शनिवार, 30 मई 2009

स्याही सूखने से पहले / पत्रकारिता दिवस पर

183 वर्ष पहले आज ही के दिन हिन्दी का पहला समाचार पत्र - उद्दंत मार्तण्ड प्रकाशित हुआ था, इसलिए हर साल 30 मई को पत्रकारिता दिवस मनाया जाता है। यह अभिव्यक्ति और सूचना संप्रेषण के कार्यों में लगे पत्रकारों के लिए खास दिन तो है ही साथ ही जो इस पेशे में नहीं हैं उनके लिए भी विशेष तारीख है। चूंकि पत्रकारिता की उत्पति मनुष्य की बुनियादी जरुरत - विचार की स्वतंत्रता, विचार की अभिव्यक्ति और सूचनाओं के साझेकरण से हुई है; इस कारण भी आज का दिन हर किसी के लिए खास है। 183 वर्षों के लंबे सफर के बाद आज अपने देश की पत्रकारिता कहां पहुंची है ? पत्रकारिता आज किस पड़ाव पर है ? आज उसका चरित्र कैसा है ? आज वह जिस चरित्र को जी रहा है वह उसे आने वाले दिनों में किस भविष्य की ओर ले जायेगा ? जो भूमिका आज वह निभा रही है और जिस चरित्र को पत्रकारिता आज जी रही है, वे उनकी प्रासंगिकता को जिंदा रख पायेंगे भी कि नहीं ? ये कुछ ऐसे चीखते सवाल हैं, जो आज की पत्रकारिता के ललाट पर सिद्यत से चिपके हुए हैं ? समाज इसका जवाब पत्रकारों से मांग रहा है, जबकि जवाब उनके हिस्से से भी आने चाहिए । और मुझे लगता है कि आखिरकार समाज को ही इस सवाल का जवाब ढूंढना होगा।
बहुतेरे लोग आज पत्रकारों और पत्रकारिता की भूमिका पर सवाल उठाते हैं। हालांकि उनकी असहमति के कारण अलग-अलग होते हैं। कोई पत्रकारिता से गायब होती सुचिता पर गहरा क्षोभ प्रकट कर रहा है, तो कोई उसे अपने मूल सरोकार से भटका हुआ करार दे रहा है। कोई पत्रकारिता से इसलिए खफा है कि वह उसके वाद (इज्म) में फिट नहीं होता । कोई पत्रकारिता के पूर्वाग्रह से त्रस्त है तो कोई खबरों से गायब होती संवेदनशीलता के कारण निराशा प्रकट कर रहे हैं। सवालों के अगले अध्याय में तो सीधे-सीधे पत्रकारों को संदेह के घेरे में ले लिया जाता है। बहुतेरे लोग और अक्सर साधन-शक्ति से संपन्न लोग पत्रकारों पर नैतिक पतन, भ्रष्टाचार, दोमुंहें व्यवहार के आरोप लगाते हैं और अपने निजी या सुने-सुनाये अनुभवों के आधार पर सारे पत्रकारों को भ्रष्ट और च्यूत घोषित कर देते हैं। हैरानी तो तब होती है जब मीडिया के सहारे रातों-रात स्टार बनने वाले भी किसी एक पत्रकार, अखबार या टेलीविजन की किसी रिपोर्ट के आधार पर पूरे मीडिया को ही नकारा और पथभ्रष्ट करार देते हैं। इनमें नेता, अधिकारी, न्यायमूर्ति, खिलाड़ी और अभिनेता तक शामिल हैं। ऐसे लोग मीडिया से हमेशा मनपसंद कार्यक्रम-रिपोर्ट की ही उम्मीद रखते हैं । गोया मीडिया, मीडिया न होकर कोई हिट फिल्म हो!
मेरे विचार से ऊपर हमने जिन सवालों पर विचार किए वे सभी आधे-सच हैं और आधे झूठ। सच इसलिए कि आज कोई भी पत्रकार यह नहीं कह सकता कि पत्रकारिता का दामन पाक-साफ है। झूठ इसलिए कि इन दागों के लिए अंततः समाज जिम्मेदार है और उनके आरोप असल में उनकी पलायनवादी या स्वार्थी मानसिकता से उपजते हैं न कि तटस्थ मूल्यांकन से। आखिर हम यह क्यों नहीं सोचते कि पत्रकारिता भी इसी समाज का एक अंग है। पत्रकारिता में भी इसी समाज के लोग आते हैं।अखबार जन्नत से छपकर धरती पर नहीं उतरते। आज जब समाज का जर्रा-जर्रा बाजारवादी व्यवस्था और उसके आदर्शों में आकंठ डूब चुका है, तो पत्रकार उससे कैसे मुक्त रहे। समाज रुपये की अराधना कर रहा हो, उसी से प्रेरित, उसी से मोहित हो तो पत्रकार कलम से कितना अलख जगा पायेगा? पत्रकारिता में परिवर्तन की आस लेकर आने वाले पत्रकारों से, जिन्होंने मालिकों के एजेंडा को पब्लिक पर नहीं लादा और एक क्षण में बेरोजगार हो गये; क्या आज तक किसी ने उनसे पूछा कि उनके घर में दो दिनों से चूल्हे क्यों नहीं जले? कलम को बंदूक के बल पर चुप करा देने वालों के खिलाफ क्या किसी भी समाज ने आज तक सड़कें जाम की? यह कैसा विरोधाभास है ? एक तरफ अश्लील और उत्तेजक सामग्रियों पर आंसू भी बहाई जाती हैं और दूसरी ओर उनकी टीआरपी भी बढ़ती रहती है?
दरअसल कलम की स्याही दवात से नहीं संवेदनशील और जागरूक समाज से आती है। अगर समाज ही सो जायेगा तो स्याही को सूखने से कोई नहीं रोक सकता ?पत्रकारिता की प्रासंगिकता को अगर बचाये रखना है जोकि उसकी तटस्थता, विश्वसनीयता और वस्तुनिष्ठता से आती है, तो पत्रकारों और अखबारों के मालिकों को भी अपनी सोच बदलनी होगी। इसे लाभ कमाने वाला व्यवसाय समझने की जीद त्यागनी होगी। मीडिया को औजार या फ़िर पावर लॉबी में पहुँचने का रास्ता समझने के बाल-हठ से मुक्ति पानी हगी । क्योंकि पत्रकारिता विशुद्ध बाज़ार नहीं है और है भी तो कुछ दूजा किस्म का । यहां विश्वसनीयता खत्म, तो दूकान बंद।

शुक्रवार, 29 मई 2009

परिवारवाद जिंदावाद !

