गांवों में खोले जायेंगे मेडिकल कॉलेज ! सुनकर आश्चर्य होता है। लेकिन यह एक कान से सुनकर दूसरे कान से निकाल देने वाली बात भी नहीं है, क्योंकि यह देश के केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री गुलाम नबी आजाद का बयान है। गुलाम नबी आजाद ने कहा है कि गांवों में डाक्टरों की कमी को दूर करने के लिए सरकार जल्दी ही मेडिकल शिक्षा का वैकल्पिक योजना शुरू करने वाली है। इससे गांवों में ज्यादा डॉक्टर तैयार हो सकेंगे जो ग्रामीणों की चिकित्सा के लिए बाध्य होंगे। आजाद के मुताबिक मौजूदा व्यवस्था के साथ ही एक वैकल्पिक मेडिकल शिक्षा व्यवस्था भी शुरू की जा रही है। इसके तहत ग्रामीण मेडिकल कॉलेजों में दस हजार से कम आबादी वाले गांवों के छात्रों को ही दाखिला दिया जायेगा। उनका कहना है कि इससे गांव के छात्रों को मेडिकल की शिक्षा आसानी से उपलब्ध हो जायेगी। मगर इसके लिए एक शर्त होगी कि एक नियत समय तक उन्हें गांवों में ही रह कर प्रैक्टिस करनी होगी। मेडिकल काउंसिल आफ इंडिया (एमसीआई) इसके लिए प्रस्ताव तैयार कर चुका है। जल्दी ही इसे लागू किया जाएगा। आजाद ने कहा है कि इस पूरी प्रक्रिया में कहीं भी मेडिकल शिक्षा की गुणवता से समझौता नहीं किया जाएगा।
गुलाम नबी आजाद के उपर्युक्त कथन को दो संदर्भों में लिया जा सकता है। पहला यह कि उन्होंने ग्रामीण चिकित्सा व्यवस्था की बेचारगी को लेकर जो कुछ कहा, वह सच है और किसी केंद्रीय मंत्री की जुबान से इस सच्चाई को सुनकर थोड़ी खुशी तो जरूर होती है। लेकिन इसका दूसरा पहलू भी है। वह यह कि क्या सच में सरकार इस दिशा में कुछ करने जा रही है या फिर यह महज एक शिगुफा बनकर रह जायेगा? अगर इस समस्या को लेकर सरकार की पिछले छह दशकों की उपलब्धि पर गौर करें तो निराशा ही हाथ लगती है। आज तक तो होता यही रहा है कि सरकार की घोषणाएं (खासकर ग्रामीण चिकित्सा व्यवस्था के प्रति) बयान, अखबार, सेमिनारों से बाहर नहीं आ सकी है । अभी ज्यादा दिन नहीं बीते हैं जब पिछली सरकार के बड़बोले स्वास्थ्य मंत्री अंबुमनि रामदौस ने कहा था कि देश की चिकित्सा व्यवस्था को सुधारने के लिए अप्रवासी भारतीय डॉक्टरों को स्वदेश लौटने की इजाजत दी गयी है। उन्होंने तब कहा था कि हजारों अनिवासी भारतीय डॉक्टर स्वदेश लौटने के लिए बेकरार हैं( गौरतलब है कि सिर्फ अमेरिका में भारत के 65 हजार डॉक्टर कार्यरत हैं)। लेकिन इस घोषणा को आठ महीने हो चुके हैं पर आजतक एक भी डॉक्टर अमेरिका, इंगलैंड, जर्मनी आदि देशों को छोड़कर स्वदेश की खाक छानने वापस नहीं लौटे। कुछ ऐसा ही हश्र विदेशी मेडिकल कॉलेजों के छात्रों की डिग्री का मान्यता देने की घोषणा की भी हुई । जबकि देश की ग्रामीण स्वास्थ्य व्यवस्था की असलियत रोंगटे खड़े कर देते हैं। इन आंकड़ों को देखकर विश्वास नहीं होता कि भारत को स्वतंत्र हुए छह दशक से ज्यादा हो गये हैं।
भारतीय चिकित्सा परिषद के अनुसार, वतर्मान में देश में 870 लोगों का स्वास्थ्य एक डाॅक्टर के भरोसे है। इसमें पिश्चमी पद्धति के डाॅक्टरों को हटा दिया जाये तो यह अनुपात 1600 में 1 बैठता है। योजना आयोग के अनुंसार, फिलहाल देश में छह लाख डाॅक्टरों, दो लाख दंत चिकित्सकों और लगभग 10 लाख चिकित्सा सेवकों की जरूरत है। यह िस्थति अचानक पैदा नहीं हुई है। इसके लिए देश की
