिए यह मुद्दा ही नहीं है. इस देश का पक्ष-विपक्ष मुद्दाविहीन है. एक ही सूत्र है, देश की राजनीति में कुरसी हथियाओ. देश की मीडिया कंज्यूमर क्लास बढ़ाने की होड़ में है. बुद्धिजीवी वर्ग अक्षम है. किशन पटनायक के शब्दों में कहें, तो एक अक्षम बुद्धिजीवी वर्ग जनसाधारण को दुर्बल और नपुंसक बना दे सकता है. इस तरह लाभ-लोभ और भोग में फ़ंसा भ्रष्ट बुद्धिजीवी वर्ग राष्ट्रीय चरित्र बिगाड़ता है और हमारा राष्ट्रीय चरित्र रह कहां गया है? हम बिकनेवाली भ्रष्ट कौम हैं. भ्रष्टाचार, कमीशन, वंश, परिवार और धन के लाभ के बीच फ़ंसा-उलझा हमारा शासक वर्ग, हमारी राजनीति और हमारा विजन.
नहीं तो भारत की धरती पर (दिल्ली) रह कर चीन ने हमारे साथ क्या सलूक किया है? एक अक्तूबर को चीन ने साम्यवादी क्रांति के 60 वर्ष मनाये. उसी दिन उसने अपनी वह ताकत दुनिया को दिखायी कि दुनिया सदमे में है. अमेरिका की सांस ठहरी हुई है. 60 वर्ष पहले जिस चीन ने दुनिया के अन्य देशों के हथियाये 14 विदेशी वायुसेना विमानों से अपने पहले परेड की शुरूआत की, उसकी आज यह ताकत? इस तरह के अधुनातन हथियार-9000 किमी दूर तक मार करनेवाले मिसाइल-प्रक्षेपास्त्र. खास न्यूक्लीयर मिसाइल और हाइटेक मिसाइलों का प्रदर्शन, बिना चालक के हवाई जहाज, आसमान में ही रिफ्यूलिंग करनेवाले जहाज, एक-से-एक खतरनाक बमवर्षक जहाज, जासूसी के लिए नये-नये हवाई जहाज हैं. इस दंभ और रूप के साथ नुमाइश की ये सभी चीजें चीन में ही बनी हैं. जिस दर्शक ने भी चीन की यह ताकत, शानो-शौकत और अधुनातन अस्त्र-शस्त्र देखा होगा, वह हतप्रभ और हैरत में होगा. उसकी उपलब्धि पर, पुरुषार्थ पर, राष्ट्रीय गौरव और अस्मिता के अहं पर.
पर भारत के लिए यह भी चिंता की बात न मानें. पर उसी दिन चीन के दूतावास ने दिल्ली में क्या किया? जम्मू-कश्मीर में रहनेवाले भारतीयों के लिए वीसा संबंधी अलग कागजात जारी कर रहा है. यानी भारत स्थित चीन के दूतावास ने अघोषित रूप से दुनिया को कह दिया है कि जम्मू-कश्मीर भारत का हिस्सा नहीं है. वह अलग मुल्क है. याद रखिए, अरुणाचल प्रदेश को तो वह अपना घोषित कर ही चुका है. वहां के लोगों को भी अलग वीसा देता है. उस राज्य में भारत के राष्ट्रपति-प्रधानमंत्री का कार्यक्रम होता है, तो चीन चेतावनी देता है और भारत उसे नाखुश नहीं करना चाहता.
जिस दिन चीन अक्तूबर क्रांति (एक अक्तूबर) की 60वीं साल गिरह मना रहा था, उसी दिन चीन से खबर आयी कि अब दुनिया के देशाों को अधुनातन शस्त्रों के लिए अमेरिका, रूस, फ्रांस, ब्रिटेन जर्मनी का गुलाम नहीं रहना होगा. चीन आज से दुनिया का बड़ा शस्त्र विक्रेता है. यह भी खबर आयी कि अमेरिकी एफ़-16 जैसे खतरनाक विमान, जो चीन ने बनाये हैं, वह पाकिस्तान को बेच रहा है. पाकिस्तान में 98 में हुए परमाणु विस्फ़ोट के बाद तो यह प्रमाणित खबर आ ही चुकी है कि पाकिस्तान का वह परमाणु बम चीन में बना था. एक अक्तूबर को नेपाल से यह भी खबर आयी कि नेपाल में चल रहे चीनी स्टडी सेंटर का इस्तेमाल भारत के खिलाफ़ जासूसी के लिए किया जा रहा है. भारत नेपाल सीमा पर ऐसी 30 चीनी फ़र्मे हैं, जिनमें से 24 भारत की जासूसी में लगी हैं.यह रा की रिपोर्ट है. नेपाल के माओवादी या प्रचंड कैसे चीन की भाषा बोल रहे हैं और भारत के खिलाफ़ विष उगल रहे हैं, यह दुनिया देख रही है. पाकिस्तान तो चीन की गोद में ही है. सैनिकों द्वारा भारत की सीमा पर हुए अतिक्रमण की घटनाओं पर नजर डालें, तो चीन के इरादे साफ़-साफ़ दिखाइ्र देंगे. भारत के वायुसेनाध्यक्ष कई बार सार्वजनिक बयान दे चुके हैं कि चीन इससे कई गुना ताकतवर है. यह कोई और नहीं कह रहा बल्कि जिन पर देश की सुरक्षा का दारोमदार है, वह सार्वजनिक चीत्कार कर रहा है. विषयांत्तर होगा, पर यहा एक चीज हम नोट कर लें कमजोर से कमजोर देश भी सरकारी या सार्वजनिक बयान नहीं देते कि हम कमजोर हैं. सेना के प्रमुख को न यह बयान देना चाहिए था, न सरकार को इसकी इजाजत. यह केंद्र सरकार के घटते प्रताप और राजनीति की अगंभीरता का सबसे बड़ा नमूना है. 26/11 की घटना यानी मुंबई में पाकिस्तानी हमलावरों-आतंकवादियों के हमलों के बाद नौ सेनाध्यक्ष का क्या बयान आया था? याद करिए, उससे अपनी नौसेना की क्षमता, काबिलियत, कार्यकुशलता और ताकत का सार्वजनिक एहसास हो गया? ब़दतर और अक्षम छवि जो दबी-दबी थी, उजागर हो गयी. कब से सेनाध्यक्ष लोग, राजनीतिज्ञों की तरह बयान देने के लिए अधिकृत हो गये? यह उनका काम नहीं है. यह सियासत का, सरकार का, संसद का, राजनीति का और समाज का मामला है. पर सब चुप हें, न सरकार ने और न विपक्ष ने कहा कि यह क्या हो रहा है? बयानबाजी, वह भी सेना प्रमुख अंदरूनी कमजोरी की बात खुले आम कहें, तो पस्त और निराश देश और हताश होगा. उन्हें चुपचाप सरकार को अपनी अंदरूनी कमजोरी बतानी चाहिए थी. पर इस देश की राजनीति तो पटरी से उतर गयी है. इसलिए ऐसे संवेदनशील सवालों पर राजनीति, समाज और बुद्धिजीवी वर्ग खामोश हैं.
ऊपर से सितम यह कि मीडिया में चीनी घुसपैठ की खबरें छपती हैं, तो राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार एम के नारायणन मीडिया को उपदेश देते हैं कि वह चीन-भारत के बीच अप्रिय हालात पैदा कर रहा है? क्या मीडिया के कारण चीन का यह दर्प दिखाई दे रहा ह ? सरकार कहती है कि सब सामान्य और ठीक है. क्या मीडिया अरूणांचल, जम्मू-कश्मीर को भारत से अलग करार दे चुका है? क्या मीडिया पाकिस्तान को बम और बमवर्षक जहाज दे रहा है, क्या मीडिया कह रहा है कि नेपाल में चीन भारत के खिलाफ़ जासूसी कर रहा है या भारत सरकार का रा कह रहा है? इस तरह लगातार चीन भारत के रीढ़ पर हथौड़े मार रहा है, पर हम उफ़ भी नहीं बोल पा रहे हैं. यह रहा हमारा राष्टीय स्वाभिमान, राष्ट्रीय चरित्र. दुनिया जानती है कि युद्ध, हल नहीं है. भारत युद्ध और तनाव की भाषा बोले यह कतई जरूरी नहीं. पर भारत इस क्राइसिस (संकट) का क्रिऐटव रिस्पांस (सृजनात्मक प्रतिउत्तर) तो दे सकता है, देश को सर्वूोष्ठ बनाने का संकल्प लेकर. देश का मनोबल बढ़ा कर. उत्साह, ऊर्जा और बदलाव की नयी राजनीति शुरू कर. भ्रष्टाचार, वंशवाद, कमीशनखोरी के खिलाफ़ जंग आरंभ कर. स्विस बैंक से जमा धन लाकर. राष्ट्रीय मिजाज और मन बनाकर. अंदरूनी रूप से ताकतवर-महाशक्ति बनाकर. चाणक्य की बातें याद रखिए, चीन अपनी ताकत की भाषा बोल रहा है. चीन की समृद्धि, अहंकार और प्रगति बोल रहे हैं. उसके महाशक्ति होने का गुरूर बोल रहा है. आज दक्षिण अफ्रीका, लातीनी अमेरिका और आस्ट्रेलिया वगैरह में बड़े पैमाने पर चीन निवेश कर रहा है, किन चीजों पर? प्राकृतिक संसाधनों पर. पेट्रोल, कोयला, आयरन ओर वगैरह पर. उसके पास इन चीजों के सबसे बड़े भंडार हैं, पर वह खरच नहीं रहा. पहले वह विदेशों की ऐसी चीजों का उपयोग करेगा. बर्मा के प्राकृतिक संसाधनों पर तो उसका ओधपत्य जैसा है. चीन की विस्तारवादी नीति की गहराई में उतरें, पायेंगे, वह 21वीं शताब्दी में नये साम्राज्यवादी रूझान से विस्तार-कार्य कर रहा है. सांसद इंदर सिंह नामधारी ने एक सार्वजनिक सभा में बताया कि चीन के एक बुद्धिजीवी ने एक रणनीतिक डाकूमेंट तैयार किया है, जिसके तहत वह भारत को 25 या 26 हिस्सों में बंटा देखता है. श्री नामधारी के अनुसार चीन का यह अघोषित एजेंडा है.