देशवासियों को यूपीए सरकार का एहसान मानना चाहिए क्योंकि इसने परिवारवाद को एक बार फिर ऐतिहासिक बुलंदियों पर पहुंचाया है, जो मुगल वंश के पतन के बाद कहीं खो गया था । यूपीए के कर्णधारों ने देशवासियों को सदियों पुराने राजतंत्र की याद दिलायी है, इसलिए वे हार्दिक अभिनंदन के हकदार हैं। हमें करुणानिधि को कोटि-कोटि धन्यवाद देना चाहिए कि उन्होंने लोगों की इस गलतफहमी को दूर कर दिया है कि भारत में लोकतंत्र है। हमें आंध्रप्रदेश के मुख्यमंत्री राजशेखर रेड्‌डी को नमन करना चाहिए क्योंकि उन्होंने राखी की लाज रख ली है और सगी बहन काे राज्य की गृह मंत्री की कुर्सी नवाजा है। वैसे भी कुछ समय से न्यूक्लियर फैमिली के रोग के कारण देश पर परिवारों के विघटन का खतरा मंडरा रहा था।
यूपीए सरकार की इस परिवारवादी मुहिम से सदियों पुराने भारतीय संयुक्त परिवार की परंपरा को जीवन दान मिलेगा। इसके कारण इन्हें अलग से धन्यवाद प्रेषिद किया जाना चाहिए। करुणानिधि ने अपने घर के सभी प्रमुख सदस्यों को राजगद्दी पर बिठाकर यह साबित कर दिया है कि वे हरियक, शुंग, मौर्य, सातवाहन,पाल, गुप्त, खिलजी, लोदी और मुगल वंश की परंपराओं को भूले नहीं हैं। चाहे जो भी तंत्र हो, वह राजतंत्र की लौ को मद्धिम नहीं पड़ने देंगे। पहले देश में परिवारवाद का उपासक सिर्फ गांधी परिवार हुआ करता था अब तमाम बड़े नेताओं ने इस धर्म को अपना लिया है। इसलिए गांधी परिवार अब खुद को अल्पसंख्यक महसूस नहीं करेगा। आंध्र प्रदेश से लेकर मेघालय और तक परिवारवादी धर्म का पताका फहरा रहा है।गांधी परिवार इस धर्म के प्रणेता हैं, इसलिए उन्हें जल्द ही पूज्यनीय और अराध्य घोषित कर देना चाहिए। परिवारवाद के समर्थक तेजी से इस ओर बढ़ रहे हैं। देश में जगह-जगह उनके नाम के मंदिर बनने चाहिए। अराध्य गीतों की रचना होनी चाहिए। एक गीत यह हो सकता है- जय हो यूपीए, जय हो गांधी परिवार। जय हो परिवारवाद ! जय हो... जय हो... जय-जय-जय, जय हो...

बुधवार, 27 मई 2009

कोशी का पायलट चैनल टूटा, कुसहा तटबंध फिर गंभीर संकट में

चार महीनों से मैं जिन खतरों की आशंका प्रकट कर रहा था वे आज दोपहर सामने आ ही गये। कुसहा से मिली जानकारी के अनुसार, कोशी नदी ने आज कुसहा के निकट मधुबन (नेपाल) में तीन पायलट चैनल को ध्वस्त कर दिया है और वह दोवारा पिछले साल के अपने परिवर्तित मार्ग से होकर बहने की कोशिश कर रही है। स्थानीय लोगों का कहना है कि नदी अपने परंपरागत मार्ग को त्यागने की चेष्टा कर रही है। हालांकि अभी दो पायलट चैनल के टूटने की ही सूचना है, लेकिन अगर कोशी के जलग्रहण क्षेत्रों में बारिश जारी रही , तो सभी चैनलों का टूटना लगभग निश्चित है। गौरतलब है कि पायलट चैनल की मदद से कोशी को पिछली जनवरी में उसके असली मार्ग में लाया गया था। इसके बाद ही कुसहा में तटबंध मरम्मत का काम प्रारंभ हुआ था। योजना के मुताबिक , इस वर्ष मार्च से पहले ही कुसहा में तटबंध को पुख्ता कर लिया जाना था। अगर यह काम पूरा हो गया रहता तो अभी कोई खतरा नहीं रहता। लेकिन यह काम अभी तक अधूरा है और अभी तटबंध की स्थिति ऐसी नहीं है कि वह नदी के वेग को संभाल सके ।
पायलट चैनलों के टूटने का सीधा असर कुसहा में नवनिर्मित तटबंध पर पड़ेगा। चूंकि अभी तक इस तटबंध के स्पर नहीं बनाये जा सके हैं और तटबंध का पक्कीकरण भी नहीं हुआ है, इसलिए अब इस बात की संभावना काफी ज्यादा है कि नदी एक बार नवनिर्मित नाजुक तटबंध को तोड़ दे और पिछले अगस्त की नयी धारा की ओर बढ़ जाये। ऐसी परिस्थिति में पूर्वी बिहार के सुपौल, सहरसा, अररिया, पूर्णिया और मधेपुरा जिले के अलावा नेपाल के सुनसरी जिले में फिर जलप्रलय आ जायेगा। अब सबकुछ इंद्र भगवान पर निर्भर है अगर बारिश रूकी तो कुछ प्रयास भी हो सकते है, अगर नहीं रूकी तो फिर हाथ पर हाथ धरकर तमाशा देखने के सिवा कुछ नहीं किया जा सकता। पता नहीं सरकारी महकमें को इसकी सूचना है भी की नहीं। खुदा हाफिज। आमीन...

मंगलवार, 26 मई 2009

कहीं पुनर्प्रलय का कारण न बन जाये ये सुस्ती

दहाये हुए देस का दर्द-45
दशकों की आदत कुछ दिनों में खत्म नहीं हो सकती, भले ही इसके कारण लाखों लोगों का जीवन खतरे में पड़ जाये। हमारी सरकारी मशीनरी एक बर्ष के कार्य को पांच वर्ष में और पांच वर्ष की योजना को पच्चीस वर्ष में पूरी करने की इतनी आदि हो चुकी हैं कि वह अब सामान्य और आपात स्थिति में भी फर्क नहीं कर पाती। कोशी के कुसहा तटबंध के मरम्मत-कार्य की सुस्ती को देखने के बाद बिहार सरकार की अफसरशाही और उसकी कार्यशैली के प्रति यही राय बनती है। मानसून दरबाजे पर दस्तक दे रहा है, लेकिन कोशी नदी के कुसहा तटबंध की मरम्मत अभी तक पूरी नहीं हो सकी है। लोग सहमे हुए हैं, विशेषज्ञ माथा पीट रहे हैं, लेकिन बिहार और केंद्र सरकार कान में घी डालकर सोयी हुई है। कुसहा में कटे हुए तटबंध को बांध तो दिया गया है, लेकिन उसका पक्कीकरण नहीं किया गया है, जिसके कारण हल्की बारिश में ही तटबंध की कच्ची मिट्टी अपरदित होकर इधर-उधर बह रही है। इसके अलावा अभी तक तटबंध के टूटे हुए हिस्से के स्परें (ठोकर ) भी नहीं बन पाये हैं। जबकि 1700 मीटर के इस क्षतिग्रस्त हिस्से में कुल मिलाकर पांच स्परों का निर्माण प्रस्तावित है। गौरतलब है कि स्पर के बगैर तटबंधों की कोई अहमियत नहीं होती। अगर स्पर नहीं हो तो नदी की साधारण जलधारा भी तटबंध को बहा ले जा सकती है। दरअसल स्पर ही तटबंधों की असल शक्ति होते हैं। यह जलधारा के वेग को कम करते हैं और साथ ही धारा के वेग को तटबंध तक नहीं पहुंचने देते हैं। लेकिन इस तथ्य को जानते हुए भी सरकारें निष्क्रिय हैं। अगर बारिश शुरू होने से पहले स्परों का निर्माण नहीं हुआ तो दुनिया की कोई शक्ति कुसहा में तटबंध को दोबारा टूटने से नहीं रोक सकती। ऐसी स्थिति में एक बार फिर कुसहा में तटबंध के टूटने और पूर्वी बिहार में दोबारा प्रलय आने की आशंका प्रबल हो गयी है। उल्लेखनीय है कि कुसहा में मार्च तक सभी कार्यों को पूरा करने का लक्ष्य निर्धारित किया गया था। लेकिन अभी तक यह तिथि आधा दर्जन बार आगे बढ़ायी गयी है। लगभग डेढ़ दर्जन बार काम को रोका गया, जबकि इसे युद्ध स्तर पर पूरा किया जाना था।

