शुक्रवार, 28 नवंबर 2008

आज का शोकगान

चरित्र !
किसी अपशकुनी बिल्ली की तरह
काट देता था मेरी राहें
हमेशा बाधा बन उपस्थित हो जाता था
और सारे खयालातों पर लगा देता था लगाम
अय्यास-विलास के सारे सपनों पर कर देता था वज्रपात
लेकिन
अब पतिताओं द्वार पर नहीं ठिठकते मेरे कदम
क्योंकि
अब पोटली में बंद कर दी है मैंने
लाज -शर्म , नैतिकता और कर्त्तव्यनिष्ठता की सारी बाधाओं को
और इसे आस्तीन में छुपा लिया है
अब जरूरत के हिसाब से करता हूं इसका इस्तेमाल
आज जब
पूरा देश स्तब्ध था
आदमी के दायें हाथ में था उनके बायें हाथ का जख्म
सभी आंगन रुदालियों से भर रहे थे
तो मैं भी गा रहा था- आज का शोकगान
मुंबई का शोकगान
ताज-नरीमन-ओबराय की लाल लकीरें
करोड़ों ललाटों पर स्पष्ट दिख रही थीं
हर जुबान कुछ-न-कुछ कह रही थी
मैंने भी कहा-
की मुंबई पर नहीं पूरे देश पर हमला है
शहीदों के कराहते दरबाजे पर फेरा लगा आया मैं~
सबसे पहले
आतंकवादियों कीफन कुचलने का नारा दिया मैंने
सबसे पहले
मूर्त को अमूर्त बनाया मैंने
सबसे पहले
एक बेहद बदनाम देश का नाम कुछ ऐसे लिया
जैसे वह देश नहीं कोई पहेली हो
आतंकवादियों का नाम ऐसे उच्चारा
जैसे वह आतंकवादी नहीं कोई कविता हो
जैसे उनके नामों के कई अर्थ हो
उनके बारे में ठीक-ठीक कुछ बोलना मानो सत्ता गंवाने जैसा हो
और
मैंने आज एक बार फिर सच से मुख मोड़ लिया
यह सब मैं इसलिए कर पाया
क्योंकि मेरी पोटली अच्छी तरह बंद थी

गुरुवार, 27 नवंबर 2008

दो पाटन के बीच में

दहाये हुए देस का दर्द-23
यह तस्वीर कोशी की बाढ़ से प्रभावित नेपाल के सुनसरी जिले की है। नदी की धारा ने क्या-क्या नहीं बदला ? जान , जमीन, घर-द्वार, माल-मवेशी तो खत्म हुए ही साथ-साथ इलाके के भूगोल भी बदल गये। इसलिए लोग नदी की इस धारा को पार करने के लिए रस्शी का उपयोग कर रहे हैं।

सोमवार, 24 नवंबर 2008

साधारण डब्बे की असाधारण बात (दूसरी कड़ी)