यह सब देखकर चर्चिल याद आते हैं. बहत पहले उन्होंने कहा था. चीनी चरित्र-इतिहास का अध्ययन-मनन कर, इन चीनियों को सोये ही रहने दें, ये जगेंगे तो पूरे विश्व पर ओधपत्य बनायेंगे. आज चीन की चर्चिल की भविष्यवाणी को साकार करता दिख रहा है. दो वर्षो पहले माओ के चीन पर एक विश्वचर्चित पुस्तक आयी. उसमें एक जगह उल्लेख है कि विश्व का नक्शा निहारते हुए माओ ने कहा कि हमें दुनिया को नियंत्रित करना चाहिए. इस तरह चीन के इरादे, मंसूबे शुरू से साफ़ हैं. 62 में भारत ने इसका स्वाद भी चखा आज भारत के आसपास के समुद्र में उसकी उपस्थिति है.और महाबली अमेरिका?देहाती भाव-भाषा में कहें, तो उसके आगे पानी भर रहा है. यकीन नहीं होगा, तो ये दो बयान पढ़ कर गौर करिए. चीन के प्रधानमंत्री वेन जियाबो ने हाल ही में सार्वजनिक बयान दिया. कहा कि चीन थोड़ा चिंतित है, अपने लिए नहीं, बल्कि अमेरिका के लिए. हमने अमेरिका को भारी कर्ज दिया है, इसलिए हमारी चिंता स्वाभाविक है. साथ ही यह चेतावनी भी कि अमेरिका अपने वचन का पालन करे (आनर इट्‌स वर्ड्‌स) और चीन की परिसंपत्ति की सुरक्षा का आश्वासन दे. साहूकार और कर्जदार के बीच की बेमरउव्वत बातें. न्यूजवीक (30 मार्च 2009) ने लिखा, यह इतिहास का स्तब्धकारी मोड़ है. एक वर्ष पहले एक ऐसी धमकी संपन्न देश देते थे. मसलन अमेरिका गरीब देशों से इसी भाषा, भाव और लहजे में बोलता था. खुलेआम. अब अमेरिका की वह जगह चीन ने ले ली है. कैसे और क्यों? यह न्यूजवीक ही बताता है, चाइना आर स्ट्रांगर, मोर इकानामिकली कांपिटेंट एंड वास्टली रिचर (चीन मजबूत है, ओर्थक रूप से कुशल और अत्यंत संपन्न) टाइम पत्रिका का विशेष अंक (10 अगस्त 2009) कहता है, दुनिया की 10 बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में से एक मात्र चीन है, जो आगे बढ़ रहा है, और यह जल्द ही जापान को पछाड़ कर दुनिया में दूसरे नंबर की अर्थव्यवस्था होगा. इसी टाइम पत्रिका में अमेरिका के राष्ट्रपति ओबामा का 27 जुलाई का दिया गया बयान है, कि वाशिंगटन (यानी अमेरिका) का बीजिंग (यानी चीन) से रिश्ता ही 21 वीं शताब्दी का स्वरूप तय करेगा. चीन की यह हैसियत कैसे बनी? 29 जून के टाइम के अनुसार इट (चाइना) हैड बिकम द वर्ल्डस लो कास्ट, इनक्रीजिंगली हाइक्वालिटी मैनुफ़ैक्चरिंग हब. दे लव्स इट्‌स वास्ट एंड ग्रोइंग रैंक्स आफ़ मिडिल क्लास कंज्यूमर्स (सबसे कम लागत में उत्पादन करनेवाली दुनिया की अर्थव्यवस्था. ूोष्ठ किस्म का मैनिफ़ैक्चरिंग हब. बड़े मध्यवर्ग को बढ़ाना-फ़ैलाना, जिनकी शगल है.)
प्रखर विचारक किशोर महबूबानी (डीन, ली क्वान यू स्कूल आफ़ पब्लिक पालिसी, सिंगापुर ने अपने एक लेख में कहा है कि चीन और भारत दोनों को अपने दो सौ वर्ष पुराने इनकांपीटेंट परफ़ारमेंस (अक्षम कामकाज) को त्यागकर बड़ी ताकत बनाना होगा. चीन इसी रास्ते पर है, पर भारत? लगातार इनकांपीटेंट (अक्षम) बनता. प्रशासन में, विकास में, वितरण में, राजनीति में, अर्थनीति में, सबसे अधिक एटीट्यूड और एप्रोच में. 1962 के पराजय से इसने कुछ सीखा नहीं. आज भी ताकतवर देशों के सामने हम चिरौरी करते, घिघियाते, रिरियाते नजर आते हैं. उस हार ने कैसे पूरे देश को शर्म में डुबो दिया? उस दौरान चरित्र, मूल्य, योजना, विकास, राष्ट्रीयता, नवनिर्माण शब्द अर्थहीन बन गये थे. हम अमेरिका के सामने गिड़गिड़ा रहे थे. हथियार मांग रहे थे. हमारी ख्वाहिश थी कि केनेडी बंगाल की खाड़ी में एक जहाजी बेड़ा बैठा दें. हमारी रक्षा के लिए. चीन के एटम बम से भयभीत अमेरिकी एटमी छतरी की मांग कर रहे थे. उधर नि:शस्त्रीकरण के गुण भी गा रहे थे. 62 में जब चीनी सिपाही हिमालय पार कर बोमडीला पहुंच गये, तो भारतीय प्रशासन भाग खड़ा हुआ. नेहरू ने उत्तरपूर्व राज्यों के नाम ऐसे संदेश दिये, जिसे वे आज भी भूल नहीं पाते हैं. हमारा संकल्प मनोबल टूट चुका था. जबरदस्तआघात. बहुत दिनों बाद, प्रखर पत्रकार राजेंद्र माथुर ने उन दिनों को याद करने हुए भारत के मानस पर टिप्पणी की थी, हम अगर वियतनाम होते, तो एटमी शक्ति से लड़ने के बावजूद हम जीत जाते. लेकिन हम हिंदुस्तानी हैं. जो हाथी के मुकाबले घोड़े से, घोड़े के मुकाबले बंदूक से और स्थावर रणनीति के मुकाबले चपल और जंगम राणनीति से हमेशा हारा है. कई बार हम बंदर घुड़की से और मात्र पराजय के अंदेशो से पराजित हो जाते हैं.
इसी संदर्भ में अपना अतीत भी माथुर साहब ने याद किया है. हम यह भी भूल गये हैं कि यह वह देश है, जहां अनंगपाल का हाथी यदि संयोगवश पीछे भागने लगे, तो सारी सेना में भगदड़ मच जाती है और वह हार मान लेती है. राजा अथवा राजधानी का पतन होते ही कितनी बार सारा राज्य हमने देखते-देखते गवांया है.
यह मूल्क भूल गया है कि तीसरी संसद ने शपथ ली थी कि 62 में चीन ने भारत की जो भूमि हथिया ली, उसे वापस लिये बिना बात नहीं होगी. सरकारी आंकड़ों के हिसाब से ही 18 हजार वर्ग मील जमीन पर चीन का कब्जा है. यह ग्लानि तो देश भूल ही गया है, पर रोज-रोज चीन की धमकी. शब्दों से नहीं, काम और हरकत से. और भारत खामोश. क्या इस मुल्क का मान-अपमान नहीं है? किशन पटनायक मानते थे कि प्रतिगामी बुद्धिजीवियों की भूमिका या बुद्धिजीवियों की कायरता से यह हालात है. जनसाधारण के चरित्र, स्वभाव और विचार को कौन प्रभावित कर सकता है? बुद्धिजीवी या विचारक ही. पर हमारे इस वर्ग की क्या स्थिति है? पद, पैसा और शासन वर्ग की चारण सेवा. मुल्क, देश, समाज या राज्य के लिए कोई विजन नहीं, कोई सपना नहीं. एक दूसरे की धोती खोलना ही हमारा राष्ट्रीय चरित्र बन गया है.