शायद भविष्य के लिए

1
आज नहीं, तो कल
जवानी में नहीं, तो शायद बुढ़ापे में
सौ से नहीं, तो शायद हजार से
नकदी से नहीं, तो उधार से
खुरपी से नहीं, तो कुल्हाड़ से
जीकर नहीं, तो मरकर ही सही
हमें नहीं, तो हमारे बेटे-पोते को ही
शायद वे सब कुछ होंगे
गांव में आलीशान मकान, मकान में नौकर और बैंकों में खाते
2
आज नहीं, तो कल
मेहनत से नहीं, तो रिश्वत से
छोटी -मोटी घूस या फिर फिक्सड कमीशन से
पहले चोरी-चोरी फिर सीनोजोरी से
दलाली, बेईमानी और झूठखोरी से
आंसुओं के सौदे से हो या फिर मासूमों के लहू से
लेकिन एक दिन
हमारे वश में होगा यह शहर
इस की आयतें और क्लास-वन स्टेटस
वीआइपी कॉलोनी की शानदार इमारतें, एसी गाड़ियां और सारी सुंदर छोड़ियां
3
आज नहीं, तो कल आयेगा
बैलेट नहीं, तो बुलेट से
तुष्टीकरण, पुष्टीकरण या फिर मुष्टिकरण से
हिन्दू नहीं, तो मुस्लिम से
अगड़े नहीं, तो पिछड़े से
दंगा से या फसाद से
घपले या घोटाले से
या फिर आले दर्जे की मक्कारी से
एक दिन
हमारे हाथ भी आयेंगे
ये कुर्सी, ये सत्ता, वो शक्ति वो रुतवा
उपसंहार
माटी कहे कुम्हार से तू क्या रौंदे मोहि
एक दिन ऐसा आयेगा मैं रौंदूंगा तोहि
 
 
 

सोमवार, 25 मई 2009

वट वृक्ष पूजा / परम्परा और पर्यावरण का अद्‌भूत पर्व

उत्तर बिहार के मिथिला और कोशी अंचल का प्रसिद्ध वट वृक्ष पूजा यानी वट सावित्री पूजा कल पूरे देश में मनाया गया। हालांकी शहराती जिंदगी और मेट्रो कल्चर के कारण शहरों में यह प्राचीन पूजा तेजी से लुप्त हो रही है, लेकिन गांवों में आज भी इसे पूरे उल्लास के साथ मनाया जाता है। मिथिला और कोशी का यह प्राचीन पूजा सुहागिन औरतें मनाती हैं। परम्परागत तौर पर वट सावित्री पर्व स्त्री-पुरुष के प्रेम को समर्पित है जिसमें विवाहित औरतें अपने पति के दीघार्यु होने की कामना करती हैं। ऐसा कहा जाता है कि इस दिन औरतें दीघार्यु जीवन के प्रतीक - वट वृक्ष की जड़ों में पानी देकर अपने पति के लंबे जीवन की कामना करती हैं। लेकिन अगर इसके गूढ़ार्थ में जायें तो यह पर्व प्रकृति और पर्यावरण के महत्व को रेखांकित करता है। मिथिला और कोशी अंचल में वट, पाखर, पीपल जैसे लंबी उम्र वाले वृक्षों की कटाई निषिद्ध है। लोग इन पेड़ों की लकड़ियों का इस्तेमाल नहीं करते। इलाके में इन पेड़ों को देव तुल्य माना जाता है। इसलिए इनकी कटाई और घरेलू इस्तेमाल में इसका किसी भी तरह का उपयोग पाप है। इन पेड़ों की रक्षा करने और उन्हें रोपने वालों को सम्मान की नजर से देखा जाता है और कहा जाता है कि जो ये पेड़ लगायेंगे वे पुण्य के भागीदार होंगे। यही कारण है कि मिथिलांचल और कोशी अंचल में अक्सर ग्राम देवताओं, सरायों और सूनसान जगहों पर ये पेड़ बहुतायत में मिलते हैं।
आज जब प्राकृतिक असंतुलन और पर्यावरण के खतरे ने पूरी दुनिया को अपने आगोश में ले लिया है, तो वट सावित्री जैसे पर्वों की प्रासंगिकता स्पष्ट होती है और इसका महत्व समझ में आता है । इससे यह भी स्पष्ट होता है कि हमारे पूर्वजों ने लौकिक जीवन के तमाम पहलुओं पर काफी गंभीर अध्ययन किए थे। उन्हें प्रकृति और पर्यावरण के अन्योन्याश्रय संबंधों की विशद जानकारी थी। इसलिए उन्होंने पर्यावरण संतुलन को बनाये रखने के लिए तरह-तरह की पंरपराओं की शुरुआत की क्योंकि उन्हें मालूम था किकानून बनाकर पर्यावरण की रक्षा नहीं की जा सकती। लेकिन उत्तर आधुनिक संस्कृति इन परंपराओं को ढोंग मानती है। आज ऐसी परंपराओं को बढ़ावा देने की आवश्यकता है। आधुनिकता की एकरंगी रोशनी में हम परंपराओं के गूढ़ार्थ को नहीं समझ सकते। इसके लिए वैज्ञानिक दृष्टिकोणों के साथ-साथ तटस्थ आध्यात्मिक दृष्टि की भी जरूरत है।