दहाये हुए देस का दर्द 22
जैसे-जैसे ट्रेन खुलने का वक्त नजदीक आते जा रहा था वैसे-वैसे डब्बे का जन घनत्व भी बढ़ता जा रहा था। रेलवे के लिखित प्रावधानों के मुताबिक छोटी लाइन की गाड़ियों के एक डब्बे में अधिकतम 64 लागों के बैठने की व्यवस्था होती है, लेकिन अगर मेरा अनुमान सही है तो उस डब्बे में गाड़ी खुलने से आधे घंटे पहले ही लगभग 300-350 यात्री प्रवेश कर चुके होंगे। लोग आ रहे थे, लोग जा रहे थे, लेकिन बहस चालू थी। लोगों के आवागमन और यात्रानीत शोर के बावजूद बहस धीरे-धीरे शिशु अवस्था से बाल्यावस्था में पहुंच चुकी थी। हर पल इसमें नये-नये प्रतिभागी शामिल हो रहे थे। कोई जोरदार स्वर के साथ, तो कोई दिललगी के अंदाज में ।
थोड़े पढ़े-लिखे युवक नहीं पढ़े-लिखे वाले के सवाल का जवाब दे रहा था। उसे पता चल चुका था कि बहस का कमान अब उसके हाथ में है, इसलिए वह अब इसे अपने मनोवांछित दिशा की ओर आसानी से ले जा सकता है। किसी किस्सागो की शैली में उसने कहना शुरू किया।
फकड़ा (लोकोक्ति) नहीं सुने हैं- खेत खाय गदहा मार खाये जोलहा ! यही हुआ है - कोशी मामले में। एक ठो कहानी सुनाते हैं। 25 साल पहले की कहानी है। अररिया में कोशी प्रोजेक्ट के एक इंजीनियर की पत्नी के साथ एक ठो ठेकेदार ने बलात्कार किया था। ऊ भी इंजीनियर की नजर के सामने, जैसे कि फिलिम-विलिम में होता है। ... जानते हैं उस इंजीनियर का कसूर क्या था ?
क्या-क्या-क्या ???? (एक दर्जन क्या एक साथ गुंज उठा)
... उसने ठेकेदार के फर्जी काम पर दस्तखत नहीं किया, इसलिए।
ओहो ! फिर ????
फिर क्या ? इंजीनियर विक्षिप्त हो गया। ठेकेदार को फलना (कांग्रेस के एक बड़े राजनेता का नाम लेकर, जो आज जिंदा नहीं हैं) का आर्शीवाद प्राप्त था। उसका कुछ नहीं बिगड़ना था, नहीं बिगड़ा।
कैसे नहीं बिगड़ा? हम बताते हैं, सुनिये।(तंबाकू बनाते खामोश बैठे एक बृद्ध का जोरदार हस्तक्षेप) भगवान के घर में देर है, अंधेर नहीं हैै। उसका निसाफ (इंसाफ) हो गिया। आजकल उ ठेकेदार के दोनों बेटा टका-टका के लिए मोहताज है। ... और हम तो सुने हैं कि उ ठेकेदार (नाम लेकर) को बाद में कुष्ठ फूट गिया था।।। आउर देखते नहीं है कि कभी एक छत्र राज करने वाली कांग्रेस पार्टी अभी कैसे एक कौर घास के लिए डिड़िया रही है। खोप सहित कबुतराई नमः हो गिया कांग्रेस का । कहवी (कहावत) नहीं सुने हैं- देव नै मारे डांग से देत कुपंथ चढ़ाये...
हं । हं। हं। एक साथ कई लोगों के सामूहिक स्वर - ई गप ते सहिये है...
(हियां साइकिल क्यों टांग रहे हैं ? इहह ! अपनो चढ़ियेगा आउर साइकिलो चढ़ायिगा !! सुरेनमा रे होहोहो , सुरेनमा रे होहोहो, मालिक काका होहोहो, आइब जा-आइब जा। एहि डिब्बा में छी रे ??? हम ताकि-ताकि कें थैक गेलयो, सरवा। एई भाई ? इंजन लग रहा है क्या ? ... लग तो रहा है।।।)
पढ़ा-लिखा भाई ने फिर कहना चालू किया। तो सुन लिए न। कोशी की कहानी बड़ी गजब है भाई। बढ़ियां हुआ कि बीरपुर शहर के नामोनिशान मीट गिया, इस बाढ़ में। ससुरी शहर कैसे बना ? जानते हैं?? कोशी को लूटकर। कोशी लूट का आधा से ज्यादा पैसा इसी शहर के लोगों ने लूटा। पैन (पानी) के धन था, पैन में बह गिया, हें-हें-हें । ई सरकार तें मुफत में बलि के बकरा बैन गिया है।
(धम-धम-धड़ाम !!! ... लगता है इंजन लग रहा है। टेम क्या हुआ भाई साहेब ? छह बज रहा है। अभी तो इंजने लगा है। फिर प्लैटफार्म पर जायेगा, तब खुलेगा, लगता है 11 बजे से पहिले सहरसा नहीं पहुंच पायेंगे)
ऊ कैसे ? (कम पढ़े-लिखे वाले का सवाल)
वही तो कह रहे हैं। सुनिये न (पढ़े-लिखे वाले युवक की नजर में अब इस युवक का वजन बहुत कम हो चुका था, वह उसके लिए अब हेतु-सूत्र का वह दर्जा भी खो चुका था जो उसने एक घंटे पहले प्राप्त किया था। क्योंकि अब यह युवक सीधे लोगों को संबोधित करने के स्तर पर पहुंच चुका था)।
राजद के सरकार में एक जल मंत्री (जल संसाधन मंत्री) हुआ करते थे। आज भी राजद के नेता हैं। उसने तो अपने मंत्रिकाल में लगातार दस बरस तक कोशी के साथ रेप किया। हर साल तटबंध की मरम्मत के लिए केंद्र से करोड़ों रुपया आया, लेकिन एक छिट्टा (टोकरी) मिट्टी तक नहीं डाला इन लोगों ने बांध पर। कोशी गोंगिया रही थी और मंत्री और इंजीनियर-ओवरसियर पटना में सोये रहे। ई सरकार तो बहुत काम कर रही है। सैंकड़ों शिविर लगाये गये हैं। लोगों के भोजन-पानी का पक्का इंतजाम किया गया है।
गलत-गलत-गलत, साफे गलत ।।। (एक साथ कई लोगों का विरोध)
पहली बार बहस में कुछ महिलाओं का हस्तक्षेप ?
याप ही देखे हैं। शिवर में भोजन-पैनि मिल रहा है। सब झूठे कह रहा है। दिन-रात में एक बेर पैन वाला खिचड़ी देता था। उहो दो करछुल। बस। कपड़ा-लत्ता तो दिया भी नहीं। खाली भाषणे देते रह गिया। हम लोगों को तो एक ठो प्लास्टिक के टुकड़ों नै मिला। हूं, कहते हैं - भोजन-पैनि का पक्का इंजाम है। हूंअअअ...
नहीं, हम कह रहे हैं कि..
क्या कहियेगा? आपका घअर-द्वार भसियाता तब न समझते...
ठीके तो कह रही है, भाई साहेब, हमहूं शिविरे से आ रहे हैं, लूट मचल है
लगता है इहो भाई साहेब खूब दाबे हैं, ई बाढ़ के मिसरी ! हें-हें हें...
क्या बोल रहे हैं भाई साहेब? जबान पर लगाम दीजिए ?
कुछ तटस्थ यात्रियों का हस्तक्षेप। अरे झगड़ा नहीं कीजिए। कोशी तो बरबाद कर ही दी। अब सिर-फुटोव्वल से का फाइदा।
देखिये जे मने में आ रहा से बोल दे रहे हैं ...
माहौल कुछ-कुछ भारतीय संसद सरीखा हो गया था। सारे स्वर अस्पष्ट हो गये थे। शब्दों का घालमेल हो गया थाऔर कौन क्या बोल रहा था यह अनुमान लगान मुश्किल हो गया था।
लेकिन पांच मिनट बाद ही फिर सबकुछ सामान्य भी हो गया। भारतीय सामान्यतया के सिद्धांत के अनुरूप । सभी लोग अपनी जगह पर कुछ इत्मीनान से बैठने लगे क्योंकि गाड़ी अब प्लैटफार्म की ओर चलने लगी थी। मेरे बगल में बैठे उस पंजाबी लड़का ने हमसे डरते-सहमते पूछा- बाढ़ इस्पीसल है, टिकटों मांगेगा, सर ??
मैंने कहा- नहीं, तो वह थोड़ा इत्मीनान हो गया। शायद वह फिर से अपने परिवार के पास चला गया था। क्योंकि पिछले दो-ढ़ाई घंटों मैं यह जान गया था कि इस लड़के का सिर्फ शरीर ट्रेन में है, उसका मन कहीं और है। वह बाढ़ से पीड़ित था। इसलिए बहस का हिस्सा नहीं था।
(पान-बीड़-सिगरेट! शिखर, तिरंगा, राजदरबार !! हेरे छोड़ा- सिंगल (सिग्नल) हुआ है रे? नहीं।। )
(आगे की बात अगली कड़ी में जारी रहेगी)

