रविवार, 16 नवंबर 2008

साधारण डब्बे की असाधारण बात

दहाये हुए देस का दर्द-20
जिस तरह हर इंसान की हस्ती एक समान नहीं होती उसी तरह हर रेलवे स्टेशन की आैकात भी बराबर नहीं होती। किसी स्टेशन में दर्जन भर प्लैटफार्म होते हैं तो किन्हीं-किन्हीं स्टेशनों में इंर्ट आैर मिट्टी से बनाये गये चबुतरे से ही प्लैटफार्म का काम लिया जाता है। कोशी की बाढ़ से बुरी तरह प्रभावित सुपाैल जिले का राघोपुर रेलवे स्टेशन भी बाद वाली श्रेणी में ही आता है। भारतीय रेलवे की सामंती बनावट व व्यवस्था में यह स्टेशन वर्षों से सर्वहारा की िस्थति में खड़ा है। पते की बात यह कि बाढ़ के बाद इस स्टेशन पर गाड़ियों काे टर्मिनेट करना पड़ रहा है, क्योंकि यहां से पूरब की ओर जाने वाली पटरी पर पिछले तीन महीने से गाड़ियों के बदले कोशी मैय्या सरपट दाैड़ रही है; बिना किसी हार्न, वैक्यूम आैर ब्रेक के। इसलिए सहरसा से फारबिसगंज जाने वाली गाड़ियां इन दिनों राधोपुर से ही लाैट जा रही हैं। हारे को हरिराम भला की तर्ज पर...
ऐसे तो इस स्टेशन से मेरा हुक्का-पानी का नाता-रिश्ता रहा है। हजारों दफे मैंने इसकी पटरियों को पार किया है। और पंच पैसाही शिक्के को पटरी पर रखकर उसे बार-बार पिचबाया है। लेकिन गत दिनों बेलही कैंप से सहरसा आने के क्रम में मैंने इस स्टेशन को एक नई भूमिका में देखा। इस स्टेशन को देखकर ऐसा लगता है जैसे कोई बैशाखीधारी वृद्ध अपने सिर पर भारी बोझ उठाने की कोशिश में कभी दायीं तो कभी बायीं ओर लुढक जा रहा हो। आखिर कोशी के कहर के बाद लगभग बीस प्रखंडों के दस लाख लोगों को बाहर की दुनिया से जोड़ने का काम कर रहा है यह स्टेशन ।
राघोपुर में डब्बे और इंजन की पाकिंर्ग सुविधा है नहीं और आने वाले दशकों में इसकी संभावना भी नगण्य है; इसलिए ट्रेनों को पटरियों पर ही शंट कर दिया जाता है। दस-बीस लोगों की मेजबानी करने में असमर्थ यह स्टेशन सैंकड़ों लोगों को कहां बिठाये? किसी भूत पूर्व मंत्री और एक अभूतपूर्व मंत्री के करकमलों से उद्‌घाटित प्रसाधन गृह के पास फैली गंदगी और बदबू यही सवाल पूछती है। लेकिन जवाब याित्रयों ने खुद ढ़ूंढ लिया है आैर वे पटरियों पर शंटेड गाड़ियों के डब्बे से ही प्रेक्षा-गृह का काम ले रहे हैं। मैंने भी अन्य याित्रयों का अनुसरन किया आैर प्लैटफार्म से पीछे लगी अपनी शंटेड गाड़ी में बैठ गया, जो दो घंटे बाद सहरसा के लिए प्रस्थान करने वाली थी। डब्बे में कई लोग बैठे थे। अधिकतर बाढ़ पीड़ित। कुछेक दिहाड़ी रोजगारी आैर कुछ हाट-बाजार वाली िस्त्रयां... डब्बा तंग था, लेकिन वहां का माहाैल समाजवादी था, इसलिए हर नये यात्री पुराने से अपने लिए जगह की मांग कर सकता था आैर दूसरा थोड़ा आगे-पीछे, थोड़ा बायें-दायें और थोड़ा ऊपर-नीचे खिसककर उसके लिए जगह पैदा कर देताथा । कभी अनमने होकर तो कभी झुंझलाहट से, तो कभी हंसी-खुशी भी। ट्रेन खुलने में अभी काफी समय शेष था, इसलिए जैसा कि बिहार में चलने वाली रेलगाड़ियों में होता है; उन डब्बों में भी यात्रियों के बीच बहसों का दाैर चालू था।
मेरे वाले डब्बे में काफी गर्मागरम बहस चल रही थी। इसमें हर कोई अपना विचार प्रकट कर रहा था, सिवाय मेरे आैर मेरे बगल में बैठे एक लड़के का, जो पंजाब जाना भी चाहता था आैर नहीं भी। परिचय होने के बाद मैंने उससे पूछा- पंजाब जाना क्यों चाह रहे हो ? उसने जवाब दिया- घर-परिवार चलाने का दूसरा कोई चारा नहीं है। मैंने पूछा आैर नहीं जाना क्यों चाहते हो- जबतक पैसा भेजूंगा तबतक परिवार वाले खायेंगे क्या ; मेरे सिवाय घर में कमाने वाला कोई नहीं है ? मैंने पूछा- घर कहां है ? उसने कहा- घर पानी में बह गया है आैर फिलहाल उसका परिवार राहत-शिविर में है।