बुधवार, 20 मई 2009

नेपाली संसदीय समिति की सिफारिश, बंद करो खुली आवाजाही

नेपाल की एक संसदीय समिति ने सिफारिश की है कि भारत-नेपाल की खुली सीमाओं पर बाड़ लगाया जायेऔर नेपाल आने के लिए पासपोर्ट और पहचान कार्ड अनिवार्य कर दिया जाये। इस समिति का गठन साल भर पहले माओवादी प्रधानमंत्री पुष्प कमल दहल उर्फ प्रचंड की सरकार ने की थी। नेपाल इंटरेस्ट प्रीजर्वेशन कमिटि (एआइपीसी) ने कल अपनी रिपोर्ट वहां की संविधान सभा को सौंपी है। मिली जानकारी के अनुसार, सिफारिशों में कहा गया है कि खुली सीमा और खुली आवाजाही नेपाल की एकता और अखंडता के लिए घातक है। इसके कारण नेपाल में देश विरोधी गतिविधियां बढ़ रही हैं और कानून-व्यवस्था बनाये रखने में समस्याएं आती रहती हैं। समिति ने अपनी सिफारिशों में कहा है कि इस मसले को नेपाल के लिए बनने वाले संविधान में भी जगह दी जाये और उसमें ऐसा प्रबंध किया जाये कि आने वाले दिनों में भारत-नेपाल की खुली सीमा और खुली आवाजाही पर नियंत्रण पाया जा सके। सिफारिश में कहा गया है कि नेपाल सरकार भारत से लगी 1800 किलोमीटर की सीमा पर अर्द्धसैनिक बलों की प्रतिनियुक्ति करे। अगर इसके लिए नये सीमा सुरक्षा बल की आवश्यकता हो, तो उसका गठन किया जाना चाहिए। इसके अलावा इस मसले पर भारत सरकार से भी नये सिरे से बात करने की सिफारिश की गयी है।
गौरतलब है कि करीब डेढ़ साल पहले जब माओवादियों ने वहां चुनाव में जीत हासिल की थी और सरकार बनाया था, तो उसके प्रधानमंत्री प्रचंड और शीर्ष नेता बाबूराम भट्टराय ने सबसे पहले यही बयान था। दोनों नेताओं ने 1950 की भारत-नेपाल मैत्री संधि को बदलने की बात कही थी। दोनों नेताओं ने यह भी कहा था कि यह संधि भेदभावपूर्ण है, जिसे बदलने की जरूरत है। प्रचंड ने तो यहां तक कह दिया था कि भारत ने इस संधि के जरिए नेपाल को गुलाम बना लिया है। उल्लेखनीय है कि इसी संधि के जरिए ही सदियों पुराने भारतीय-नेपाली लोगों की बेरोकटोक आवाजाही को जारी रखा गया था, जिसे माओवादी सरकार खत्म करने की बात कर रही थी। इस समिति ने उसी बात को अपने सिफारिशों में कलमबद्ध किया है। हालांकि जब प्रधानमंत्री बनने के बाद प्रचंड भारत आये, तो वे कुछ और बोलने लगे।
नेपाल की संसदीय समिति की इस ताजा सिफारिश के बाद अब इस बात में कोई शक नहीं रह गया है कि नेपालाी माओवादी चीन के हाथों खेल रहे हैं। उन्हें चीनी आका जो आदेश देते हैं, वे बीना सोचे-विचारे उस पर अमल कर रहे हैं। भारत-नेपाल के बीच सदियों से बेटी-रोटी की संस्कृति है। लाखों नेपाली लोग भारत में रोजगार पाते हैं, दोनों ओर के लाखों लोगों के वैवाहिक संबंध एक-दूसरे देश में है। सोचने वाली बात है कि पलक झपकते कोई भी सरकार इस परंपरा को कैसे तोड़ पायेगी। न तो नेपाली लोग इसे बर्दाश्त कर पायेंगे और न ही भारतीय लोग। इससे दोनों ओर जन विद्रोह फैल सकता है। और माओवादियों का यही लक्ष्य है। वे चाहते हैं कि सीमाई इलाके में विद्रोह की स्थिति उत्पन्न हो जाये और वे अपने एजेंडे को तेजी से फैला सके।
दरअसल भारत-नेपाल की अंतर्राष्ट्रीय सीमा रेखा विश्व की अनोखी सीमा रेखा है, जिसे पार करने के लिए वीजा व पासपोर्ट की जरूरत नहीं होती। वैसे बेरोकटाक आवाजाही की यह परंपरा काफी पुरानी है। इसकी शुरुआत नेपाल के एक राष्ट्र के रूप में गठित होने (1780 से पहले नेपाल नामक देश का अस्तित्व नहीं था)और दोनों देशों के बीच वर्तमान अंतर्राष्ट्रीय सीमा रेखा के निर्धारण से पहले हो चुकी थी। यह क्रम नेपाल के शाह और राणा वंश के शासन काल और मुगल काल से लेकर स्वतंत्र भारत की शासन व्यवस्था में भी चलता रहा। उन दिनों हिमालय से निकलने वाली नदियों से आने वाली नियमित बाढ़ के कारण दोनों देशों के लोगों का दोनों ही ओर विस्थापन होता रहता था। बाढ़ ग्रस्त इलाके में हैजा और मलेरिया जैसे रोगों के जबर्दस्त प्रकोप और चारागाह के अभाव में दोनों ओर के कृषक समुदाय को जहां कहीं भी सूखा स्थल मिलता था वे वहीं बस जाते थे। राणा वंश के प्रधानमंत्री जंग बहादुर राणा ने तो अपने शासन काल में नेपाल के तराई प्रदेश में भारतीय लोगों को जमीन खरीदने, घर बनाने और व्यापार करने तक की खुली छूट दी। अंग्रेज शासकों ने व्यापारिक स्वार्थ और पुलिस बल में नेपाली गोरखा जवानों की भर्ती के लोभ में इस प्रवृति को हमेशा बढ़ावा दिया। ईस्ट इंडिया कंपनी और नेपाल के बीच वर्ष 1816 हुई सुगोली संधि इस बात का प्रमाण है। इन तमाम सकारात्मक और नकारात्मक कारणों से आवाजाही में भारी वृद्धि हुई और रिश्ते प्रगाढ़ होते चले गये।
पूर्वोत्तर में सिक्किम व पश्चिम बंगाल, उत्तर में बिहार एवं उत्तरप्रदेश और पश्चिम में उत्तराखंड राज्य के 21 जिले नेपाल के 26 जिलों से सीधे लगे हुये हैं। भारत के 50 जिले ऐसे हैं जहां से अंतर्राष्ट्रीय सीमा रेखा की दूरी 40 किलोमीटर या उससे कम है । 1580 किलोमीटर की लंबी सीमा रेखा में से लगभग 1100 किलोमीटर की पट्टी ऐसी है जिसके आसपास घनी आबादी है। इसकी शुरुआत उत्तरप्रदेश के पीलीभित जिले से होती है जो पश्चिम बंगाल के दार्जिलिंग तक जाती है। बिहार के मिथिलांचल इलाके के सभी 16 जिले नेपाल की सीमा के आसपास हैं और प्रति वर्ष हजारों की संख्या में इन जिलों के मैथिलीभाषी नेपाली और भारतीय लड़के-लड़कियों के बीच शादियां होती हैं। हिन्दी फिल्म के प्रसिद्ध पार्श्व गायक उदित नारायण की विवादित शादी भी इनमें से एक है। उदित नारायण के पिता की शादी भी बिहार के सुपौल जिले के बाइसी गांव में हुई थी। वैसे वे मूल रूप से नेपाल के वारदाह के हैं। ज्ञातव्य है कि मैथिली नेपाल की दूसरी सबसे बड़ी भाषा है। पश्चिम बंगाल में बंगाली भाषी भारतीय-नेपाली लड़के-लड़कियों के बीच विवाह होते हैं और उत्तरी उत्तरप्रदेश के भोजपुरी-अवधि भाषी लोग भी नेपाली सहभाषियों के साथ भारी तादाद में वैवाहिक रिश्ते बनाते हैं। बिहार के किशनगंज, अररिया, सुपौल, मधुबनी, सीतामढ़ी, मोतिहारी, पूर्वी चंपारण और पश्चिमी चंपारण जिले में तो ऐसे सैंकड़ों मां-पिता मिल जाते हैं जिनकी सभी संतानों की शादी नेपाल में है। यहां तक कि नेपाल के शाह वंश और राणा वंश के लड़के एवं लड़कियों की भी भारत में शादियां हुई हैं। सीमाई इलाकों के समाजिक तानेबाने का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि सीमाई इलाके में दर्जनों ऐसे मंदिर-मस्जिद हैं, जिनका निर्माण और जीर्णोद्धार भारतीय लोगों के पैसे से हुआ है। इन देव स्थलों पर लगने वाले मेलों में दोनाें देश के लोग भारी संख्या में भागीदारी करते हैं।
इसके अतिरिक्त सीमा के आसपास बसे लोगों के बीच व्यावसायिक रिश्ते भी काफी प्रगाढ़ हैं। सीमावर्ती इलाके के अल्पकालीन बाजारों (हाटों) में दोनों देशों के दुकानदार और ग्राहक मौजूद होते हैं। कुछ ऐसे व्यावसायिक घराने भी हैं जिनकी दूकानें एवं प्रतिष्ठान दोनों देशों में हैं। इसके उदाहरण सीमावर्ती सम्मुख शहरों के जोड़े मसलन, रक्सौल-बीरगंज, फारबिसगंज-विरॉटनगर, नक्सलबाड़ी-काकरभिट्ठा, सिरहा-जनकपुर, कुनौली-राजबिराज, बिरतामोड़- जालेश्वर और बनवासा-महेंद्र नगर आदि में प्रत्यक्ष रूप से देखे जा सकते हैं।
रोजगार और चिकित्सा के लिए भी दोनों देशों के लोग भारी संख्या में आवाजाही करते हैं। नेपाल के शहर लहान में एक नेत्र चिकित्सालय हैं जहां हर वर्ष हजारों भारतीय इलाज कराने पहुंचते हैं। जबकि बिहार के दरभंगा, मुजफ्फरपुर और उत्तर प्रदेश के वाराणसी स्थित चिकित्सा महाविद्यालय एवं अस्पतालों में प्रति वर्ष भारी तादाद में नेपाली लोग चिकित्सा के लिए पहुंचते हैं। तराई क्षेत्र के नेपाली मजदूर बिहार, उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल समेत पंजाब व हरियाणा तक मजदूरी करने चले जाते हैं।
 