शनिवार, 22 नवंबर 2008

95 दिन बाद कुसहा

दहाये हुए देस का दर्द-21
कु-स-ह-आ ! जी हां, कुसहा !!! आज से ९५ दिन पहले यहीं पर घायल हुई थी कोशीऔर तटबंध को तोड़कर कहर बरपा गयी थी ।आज किसी गहरे जख्म की तरह लगता है यह कटान। एक ऐसा जख्म जिससे अब लहुओं का फव्वारा तो निकल रहा, लेकिन मवादें लगातार रिस रहे हैं। इस कटान ने नेपाल के सुनसरी जिले के एक दर्जन गांवों को आज भी सड़क-मार्ग से वंचित कर रखा है। लोग नावों के सहारे कटान पार करते हैं और कटान के आर-पार बसे गांव जाते -आते हैं। लेकिन कटान को पार करते समय उनकी जुबान पर एक सवाल रहता है कि कब तक बांधा जायेगा इस कटान को ? अपने गणित और भौतिकी में मस्त इंजीनियर उनके सवालों का सही जवाब नहीं देते। कोई कहता है फरवरी 2009 तक तो कोई कहता है मार्च 2009 तक। लेकिन अपना मन तो कुछ और ही कहता है। अपना मन तो कहता है- यह घाव चाहे भर जाये, लेकिन वे घावें कभी नहीं भरेंगे। वे घावें कैसे भर सकते हैं ?