हर घर, परिवार, दल में, समाज और देश में, जयचंद संस्कृति है. एक दूसरे को पछाड़ो, नीचा दिखाओं. डा. राममनोहर लोहिया ने 1952 में एक व्याख्यान दिया था. निराशा के कर्तव्य. वह आज भी भारत को समझने का कारगर विेषण हैं. गुलाम मानस और गुलामी के शिकार हैं. हमें कई बार लगता है कि हमारे रक्त और धमियों में पौरूष, बहादुरी, संकल्प है ही नहीं. हम कायर और पराजित लोग हैं. समय के लिलाट पर इबारत लिखने का साहस हममें हैं ही नहीं. हम वेतन सरकार से लेंगे पर काम नहीं करेंगे. हम भ्रष्टाचार कर, घर लूटेंगे व स्विस बैंक में धन जमा करेंगे. चंगेज, तैमूर, गोरी और अंग्रेजों से भी बदतर सलूक हम अपने साथ कर रहे हैं. इंदिरा आवास में गरीबों को लूटेंगे. बूढ़ों का पेंशन खा लेंगे. गांधी के सबसे गरीब इंसान के लिए बने नरेगा में भी डाका डालेंगे. यह हमारा सामाजिक चरित्र है. हम भ्रष्टों की सार्वजनिक पूजा करेंगे. आज सारा समाज चोरों की मूर्ति पूजा का अभ्यस्थ हो गया है. सत्ता की........भटक रहें हैं. चरित्रवान किसी तरह जीवन काट रहें हैं. हम किसी के बारे में कुछ भी कह या बोल सकते हैं बिना जाने. ये हमारा चरित्र हो गया है. हम आपस में एक दूसरे का नाश कर देंगे. जाति के नाम पर, धर्म के नाम पर, राजनीति के नाम पर, क्षेत्र के नाम पर? इसके उलट चीन देखिए, उसका हौसला, संकल्प, मानस और मंसूबे. उसकी उपलब्धि प्रेरित करती है. पर हम देख कर भी नहीं सीखने वाले अंधे लोग कौन है?क्यों हम ऐसे है?
हमारा न नीजि चरित्र है, न राष्ट्रीय, न स्वाभिमान, न वह सात्विक जिद जो गांधी युग में पैदा हुआ. कल ही सुप्रीम कोर्ट के दो जजों की खंडपीठ ने कहा कि हमारा कैरेक्टर (चरित्र) गिर गया है. उन्होंने पटना के ही एक ऐडशनल शेषन जज का हवाला दिया. उनका बंगला खाली कराने के लिए पानी बिजली की सप्लाई काटनी पड़ी.
यह करनी है. जिन्हें न्याय करना है उनकी संपत्ति घोषणा के नाम पर जजों का रूख देश देख ही रहा है. सुप्रीम कोर्ट के ही जजों ने कहा, नियम है पर पालन नहीं होते, नैतिश शक्ति की भी चर्चा की. यह भी कहा कि इसके लिए हमारा पूरा सिस्टम जिम्मेवार है. पूरे समाज पर दोष जाता है. उन्होंने यह भी बताया कि सुप्रीम कोर्ट के कुछ वकील सिर्फ़ पैसा कमाना चाहते हैं. यही कारण है कि आज जजों की कमी है. पर समाज या सामान्य जन को दोषी ठहराना गलत है. हमारे यहां तो मान्यता रही है,महाजनो येन गता: सं पंथा(जिसपर महान लोग गये हों, वही हमारा रास्ता है, पाथेय है) हमारे महान रहनुमा कौन है? सबसे पहले राजनीतिज्ञ फ़िर बुद्धिजीवी, प्रशासक, उद्यमी, वकील, अध्यापक, डॉक्टर, प्रोफ़ेशनल्श वगैरह ही न? क्या हममें से किसी की कोई विशिष्ठ पहचान है? देश और समाज से सिर्फ़ एक ही मांग है, पैसा बढ़ाओं सुविधा बढ़ाओ, काम नहीं करेंगे, उपार्जन नहीं करेंगे पर पांच सितारा जीवन चाहिए. 1980 में गांधीवादी विचारक प्रो. जयदेव सेठी (पूरे सदस्य योजना आयोग) ने आंकलन कर एक भाषण में बताया था कि 20 लाख से अधिक लोग पैरासाइड वर्ग (ओश्रत वर्ग) हैं, जो काम या उत्पादन एक ठेले का नहीं करते, पर पांच सितारा जीवन जीते हैं. यानि सबसे महंगा. आज यह संख्या करोड़ों में होगी. इसमें मुख्य कौन है? दलाल, पूर्व राजनेता वगैरह. आजकल लाइजनर बनने की स्पर्धा है. राष्ट्रीय जीवन शर्म, हया जैसी चीजें ही नहीं है. आज इस दल या खेमें में कल उस दल या खेमें मेंहमारे समाज का प्रगतिशील तबका चरित्र को बुजुर्‌आ अवधारणा मानता है. पर भारत के इतिहास का मध्यकाल देखिए शासकों के अत्याचार के लिलाफ़ समाज को जिंदा रहने की ताकत संतो ने दी. इनमें सबसे अधिक संत समाज के सर्वाध्किा पिछड़ी जातिया या तबकों से थे. पर उनका दर्शन क्या था, संतन को कहां सीकरी सोकाम गांधी ने आजादी की लड़ाई को तप-यज्ञ ही माना उन्होंने चरित्र ही गढ़ने की कोशिश की उस दौर के सभी नेता (चाहे वे जिस भी सिद्धांत के प्रहरी रहे हों) कितने कद्दावर इंसान थे. तिलक जैसे व्यक्ति बरसों मंडाले के तपते पत्थरों पर सोये आह नहीं भरी सुभाष की कुरबानी क्या था? महर्षि अरविंद के कारावास (अलीपुर जेल) की कहानी पढ़िए. छोटा कमरा, पानी पीने और पाखाना जाने का एक ही मग, पर सुविधा की याचना नहीं की. जब साधना में डूबे तो 22वर्षो तक उसी कमरे में ही रह गये. उतरे या निकले ही नहीं. जेपी और लोहिया? सत्ता को लात मारकर जनता के बीच अलख जगाते रहे. निसंग होकर मुसीबतें मोल लेकर. सुविधाविहीन रहकर. जेल जाकर. पर कहीं समझौता नहीं किया. उस दौर में ऐसे हजारों लाखों लोग निकले. यहीं चीज देखकर प्रो. आर्नाल्ड टायनबी ने कहा कि भारत से एक नयी सभ्यता संस्कृति का उदय होगा. उनका आशय पश्चिम की भौतिक संस्कृति के विकल्प से था. लिंकन ने प्राइमरी स्कूल के अध्यापक को पत्र लिखा अपने बेटे के लिए. वह पत्र ऐतिहासिक धरोहर है. उस पत्र में सिर्फ़ चरित्र, कन्विकशन, ईमानदारी के बीज डालने की चर्चा और मांग है. एक जगह वह कहते हैं कि मेरे बेटे को वैसी शिक्षा दीजिए कि वह मुसीबतों-कठिनाइयों की आग में तप कर इस्पात की तरह निखरे. बिना, चरित्र, ईमानदारी, वसूल और विचार कुछ भी संभव नहीं. भारत की राजनीति तो 91 के बाद विचारविहीन है. मुद्दाविहीन. एक ही गणित है सत्ता पाओ. कुरसी हथियाओं. यह राजनीति कैसे देश को आगे ले जायेगी.आज हर प्रगति के बावजूद देश ने यही चरित्र खो दिया है. इस कारण यह प्रगति भी बेमानी लग रही है.अब बिहार के खगड़िया में हुए नरसंहार को ही लीजिए. नरसंहार हुआ नहीं कि राजनीति शुरू हो गयी. अपने-अपने गणित के अनुसार किसी भी दल को इसमें रूचि है ही नहीं कि ऐसी समस्याएं जड़ से कैसे साफ़ हों? इसके पहले भी अनेक नरसंहार हुए. तब भी यह नहीं सोचा गया कि ऐसे सवालों के समाधान क्या है?
एक पहलू यह है कि नक्सलियों ने यह काम किया है? तो नक्सलियों को इस तरह ताकतवर बनने किसने दिया. प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने अपने पहले कार्यकाल में दो बार ऑन रेकॉर्ड कहा है कि आजादी के बाद की सबसे बड़ी चुनौती है नक्सलवाद? अब कोई पूछे कि आप देश के प्रधानमंत्री हैं. आपसे ताकतवर कोई दूसरा पद नहीं है. तो समस्या कि गंभीरता आप किसे कह रहे हैं, आप तो समाधान करने की कुरसी पर हैं. आप हल ढूढिए.
अगर ये समस्या प्रशासन के बूते से बाहर है, तो राजनीतिक बातचीत से ही पहल करें. इस समस्या के राजनीतिक समाधान की अंतिम गंभीर कोशिश जयप्रकाश नारायण ने की थी. मुशहरी के उनके अनुभव आमने-सामने पुस्तिका में दर्ज है. इसके बाद तो राजनीतिक दलों ने खुद को समेट लिया. आजकल अधिसंख्य दलों में ठेकेदार ही राजनीतिक कार्यकर्ता हैं. न विचार है न दल. राजनीतिक दल परिवारों, रिश्तेदारों के कुनबे या प्राइवेट लिमिटेड कंपनी बन गये हैं. दलों में आंतरिक लोकतंत्र ही नहीं रहा.
