गुरुवार, 15 अक्टूबर 2009

एक कुम्हार की याद

जंगल पंडित मेरे गांव के सबसे पुराने कुम्हार थे। बहुत वृद्ध हो गये थे। ठीक से नहीं पता, लेकिन 90 से ऊपर के ही रहे होंगे। तीन सप्ताह पहले, ठीक अष्टमी के दिन उनका निधन हो गया। संयोग से उस दिन मैं भी गांव में ही था। गांव वालों के लिए यह कोई बड़ी खबर नहीं थी। सभी दशहरा मेले का आनंद लेने में मग्न थे और एक कुम्हार का मर जाना, उनके लिए कोई मायने नहीं रखता था। हालांकि जंगल पंडित उनके लिए बहुत मायने रखते थे। मुझे जंगल पंडित के निधन का दुखद समाचार अपनी मां से मिला। उस दिन अपनी सास के कहने पर जंगल पंडित की बहु मेरी मां के पास आयी थी। बहुत देर तक रोती रही थी। कह रही थी- "बूढ़वा के मरने के समय भी गाम (गांव) की बात कह रहा था। पूछ रहा था कि ओकर मौत के बाद के संभालेगा ई गाम को ? हम का जवाब देते माय ? बस आंखि नोर(आंसू) से भइर गिया। लेकिन दुख ई रहा कि एको ठो गाम वाला उनको मरने के दिन भी देखने नैय आया। ''
जंगल एक व्यक्ति नहीं थे, बल्कि एक धरोहर थे। उनके बेटे-पोते ने मिट्टी से तौबा कर ली है। कोई पंजाब में है तो कोई अरब में। पिछले कई वर्षों से वह गांव की प्राचीन परंपरा का भार ढो रहा था। शादी, ब्याह, होली, दशहरा, उपनयन में कुम्हारों की अनिवार्य भूमिका वह अकेले निभा रहा था। उसका कहना था," फर्ज को कैसे छोड़ दूं ? बाप-दादा की परंपरा को कैसे तोड़ दूं ।'' वैसे कहने के लिए तो गांव में कुम्हारों के सौ परिवार हैं, लेकिन मिट्टी के काम से सभी तौबा कर चुके हैं। नयी पीढ़ी तो चाक की चर्चा करते ही भड़क उठती है।
मैंने मां से पूछा-"अब गांव के लोग क्या करेंगे ? कहां से लायेंगे ब्याह की मटकूरी, पूजा की मूर्ति दीपावली के दीप और श्मशान घाट के पातिल ?''
मां कुछ देर तक चुप रही, फिर बोली- " क्यों बाजार है न ? लोग बाजार से ले आयेंगेसब कुछ। मिट्टी न सही, प्लास्टिक के तो मिल ही जाते हैं।''
मैंने पूछा - " पर कुम्हार कहां से लायेंगे ? जंगल पंडित बाजार में मिलेगा क्या ?''
इसका जवाब मां के पास नहीं था। सच कहूं तो इसका जवाब मेरे पास भी नहीं है।

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