रविवार, 16 नवंबर 2008

साधारण डब्बे की असाधारण बात

दहाये हुए देस का दर्द-20
जिस तरह हर इंसान की हस्ती एक समान नहीं होती उसी तरह हर रेलवे स्टेशन की आैकात भी बराबर नहीं होती। किसी स्टेशन में दर्जन भर प्लैटफार्म होते हैं तो किन्हीं-किन्हीं स्टेशनों में इंर्ट आैर मिट्टी से बनाये गये चबुतरे से ही प्लैटफार्म का काम लिया जाता है। कोशी की बाढ़ से बुरी तरह प्रभावित सुपाैल जिले का राघोपुर रेलवे स्टेशन भी बाद वाली श्रेणी में ही आता है। भारतीय रेलवे की सामंती बनावट व व्यवस्था में यह स्टेशन वर्षों से सर्वहारा की िस्थति में खड़ा है। पते की बात यह कि बाढ़ के बाद इस स्टेशन पर गाड़ियों काे टर्मिनेट करना पड़ रहा है, क्योंकि यहां से पूरब की ओर जाने वाली पटरी पर पिछले तीन महीने से गाड़ियों के बदले कोशी मैय्या सरपट दाैड़ रही है; बिना किसी हार्न, वैक्यूम आैर ब्रेक के। इसलिए सहरसा से फारबिसगंज जाने वाली गाड़ियां इन दिनों राधोपुर से ही लाैट जा रही हैं। हारे को हरिराम भला की तर्ज पर...
ऐसे तो इस स्टेशन से मेरा हुक्का-पानी का नाता-रिश्ता रहा है। हजारों दफे मैंने इसकी पटरियों को पार किया है। और पंच पैसाही शिक्के को पटरी पर रखकर उसे बार-बार पिचबाया है। लेकिन गत दिनों बेलही कैंप से सहरसा आने के क्रम में मैंने इस स्टेशन को एक नई भूमिका में देखा। इस स्टेशन को देखकर ऐसा लगता है जैसे कोई बैशाखीधारी वृद्ध अपने सिर पर भारी बोझ उठाने की कोशिश में कभी दायीं तो कभी बायीं ओर लुढक जा रहा हो। आखिर कोशी के कहर के बाद लगभग बीस प्रखंडों के दस लाख लोगों को बाहर की दुनिया से जोड़ने का काम कर रहा है यह स्टेशन ।
राघोपुर में डब्बे और इंजन की पाकिंर्ग सुविधा है नहीं और आने वाले दशकों में इसकी संभावना भी नगण्य है; इसलिए ट्रेनों को पटरियों पर ही शंट कर दिया जाता है। दस-बीस लोगों की मेजबानी करने में असमर्थ यह स्टेशन सैंकड़ों लोगों को कहां बिठाये? किसी भूत पूर्व मंत्री और एक अभूतपूर्व मंत्री के करकमलों से उद्‌घाटित प्रसाधन गृह के पास फैली गंदगी और बदबू यही सवाल पूछती है। लेकिन जवाब याित्रयों ने खुद ढ़ूंढ लिया है आैर वे पटरियों पर शंटेड गाड़ियों के डब्बे से ही प्रेक्षा-गृह का काम ले रहे हैं। मैंने भी अन्य याित्रयों का अनुसरन किया आैर प्लैटफार्म से पीछे लगी अपनी शंटेड गाड़ी में बैठ गया, जो दो घंटे बाद सहरसा के लिए प्रस्थान करने वाली थी। डब्बे में कई लोग बैठे थे। अधिकतर बाढ़ पीड़ित। कुछेक दिहाड़ी रोजगारी आैर कुछ हाट-बाजार वाली िस्त्रयां... डब्बा तंग था, लेकिन वहां का माहाैल समाजवादी था, इसलिए हर नये यात्री पुराने से अपने लिए जगह की मांग कर सकता था आैर दूसरा थोड़ा आगे-पीछे, थोड़ा बायें-दायें और थोड़ा ऊपर-नीचे खिसककर उसके लिए जगह पैदा कर देताथा । कभी अनमने होकर तो कभी झुंझलाहट से, तो कभी हंसी-खुशी भी। ट्रेन खुलने में अभी काफी समय शेष था, इसलिए जैसा कि बिहार में चलने वाली रेलगाड़ियों में होता है; उन डब्बों में भी यात्रियों के बीच बहसों का दाैर चालू था।
मेरे वाले डब्बे में काफी गर्मागरम बहस चल रही थी। इसमें हर कोई अपना विचार प्रकट कर रहा था, सिवाय मेरे आैर मेरे बगल में बैठे एक लड़के का, जो पंजाब जाना भी चाहता था आैर नहीं भी। परिचय होने के बाद मैंने उससे पूछा- पंजाब जाना क्यों चाह रहे हो ? उसने जवाब दिया- घर-परिवार चलाने का दूसरा कोई चारा नहीं है। मैंने पूछा आैर नहीं जाना क्यों चाहते हो- जबतक पैसा भेजूंगा तबतक परिवार वाले खायेंगे क्या ; मेरे सिवाय घर में कमाने वाला कोई नहीं है ? मैंने पूछा- घर कहां है ? उसने कहा- घर पानी में बह गया है आैर फिलहाल उसका परिवार राहत-शिविर में है।
बहस चालू था- थोड़ा-बहुत पढ़ा प्रतीत होने वाला 30-32 वर्ष का एक युवक जोर-जोर आवाज में अपना तर्क रख रहा था। वह अपने बात को मनवाने के प्रति सौ प्रतिशत प्रतिबद्ध दिख रहा था, हालांकि वह अपने तर्कों व बातों के प्रति ईमानदार नहीं था। अपनी बात में वजन पैदा करने के लिए या फिर खुद को बुिद्धजीवी साबित करने के लिए वह देसी भाषा में भी विदेशी शब्दों का इस्तेमाल किए जा रहा था। मैंने उसके कुछ शब्द नोट किए- कोरप्शन (करप्शन), वाटर करंट, आरजेडी, डीएम-एसडीओ-बीडीओ। एक दूसरा युवक उसका जोरदार प्रतिवाद कर रहा था- वह अशुद्ध देसी भाषा में बोल रहा था, लेकिन अपनी बातों के प्रति वह पूरा ईमानदार था, इसलिए शब्दों की सतर्कता उसे नहीं आती थी। (मैंने मन- ही- मन सोचा- सा विद्या वा भ्रष्टते ! मैकाले की जय हो !! ) आैर उसने अपना सवाल उछाल दिया था- अच्छा, हमको ई बताइये बैढ़ (बाढ़) के बादे नीतीश सरकार ने क्या कअर लिया ? मान लेते हैं कि बैढ़ दैवी आपदा था, लेकिन ओकर बाद ?? फलनमा के पुतोहू के पेटे में बच्चा मैर गिया, वो भी सरकारी इस्पीताल (अस्पताल) के बरांडा पर (बरामदा) ; ओहो दैवीये आफत था क्या ? राहत सामग्री में लूट मची हुई है, जेहो गांव में पानी नहीं ढूका, उहो गांव के मुखिया रिलीफिया-माल से अपना घर भर रहा है। और जे दहायल-भासल है ऊ सब नहर-सड़क पर घुसकिनीया (घिसटना) काट रहा है ! ... ई सब पर भी देवते-पितर लगाम लगायेगा का ? कि इहो दैवीय आपदा है ??? बोलिये-बोलिये... हूह...
जैसे ही उसने अपने बोलने पर विराम लगाया वैसे ही एक साथ कई जुबानों से सहमति के स्वर फूट पड़े - हं- हं- हं ।।। गप तें ठीके कह रहे हैं ...
(भाई साहेब ! थोड़ा घसकिये !! ... पान-बीड़-सिगरेट !!! आक- थूअअ !!! हैल्लो, हं राघोपुरे में छियो,कायल भोरका गाड़ी से एबो , कि ? माय- ठीके छो, ले गप्प कर.. हैल्लो, हैल्लो, हैल्लो ... लगता है लैन कैट गिया, हैल्लो,लो,लो ... पान-बीड-सिगरेट !!! भाई साहेब, यहां पर सीट खाली है ? नहीं।। आगे बढ़िये ... )
भाई टैम क्या हुआ है ?
साढ़े तीन...
कितने बजे खुलेगा ??
पांच बजे तो लिखता है, लेकिन छह-साढ़े छह से पहले क्या खुलेगी ? आज तक कभी टैम से खुली है ?? हेंहेंहें
देखिये, बात ई है कि कोशी को तो 20 वर्ष से लूटा जा रहा था। हं, ई बात अलग है कि इस बार बांध टूट गया और सारा ठीकरा नीतीश-बिजेंद्र के माथे पर फूट गिया। लेकिन जाकर देखिये न बराज का हाल, 1988 में टें बोल चुका था। एक्सपायर हो गया था। अब एक्सपायरी दवा खाइयेगा तो मरियेगा की नहीं ???
इहो बात ठीक है। कम पढ़ा-लिखा भाई के हाथ से बहस निकला जा रहा था, क्योंकि थोड़ा-पढ़ा लिखा वाला भाई अब बहस में इतिहास, भूगोल और विज्ञान को शामिल कर चुका था। इसलिए कम पढ़ा-लिखा भाई ने मन ही मन सोचा, शायद उसकी अंडरस्टैंडिंग गलत हो। यह तो वर्ष, दवा, एक्सपायरी जैसा शब्द बोल रहा है!! इसलिए उसने अब विरोध करने के बजाय जानकारी जुटाना ही सही समझा, बोला- ठीके में भाई साहेब ? बराज बहुत पहिले (पहले) में बेकाम हो गिया था ?
तो क्या हम झूठ कह रहे हैं। कल के अखबार में भी छपा है, पढ़ लीजियेगा... तो थोड़ा खोलके बताइये ने, क्या सब छपा था अखबार में ?
(शिखर, तिरंगा, राजदरबार ... रे छोड़ा एक ठो तिरंगा दो तो... गरीबों का सुनो वो तेरा सुनेगा/ तुम एक पैसा दोगो वो दस लाख देगा... सूरदास की मदद करो भैय्या... शिखर पान-बीड़-सिगरेट...)
(आगे की बात अगली कड़ी में)