अब केंद्र राज्यों को कहता है लॉ एंड ऑर्डर आपका विषय है इसलिए नक्सलवाद भी आपकी समस्या , ये सरासर धोखा, झूठ और फ़रेब है. पूरे देश में फ़ैले नक्सली समूहों से कोई एक राज्य निबट पायेगा. सरकारों से पूछना चाहिए कि नक्सलियों के पास हथियार कहां से पहुंचते हैं? कौन देता है? हम पर नकेल लगाने का काम किसका है? आतंकवादी हमलों के संदर्भ में पिछले वर्ष मद में राष्ट्रीय सलाहकार, मंत्रिमंडल को पता हो ही चुके हैं. कि इंटेलिजेंस सिस्टम कैसे ध्वस्त है? शहरों से नक्सलियों के पास हथियारों की आपूर्ति होती है, और शहरों पर शासन किसका है? सरकारो का? पर भ्रष्टाचार में डूबा तंत्र सब करवाता है, सब देख-जान रहे हैं, पर किंकत्तर्व्यविमूढ़ हैं. 92 के मुंबई विस्फ़ोट में भारतीय पुलिस-कस्टम के लोग ही दाउद के विस्फ़ोटक भारत लाये थे. इसके बाद वोरा कमिटी बनी थी, जिसने राजनीतिज्ञों-अफ़सरों-उद्यमियों के सांठगांठ की चर्चा की थी. पर वह रिपोर्ट दबा दी गयी. दरअसल भारत का यह शासक वर्ग इन हालातों के लिए दोषी है.
भ्रष्टाचार अशासन, कुशासन और अनुशासनविहीनता हमारी रगों में पैठ गया है. इस सत्ता के ऊपर कुछ देख ही नहीं पा रहे. नाव दुर्घटना हुई, उस पर भी राजनीति, लाशों से नफ़ा-नुकशान का गणित. यह सवाल नहीं उठा कि बिहार में कहां-कहां कितनी नावें चलती हैं? कितने घाट हैं? इनका आधुनिकीकरण कैसे हो? क्यों नहीं अब तक इन जगहों पर पुल बने? कैसे पुल बन सकते हैं? कैसे सारे लोग ऐसी आपदाओं में मिल कर दिल्ली पर दबाव डालें कि वह अधिकतम धन दे, तकनीक दे, एक्सपर्ट दे ताकि दो-तीन वर्षो में हर जगह पुल बन जाये. जहां नावें रहें, वहां उनका आधुनिकीकरण हो.
पर ये समाधान हो जायेंगे, तो राजनीतिक कैसे चलेगी? सत्ता का खेल कैसे होगा?यही हाल है, पूरे देश का हर मुद्दे पर. देश को चाहिए नया संकल्प, नयी राजनीति और नया खून. पर इसके आसार कहां हैं? किसी अवतार की प्रतीक्षा या सामूहिक पहल, सामूहिक कर्म? यह तय करने के दोराहे पर आज देश-समाज खड़े हैं.
उसकी ताकत और अपनी हकीकत :
अफ्रीका में ब़ढ़ता चीनी दबदबा इंडिया फ़ोर्ब्स पत्रिका (अगस्त 28, 2009) के अंक में चीन के बढ़ते प्रभाव का उल्लेख है. वर्ष 2009 में चीन की सरकार ने अफ्रीका में आठ बिलियन डालर के निवेश की घोषणा की. भारत के जो निजी घरानी अफ्रीका में काम कर रहे हैं, वे कहते हैं चीन से मुकाबला असंभव है. वे वहां सड़सें बना रहे हैं. एयरपोर्ट्‌स बना रहे हैं. रेल बिछा रहे हैं. बड़े-बड़े प्रोजेक्ट कर रहे हैं. 20-20 वर्षो का निवेश रिस्क लेकर.
कांगो में चीन 9 बिलियन का निवेश कर रहा है. रोड, रेलवे, अस्पताल, हेल्थ सेंटर और विश्वविद्यालयों में इसके बदले उसे कॉपर (तांबा) और कोबाल्ट के खदान मिले हैं. इसी तरह अंगोला की तेल रिफ़ाइनरी में 55 फ़ीसदी हिस्सा लिया है. तीन बिलियन निवेश कर सूडान, अल्जीरिया, कांगो और गाबन लीबिया में भी निवेश है. जांबिया में 3.6 बिलियन का माइनिंग में निवेश किया है. नाइजीरिया के समुद्र में स्थित तेल रिफ़ाइनरी में 2.27 बिलियन चीनी निवेश है. गुयाना, कीनिया और मडास्कार में भी चीनी निवेश प्राकृतिक संसाधनों में है. अंगोला, अल्जीरिया और कीनिया के टेलिकाम उद्योग में भी चीन का भारी निवेश है. इस तरह चीन दुनिया के कोने-कोने में प्राकृतिक संसाधनों में निवेश कर रहा है. इसके प्रजोजन साफ़ हैं. अपनी शक्ति, सामर्थ्य और संपदा इतनी बढ़ा दो कि दुनिया खुद कदमों सिर रख दे. यह विस्तार चीन के पुरुषार्थ, संकल्प, आत्मविश्वास और इरादों का परिचायक है. इसका भारतीय जवाब का क्या हो सकता है? अपनी गद्दी, अपनी संतान, अपना यश और अपना धन, इस गणित में फ़ंसा मानस क्या इसका जवाब दे सकता है?घेर रहा है?
पाकिस्तान को चीन ने परमाणु सहायता दी है. बदले में वह अरब सागर बंदरगाह में अपनी उपस्थिति चाहता है, ताकि तेल की आपूर्ति की सुरक्षा कर सके. भूटान से राजनीतिक संबंध बना रहा है. बांग्लादेश को चीन ने हथियारों की आपूर्ति की है. बदले में बांगलादेश बंदरगाह में अपनी उपस्थिति चाहता है. लिट्टे के खिलाफ़ युद्ध में श्रीलंका को हथियार देकर उसने ॅणी बना लिया है. नेपाल तो चीन की गोद में ही है. माओवादी उसके झंडाबरदार हैं. म्यामांर (बर्मा) के कोको (आइसलैंड) द्वीप में चीनी सेना मौजूद है. इस तरह भारत के पड़ोसी देशों को सैनिक मदद, राजनीतिक संबंध, ओर्थक मदद दे कर, भारत को घेर रहा है. आइटी इंडस्ट्री में भी चीन भारत को मात दे रहा है. भारत के बाजार में सस्ती चीजें भेज कर भारतीय उद्योगों को तबाह कर रहा है.भारत के क्या ठोस प्लान हैं?ईश्वर जानें! भारत के जानकार विशेषज्ञ तो कहते हैं कि चीन, भारत को अपने समकक्ष मानता ही नहीं. भारतीय सुरक्षा विशेषज्ञ भरत कर्नाड कहते हैं, भारत राजनयिक माइअचेपिया (अंधापन) का शिकार है. चीन सिर्फ़ ताकत की भाषा समझता है. चीन सिर्फ़ अपना हित समझता-साधता है. 2008 में चीन का जीडीपी 4.4 ट्रिलियन डालर था. विश्व की तीसरी बड़ी अर्थव्यवस्था. वार्षिक निवेश दर, जीडीपी का 40 फ़ीसदी है. 2008 में 90 बिलियन डालर विदेशी निवेश (एफ़डीआइ) हुआ है. दुनिया में सबसे बड़ा विदेशी मुद्रा भंडार चीन के पास है, दो ट्रिलियन डालर.
भारत की अर्थव्यवस्था 1.1 ट्रिलियन डालर की है. विशेषज्ञ पराग खन्ना का कहना है कि चीन-भारत के बीच दौड़ (रेस) खत्म हो चुकी है. चीन बहुत आगे निकल चुका है. कोई उम्मीद नहीं है कि भारत, चीन को छू भी सकेगा. वर्ष 2008 में चीन का निर्यात ही 1.4 ट्रिलियन डालर का हुआ. भारत के जीडीपी से अधिक है, यह राशि. दुनिया के कई मुल्कों में चीन ने तेल, गैस और प्राकृतिक संसाधन के भंजार खरीद लिये हैं. तिब्बत में चीन की रेलें दौड़ रही हैं. भारत के पूर्व चीफ़ ऑफ़ आर्मी वीपी मल्लिक भी मानते हैं कि चीन हमारी सुरक्षा योजनाकारों के लिए तात्कालिक गंभीर चुनौती है. तिब्बत में चीन ने डांग फेंग 31 इंटरकांटिनेंटल ब्लास्टिकमिसाइल तैनात कर रखा है, जो 8000 किमी तक मार करेगा. अमेरिका भी इसकी जद में है. डांग फेंग 21 मिसालइल वहां तैनात है, जो 2500 किमी के घेरे में कहीं प्रहार कर सकता है. यह भारत में कहीं भी पहुंच सकता है. भारत ने मिसाइल परीक्षण जरूर किया है, पर इसकी तैनाती नहीं.
भारत को क्या करना चाहिए? बात शांति की करें, पर युद्ध की तैयारी रखे. न्यूक्लीयर हथियार जरूरी हैं. 5000 किमी तक मार करनेवाले मिसाइल चाहिए. दुनिया के दूसरे देशों से मिल कर नौ सेना को मजबूत करना चाहिए. अमेरिका से संबंध मजबूत बनाना चाहिए. इन सबके साथ-साथ खुद चीन से भारत प्रेरित हो. महज 2030 वर्षो में देश धूल से उठ कर दुनिया में कैसे छा गया है? क्या हैं उसके कर्म, पौरुष और प्रतिबद्धता ? भारत का मानस,चीन के मानस से सीखे, तब भारत आंतरिक रूप से मजबूत हो सकता है.