 
 

सोमवार, 18 मई 2009

प्रभाकरण के प्राण के बाद



17 मई 2009 । यह तारीख इतिहास में दर्ज हो चुकी है। क्योंकि इस दिन 21वीं शताब्दी के सबसे खतरनाक गुरिल्ला आर्मी के प्रमुख वेलुपिल्लई प्रभाकरण का अंत हो गया। श्रीलंका में बहुसंख्यक सिंघली, वहां की सरकार और सैनिक जस्न मना रहे हैं। जबकि श्रीलंका , भारत और विश्व के लगभग पंद्रह देशों में बसे लाखों तमिल भयानक मातम में डूबे हुए हैं।इससे स्पष्ट हो जाता है कि यह एक व्यक्ति की मौत नहीं है, बल्कि एक विभत्स जंग का वह पड़ाव है, जो किसी के लिए जीत कहलाती है और किसी के लिए हार। लेकिन लिबरेशन टाइगर ऑफ तमिल इलम यानी एलटीटीआइ अथवा लिट्टे और श्रीलंकाई सैनिकों के लगभग तीन दशक पुराने संघर्ष की यह कहानी जीत और हार के आगे भी जाती है। क्योंकि जब दो मानव समुदाय किसी नतीजे पर पहुंचने के लिए हथियार उठाता है, तो उसकी जड़ में कोई न कोई मुद्दा होता है। और जब तक उस मुद्दे को सुलझा नहीं लिया जाता तबतक किसी की जीत नहीं होती है। अगर विजेता समुदाय जंग में आगे रहने को जीत कहते हैं और इस जीत को ही मुद्दा का समाधान मान लेते हैं, तो समझ लीजिए कि कहानी अभी जारी है। यानी मुद्दे फिर उठेंगे, समय के साथ वह बलवान होगा और चिंगारी के संपर्क में आने के साथ ही वह फिर से धधक उठेगा। युद्ध के विजेताओं की सबसे बड़ी गलतफहमी यह होती है कि वह शस्त्र संघर्ष में आगे रहने यानी जीत को ही न्याय मान लेते हैं। लेकिन सनातन सच यह कि जब तक न्याय नहीं हो जता तबतक युद्ध अधूरा रहता है। स्थगित हो होकर वह फिर से भड़कता है और तबतक जारी रहता है जबतक अन्तिम तौर पर इंसाफ नहीं हो जाये। लिट्टे और श्रीलंका सेना के बीच के युद्ध की भी यही विडंबना है। श्रीलंका सरकार तमिलों के मुद्दे को सुलझाये बगैर, न्याय किए बगैर इस कहानी को पूरी करना चाहती है। मानव इतिहास गवाह है कि ऐसा नहीं होता है। यह मानव का बुनियादी स्वभाव है कि वह मुद्दे के लिए, हक के लिए, सिद्धांत और उसूल के लिए हमेशा हथियार उठाता रहा है। यह मानवीय स्वभाव का वह बिंदु है जहां वह खुद को ईश्वर और प्रकृति से भी ऊपर उठा लेता है। आप पूछेंगे कैसे ? तो इसको संक्षेप में कुछ इस तरह समझा जा सकता है। ईश्वर या प्रकृति ने हर जीवों में यह प्रेरणा दी है कि वह अपनी जान-प्राण की हर कीमत पर रक्षा करे। जानवरों से लेकर मानव तक में यह सहज प्रेरणा होती है। जान पर अगर संकट हो तो जीव कुछ भी करने के लिए तैयार हो जाता है। जान रक्षा के लिए छोटे जानवर तक सबकुछ दांव पर लगा देते हैं। लेकिन मानव प्रकृति के इस सिद्धांत को चुनौती देता है। इतिहास में बहुत सारे ऐसे प्रकरण और उदाहरण सामने आये हैं जब देखा गया है कि मनुष्य ने अपने उसूल, सिद्धांतों और मुद्दों के लिए जान की बाजी लगा दी। जब एक इंसान किसी मुद्दे या सिद्धांत के लिए जान दे रहा होता है तो क्या वह ईश्वर के बनाये नियम को चुनौती नहीं दे रहा होता है ?
प्रभाकरण की मौत के बाद ये सवाल, ये मुद्दे फिर से उठते रहेंगे। तमिलों को दोयम दर्जे का नागरिक मानने, उनके साथ गुलामों जैसा वर्ताव करने, उन्हें अपनी मातृभूमि में ही शरणार्थी बना देने वाली श्रीलंकाई सरकार और वहां के बहुसंख्यक समुदायों की नीतियों में जबतक सच्चे अर्थों में परिवर्तन नहीं होता, तबतक प्रभाकरण जिंदा रहेगा। यह प्रभाकरण और श्रीलंकाई तमिलों के प्रति उपजी सहानुभूतियों के शब्द नहीं हैं, बल्कि समाजशास्त्र का बुनियादी सिद्धांत है। हिंसा हमेशा भर्त्सनीय होती है। हिंसा के नायक के प्रति किन्हीं के दिल में कोई सहानुभूति नहीं होनी चाहिए, ऐसा मैं भी मानता हूं। लेकिन हिंसा के हेतु -सेतु के प्रति , उनके उपजने के कारणों व कारकों के प्रति अगर वह वाजिब है, तो मानव में निश्चित तौर पर सहानुभूति होनी चाहिए। क्योंकि मनुष्य एक संवेदनशील प्राणी है।
तमिलों ने तीन दशकों के युद्ध में इतना कुछ गंवा दिया है कि अब उनके पास खोने के लिए कुछ भी नहीं है। और जिस इंसान के पास खोने के लिए कुछ नहीं होता , वह सबसे खतरनाक इंसान होता है। युद्ध और संघर्ष उसके लिए कोई नई बात नहीं होती, वे इसके लिए हमेशा तैयार रहते हैं। श्रीलंकाई तमिलों की भी यही स्थिति है। प्रभाकरण की मौत के बाद जस्न में डूबी श्रीलंका सरकार और वहां के बहुसंख्यक शायद इस सच से अनभिज्ञ हैं।

शनिवार, 16 मई 2009

बधाई हो, स्वच्छ छवि के सभी नेता जीत रहे हैं...