शुक्रवार, 14 नवंबर 2008

बाल दिवस पर काली खबर

भ्रष्टाचार के विषाणु से सड़ती हुई व्यवस्था में क्या नहीं हो सकता ? नैतिक पतन, कर्त्तव्यहीनता, लापरवाही अगर सामाजिक-संस्कृति में बदल जाय, तो कौन-कौन-से अनर्थ नहीं हो सकते? झारखंड की राजधानी रांची के नजदीक सरकारी आदिवासी आवासीय विद्यालय में घटी घटना शायद हमसे यही पूछती है। बेड़ो में स्थित इस विद्यालय के एक सौ से ज्यादा आदिवासी छात्र कल भयानक रूप से बीमार हो गये। पांच ने तत्काल दम तोड़ दिया और 15 की हालत नाजुक बनी हुई है। विरोधावास देखिये- राज्य के मुख्यमंत्री एक आदिवासी हैं, राज्य के शिक्षा मंत्री आदिवासी हैं और इनके विधानसभा क्षेत्र में ही यह विद्यालय अवस्थित है । विद्यालय सत्तर प्रतिशत शिक्षक व कर्मचारी भी आदिवासी हैं। लेकिन वे कुछ नहीं कर सके। यकीन मानिये वे आगे भी कुछ नहीं करेंगेसिवाय चंद आक्रामक बयान और सहानुभूतिक घोषणाओं के।
उपरोक्त बात मैं नहीं कहता, बल्कि पूर्व की घटनाएं और उन पर सरकार द्वारा की गई कार्रवाई का रिकार्ड कहता है। अभी ज्यादा दिन नहीं हुए जब विलुप्ति की कगार पर खड़े राज्य के आदिम जनजाति समुदाय के कई लोग भूख, कुपोषण और संक्रामक रोग के कारण असमय मौत के मुंह में समा गये। चतरा, पलामू, गढ़वा और हजारीबाग जिलों से गाहे-बेगाहे इनकी मौतों की खबर आ रही है, लेकिन सरकार इन्हें बचाने में असमर्थ है। शायद वह दिन ज्यादा दूर नहीं जब राज्य की आदिम जनजातियां इतिहास के पन्नों में ही मिले।
अब सवाल उठता है कि ऐसी स्थिति क्यों है? आदिवासी कल्याण के नाम पर बना यह राज्य इतना कमजोर कैसे हो गया ? अगर यहां की सरकार चंद आदिम जनजातियों को भी संरक्षित नहीं रख सकती तो आम लोगों का क्या हाल होगा। सच्चाई यह है कि अब हमारा समाज उस दौर में पहुंच गया है जहां कर्त्तव्यपरायणता और ईमानदारी वाहियात शब्द बन गये हैं। जबकि यह स्थापित सच है कि समाज और देश इन्हीं शब्दों पर चलता है। अभी कुछ समय पहले पूरे देश में सेंथेटिक दूध को लेकर भारी हो-हंगामा हुआ था। उत्तर प्रदेश में दर्जनों सेंथेटिक दूध के कारखाने पकड़े गये थे। बिहार और झारखंड में ऐसे सेंथेटिक दूध उत्पादक फैक्ट्री की बात हुई थी। लेकिन कार्रवाई क्या हुई। हर चौराहे और मोड़ पर गैरपंजीकृत दूध के पाउच बिकते हैं, लेकिन उसकी छानबीन करने वाला कोई नहीं है। कहा जा रहा है कि बेड़ो के बच्चे शायद सेंथेटिक दूध पीने के कारण काल के ग्रास बने। लेकिन सवाल उठता है कि क्या सरकार ने आजतक ऐसा कोई प्रावधान किया जिससे ऐसे विद्यालयों में दूषित भोजन की आपूर्ति को रोका जा सके। नवोदय विद्यालय के बच्चों को पूछिये- सभी बच्चे कहते मिलेंगे कि दस लीटर दूध में छात्रावास प्रबंधन 200 छात्रों को भोजन करा देते हैं। क्या आजतक किसी भी जिले के जिलाधिकारी ने इन छात्रावासों का विजिट किया। जवाब है नहीं।
दरअसल, विजिट करना तो दूर इनके पास तो इन सब बातों पर बात तक करने के लिए समय नहीं है। हर कोई अपने स्वार्थ के पीछे अंधा है। अधिकारी को कमीशन से मतलब है, वह समय पर पहुंच जाय, बस। नेताओं का वोट से मतलब है, वह किसी तरह चुनाव जीत जाय बस। आमलोग इतना उदास हो चुका है, कि वह लड़ने से पहले ही समर्पण कर देता है, किसी तरह दिन गुजर जाय, बस। ऐसी गंधाती व्यवस्था में बाल दिवस अगर काला दिवस में बदल जाय तो किस बात का आश्चर्य। सबकुछ बर्दाश्त कर लेना शायद हमारी नियति हो चुकी है। और शायद हम इनके इतने आदि हो चुके हैं कि हमें अब किसी बात पर गुस्सा नहीं आता।

गुरुवार, 13 नवंबर 2008

सर्द-रात की सुरंग

दहाये हुए देस का दर्द -19
सामने सर्द-रात की लंबी सुरंग है
और मेरी शाम लगातार पतली हो रही है
मेरी जिंदगी की बाती
डूबते दिवाकर और चमकते चांद के बीच
दोनों सिरों से सुलग रही है
मेरी स्मृतियों से लोरियां गुम हो रही हैं
क्योंकि अब बच्चों ने इसके बगैर सोना सीख लिया है
मानव इतिहास के कलंकित पन्ने
मेरे चित के भीत पर चिपकते जा रहे हैं
कांगो, युगांडा, बुरुंडी, हैती
कहर, बेघर, बाढ़ और कोशी
भूख, भय, बेघर और बेटी
रोटी-रोटी-रोटी-रोटी
सामने सर्द-रात की लंबी सुरंग
और मेरी शाम पिघल रही है
अंधियारों में
झुग्यिां बहुत भयावह लग रहीं हैं
ऐसा लगता है जैसे ये शिविर नहीं
हंसते-खेलते घरों का कब्रगाह हों
नींद के लिए संघर्षरत आंखें
आंखें नहीं हादसे का पुनर्पाठ हों
सामने सर्द-रात की लंबी सुरंग
और मेरी शाम दफ्न हो रही है

बुधवार, 12 नवंबर 2008

साम-चके, साम-चके आवियह हे.. .