(प्रभात खबर से साभार )
 

गुरुवार, 22 अक्तूबर 2009

फिर अंधेरे में तीर

(कुसहा -०८ में ध्वस्त कोशी का मुख्य पूर्वी नहर : मार्च 2009)
दहाये हुए देस का दर्द -57
कहते हैं कि हादसों में भले ही सब कुछ नकारात्मक हो, लेकिन एक सकारात्मक बात भी होती है। वह है - तजुर्बा। इंसान हादसों से सबक ले, तो आने वाले कई हादसों को टाल सकता है। कोशी नदी का "कुसहा तटबंध कांड'' भी एक भयानक हादसा (यह अलग बात है कि यह कुदरती नहीं बिल्क मानव निमिर्त था) था। अगर मोटे तौर पर कहें तो कुसहा हादसे ने कोशी प्रमंडल के 30 लाख लोगों को साठ वर्ष पीछे धकेल दिया। जान-प्राण का जो नुकसान हुआ, सो अलग। लेकिन इस पर अगर गंभीरता से विचार करें तो स्पष्ट होता है कि कुसहा-08 ने हमें एक ब़डी सीख दी है। वह यह कि हम अपनी नदी प्रोजेक्ट की दशकों पुरानी और अब असंगत हो चुकीं नीतियों-योजनाओं पर पुनविर्चार करें। नदी प्रोजेक्ट्‌स के अब तक के अनुभवों की समीक्षा व मूल्यांकन करें और अपनी नदी-नीतियों को अद्यतन कर लें। लेकिन लगता नहीं है कि सरकार ने कुसहा हादसा से कुछ सीखा है।
हाल में बिहार सरकार के कैबिनेट ने कोशी नदी के नहरों के जीर्णोद्धार के लिए एक मेगा प्रोजेक्ट को मंजूरी दी है। इसके मुताबिक बिहार सरकार आगामी वर्षों में कोशी बाराज, कोशी तटबंध और उसके पूर्वी नहरों के जीर्णोद्धार पर एक हजार करो़ड से ज्यादा रुपये खर्च करेगी। इस महायोजना को ठीक उसी तर्ज पर मंजूरी दी गयी है जिस पर पांच दशक पहले कोशी प्रोजेक्ट को स्वीकृत किया गया था। मेरे जैसे लोगों (जो कोशी-वीभिषिका के भोक्ता हैं ) को, इससे भारी निराशा हुई है। क्योंकि हम जानते हैं कि अब कोशी नदी को नये नजरिये से देखने की जरूरत है। जब तक कोशी के वतर्मान हैद्रोलोजी , ज्योगरफी और इकोलाॅजी पर सम्पूर्ण अध्ययन नहीं हो जाता, तब तक किसी योजना की शुरुआत "गोबर में घी'' डालने जैसी ही होगी। समझ में नहीं आता कि सरकार जानबूझकर कुएं में कूदना क्यों चाहती है। अगर सरकार हजारों करो़ड रुपये जीर्णोद्धार पर खर्च कर सकती है तो कुछ लाख रुपये नदी के चरित्र को समझने के लिए वैज्ञानिक अनुसंधानों पर क्यों खर्च नहीं कर सकती ? तमाम अनुभव बताते हैं कि कोशी के चरित्र में भारी परिवतर्न आ चुका है। इसके माैजूदा प्रवाह-मार्ग (दोनों तटबंधा के अंदर) के तल आसपास (कंट्री साइड) के तल से ऊंचे हो गये हैं। ऐसी परििस्थति में कोशी को तटबंधों के अंदर रखना अब मुमकिन नहीं रह गया है। भले ही तटबंधों को ऊंचा और पक्का कर हम कुछ साल नदी को तटबंधों के अंदर बहा लें, लेकिन स्थायी तौर पर हम ऐसा नहीं कर सकते। उधर नेपाल में जंगलों की अंधाधुंध कटाई के कारण कोशी में गादों की मात्रा तूफानी रफ्तार से ब़ढ रही है। यह चिंता का दूसरा ब़डा विषय है। लेकिन सरकार इस ओर ध्यान नहीं देना चाहती। कुछ वर्ष पहले भी उसने बगैर अनुसंधान के कोशी रेलवे महासेतु और दरभंगा-फारबिसगंज लेटरल रोड को मंजूरी दी थी। और अब तक इन दोनों परियोजनाओं पर हजारों करो़ड रुपये खर्च किये जा चुके हैं। यह तय है कि जिस दिन कोशी तटबंधों को तो़डकर धारा बदलेगी उस दिन ये महासेतु, ये स़डकें नेस्तनाबूद हो जायेंगे। कुसहा हादसे में हम ऐसा देख भी चुके हैं।
होना तो यह चाहिए कि सरकार दुनिया के नामचीन नदी विशेषज्ञ, वैज्ञानिक, अभियंता आदि को बुलाती और इस पर बहस करवाती। इसके पश्चात किसी नतीजे पर पहुंचती। मेरे विचार से तो कोशी के वतर्मान प्रवाह-मागर् को तत्काल उ़ढाहने (डिसिल्टेशन) की आवश्यकता है ताकि नदी को बहने के लिए संघर्ष न करना प़डे। सिल्ट को हटाने के सिवाय हमारे पास और कोई विकल्प नहीं है। अगर नदी ही नहीं रहेगी तो हम नहर बनाकर ही क्या करेंगे ?
लगता है कि सरकार वोट बैंक की पालिसी और अभियंता-ठेकेदार के धनलोलुप व भ्रष्ट लाबी के दबाव से बाहर निकलने में असक्षम है। सरकार को अपने आॅफिसर लाबी से बाहर निकलकर कुछ स्वतंत्र अभियंता और विशेषज्ञों से बात करनी चाहिए थी। भले ही नेता खुद इस मुद्दे को समझने में सक्षम न हो, लेकिन वे इतने भी नादान तो नहीं है कि अभियंता-ठेकेदार लाबी उन्हें आसानी से गुमराह कर दें। नीतीश कुमार से तो उम्मीद की जा सकती है, क्योंकि वे खुद एक अभियंता हैं। लेकिन पता नहीं क्यों, नीतीश कुमार भी अंधेरे में धनुष तान रहे तीरंदाजों की पंक्ति में ख़डे हो गये हैं ?


