दहाये हुए देस का दर्द-45
दशकों की आदत कुछ दिनों में खत्म नहीं हो सकती, भले ही इसके कारण लाखों लोगों का जीवन खतरे में पड़ जाये। हमारी सरकारी मशीनरी एक बर्ष के कार्य को पांच वर्ष में और पांच वर्ष की योजना को पच्चीस वर्ष में पूरी करने की इतनी आदि हो चुकी हैं कि वह अब सामान्य और आपात स्थिति में भी फर्क नहीं कर पाती। कोशी के कुसहा तटबंध के मरम्मत-कार्य की सुस्ती को देखने के बाद बिहार सरकार की अफसरशाही और उसकी कार्यशैली के प्रति यही राय बनती है। मानसून दरबाजे पर दस्तक दे रहा है, लेकिन कोशी नदी के कुसहा तटबंध की मरम्मत अभी तक पूरी नहीं हो सकी है। लोग सहमे हुए हैं, विशेषज्ञ माथा पीट रहे हैं, लेकिन बिहार और केंद्र सरकार कान में घी डालकर सोयी हुई है। कुसहा में कटे हुए तटबंध को बांध तो दिया गया है, लेकिन उसका पक्कीकरण नहीं किया गया है, जिसके कारण हल्की बारिश में ही तटबंध की कच्ची मिट्टी अपरदित होकर इधर-उधर बह रही है। इसके अलावा अभी तक तटबंध के टूटे हुए हिस्से के स्परें (ठोकर ) भी नहीं बन पाये हैं। जबकि 1700 मीटर के इस क्षतिग्रस्त हिस्से में कुल मिलाकर पांच स्परों का निर्माण प्रस्तावित है। गौरतलब है कि स्पर के बगैर तटबंधों की कोई अहमियत नहीं होती। अगर स्पर नहीं हो तो नदी की साधारण जलधारा भी तटबंध को बहा ले जा सकती है। दरअसल स्पर ही तटबंधों की असल शक्ति होते हैं। यह जलधारा के वेग को कम करते हैं और साथ ही धारा के वेग को तटबंध तक नहीं पहुंचने देते हैं। लेकिन इस तथ्य को जानते हुए भी सरकारें निष्क्रिय हैं। अगर बारिश शुरू होने से पहले स्परों का निर्माण नहीं हुआ तो दुनिया की कोई शक्ति कुसहा में तटबंध को दोबारा टूटने से नहीं रोक सकती। ऐसी स्थिति में एक बार फिर कुसहा में तटबंध के टूटने और पूर्वी बिहार में दोबारा प्रलय आने की आशंका प्रबल हो गयी है। उल्लेखनीय है कि कुसहा में मार्च तक सभी कार्यों को पूरा करने का लक्ष्य निर्धारित किया गया था। लेकिन अभी तक यह तिथि आधा दर्जन बार आगे बढ़ायी गयी है। लगभग डेढ़ दर्जन बार काम को रोका गया, जबकि इसे युद्ध स्तर पर पूरा किया जाना था।
दशकों की आदत कुछ दिनों में खत्म नहीं हो सकती, भले ही इसके कारण लाखों लोगों का जीवन खतरे में पड़ जाये। हमारी सरकारी मशीनरी एक बर्ष के कार्य को पांच वर्ष में और पांच वर्ष की योजना को पच्चीस वर्ष में पूरी करने की इतनी आदि हो चुकी हैं कि वह अब सामान्य और आपात स्थिति में भी फर्क नहीं कर पाती। कोशी के कुसहा तटबंध के मरम्मत-कार्य की सुस्ती को देखने के बाद बिहार सरकार की अफसरशाही और उसकी कार्यशैली के प्रति यही राय बनती है। मानसून दरबाजे पर दस्तक दे रहा है, लेकिन कोशी नदी के कुसहा तटबंध की मरम्मत अभी तक पूरी नहीं हो सकी है। लोग सहमे हुए हैं, विशेषज्ञ माथा पीट रहे हैं, लेकिन बिहार और केंद्र सरकार कान में घी डालकर सोयी हुई है। कुसहा में कटे हुए तटबंध को बांध तो दिया गया है, लेकिन उसका पक्कीकरण नहीं किया गया है, जिसके कारण