आज कोशी -मिथिला अंचल का सदियों पुराना लोक पर्व सामा-चकेवा है। आज की रात सामा-चकेवा को भसा दिया जायेगा। चांद की दुधिया रोशनी में बहनें गायेंगी- साम-चके, साम-चके आवियह हे... ढेला फोड़ि-फोड़ि जैयह हे... (ओ सामा-चकेवा की जोड़ी, आज रात तुम जरूर आना, आैर इन ढेलों को तोड़कर ही जाना...) दरअसल कोशी अंचल का यह लोक पर्व निश्छल प्रेमकथा की याद में मनाया जाता है। यह भाई आैर बहन के रिश्ते को भी एक सूत्र में पिरोता है। सामा-चकेवा का पर्व एक प्राचीन लोक कथा पर आश्रित है, जिसमें सामा-चकेवा की प्रेमकथा का जिक्र है। बहन के लिए भाई की कुर्बानी का इस कथा में मार्मिक उल्लेख है। िस्त्रयां पंद्रह दिन पहले से ही मिट्टी का सामा और चकेवा बनाती हैं। हर सुबह और शाम सामा-चकेवा की याद में गाना गाती है । दोनों के प्यार में खलनायक की भूमिका निभाने वाले चुगला की भत्र्सना करती हैं। कार्तिक पूर्णिमा की रात सामा-चकेवा का िस्त्रयां श्रद्धापूर्वक विदाई देती हैं आैर उसकी मंगलकामना करती हैं। चुगला की होली जलाती हैं आैर उसके पतन की अराधना करती हैं। तत्पश्चात ताजा धान से तैयार की गये चिउड़ा-दही का भोज किया जाता है।
बहन ! जलाओ चुगलों के पुतले.. . हर ओर चुगले बैठे हैं... पूरा समाज चुगलों की गिरफ्त में है...

सोमवार, 10 नवंबर 2008

एक गाथा का समापन

सौरव चंडीदास गांगुली। यह सिर्फ एक नाम नहीं, बल्कि प्रतीक और प्रेरणा जैसे शब्दों का पर्यायवाची है । एक ऐसा प्रतीक, जो जीतने की जिजीविषा पैदा करता है। एक ऐसी प्रेरणा जो नाउम्मीदी के घने अंधकार में भी रोशनी की आस जगाये रखती है। सौरव को कौन भूल सकता है ? सौरव, तो वह शिला-पट्ट है जिस पर घिस-घिसकर आज का यह धारदार क्रिकेट-नवदल तैयार हुआ है। जबतक इस दल में धार रहेगी, जबतक इसकी तेज रहेगी, तबतक सौरव रहेंगे। बल्कि यूं कहिए कि आने वाले वक्त में जब-जब कोई भारतीय क्रिकेट टीम जीत के लिए अपनी सबकुछ झोंकती दिखेगी तब-तब अचानक सौरव याद आयेंगे। जबतक छूरी में धार है और उसमें काटने की आखिरी शक्ति बची है, तबतक वह शिला-पट्ट भी है जिस पर घिस-घिस कर, जिसके सान पर बार-बार उस छूरी को चढ़ाया और उतारा गया और लोहे के उस भोथर पत्तर में काटने की शक्ति पैदा की गयी।
मुझे याद आता है 1996- 2008 के 12 वर्षों का सौरवनीत- समयांतराल। यह वक्त की अंतहीन नदी का वह कालखंड है, जिसमें नदी की मौज ने अपने यौवन को प्राप्त किया; जिसमें भारतीय क्रिकेट क्रिकेट का नया व्याकरण पैदा किया। चोटियों पर चढ़कर ऊंचाइयों का मतलब समझा और क्रिकेट की नई-पौध के लिए उर्वर जमीन तैयार की। मुझे याद आता है वर्ष 1996 को सहारा कप। मुझे याद आता है 1998 का एशिया कप का फाइनल। मुझे याद आता है 2001-02 का अफ्रीका दौरा। मुझे याद आता है 2003 का विश्व कप। सहारा कप में इस पतले-दुबले खिलाड़ी ने अकेले अपने दम पर पाकिस्तान को धूल चटा दी। तब के कप्तान सचिन को कहना पड़ा यह खिलाड़ी नहीं, बल्कि सेकरेट वीपन है। बैट थामा तो रन बरसाये, गेंद पकड़ी तो गिल्लियां बिखेरीं और भारत ने अपने चिरप्रतिद्वंदी पाकिस्तान को मात दे दी।
बांग्लादेश की राजधानी ढाका में फाइनल मुकाबले जीतने के लिए भारत को 318 रनों का विशाल लक्ष मिला था, सचिन रूपी चकौचोंध बिना जले ही बुत कर पवैलियन लौट चुका था। लेकिन सौरव ने रॉबिन सिंह के साथ मिलकर ढाका की पीच पर खूंटा गाड़ दिया और शानदार शतक बनाकर एशिया कप भारत की झोली में डाल दिया। यह वह खिलाड़ी था जो बड़े मैचों और तगड़ी टीमों से डरता नहीं था। जब कभी टीम को जरूरत पड़ती सौरव का बल्ला गरजने लगता था। उनके शाट बिजली की भांति ऑफ साइड की सीमा लांघ जाती और विपक्षी टीम के कप्तान निस्सहाय दिखने लगते।
यह सौरव ही है, जिसने भारतीय बल्लेबाजों को क्रीज छोड़कर बाहर निकलना और ऊंचा शाट मारना सिखाया । सौरव से पहले शायद भारतीय बल्लेबाजों को मालूम भी नहीं था कि कैसे क्रीज छोड़कर छक्के लगाये जाते हैं। नवजोत सिंह सिद्धो ने स्पीनरों के खिलाफ ऐसे कुछ शाट जरूर खेले, लेकिन वे जितने छक्के लगा पाये उससे ज्यादा दफे आउट हुए। लेकिन सौरव ! जेफ बायाकॉट ने तो एक बार कहा था- अगर सौरव ने क्रीज छोड़ दी तो गेंद सीमा रेखा के बाहर ही जायेगी, कोई भी गेंदबाज तब कुछ नहीं कर सकता। अगर वह गेंद की पीच पर नहीं पहुंच पायेगा तो इनसाइड आउट मार देगा और आप कवर बाउंड्री के बाहर से गेंद लायेंगे और अगर उसका बल्ला गेंद की पीच पर पहुंच गया तो फिर बाउंड्री कोई भी हो सकता है। सौरव जिधर चाहे उधर उसे पहुंचा देगा। वह आपको मीडविकेट के ऊपर, लांग आन, लांग आफ या फिर स्ट्रेट आफ द बालर हेड, कहीं भी भेज सकता है। सौरव के 190 से ज्यादा छक्के इस बात का प्रमाण है। मुझे याद आता है - सौरव का 2001-02 का अफ्रीका दौरा। इसमें सौरव ने अफ्रीका की नामी पेस तिकड़ी- एलन डोनाल्ड, मखाया एनतिनी और शान पोलाक के खिलाफ लगाये गये 18 छक्के । सौरव ने इस श्रृंखला में इनसाइड आउट छक्के से इन गेंदबाजों की नींद हराम कर दी थी। टीवी के एक्शन रिप्ले में इन छक्कों को देखना एक अमिट अनुभव था। मानो कोई कोई चित्रकार ग्लासी कागज पर अपने ब्रश-कुचे चला रहा हो। गेंद और बल्ले का स्पर्श सुहाना, गेंद का ट्रेजेक्टरी अनोखा और तय की गयी दूरी- सौ मीटर । एक प्रोजेक्टाइल की तरह निकलती थी गेंद और दर्शक दीर्घा में समा जाती थी।
सौरव विज्ञापन की एय्यारी-फैंटेसी दुनिया द्वारा तैयार किया गया ग्लैमर-ब्वाय नहीं था। न ही वह रूटीन मैचों और फ्लैट पीचों का शेर था। वह बड़े मैच का बड़ा खिलाड़ी था। वह बड़े मैच का अनोखा नेता था, जो 11 खिलाड़ियों से मैच जितना चाहता था। यह कैप्टनशीप के उसके अद्वितीय नेतृत्व-प्रतिभा का द्योतक है। सौरव जैसे खिलाड़ियों को जो सम्मान मिलना था वह नहीं मिला। जमाने ने हमेशा उसे अपना निशाना बनाया। परदेशियों ने मजाक उड़ाया और अपनो ने धोखा दिया। आज कोई नहीं कहता- सौरव नहीं होता तो धोनी भी न होता; दादा न होता तो युवराज भी न होता; न सेहवाग होता और हरभजन। सौरव क्या ऐसी ही विदाई का हकदार था। क्या वह बंगाली था, इसलिए या वह क्रिकेट के उस जोन से आता था- जिसे कभी बेदी जैसे लोग ननक्रिकेटिंग रीजन कहते थे, इसलिए! मैं आजतक नहीं समझ पाया।
सौरव चिंतनशील व्यक्ति हैं। वह आत्ममुखी स्वभाव के हैं। वह जान गये कि अब हिज्र की घड़ी आ गयी है, इसलिए उसने क्रिकेट को भारी मन से बाय-बाय कह दिया। लेकिन सौरव के हिज्र के साथ ही भारतीय क्रिकेट की एक गाथा का समापन हो गया। एक ऐसी गाथा, जिसे सचिन जैसे रिकार्डों के पहाड़धारी भी नहीं रच सके। सौरव की विदाई के बाद मुझे किसी शायर की चार पंक्तियां दोहराने का मन करता है
किसी के सव-ए- वश्ल हंसते कटे हैं
किसी के सव-ए- हिज्र रोते कटे हैं
यह कैसा सव है या खुदा !
न हंसते कटे हैं न रोते कटे है