कोशी सिंचाई परियोजना का ट्रैक रिकार्ड
निर्धारित सिंचाई - 712000 हेक्टेअर
पूर्वी नहर से- 37400 हेक्टेअर
वास्तविक सिंचाई- 136180 हेक्टेअर (07-08)

पश्चमी नहर से -
प्रस्तावित- 325000 हेक्टेअर
वास्तविक सिंचाई- 23770 हेक्टेअर (07-08)
स्रोत- कोशी प्रोजेक्ट कायार्लय, बीरपुर (सुपौल )
 

सोमवार, 19 अक्तूबर 2009

कितना शिगुफा, कितना सच (संदर्भ ग्रामीण मेडिकल कॉलेज )

गांवों में खोले जायेंगे मेडिकल कॉलेज ! सुनकर आश्चर्य होता है। लेकिन यह एक कान से सुनकर दूसरे कान से निकाल देने वाली बात भी नहीं है, क्योंकि यह देश के केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री गुलाम नबी आजाद का बयान है। गुलाम नबी आजाद ने कहा है कि गांवों में डाक्टरों की कमी को दूर करने के लिए सरकार जल्दी ही मेडिकल शिक्षा का वैकल्पिक योजना शुरू करने वाली है। इससे गांवों में ज्यादा डॉक्टर तैयार हो सकेंगे जो ग्रामीणों की चिकित्सा के लिए बाध्य होंगे। आजाद के मुताबिक मौजूदा व्यवस्था के साथ ही एक वैकल्पिक मेडिकल शिक्षा व्यवस्था भी शुरू की जा रही है। इसके तहत ग्रामीण मेडिकल कॉलेजों में दस हजार से कम आबादी वाले गांवों के छात्रों को ही दाखिला दिया जायेगा। उनका कहना है कि इससे गांव के छात्रों को मेडिकल की शिक्षा आसानी से उपलब्ध हो जायेगी। मगर इसके लिए एक शर्त होगी कि एक नियत समय तक उन्हें गांवों में ही रह कर प्रैक्टिस करनी होगी। मेडिकल काउंसिल आफ इंडिया (एमसीआई) इसके लिए प्रस्ताव तैयार कर चुका है। जल्दी ही इसे लागू किया जाएगा। आजाद ने कहा है कि इस पूरी प्रक्रिया में कहीं भी मेडिकल शिक्षा की गुणवता से समझौता नहीं किया जाएगा।
गुलाम नबी आजाद के उपर्युक्त कथन को दो संदर्भों में लिया जा सकता है। पहला यह कि उन्होंने ग्रामीण चिकित्सा व्यवस्था की बेचारगी को लेकर जो कुछ कहा, वह सच है और किसी केंद्रीय मंत्री की जुबान से इस सच्चाई को सुनकर थोड़ी खुशी तो जरूर होती है। लेकिन इसका दूसरा पहलू भी है। वह यह कि क्या सच में सरकार इस दिशा में कुछ करने जा रही है या फिर यह महज एक शिगुफा बनकर रह जायेगा? अगर इस समस्या को लेकर सरकार की पिछले छह दशकों की उपलब्धि पर गौर करें तो निराशा ही हाथ लगती है। आज तक तो होता यही रहा है कि सरकार की घोषणाएं (खासकर ग्रामीण चिकित्सा व्यवस्था के प्रति) बयान, अखबार, सेमिनारों से बाहर नहीं आ सकी है । अभी ज्यादा दिन नहीं बीते हैं जब पिछली सरकार के बड़बोले स्वास्थ्य मंत्री अंबुमनि रामदौस ने कहा था कि देश की चिकित्सा व्यवस्था को सुधारने के लिए अप्रवासी भारतीय डॉक्टरों को स्वदेश लौटने की इजाजत दी गयी है। उन्होंने तब कहा था कि हजारों अनिवासी भारतीय डॉक्टर स्वदेश लौटने के लिए बेकरार हैं( गौरतलब है कि सिर्फ अमेरिका में भारत के 65 हजार डॉक्टर कार्यरत हैं)। लेकिन इस घोषणा को आठ महीने हो चुके हैं पर आजतक एक भी डॉक्टर अमेरिका, इंगलैंड, जर्मनी आदि देशों को छोड़कर स्वदेश की खाक छानने वापस नहीं लौटे। कुछ ऐसा ही हश्र विदेशी मेडिकल कॉलेजों के छात्रों की डिग्री का मान्यता देने की घोषणा की भी हुई । जबकि देश की ग्रामीण स्वास्थ्य व्यवस्था की असलियत रोंगटे खड़े कर देते हैं। इन आंकड़ों को देखकर विश्वास नहीं होता कि भारत को स्वतंत्र हुए छह दशक से ज्यादा हो गये हैं।
भारतीय चिकित्सा परिषद के अनुसार, वतर्मान में देश में 870 लोगों का स्वास्थ्य एक डाॅक्टर के भरोसे है। इसमें पिश्चमी पद्धति के डाॅक्टरों को हटा दिया जाये तो यह अनुपात 1600 में 1 बैठता है। योजना आयोग के अनुंसार, फिलहाल देश में छह लाख डाॅक्टरों, दो लाख दंत चिकित्सकों और लगभग 10 लाख चिकित्सा सेवकों की जरूरत है। यह िस्थति अचानक पैदा नहीं हुई है। इसके लिए देश की
दोषपूर्ण चिकित्सा नीति जिम्मेदार रही है। अस्सी के दशक में बोहरे समिति का गठन किया गया था। इस समिति से देश की स्वास्थ्य परििस्थतियों को सुधारने के लिए अध्ययन करने और सुझाव देने की मांग की गयी थी। इस समिति ने अपनी रिपोर्ट दी, लेकिन इस पर आंशिक कारर्वाइर् भी नहीं हुइर्। आथिर्क उदारीकरण के बाद तो अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं ने भी भारत को चिकित्सा ॠण और अनुदान के प्रति कोताही बरतनी शुरू कर दी । इन संस्थाओं का निर्देश साफ था कि भारत सरकार चिकित्सा व्यवस्था को भी उद्योग की शक्ल दें आैर चिकिसा की सावर्जनिक सेवाओं से अपना हाथ खीचते चले जाये। जाहिर है उनकी मंशा भारत के चिकित्सा क्षेत्र को निजी कंपनियों के लिए खोलने की है ताकि विदेशी कंपनियां देश की विशाल जनसंख्या को चिकित्सा व्यवसाय के जरिये लूट सकेऔर चिकित्सा उद्योग के सहारे अपनी झोली भर सके। इसकी परिणति अब छिपी नहीं है। सावर्जनिक चिकित्सालय से गायब होती सुविधाएं, उपकरण, जांच प्रयोशालाओं और घटती सुविधाएं इस बात का संकेत है कि सरकार उनके ही निर्देशों पर काम कर रही है। इन चिकित्सालयाें में सुविधाओं की सतत कमी और घटिया स्वास्थ्य-व्यवस्था के कारण ही अब अधिकतर साधन संपन्न लोग निजी अस्पतलालों और डाॅक्टरों के शरण में जा रहे हैं। लेकिन ये चिकित्सालय सिर्फ़ शहरी अमीरों को ही नसीब है। ग्रामीण आबादी तो भगवान के रहमोकरम पर ही है। एक अध्ययन के मुताबिक,गरीबी रेखा से नीचे रहने वाली देश की 30 करो़ड आबादी आज भी बुनियादी स्वास्थ्य-व्यवस्था से वंचित है।
जहां तक आजाद की घोषणा की व्यवहारिक संभावना की बात है तो यहां यह याद दिलाना आवश्यक है कि देश के 80 प्रतिशत गांव आज भी महाविद्यालयों से वंचित हैं। ऐसे में गांवों में मेडिकल महाविद्यालय की बात, तो दिवास्वप्न ही लगती है। हालांकि यह जरूरी है। तमाम सुविधाओं से वंचित भारत की सत्तर प्रतिशत ग्रामीण आबादी का यह हक भी है।