दोषपूर्ण चिकित्सा नीति जिम्मेदार रही है। अस्सी के दशक में बोहरे समिति का गठन किया गया था। इस समिति से देश की स्वास्थ्य परििस्थतियों को सुधारने के लिए अध्ययन करने और सुझाव देने की मांग की गयी थी। इस समिति ने अपनी रिपोर्ट दी, लेकिन इस पर आंशिक कारर्वाइर् भी नहीं हुइर्। आथिर्क उदारीकरण के बाद तो अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं ने भी भारत को चिकित्सा ॠण और अनुदान के प्रति कोताही बरतनी शुरू कर दी । इन संस्थाओं का निर्देश साफ था कि भारत सरकार चिकित्सा व्यवस्था को भी उद्योग की शक्ल दें आैर चिकिसा की सावर्जनिक सेवाओं से अपना हाथ खीचते चले जाये। जाहिर है उनकी मंशा भारत के चिकित्सा क्षेत्र को निजी कंपनियों के लिए खोलने की है ताकि विदेशी कंपनियां देश की विशाल जनसंख्या को चिकित्सा व्यवसाय के जरिये लूट सकेऔर चिकित्सा उद्योग के सहारे अपनी झोली भर सके। इसकी परिणति अब छिपी नहीं है। सावर्जनिक चिकित्सालय से गायब होती सुविधाएं, उपकरण, जांच प्रयोशालाओं और घटती सुविधाएं इस बात का संकेत है कि सरकार उनके ही निर्देशों पर काम कर रही है। इन चिकित्सालयाें में सुविधाओं की सतत कमी और घटिया स्वास्थ्य-व्यवस्था के कारण ही अब अधिकतर साधन संपन्न लोग निजी अस्पतलालों और डाॅक्टरों के शरण में जा रहे हैं। लेकिन ये चिकित्सालय सिर्फ़ शहरी अमीरों को ही नसीब है। ग्रामीण आबादी तो भगवान के रहमोकरम पर ही है। एक अध्ययन के मुताबिक,गरीबी रेखा से नीचे रहने वाली देश की 30 करो़ड आबादी आज भी बुनियादी स्वास्थ्य-व्यवस्था से वंचित है।
जहां तक आजाद की घोषणा की व्यवहारिक संभावना की बात है तो यहां यह याद दिलाना आवश्यक है कि देश के 80 प्रतिशत गांव आज भी महाविद्यालयों से वंचित हैं। ऐसे में गांवों में मेडिकल महाविद्यालय की बात, तो दिवास्वप्न ही लगती है। हालांकि यह जरूरी है। तमाम सुविधाओं से वंचित भारत की सत्तर प्रतिशत ग्रामीण आबादी का यह हक भी है।
गुलाम नबी आजाद के उपर्युक्त कथन को दो संदर्भों में लिया जा सकता है। पहला यह कि उन्होंने ग्रामीण चिकित्सा व्यवस्था की बेचारगी को लेकर जो कुछ कहा, वह सच है और किसी केंद्रीय मंत्री की जुबान से इस सच्चाई को सुनकर थोड़ी खुशी तो जरूर होती है। लेकिन इसका दूसरा पहलू भी है। वह यह कि क्या सच में सरकार इस दिशा में कुछ करने जा रही है या फिर यह महज एक शिगुफा बनकर रह जायेगा? अगर इस समस्या को लेकर सरकार की पिछले छह दशकों की उपलब्धि पर गौर करें तो निराशा ही हाथ लगती है। आज तक तो होता यही रहा है कि सरकार की घोषणाएं (खासकर ग्रामीण चिकित्सा व्यवस्था के प्रति) बयान, अखबार, सेमिनारों से बाहर नहीं आ सकी है । अभी ज्यादा दिन नहीं बीते हैं जब पिछली सरकार के बड़बोले स्वास्थ्य मंत्री अंबुमनि रामदौस ने कहा था कि देश की चिकित्सा व्यवस्था को सुधारने के लिए अप्रवासी भारतीय डॉक्टरों को स्वदेश लौटने की इजाजत दी गयी है। उन्होंने तब कहा था कि हजारों अनिवासी भारतीय डॉक्टर स्वदेश लौटने के लिए बेकरार हैं( गौरतलब है कि सिर्फ अमेरिका में भारत के 65 हजार डॉक्टर कार्यरत हैं)। लेकिन इस घोषणा को आठ महीने हो चुके हैं पर आजतक एक भी डॉक्टर अमेरिका, इंगलैंड, जर्मनी आदि देशों को छोड़कर स्वदेश की खाक छानने वापस नहीं लौटे। कुछ ऐसा ही हश्र विदेशी मेडिकल कॉलेजों के छात्रों की डिग्री का मान्यता देने की घोषणा की भी हुई । जबकि देश की ग्रामीण स्वास्थ्य व्यवस्था की असलियत रोंगटे खड़े कर देते हैं। इन आंकड़ों को देखकर विश्वास नहीं होता कि भारत को स्वतंत्र हुए छह दशक से ज्यादा हो गये हैं।