बुधवार, 5 नवंबर 2008

खड़ा-खड़ा हमने सोचा

दहाये हुए देस का दर्द-18
कभी
राजधानी एक्सप्रेस की भागती हुई अपारदर्शक खिड़की को देखते हुए
कभी
राजधानी की सड़कों से गुजरते शायरन- काफिलों को निहारते हुए
और कभी
सहरसा-खगड़िया रेलवे लाइन्स के जनरल बॉगी में लटकते नदीमारों को सुनते हुए
हमने सोचा
कि इस दुनिया में हर कोई बाढ़-पीड़ित है
कि जैसे हर आदमी के सिर पर कोई-न-कोई कोशी लटकी हुई है
अभी
तीस-पैंतीस लाख लोगों की साठ-सत्तर लाख आखों में
अभी
दो-तीन पार्टियों के चुनाव-चिंतन बैठकों में
हमने देखा
कि कुछ खोने का डर कितना भयानक होता है
कि पैरों के नीचे की जमीन अगर खिसक जाय
तो जैसे कायनात ही खिसक जाती है
और आज सुबह
राहत-शिविरों को दूर से निहारते हुए
उगते प्रभाकर को अर्घ्य देकर लौटते हुए
हमने जाना
कि अब यह सूर्य भी सबका नहीं रहा
कि यह सुबह कितना अंधियारा है

रविवार, 2 नवंबर 2008

अभी-अभी विधवा हुई महिला

उसे नहीं मालूम कि उसके गांव से किस ओर है वह देस
कैसे दिखते हैं उधर के लोग
किस बात पर उन्हें आता है गुस्सा
किस बात पर लगाते हैं वे ठहाके
और उनकी सजा व इनाम के मानदंड क्या हैं
उसके पति ने पिछली बार बताया था
कि उस शहर में ऊंचे-ऊंचे अनगिनत मकान हैं
कि उस शहर में बड़े-बड़े लोग रहते हैं
कि उस शहर में लोग ही लोग रहते हैं
टीवी वाले, सिनेमा वाले
खोमचे वाले, नोमचे वाले
खंदूक-बंदूक और संदूक वाले
पर
पति ने नहीं बताया कभी
कि उस शहर में भी हैं ठाकुर जैसे नृशंस
जो एक इंच जमीन के लिए गिरवा सकते हैं दो दर्जन लाशें
नीम-बेहोशी में पड़ी वह महिला
जिसने अभी-अभी पोंछी है सिंदूर और तोड़ी हैं चूड़ियां
सोचती है --
कि वे लोग नहीं, आदमखोर होंगे
महिषासुर जैसी होंगी उनकी सूरतें
हाय ! कोई बता दे उसे
कि उसके गांव से किस ओर है वह शहर
कैसे हैं वहां के लोग, कैसा है उनका इंसाफ