गुरुवार, 15 अक्तूबर 2009

एक कुम्हार की याद

जंगल पंडित मेरे गांव के सबसे पुराने कुम्हार थे। बहुत वृद्ध हो गये थे। ठीक से नहीं पता, लेकिन 90 से ऊपर के ही रहे होंगे। तीन सप्ताह पहले, ठीक अष्टमी के दिन उनका निधन हो गया। संयोग से उस दिन मैं भी गांव में ही था। गांव वालों के लिए यह कोई बड़ी खबर नहीं थी। सभी दशहरा मेले का आनंद लेने में मग्न थे और एक कुम्हार का मर जाना, उनके लिए कोई मायने नहीं रखता था। हालांकि जंगल पंडित उनके लिए बहुत मायने रखते थे। मुझे जंगल पंडित के निधन का दुखद समाचार अपनी मां से मिला। उस दिन अपनी सास के कहने पर जंगल पंडित की बहु मेरी मां के पास आयी थी। बहुत देर तक रोती रही थी। कह रही थी- "बूढ़वा के मरने के समय भी गाम (गांव) की बात कह रहा था। पूछ रहा था कि ओकर मौत के बाद के संभालेगा ई गाम को ? हम का जवाब देते माय ? बस आंखि नोर(आंसू) से भइर गिया। लेकिन दुख ई रहा कि एको ठो गाम वाला उनको मरने के दिन भी देखने नैय आया। ''
जंगल एक व्यक्ति नहीं थे, बल्कि एक धरोहर थे। उनके बेटे-पोते ने मिट्टी से तौबा कर ली है। कोई पंजाब में है तो कोई अरब में। पिछले कई वर्षों से वह गांव की प्राचीन परंपरा का भार ढो रहा था। शादी, ब्याह, होली, दशहरा, उपनयन में कुम्हारों की अनिवार्य भूमिका वह अकेले निभा रहा था। उसका कहना था," फर्ज को कैसे छोड़ दूं ? बाप-दादा की परंपरा को कैसे तोड़ दूं ।'' वैसे कहने के लिए तो गांव में कुम्हारों के सौ परिवार हैं, लेकिन मिट्टी के काम से सभी तौबा कर चुके हैं। नयी पीढ़ी तो चाक की चर्चा करते ही भड़क उठती है।
मैंने मां से पूछा-"अब गांव के लोग क्या करेंगे ? कहां से लायेंगे ब्याह की मटकूरी, पूजा की मूर्ति दीपावली के दीप और श्मशान घाट के पातिल ?''
मां कुछ देर तक चुप रही, फिर बोली- " क्यों बाजार है न ? लोग बाजार से ले आयेंगेसब कुछ। मिट्टी न सही, प्लास्टिक के तो मिल ही जाते हैं।''
मैंने पूछा - " पर कुम्हार कहां से लायेंगे ? जंगल पंडित बाजार में मिलेगा क्या ?''
इसका जवाब मां के पास नहीं था। सच कहूं तो इसका जवाब मेरे पास भी नहीं है।

मंगलवार, 13 अक्तूबर 2009

कितनी कसौटी पर प्यार

1
वो हमारा पहला प्यार था
इसलिए दुनिया हमें प्यार का समुद्र लगती थी
तब हमें वे पगडंडियां भी खूबसूरत लगतीं
जिधर से वह गुजरती थी
+
तब हम सारी दुनिया से भलीभांति अनजान थे
हालांकि हम नादां नहीं थे
हम पाइथागोरस के प्रमेय के साथ न्यूटन के तीनों लॉ में भी सिद्ध थे
भर्तहरि से लेकर प्रेमचंद तक, भिज्ञ थे
यह तब की बात है जब
हमारी आवाज बदल रही थी और मूछों के पोम आने लगे थे
+
टोले वाले को शंका हुई
परिवार वाले को चिंता
और वे सभी एक साथ उद्वेलित हो गये
जैसे हम प्यार में नहीं, आसमानी आग में हो
जैसे हम फिर से अबोध हो गये हों
और खेलते-कूदते धथूरे के जंगल पहुंच गये हों
+
हमें मालूम था कि हम
दुनिया के सबसे पवित्र क्षण में हैं
हालांकि पत्रों में वह भी करती थी मोहव्वत
पर हकीकत में भयानक अपराध बोध से ग्रस्त
अपनी नजरों में छोटी होते-होते
अंततः मेरी नजरों में भी छोटी हो गयी
और मेरे लिए प्रेम की परिभाषा बदल दी
हम जान चुके थे
कि वह पाश्चाताप में है
एक बार, दो बार, तीन बार
हमारे पहले प्यार का अंतिम संस्कार

2
वो शायद हमारा दूसरा प्यार था
और हम शहर में थे
वह बेझिझक थी
बेवाक और बेलौस भी
हम साथ-साथ वर्ग, पुस्तकालय और सिनेमा जाते थे
बहुत कुछ कहते-सुनते थे
सिवाय उस 'ढाई आखर' के
+
वह हमारे साथ थी
लेकिन हमारी नहीं थी
खूबसूरती के बावजूद
सच में वह किसी की नहीं थी
न दिन की न दुनिया की
उसे बहुत दूर जाना था
लेकिन मेरी कोई मंजिल नहीं थी
और इस तरह दूसरा प्यार भी मारा गया, बगैर प्यार के
पहली बार रिवाज के हाथों
दूसरी बार बाजार के हाथों
+
हाय !
इस रंध्र रिवाज, इस अंध बाजार
के आगे
"प्यार''
कितना लाचार है