पंद्रहवें लोकसभा चुनाव के परिणामों में एक बहुत ही शुभ संकेत सामने आ रहा है। वह यह कि पूरे देश के मतदाताओं ने स्वच्छ और ईमानदार छवि के एक भी नेता को निराश नहीं किया है। स्वच्छ छवि के लगभग सभी नेता चुनाव जीत रहे हैं। उड़ीसा के लोगों ने तो नवीन पटनायक की स्वच्छ और ईमानदार छवि के कारण उन्हें भारी बहुमत दिया है। बिजू जनता दल उड़ीसा में क्लीन स्वीप कर रहा है। बिहार में भी कमोबेश यही हुआ है। नीतीश कुमार की अच्छी छवि को लोगों ने पसंद किया है। वहां बदनाम और दागदार पार्टी के सभी नेताओं का सूपड़ा साफ हो गया है। भ्रष्टाचार के लिए कम ही दिनों में कुख्यात हो चुके झारखंड में भी ईमानदार छवि के सारे नेता चुनाव जीत रहे हैं। इनमें झारखंड विकास मोर्चा के बाबूलाल मरांडी, भारतीय जनता पार्टी के कड़िया मुंडा और रामटहल चौधरी शामिल हैं और इस बार चुनाव जीतने के करीब हैं। झारखंड के एक अन्य स्वच्छ छवि के नेता इंदर सिंह नामधारी तो निर्दलीय होकर भी जीत के करीब हैं। आंध्र प्रदेश में विकास के लिए समर्पित और ठीक ठाक छवि के नेता चंद्र बाबू नायडू की पार्टी भी बेहतर प्रदर्शन कर रही है जबकि सारे राजनीतिक पंडितों ने उन्हें चूका हुआ मान लिया था। कांग्रेस की जीत में भी मुझे लगता है कि डॉ मनमोहन सिंह की ईमानदार छवि का बहुत बड़ा योगदान है। भले ही राजनीतिक पंडित कांग्रेस की जीत का सारा क्रेडिट सोनिया और राहुल को देते रहे, लेकिन मेरे विचार से इस जीत में डॉ मनमोहन सिंह का फैक्टर ने भी काम किया है। केरल में वामपंथी पार्टियों की बुरी हार हुई है। इसकी सबसे बड़ी वजह रही भ्रष्टाचार के मुद्दे पर मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के आला नेताओं का समझौतावादी रवैया। गौरतलब है कि केरल माकपा के महासचिव पिन्नरई विजयन पर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लगे थे। वे करोड़ों रुपये के एक घोटाले में दोषी बताये जा रहे थे, लेकिन माकपा ने उनका समर्थन किया। पार्टी ने सबकुछ जानबूझकर भी विजयन के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की, बल्कि उन्हें ज्यादा तरजीह दी। नतीजा सामने है। केरल में वामपंथी पार्टियों के पांव के नीचे से जमीन खिसक चुकी है।
यह इस बात का संकेत है कि देश के लोग भ्रष्टाचार के कैंसर से मुक्ति पाना चाहते हैं। भ्रष्टाचार के राक्षस से छटपटा रहे भारतीय मतदाता अब इससे मुक्ति पाना चाहते हैं। उन्होंने राजनीतिक पतन और भ्रष्टाचार के समुद्र में डूबे भारतीय राजनीति में ईमानदार लोगों को खोज-खोजकर समर्थन दिये हैं। भले ही अधिकांश लोकसभा सीटों पर लोगों को मैदान में खड़े उम्मीदवारों में अच्छे उम्मीदवार ढूंढने से भी नहींमिले, लेकिन जहां कहीं उन्हें ईमानदार और अच्छे उम्मीदवार दिखाई दिए उन्होंने पार्टी लाइन , धार्मिक लाइन और जातीय लाइन को छोड़कर अच्छे नेताओं का समर्थन किया। यह इस बात का संकेत भी है कि आने वाले समय में वही राजनेता राजनीति में टिके रहेंगे, जो भ्रष्टाचार के खिलाफ होंगे। इससे पतनशील भारतीय राजनीति को एक नया दिशा मिलेगा । उम्मीद की जानी चाहिए कि भ्रष्टाचार को राजनीतिक जीवन का अभिन्न हिस्सा मानने वाले नेता इससे सबक लेंगे। आइये हम कामना करें कि पंद्रहवें लोकसभा चुनाव के समुद्र मंथन का यह अमृत देश के सभी राजनेताओं को मिले। जो युवा राजनीति में दिलचस्पी रखते हैं और अपने समाज को नेतृत्व देना चाहते हैं, वे इस संदेश को हृदयागम कर लें। भ्रष्टाचार से मुक्ति के लिए छटपटा रहे इस देश के सवा सौ करोड़ लोग उनकी राह देख रहे हैं। हिन्दुस्तान जिंदावाद। ईमानदारी जिंदावाद।

गुरुवार, 14 मई 2009

ए नेता जी, बोलो तुम क्या-क्या लेगा जी


ए नेता जी, ओय नेता जी !
हंग एसेंबली होगा जी
बोलो तुम क्या- क्या लेगा जी
ऑफर बहुत से आयेंगे
कोई बोरा भर कर लायेंगे
कोई झोरा भर कर लायेंगे
अपनी रेट लगाओ जी
ए नेता जी, ओय नेता जी
हंग एसेंबली होगा जी
बोलो तुम क्या- क्या लेगा जी
नंगे-भूखे को गोली मारो
अपने मत का भाव बताओ
जीते हो तो मौज उड़ाओ
जनता की फिकर छोड़ो जी
ए नेता जी, ओय नेता जी !
हंग एसेंबली होगा जी
बोलो तुम क्या- क्या लेगा जी
काले - सफ़ेद का टेंशन छोड़ो
सिर्फ़ अपना डिमांड बताओ
बांकी सब हम पर छोड़ो
हावाला एजेंट पर भरोसा रखो
तकदीर अपनी सबारो जी
ए नेता जी, ओय नेता जी !
हंग एसेंबली होगा जी
बोलो तुम क्या- क्या लेगा जी  

बुधवार, 13 मई 2009

काश ! ये कोशी फिर आ जाती

दहाये हुए देश का दर्द-44
जीवछपुर का पांचू राम, बालू फांके दोनों शाम
देह से हड्डी करे लड़ाई
तीन बच्चों की हो चुकी विदाई
चौथे की हो रही तैयारी
काश ! ये कोशी फिर आ जाती
सब कष्टों से मिल जाती मुक्ति
फिर न आंख से उड़ती लुत्ती
और दिल से चूता घाम
जीवछपुर का पांचू राम, बालू फांके दोनों शाम
पंद्रह दिन प्रलय में बीता
भसिया कर पांचू भित्ता पहुंचा
राघोपुर में रिक्शा खींचा
छठे माह जीबछपुर लौटा
निज जन्म भूमि में बन अंजान
जीवछपुर का पांचू राम, बालू फांके दोनों शाम
(शब्दार्थ- लुत्तीः चिंगारी, घामः पसीना, भित्ताः किनारा)
 
 
 

मंगलवार, 12 मई 2009

Constitutional deadlock in Nepal

KAMAL RAJ SIGDEL
If the prevailing political polarization continues, it could lead Nepal to a constitutional crisis, according to experts.
And early signs are ominous. It all began with Prime Minister Pushpa Kamal Dahal failing to seek consensus from coalition partners on the removal of Chief of Army Staff Rookmangud Katawal last Sunday and President Ram Baran Yadav overriding the prime ministerial directive that very day. “The Interim Constitution has nowhere envisaged a situation where prime minister and president operate in two different directions,” says Laxman Aryal, who led the team that drafted the Interim Constitution. If the row over Katawal began the slide towards constitutional stalemate, subsequent events de-monstrated that constitutional breaches have become commonplace. The parties have failed to form a new government since Prime Minister Dahal resigned last Monday, a day after the presidential overruling. According to the Interim Constitution, the parties have to form a government based on political consensus, and failing to do so, allows the president to call on the parties to form a government through majority vote in the Constituent Assembly (CA). If the parties fail to form a government as per Article 38 (2) of the constitution, a constitutional crisis is inevitable given the fact that the constitution has given no other option -- for example, formation of a minority government. President Yadav has already directed the parties to go for majority government, which, say experts, is not a normal development “at this point of time” for two reasons. First, opting for the 'politics of mathematics' is itself a constitutio-nal aberration as the constitution stresses on consensus, according to Daman Nath Dhungana, who was a member of the committee that drafted the 1990 constitution. Sec-ond, to approach government formation with the assumption that a majority vote can be garnered in a hung parliament is in itself a wrong premise, argues Govinda Bandi, a constitutional lawyer. “Morning shows the day,” says Bandi. “That the parties have to look to form an elusive majority government in a hung parliament clearly shows the country is heading towards constitutional crisis.” Try unraveling the Gordian knot and it gets even tougher. The Maoists have declared they will not let the House function until the President corrects his “unconstitutional” move. This precludes exploration of any constitutional possibilities, according to Bhimarjun Acharya, a constitutional expert. “Even if the Maoists let the House function, it is most unlikely that Nepali Congress and CPN-UML -- which are trying to lead a new coalition -- will be able to operate a government without Maoists,” adds Bandi. And the breakdown of politics of consensus will have long-term repercussions. In normal situation, the case would land in the Supreme Court, which would then resolve the crisis. “But this is a political issue, not a legal one,” says Acharya. “This therefore can only be resolved politically, not legally.”