शनिवार, 1 नवंबर 2008

राख में दब जायेंगे आग के सवाल

दिलों को जलाकर अलाव तापना भारत के राजनेताओं का सबसे पसंदीदा शगल है। बांटो और वोट बटोरो हमारे राजनीतिक संस्कार बन गये हैं। इस देश की लगभग सभी राजनीतिक पार्टी बांटो और वोट लो के मंच पर नाचकर वोट रूपी वाहवाही बटोरती रही है। आज अगर राज ठाकरे नाच रहे हैं, तो इसमें हैरत की कौन सी बात है ? सच तो यह है कि राज ठाकरे भारतीय राजनीतिक संस्कृति के बांटो और राज करो के अचूक हथियार की सर्वसत्ता का ही उपासना कर रहे हैं, जिसे पूज-पूजकर कई भ्रष्ट, अकुशल और क्षुद्र नेताओं ने सड़क से संसद तक की सफल यात्रा की एवं राजभोग का परमानन्द प्राप्त किया।
राज ठाकरे को नेता बनने की जल्दी है। उसे अविलंब महाराष्ट्र की सर्वोच्च् कुर्सी चाहिए। समय कम और लक्ष्य बड़ा। समाज सेवा के लंबे, श्रमसाध्य और घुमावदार रास्ते पर आजकल चलता कौन है। हर किसी को अपनी चिंता है, अपने मंजिल तक पहुंचने की हड़बड़ी है। चाहे इस शार्ट-कट और विध्वंसक राजनीति के एवज में देश और समाज हलाल हो जाय तो जाय। इसलिए राज ठाकरे ने भी शार्ट-कट रास्ता अख्तियार किया है। ठीक वैसे ही जैसे कभी उसके चाचा ने किया था। महाजनो येन गता, सा पंथा की सीख उसका मार्गदर्शन कर रहा है। वह पूरे तन-मन-धन से अपना कर्म करते जा रहा है। उनकी आंख सिर्फ अपने लक्ष्य पर है। लेकिन इधर उत्तर भारत में कोहराम मचा हुआ है। कोई उसे मानसिक रूप से विक्षिप्त कर रहा है तो कोई देशद्रोही। जबकि सभी जानते हैं कि राज उन्हीं लोगों के बताये रास्ते का अनुसरण कर रहे हैं।
राज ठाकरे की बात समझ में आती है। वह अग्नि-उपासक हैं और भस्म रमाकर महाराष्ट्र के महायोगी बनने की पुरुषार्थ कर रहे हैं। लेकिन राज के इस देशतोड़-यग को लेकर बिहार के झंडावरदार बने लालू प्रसाद, नीतीश कुमार, रामविलास पासवान, शरद यादव और एवं हिन्दी पट्टी के तथाकथित हितैषी नेता मुलायम सिंह यादव, अमर सिंह, मायावती की प्रतिक्रिया समझ में नहीं आती। ये तो यही बात हो गयी कि डेगची केतली से कहे तुम्हारी पेंदी हमसे ज्यादा काली। बिहार और उत्तर प्रदेश के समाज को जाति में बांटकर राजनीति के हाशिये से मुख्य पृष्ठ पर छलांग लगाने वाले नेता यह क्यों भूल जाते हैं कि जातिवाद, धर्मवाद और क्षेत्रवाद अलग-अलग खेल नहीं है। ये सभी बांटो और वोट लो खेल के ही पर्यायवाची शब्द हैं।
वास्तव में राज ठाकरे को मानसिक रूप से विक्षिप्त कहने वाले शायद अपना चेहरा छिपाने की ही कोशिश कर रहे हैं। राज द्वारा लगायी गयी आग पर हर पार्टी बस बचकर निकलने के फिराक में हैं। ये नेता और इनकी पार्टियां क्षेत्रीयता की इस आग से उठ रहे उन सवालों का जवाब भी नहीं देना चाहते जो आज आम बिहारी को रोजी-रोटी के लिए दर-दर की ठोकर खाने के लिए मजबूर कर रहे हैं।
राज के राजद्रोह की हरकत के कारण देश के संघीय ढांचों को जो चोट पहुंच रहा है और आने वाले दिनों में जो चोट लगेंगे उसकी तो शायद किन्हीं नेता को आभास भी नहीं है। अगर ऐसा होता तो अंग्रेजों को ठिकाने लगाने वाला यह देश राज के सामने यूं लाचार नहीं दिखता। लेकिन खासकर बिहार के नेताओं की संवेदनशून्यता पर तरसने का मन करता है। बिहार के नेताओं को मालूम होना चाहिए कि पिछले वर्षों में इस राज्य की अर्थव्यवस्था पूरी तरह से मनीआर्डर अर्थव्यवस्था बनकर रह गयी है। उत्तर बिहार की लगभग आधी ग्रामीण आबादी आज अन्य राज्यों से भेजे गये मनीआर्डर पर ही अपना गुजारा करती है। महाराष्ट्र से अगर बिहारी निकल भी जायें तो उनका गुजारा हो जायेगा, लेकिन अगर पंजाब, हरियाण, गुजरात बिहारियों के लिए बंद हो गये तो क्या होगा, इसका अंदाजा तक नहीं लगाया जा सकता। राज ने देश के संघीय ़प्रणाली और संविधान पर जो प्रश्न चिह्न खड़ा किया है, उसका जवाब देने की जिम्मेदारी पूरे देश के नेताओं की है। बिहार, झारखंड और उत्तर प्रदेश के लोगों की यह अकेली जिम्मेदारी नहीं है। लेकिन बिहार के नेताओं की यह जिम्मेदारी जरूर है कि वह अपने चूल्हे की फिक्र करें। लेकिन ऐसी इच्छाशक्ति बिहारी नेताओं में नहीं दिखती। जैसा कि हमेशा से होता आ रहा है वही होगा। कई मासूम और श्रमजीवी लोग इस आग में जला दिये जायेंगे, देश और समाज पहले से ज्यादा कृशकाय हो जायेगा और बचे रह जायेंगे राख और उसमें दबा दिये गये उपरोक्त सवाल। भस्मांकुरण में अंधविश्वास रखने वाला यह देश बार-बार जलता और बूझता रहेगा। अगर यह सच नहीं होता तो कभी बर्मा से अफगानिस्तान तक का भारत आज आधे कश्मीर और एक चौथाई अरुणांचल प्रदेश गंवाकर भी यूं चैन से बैठा नहीं होता।