भारतीय चिकित्सा परिषद के अनुसार, वतर्मान में देश में 870 लोगों का स्वास्थ्य एक डाॅक्टर के भरोसे है। इसमें पिश्चमी पद्धति के डाॅक्टरों को हटा दिया जाये तो यह अनुपात 1600 में 1 बैठता है। योजना आयोग के अनुंसार, फिलहाल देश में छह लाख डाॅक्टरों, दो लाख दंत चिकित्सकों और लगभग 10 लाख चिकित्सा सेवकों की जरूरत है। यह िस्थति अचानक पैदा नहीं हुई है। इसके लिए देश की
दोषपूर्ण चिकित्सा नीति जिम्मेदार रही है। अस्सी के दशक में बोहरे समिति का गठन किया गया था। इस समिति से देश की स्वास्थ्य परििस्थतियों को सुधारने के लिए अध्ययन करने और सुझाव देने की मांग की गयी थी। इस समिति ने अपनी रिपोर्ट दी, लेकिन इस पर आंशिक कारर्वाइर् भी नहीं हुइर्। आथिर्क उदारीकरण के बाद तो अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं ने भी भारत को चिकित्सा ॠण और अनुदान के प्रति कोताही बरतनी शुरू कर दी । इन संस्थाओं का निर्देश साफ था कि भारत सरकार चिकित्सा व्यवस्था को भी उद्योग की शक्ल दें आैर चिकिसा की सावर्जनिक सेवाओं से अपना हाथ खीचते चले जाये। जाहिर है उनकी मंशा भारत के चिकित्सा क्षेत्र को निजी कंपनियों के लिए खोलने की है ताकि विदेशी कंपनियां देश की विशाल जनसंख्या को चिकित्सा व्यवसाय के जरिये लूट सकेऔर चिकित्सा उद्योग के सहारे अपनी झोली भर सके। इसकी परिणति अब छिपी नहीं है। सावर्जनिक चिकित्सालय से गायब होती सुविधाएं, उपकरण, जांच प्रयोशालाओं और घटती सुविधाएं इस बात का संकेत है कि सरकार उनके ही निर्देशों पर काम कर रही है। इन चिकित्सालयाें में सुविधाओं की सतत कमी और घटिया स्वास्थ्य-व्यवस्था के कारण ही अब अधिकतर साधन संपन्न लोग निजी अस्पतलालों और डाॅक्टरों के शरण में जा रहे हैं। लेकिन ये चिकित्सालय सिर्फ़ शहरी अमीरों को ही नसीब है। ग्रामीण आबादी तो भगवान के रहमोकरम पर ही है। एक अध्ययन के मुताबिक,गरीबी रेखा से नीचे रहने वाली देश की 30 करो़ड आबादी आज भी बुनियादी स्वास्थ्य-व्यवस्था से वंचित है।
जहां तक आजाद की घोषणा की व्यवहारिक संभावना की बात है तो यहां यह याद दिलाना आवश्यक है कि देश के 80 प्रतिशत गांव आज भी महाविद्यालयों से वंचित हैं। ऐसे में गांवों में मेडिकल महाविद्यालय की बात, तो दिवास्वप्न ही लगती है। हालांकि यह जरूरी है। तमाम सुविधाओं से वंचित भारत की सत्तर प्रतिशत ग्रामीण आबादी का यह हक भी है।
5 टिप्पणियां:
हमारे देश में बुनियादी बात कुछ हो न हो, लेकिन प्रचार पाने के टोटके उस के नाम पर बहुत किए जाते हैं।
आँखे खुली रह गयी आपका पोस्ट पढ़ कर ........... ये एक दुखद स्तिथि है .......... और सरकार की galat neetiyan इन सब के लिए jimmevaar हैं ..........
हमारी सरकार के सारे कार्यक्रम ऐसे ही होते हैं !!
आपकी बातों से पूर्णत सहमत हूं। एक आंख खोल देने वाली पोस्ट है, आभार।
( Treasurer-S. T. )
abhi jo doctor padhae kar niklte hai vo to jana hi nahi chahte hai... un fir kaise village ke liye prarit kiya ja sakta hai... aj medical ki padhai me 40 50 tuk lug gata hai. akle manipal college ka fee 30 lakh ke as pas hai. itna paisa kaun de sakta hai. ja hir si baat hai vah varg gise paise ki koi dikkat nahi hai.... fir village ka student kaha se survive kur sakta hai... ye sub bus sigupha hai... badhia lekh ranjit ji.... shubhkamnaye .....
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