हल्की बारिश में ही तटबंध की कच्ची मिट्टी अपरदित होकर इधर-उधर बह रही है। इसके अलावा अभी तक तटबंध के टूटे हुए हिस्से के स्परें (ठोकर ) भी नहीं बन पाये हैं। जबकि 1700 मीटर के इस क्षतिग्रस्त हिस्से में कुल मिलाकर पांच स्परों का निर्माण प्रस्तावित है। गौरतलब है कि स्पर के बगैर तटबंधों की कोई अहमियत नहीं होती। अगर स्पर नहीं हो तो नदी की साधारण जलधारा भी तटबंध को बहा ले जा सकती है। दरअसल स्पर ही तटबंधों की असल शक्ति होते हैं। यह जलधारा के वेग को कम करते हैं और साथ ही धारा के वेग को तटबंध तक नहीं पहुंचने देते हैं। लेकिन इस तथ्य को जानते हुए भी सरकारें निष्क्रिय हैं। अगर बारिश शुरू होने से पहले स्परों का निर्माण नहीं हुआ तो दुनिया की कोई शक्ति कुसहा में तटबंध को दोबारा टूटने से नहीं रोक सकती। ऐसी स्थिति में एक बार फिर कुसहा में तटबंध के टूटने और पूर्वी बिहार में दोबारा प्रलय आने की आशंका प्रबल हो गयी है। उल्लेखनीय है कि कुसहा में मार्च तक सभी कार्यों को पूरा करने का लक्ष्य निर्धारित किया गया था। लेकिन अभी तक यह तिथि आधा दर्जन बार आगे बढ़ायी गयी है। लगभग डेढ़ दर्जन बार काम को रोका गया, जबकि इसे युद्ध स्तर पर पूरा किया जाना था।
3 टिप्पणियां:
ये आदत तब तक नहीं छूटेगी जब तक हर आदमी ये नहीं अपनाता कि मै ही सरकार हूँ मुझे अपना काम इमानदारी से करना है सरकार मे भी हम लोग ही होते हैं सब को अपनी मन्सिकता बदलने की जरूरत है इसके लिये लोगों को जागरुक करने की जरूरत है सरकारों को कोसने से कुछ नहीं होगा आभार्
कपिला जी, सैद्धांतिक तौर मैं आपकी बात से सहमत हूं। प्रजातंत्र में जैसी जनता होती है वैसी ही सरकार होती है(गवर्मेंट यू गेट दैट यू डिजर्व)। इसमें कोई दो मत नहीं हो सकते। लेकिन इस बात से आप कैसे इनकार कर सकती हैं कि जनता और सरकार की भूमिका अलग-अलग है। दोनों एक दूसरे के प्रति जिम्मेदार है, लेकिन एक-दूसरे के विकल्प नहीं हैं। जनता और सरकार का सबंध कमांड और कंम्प्यूटर जैसा नहीं हो सकता। ऐसी व्यवस्था नहीं बनायी जा सकती। जो काम जनता कर सकती है वह सरकार नहीं कर सकती और जो सरकार का काम है उसे जनता चाहकर भी पूरा नहीं कर सकती। कुसहा मामले को ही लीजिए। यह अंतरराष्ट्रीय मामला है। इसे यथोचित तरीके से पूरा करने के लिए द्विराष्ट्रीय बातचीत की आवश्यकता महसूस की गयी, जिसे सरकार ने कुशलता से पूरा नहीं किया। ऐसी स्थिति में जनता क्या करे ? क्या वह विदेश मंत्रालय की जिम्मेदारी अपने ऊपर ले ले ? यह संभव है ? आप इस तथ्य से इंकार नहीं कर सकती कि सरकारें अपनी भूमिका नहीं निभा रही। क्या भारत में जनता ने सरकारें नहीं बदली ? दर्जनों सरकारें बदलीं, लेकिन क्या उनकी कार्य-संस्कृति में व्यापक बदलाव आये? इस पर भी विचार की आवश्यकता है। धन्यवाद
रंजीत
हमारा सरकारी तंत्र भी गल चुका है.............सड़ चुका है...............जब कोशी लील लेगी अनगिनत जानों को तब जागेगी
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