(कांतिपुर डाट कॉम से साभार )

सोमवार, 11 मई 2009

बिहारी मुसलमान फिर से कांग्रेस की ओर

बिहार की मुख्य राजनीतिक पार्टी, राष्ट्रीय जनता दल (राजद) के लिए 15वां लोकसभा चुनाव एक दुःस्वप्न साबित होने वाला है। हालांकि अभी नतीजे आने शेष हैं और अभी यह निर्धारित होना भी बांकी है कि राजद ने इस चुनाव में क्या-क्या खोया, लेकिन यह बात निश्चित है कि लालू यादव इस बार बिहार में "वाटर लू' की लड़ाई लड़ रहे हैं। राजद का हाल बाढ़ में डूबे घर को निहार रहे गृहस्थ की तरह हैै, जो पानी निकलने तक नुकसान का अनुमान ही लगा पाता है। उसे इस बात का पूरा यकीन होता है कि पानी निकलने के बाद का दृश्य बहुत दुखदायी होगा। साथ ही उसे किसी चमत्कार की भी आस रहती है कि काश ! ऐसा न होकर वैसा हो जाये तो ऐसा न होकर वैसा हो जायेगा।
दरअसल इस चुनाव ने बिहार में पिछले दो दशकों से चल रही राजनीति का पटाक्षेप कर दिया है। इसके कारण बिहार में बेगाना बन चुकी कांग्रेस को पुनर्जीवन मिला है। लगभग 25 वर्षों के बाद एक बार फिर कांग्रेस को अपना खोया हुआ जनाधार वापस मिलते दिख रहा है। हालांकि इसके बावजूद उसे इस राज्य में लोकसभा की कोई ज्यादा सीटें प्राप्त नहीं होने वालीं। लेकिन उसके लिए यह बहुत बड़ी खुशखबरी है कि ब्राह्मण और मुसलमान के बिछड़े हुए वोट बैंक पुनः उनकी ओर आने लगे हैं। इस बार बिहार के अधिकतर मुस्लिम और ब्राह्मण खासकर मैथिल ब्राह्मण के वोट कांग्रेस को मिले हैं। वह भी तब जब पार्टी ने आनन-फानन में उम्मीदवार की सूची तैयार की। चुनाव घोषणा के पंद्रह दिन बाद तक कांग्रेस समूचे बिहार में चुनाव लड़ने के लिए सोच भी नहीं रही थी। राजद और लोजपा गठबंधन और लालू यादव द्वारा बेइज्जत होकर उसे यह कदम उठाने के लिए मजबूर होना पड़ा। जब कांग्रेस बिहार की सभी सीटों पर उम्मीदवार खड़ा करने का फैसला ले रही थी, तो उसके एक भी बड़े नेता को यकीन नहीं था कि उनके प्रत्याशी कोई अप्रत्याशित प्रदर्शन कर पायेंगे। लेकिन जो संकेत मिल रहे हैं, उनसे तो यही लगता है कि कांग्रेस के प्रत्याशियों ने अप्रत्याशित प्रदर्शन किया है। कांग्रेस के प्रत्याशियों को मुसलमान और ब्राह्मणों के सत्तर फीसद से ज्यादा मत मिले हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि कांग्रेस अधिकतर सीटों पर मुकाबले में आ गयी है, क्योंकि इनकी संख्या बिहार के कुल मतदाताओं के लगभग 23 प्रतिशत है। बिहार के विभिन्न क्षेत्रों के लोगों से मिलने के बाद मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूं कि इस बार कांग्रेस बिहार की कम-से-कम दो दर्जन सीटों पर दूसरे या तीसरे स्थान पर रहेगी। हालांकि पार्टी ने कुछ सीटों पर यादव और अन्य पिछड़ी जाति के नेताओं को टिकट दी, लेकिन इन जातियों के वोट उसे नहीं मिल सके।
मुसलमानों के कांग्रेस की तरफ मास शिफ्ट को देखकर राजद के नेता बदहवास हैं। उन्हें अभी तक इसकी वजह मालूम नहीं है। लेकिन सरजमीन में घूमने के दौरान आम मुसलमान इसके लिए जो वजह बता रहे हैं वह काबिले गौर है। उनका कहना है कि राजद उनका सिर्फ इस्तेमाल कर रहा है। बीस वर्षों में इस पार्टी ने अल्पसंख्यकों के लिए कुछ खास नहीं किया। वह सिर्फ मुसलमानों को भाजपा और आरएसएस का भय दिखाकर वोट लेती रही। जबकि कांग्रेस ने राष्ट्रीय स्तर पर मुसलमानों के व्यापक हित के लिए कुछ काम किए हैं। साथ ही कांग्रेस ने अपनी कार्य-पद्धति में यह संदेश छोड़ी है कि वह धार्मिक तुष्टीकरण के ऊपर उठकर काम करना चाह रही है।
हालांकि मुसलमानों के कांग्रेस में जाने की यही एक मात्र वजह नहीं है। इसके लिए उनमें "एंटी-राजद इनकम्बेसी' की भावना भी है। साथ ही मुसलमान मतदाता जिला, ब्लॉक और पंचायत स्तर पर राजद द्वारा लगातार बरती जाने वाली उपेक्षा से भी खिन्न हैं। मुसलमान मतदाताओं को इस बात का गहरा एहसास है कि कांग्रेस ने वर्षों पहले उन्हें जो राजनीतिक सम्मान दिया था, राजद ने उसका दशांश भी नहीं दिया। कुछ ऐसी ही भावना ब्राह्मण मतदाताओं की भी है। गौरतलब है कि बिहार के ब्राह्मण मतदाता पिछले 15 वर्षों से राजग को वोट दे रहे हैं। लेकिन राजग के दोनों धड़े उन्हें खूंटे से बंधे बैल से ज्यादा अहमियत नहीं देते। इस बार तो जदयू ने एक भी ब्राह्मण नेता को टिकट नहीं दी। इसलिए लोग कांग्रेस को याद कर रहे हैं। कोशी इलाके में जब मैंने प्रबुद्ध ब्राह्मण मतदाताओं से पूछा कि क्या वे कांग्रेस को वोट देकर अपने मतों को जाया नहीं कर रहे हैं ? तो उनका जवाब था- बिल्कुल नहीं। उनका कहना था कि हम सभी पार्टियों को एहसास दिलाना चाह रहे हैं कि हमारे वोट भी जीत-हार को तय कर सकते हैं। अगर आप हमें टिकट नहीं देंगे, तो हम आपके उम्मीदवार को हरा भी सकते हैं। सहरसा जिले के ब्राह्मण बहुल गांव के एक युवक का कहना था, " जितने वोट कांग्रेस को पड़ेगा उतने वोट से ही कोई जीतेगा और कोई हारेगा। यानी पार्टियां जान लें कि हम जिनके साथ रहेंगे वही लोकसभा पहुंचेगा।'
कुल मिलाकर कहें तो बिहार की राजनीति इस लोकसभा चुनाव में एक नया करवट ले चुकी है। कांग्रेस को इससे तत्काल कोई खास फायदा तो नहीं मिलने वाला, लेकिन राजद और जदयू को इससे भारी नुकसान जरूर होने वाला है। अगर कांग्रेस लोगों के बदलते रुझान को समझ सकी और सांगठनिक स्तर पर मेहनत कर पायी, तो वह अगले विधानसभा चुनाव तक एक बार फिर इस राज्य में अपनी खोयी प्रतिष्ठा प्राप्त कर सकती है।