बहस चालू था- थोड़ा-बहुत पढ़ा प्रतीत होने वाला 30-32 वर्ष का एक युवक जोर-जोर आवाज में अपना तर्क रख रहा था। वह अपने बात को मनवाने के प्रति सौ प्रतिशत प्रतिबद्ध दिख रहा था, हालांकि वह अपने तर्कों व बातों के प्रति ईमानदार नहीं था। अपनी बात में वजन पैदा करने के लिए या फिर खुद को बुिद्धजीवी साबित करने के लिए वह देसी भाषा में भी विदेशी शब्दों का इस्तेमाल किए जा रहा था। मैंने उसके कुछ शब्द नोट किए- कोरप्शन (करप्शन), वाटर करंट, आरजेडी, डीएम-एसडीओ-बीडीओ। एक दूसरा युवक उसका जोरदार प्रतिवाद कर रहा था- वह अशुद्ध देसी भाषा में बोल रहा था, लेकिन अपनी बातों के प्रति वह पूरा ईमानदार था, इसलिए शब्दों की सतर्कता उसे नहीं आती थी। (मैंने मन- ही- मन सोचा- सा विद्या वा भ्रष्टते ! मैकाले की जय हो !! ) आैर उसने अपना सवाल उछाल दिया था- अच्छा, हमको ई बताइये बैढ़ (बाढ़) के बादे नीतीश सरकार ने क्या कअर लिया ? मान लेते हैं कि बैढ़ दैवी आपदा था, लेकिन ओकर बाद ?? फलनमा के पुतोहू के पेटे में बच्चा मैर गिया, वो भी सरकारी इस्पीताल (अस्पताल) के बरांडा पर (बरामदा) ; ओहो दैवीये आफत था क्या ? राहत सामग्री में लूट मची हुई है, जेहो गांव में पानी नहीं ढूका, उहो गांव के मुखिया रिलीफिया-माल से अपना घर भर रहा है। और जे दहायल-भासल है ऊ सब नहर-सड़क पर घुसकिनीया (घिसटना) काट रहा है ! ... ई सब पर भी देवते-पितर लगाम लगायेगा का ? कि इहो दैवीय आपदा है ??? बोलिये-बोलिये... हूह...
जैसे ही उसने अपने बोलने पर विराम लगाया वैसे ही एक साथ कई जुबानों से सहमति के स्वर फूट पड़े - हं- हं- हं ।।। गप तें ठीके कह रहे हैं ...
(भाई साहेब ! थोड़ा घसकिये !! ... पान-बीड़-सिगरेट !!! आक- थूअअ !!! हैल्लो, हं राघोपुरे में छियो,कायल भोरका गाड़ी से एबो , कि ? माय- ठीके छो, ले गप्प कर.. हैल्लो, हैल्लो, हैल्लो ... लगता है लैन कैट गिया, हैल्लो,लो,लो ... पान-बीड-सिगरेट !!! भाई साहेब, यहां पर सीट खाली है ? नहीं।। आगे बढ़िये ... )
भाई टैम क्या हुआ है ?
साढ़े तीन...
कितने बजे खुलेगा ??
पांच बजे तो लिखता है, लेकिन छह-साढ़े छह से पहले क्या खुलेगी ? आज तक कभी टैम से खुली है ?? हेंहेंहें
देखिये, बात ई है कि कोशी को तो 20 वर्ष से लूटा जा रहा था। हं, ई बात अलग है कि इस बार बांध टूट गया और सारा ठीकरा नीतीश-बिजेंद्र के माथे पर फूट गिया। लेकिन जाकर देखिये न बराज का हाल, 1988 में टें बोल चुका था। एक्सपायर हो गया था। अब एक्सपायरी दवा खाइयेगा तो मरियेगा की नहीं ???
इहो बात ठीक है। कम पढ़ा-लिखा भाई के हाथ से बहस निकला जा रहा था, क्योंकि थोड़ा-पढ़ा लिखा वाला भाई अब बहस में इतिहास, भूगोल और विज्ञान को शामिल कर चुका था। इसलिए कम पढ़ा-लिखा भाई ने मन ही मन सोचा, शायद उसकी अंडरस्टैंडिंग गलत हो। यह तो वर्ष, दवा, एक्सपायरी जैसा शब्द बोल रहा है!! इसलिए उसने अब विरोध करने के बजाय जानकारी जुटाना ही सही समझा, बोला- ठीके में भाई साहेब ? बराज बहुत पहिले (पहले) में बेकाम हो गिया था ?
तो क्या हम झूठ कह रहे हैं। कल के अखबार में भी छपा है, पढ़ लीजियेगा... तो थोड़ा खोलके बताइये ने, क्या सब छपा था अखबार में ?
(शिखर, तिरंगा, राजदरबार ... रे छोड़ा एक ठो तिरंगा दो तो... गरीबों का सुनो वो तेरा सुनेगा/ तुम एक पैसा दोगो वो दस लाख देगा... सूरदास की मदद करो भैय्या... शिखर पान-बीड़-सिगरेट...)
(आगे की बात अगली कड़ी में)

3 टिप्‍पणियां:

PD ने कहा…

सच्ची बात सच्चे दिल से कही आपने.. अगली कड़ी कि प्रतिक्षा में हैं..

विवेक सिंह ने कहा…

आपकी असाधारण अभिव्यक्ति .

रंजीत/ Ranjit ने कहा…

Prashant jee aglee kadee kee suchna main aapko jaroor dunga, vivek bhai apka aabhar.
Ranjit