उत्तर बिहार के मिथिला और कोशी अंचल का प्रसिद्ध वट वृक्ष पूजा यानी वट सावित्री पूजा कल पूरे देश में मनाया गया। हालांकी शहराती जिंदगी और मेट्रो कल्चर के कारण शहरों में यह प्राचीन पूजा तेजी से लुप्त हो रही है, लेकिन गांवों में आज भी इसे पूरे उल्लास के साथ मनाया जाता है। मिथिला और कोशी का यह प्राचीन पूजा सुहागिन औरतें मनाती हैं। परम्परागत तौर पर वट सावित्री पर्व स्त्री-पुरुष के प्रेम को समर्पित है जिसमें विवाहित औरतें अपने पति के दीघार्यु होने की कामना करती हैं। ऐसा कहा जाता है कि इस दिन औरतें दीघार्यु जीवन के प्रतीक - वट वृक्ष की जड़ों में पानी देकर अपने पति के लंबे जीवन की कामना करती हैं। लेकिन अगर इसके गूढ़ार्थ में जायें तो यह पर्व प्रकृति और पर्यावरण के महत्व को रेखांकित करता है। मिथिला और कोशी अंचल में वट, पाखर, पीपल जैसे लंबी उम्र वाले वृक्षों की कटाई निषिद्ध है। लोग इन पेड़ों की लकड़ियों का इस्तेमाल नहीं करते। इलाके में इन पेड़ों को देव तुल्य माना जाता है। इसलिए इनकी कटाई और घरेलू इस्तेमाल में इसका किसी भी तरह का उपयोग पाप है। इन पेड़ों की रक्षा करने और उन्हें रोपने वालों को सम्मान की नजर से देखा जाता है और कहा जाता है कि जो ये पेड़ लगायेंगे वे पुण्य के भागीदार होंगे। यही कारण है कि मिथिलांचल और कोशी अंचल में अक्सर ग्राम देवताओं, सरायों और सूनसान जगहों पर ये पेड़ बहुतायत में मिलते हैं।
आज जब प्राकृतिक असंतुलन और पर्यावरण के खतरे ने पूरी दुनिया को अपने आगोश में ले लिया है, तो वट सावित्री जैसे पर्वों की प्रासंगिकता स्पष्ट होती है और इसका महत्व समझ में आता है । इससे यह भी स्पष्ट होता है कि हमारे पूर्वजों ने लौकिक जीवन के तमाम पहलुओं पर काफी गंभीर अध्ययन किए थे। उन्हें प्रकृति और पर्यावरण के अन्योन्याश्रय संबंधों की विशद जानकारी थी। इसलिए उन्होंने पर्यावरण संतुलन को बनाये रखने के लिए तरह-तरह की पंरपराओं की शुरुआत की क्योंकि उन्हें मालूम था किकानून बनाकर पर्यावरण की रक्षा नहीं की जा सकती। लेकिन उत्तर आधुनिक संस्कृति इन परंपराओं को ढोंग मानती है। आज ऐसी परंपराओं को बढ़ावा देने की आवश्यकता है। आधुनिकता की एकरंगी रोशनी में हम परंपराओं के गूढ़ार्थ को नहीं समझ सकते। इसके लिए वैज्ञानिक दृष्टिकोणों के साथ-साथ तटस्थ आध्यात्मिक दृष्टि की भी जरूरत है।
आज जब प्राकृतिक असंतुलन और पर्यावरण के खतरे ने पूरी दुनिया को अपने आगोश में ले लिया है, तो वट सावित्री जैसे पर्वों की प्रासंगिकता स्पष्ट होती है और इसका महत्व समझ में आता है । इससे यह भी स्पष्ट होता है कि हमारे पूर्वजों ने लौकिक जीवन के तमाम पहलुओं पर काफी गंभीर अध्ययन किए थे। उन्हें प्रकृति और पर्यावरण के अन्योन्याश्रय संबंधों की विशद जानकारी थी। इसलिए उन्होंने पर्यावरण संतुलन को बनाये रखने के लिए तरह-तरह की पंरपराओं की शुरुआत की क्योंकि उन्हें मालूम था किकानून बनाकर पर्यावरण की रक्षा नहीं की जा सकती। लेकिन उत्तर आधुनिक संस्कृति इन परंपराओं को ढोंग मानती है। आज ऐसी परंपराओं को बढ़ावा देने की आवश्यकता है। आधुनिकता की एकरंगी रोशनी में हम परंपराओं के गूढ़ार्थ को नहीं समझ सकते। इसके लिए वैज्ञानिक दृष्टिकोणों के साथ-साथ तटस्थ आध्यात्मिक दृष्टि की भी जरूरत है।
3 टिप्पणियां:
मैं तो स्पष्ट तौर पर कहूंगी .. बिल्कुल अंधविश्वासी नहीं थे हमारे पूर्वज .. वे बहुत दूरदर्शी थे .. अंधविश्वास तो बहुत बाद में हमारे समाज में फैला ।
आपने बिल्कुल ही ठीक लिखा है। हमलोग आधुनिक होने के चक्कर में अपनी संस्क़ती को भूल रहें हैं जिसमें बहुत समस्याओं का हल छुपा है।
पुनीता
आपने सही लिख है............आज हमें जरूरत है ऐसी ही पुरानी परम्पराओं को जीवित रखने की .... जो प्रकृति और मानवता के पूरक हैं
एक टिप्पणी भेजें