सोमवार, 4 मई 2009

ये तो होना ही था

(चीन के राष्ट्रपति जिन्ताओ के साथ प्रचंड )
... और अंततः नेपाल के प्रधानमंत्री पुष्प कमल दहल उर्फ प्रचंड ने इस्तिफा दे ही दिया। इस समाचार से नेपाल समेत भारत और बांकी दुनिया स्तब्ध है। लेकिन मुझे नहीं लगता कि यह कोई अप्रत्याशित घटना है। इसकी पृष्ठभूमि तो उसी दिन तैयार हो गयी जिस दिन नेपाली कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) ने यह फैसला किया कि वह किसी भी शर्त पर अपने लड़ाके कैडरों को सेना में शामिल कराकर ही दम लेंगे। लेकिन प्रस्तावना उस दिन लिखा गया जिस दिन माओवादियों ने इसके लिए नेपाली सेना के वर्तमान सेनाध्यक्ष रूकमंद कतवाल को हटाने का फैसला कियाथा। इस फैसले के बाद नेपाल की गैर-माओवादी पार्टियों में खलबली मच गयी। उन्हें इस बात का पक्का एहसास हो गया कि माओवादी नेपाल को कम्युनिस्ट रिपब्लिक स्टेट बनाने के एजेंडे पर तेजी से आगे बढ़ रहे हैं और वर्तमान सरकार की मुख्य जिम्मेदारी के प्रति यानी संविधान निर्माण के प्रति उसकी कोई दिलचस्पी नहीं है। माओवादी पहले सेना में अपने 25 हजार लड़ाके को शामिल करेंगे फिर उसके बाद देश की सारी शक्ति मसलन न्यायपालिका, कार्यपालिका और सेना को अपने में कब्जे में करेंगे फिर उन्हें एक ही काम करना होगा। वह यह कि नेपाल को एक कम्युनिस्ट रिपब्लिक स्टेट घोषित कर देनाऔर रास्ते में आने वाले लोगों व संगठनों को बंदुक के बल पर खामोश करा देना।
जाहिर सी बात है कि नेपाल की दोनों प्रमुख पार्टियां मसलन नेपाली कांग्रेस और एमाले का इसके बाद अस्तित्व समाप्त हो जाना तय था। इसलिए इस मुद्दे पर दोनों पार्टियों के नेताओं ने बैठक की और फैसला किया कि सेनाध्यक्ष कतवाल की बर्खास्तगी को वे लोग किसी भी स्थिति में स्वीकार नहीं करेंगे। इसलिए जैसे ही प्रचंड ने सेनाध्यक्ष कतवाल को हटाने का फैसला किया, दोनों पार्टियों ने इसका विरोध कर दिया। चूंकि वर्तमान राष्ट्रपति रामबरन यादव नेपाली कांग्रेस के हैं, इसलिए उन्हें प्रधानमंत्री के फैसले को पलटने के लिए एक वाजिब अस्त्र भी मिल गया। रामबरन यादव ने प्रचंड के फैसले को असंवैधानिक करार देते हुए मानने से इंकार कर दिया। उधर एमाले ने प्रचंड सरकार से समर्थन वापसी की घोषणा कर दी। अब इसके बाद प्रचंड के पास इस्तिफा देने के सिवा कोई चारा नहीं बचा और आखिरकार अपने समर्थकों और खासकर लड़ाके कैडरों के सामने अपनी साख बचाने के लिए उन्होंने इस्तीफा दे दिया।
आगे क्या
अभी लाख टके का सवाल यह है कि नेपाल में अब आगे क्या होगा? हालांकि तत्काल इसका एकदम सटीक पुर्वानुमान लगा पाना थोड़ा कठिन है, लेकिन इतना तय है कि नेपाल में एक बार फिर अशांति की आंधी आनी तय है। अभी जो संकेत मिल रहे हैं उसके मुताबिक नेपाली कांग्रेस और एमाले और जनाधिकार फोरम मिलकर वैकल्पिक सरकार बना सकते हैं। लेकिन अगर यह सरकार बन भी जाती है तो भी इसके लिए आगे काम कर पाना और नेपाल के लिए संविधान का निर्माण करना काफी कठिन होगा। क्योंकि नेपाली कांग्रेस और एमाले भी विचारधारा के स्तर पर दो विपरीत ध्रुव की पार्टियां हैं। जनाधिकार फोरम का भी नेपाली कांग्रेस के साथ ज्यादा देर तक रह पाना कठिन ही लगता है। अगर ये तीनों पार्टियां माओवादी को कमजोर करने के लिए साथ आ भी जाती हैं तो भी संकट कम नहीं होगा। क्योंकि सरकार से हटते ही माओवादियों का सड़क पर उतरना तय है। उनके कैडरों के पास सारे हथियार और गोला-बारूद आज भी ज्यों के त्यों रखे हुए है, इसलिए प्रशासन और माओवादियों में नये सिरे से हिंसक टकराव शुरू होना अवश्यसंभावी लगता है।
भारत की भूमिका
इन सारे प्रकरणों में भारत की कूटनीति एक बार फिर बुरी तरह से बिफल हुई है। भारत पूरे प्रकरण से भिज्ञ था, लेकिन अपनी कूटनीतिक भूमिका निभाने में वह असफल रहा। जब प्रचंड की सरकार बनी थी, उस समय भारत के पास मौका था कि वह नेपाल को चीन के गोदी में बैठने से बचाये। इसके लिए नेपाली माओवादियों को विश्वास में लेना जरूरी था। यह काम भारत नेपाली माओवादी के लड़ाके कैडरों को नियोजित करवाकर कर सकता था। लेकिन भारत ने प्रचंड को विश्वास में लेने के बदले नेपाली कांग्रेस और जनाधिकार फोरम पर ज्यादा भरोसा किया, जो बिफल साबित हुआ। भारत मुंह ताकते रह गया और प्रचंड चीन के गोद में बैठ गये। चीन ने उनका इतना हौसला आफजाई किया कि उसने देश की न्यायपालिका और जनता और भारत की परवाह किए बगैर नेपाली सेना में अपने पसंद के सेनाध्यक्ष खोज लिए और कतवाल को हटाने का निर्णय तक कर लिया। यह फैसला लेते हुए प्रचंड ने सोचा भी नहीं कि उसका देश जिस हवा में सांस लेता है वह भी भारत से ही आती है। चीन उन्हें मुंह से जितना समर्थन दे दे, लेकिन नेपाली-भारतीय लोगों के बीच में जो खून का रिश्ता है, क्या उसकी भरपाई चीन कर सकता है? यह बात प्रचंड ने नहीं सोची। भारत के पास इसी बात के कारण हमेशा एक अपर एज रहता आया है कि वहां की जनता भारत को अपने दिल के करीब मानती है। लेकिन इस समर्थन को कूटनीतिक रूप से भूनाने के लिए भारत को जितना प्रयास करना चाहिए था, वह उसका एकांश करने में भी असफल रहा। नेपाल की ताजा राजनीतिक घटनाएं किसी भी स्थिति में भारत के लिए शुभ समाचार नहीं है। अगर नेपाली सेना एवं माओवादी में टकराहट बढ़ी तो हो सकता है कि नेपाल के तराई इलाके में गृह युद्ध की नौबत आ जाये। ऐसी परिस्थिति में भारत में शरणार्थियों के खेप आने शुरू हो जायेंगे। पड़ोस में लगी यह आग जितनी जल्दी बुझे उतना ही अच्छा है। लेकिन चीन की गंदी राजनीति के कारण अब इस आग को जल्द बुझना किसी के मुमकिन नहीं रह गया है। बांकी तो राम ही राखे...