(एक निवेदन- इसे निजी अनुभव नहीं , कविता का अनुभव माना जाये। यह किसी व्यक्ति का नहीं, बल्कि प्रवृत्ति का वर्णन है। कवि तो महज हेतु-सेतु है )
 

मंगलवार, 6 अक्तूबर 2009

जमीन

जमीन
जिसने हमें पैदा किया
सिखाया
उछलना- कूदना , दौड़ना और धुपना
बीजों को अंकुरित कर, बताया
जनने का रहस्य
लहलहाते पौधों से कहलवाया
कि जिंदगी प्रेम का ही दूसरा नाम है
वृक्षों के छांव में बिठाकर, कहा
कि देना ही सबसे बड़ा लेना है
++
हमें याद है कि
हम बचपन में अक्सर लेख लिखते थे
'मां' पर
और चर्चा करते थे ' जमीन' की
और जीत लेते थे पहला पुरस्कार
++
बहुत कठिन है जमीन से कट जाना
जमीन से ऊपर उठ जाना
और सबसे दर्दनाक है
जमीन से कटकर वापस जमीन पर गिर जाना
 
 

शुक्रवार, 2 अक्तूबर 2009

हिंसा के बीज/ संदर्भ खगड़िया जनसंहार

गरीबी और अमन-चैन एक साथ नहीं रह सकते। जहां गरीबी रहेगी वहां शांति का रहना नामुमकिन है। गरीबी अभिशाप है तो इसमें ताप भी है जो समाज को जला देता है। इसमें घृणा है जो समाज को खंड-विखंड कर देता है। सतत गरीबी हिंसा को न्यौता देती है और एक दिन पूरे समाज को खून के रंग में रंग देती है। लेकिन हमारे नीति-निर्माता आज भी गरीबी को गरीब के हाथों की लकीर मानने की मानसिकता में कैद है। वे समझते हैं कि गरीब कमजोर, अशिक्षित और निरीह होते हैं। वे सत्तानशीनों का कुछ भी बिगाड़ नहीं सकते। लेकिन पिछड़े इलाके में लगातार बढ़ती हिंसक वारदातें साबित करती हैं कि जिसे हम गरीबी कहते हैं वह अब बारूद का रूप लेने लगा है और जिन्हें हम गरीब मानते हैं वे रक्त पिपाशु मानव समुदाय में परिवर्तित हो रहा है। बिहार के खगड़िया जिला का जनसंहार इसका ताजा उदाहरण है।
लगभग एक दर्जन नदियों के बीच बसा यह जिला बिहार के अत्यंत पिछड़े जिलों में से एक है। भले देश ने स्वतंत्रता प्राप्ती का 63वां सालगिरह मना लिया हो, लेकिन खगड़िया जिला आज भी मध्यकालीन युग में है। वर्षों से यहां के लोग घोर गरीबी में जी रहे हैं। साल में छह महीने तक इस जिले का एक तिहाई हिस्सा बाढ़ में डुबा रहता है। इसे आप डुबा जिला भी कह सकते हैं। घर-घर में बेरोजगारी है। मवेशी और मकई के सहारे खगड़िया ने कई दशकों तक गुजारा किया है। बगैर रोड, स्कूल, शिक्षा और चिकित्सा के समय काटा है। लेकिन अब वे जलालत की इस जिंदगी से निजात पाना चाहते हैं। टेलीविजन और मीडिया के जरिये वे भी दुनिया की रंगीनियों को देख रहे हैं। जब वे बांकी की दुनिया से खुद की तुलना करते हैं तो व्यवस्था के प्रति उनके मन में भारी घृणा पैदा होती है। यह अलग बात है कि सरकार को लोगों के आक्रोश का कोई इल्म नहीं । खगड़िया जिले के कुछ गांवों में जाइये, आप पूरा गांव घुम जायेंगे, लेकिन आपको एक अदद मैट्रिक पास युवक नहीं मिलेगा। हां, हर घर में देसी बंदूक , रिवॉल्वर, कारतूस और बम मिल जायेंगे।ज्यादातर सुदूरवर्ती गावों में डकैतों के कई गिरोह हैं। वे घोड़ा और बंदूक रखते हैं । दिन में सोते हैं और रात को दूर-दूर तक डकैती करने चले जाते हैं। कोसी, बागमती,करेह और गंगा का विशाल दियारा उन्हें सुरक्षित ठिकाना मुहैया कराता है, जहां पुलिस कभी नहीं पहुंचती। हर साल इन दियारों में दर्जनों लाशें गिरती हैं, लेकिन पुलिस कुछ नहीं कर पाती।
माओवादी नक्सलियों ने इसका फायदा उठाया है। नक्सलियों को क्या चाहिए ? ...गरीबी, बेरोजगारी और अशिक्षा... खगड़िया जिले में ये तीनों उपलब्ध है। इसलिए विगत पांच-छह वर्षों में नक्सलियों ने इस जिले में भी अपना नेटवर्क तैयार कर लिया। लेकिन सरकार हाथ-पर-हाथ धरकर बैठी रही। सरकार हमेशा इसी मुगालते में रही कि खगड़िया, सहरसा, सुपौल और मधेपुरा में कभी नक्सली पहुंच ही नहीं सकते। क्योंकि कोशी अंचल के समाज में जातीय घृणा और विभाजन जैसी कोई बात नहीं है। यहां हिंसा हो ही नहीं सकती क्योंकि यह अंचल शांति-प्रिय क्षेत्र रहा है। लेकिन सरकार के सारे चिंतक और नियंता भूल गये कि गरीबी से बड़ी घृणा कुछ नहीं होती, कि गरीबी खुद अपने आप में एक भयानक हिंसा है। अगर हिंसा नहीं तो हिंसा के बीज तो है ही।
अमौसी नरसंहार के बाद यह बात साबित हो गयी है कि अब कोशी प्रमंडल भी माओवादी नक्सलियों के चंगुल से मुक्त नहीं रहा। अब उन्होंने अपना नेटवर्क इतना मजबूत कर लिया है कि वह इलाके में ऑपरेट कर सकते हैं। सहरसा के कोशी दियारा में भी दो साल पहले उसने अपने वजूद का एहसास कराया था। तब पुलिस भौचक्क रह गयी थी जब एक दिन अचानक दो दर्जन हथियारबंद माओवादियों से सहरसा पुलिस की भिड़ंत हो गयी थी। इससे पहले वे इस गलतफहमी में थे कि सहरसा जिले में माओवादियों का अस्तित्व नहीं है। जबकि सच्चाई यह है कि पिछले एक दशक से माओवादी कोशी अंचल में अपना नेटवर्क फैलाने में लगे हैं।
खगड़िया के अमौसी जनसंहार को देखकर लगता है कि अब वे इन इलाके में ऑपरेट करने की स्थिति में आ गये हैं। गांवों में ठिकाने खोजने के लिए उन्हें लोगों का समर्थन चाहिए। इसके लिए वे जातियों के बीच खूनी घृणा फैलायेंगे। जब ऐसी पांच-दस घटनाएं घट जायेंगी तब उन्हें आराम से किसी एक समुदाय का समर्थन हासिल हो जायेगा, जिसका वे तथाकथित मसीहा बनेंगे। नारे देंगे। लेवी लेंगे। लाश के बदले लाशें गिरेंगीऔर धीरे-धीरे पूरा इलाका माओवादियों के गिरफ्त में आता चला जायेगा। मध्य बिहार में उसने इसी तरह अपने लिए जमीन तैयार की थी। लेकिन सरकारों के पास इससे निपटने की कोई ठोस नीति नहीं है। अगर सरकार के पास कोई नीति होती, तो खगड़िया आज भी उतना ही दरिद्र नहीं होता जितना वह स्वतंत्रता प्राप्ति से पहले था।
यह सच है कि कोशी अंचल सामाजिक सद्‌भाव के लिहाज से देश का सबसे आदर्श इलाका है। तमाम उन्मादी राजनीति के बावजूद यह इलाका आज भी सामाजिक समरसता में विश्वास रखता है। लेकिन पिछड़ेपन, गरीबी और सरकारी उपेक्षा (इसमें राज्य और केंद्र दोनों की भूमिका रही है) और अतिवादी शक्तियों के षड़यंत्र के कारण इसमें तेजी से छीजन हो रहा है।