बुधवार, 30 दिसंबर 2009

जाती हुईं तारीखों की याद

तारीखें जिंदगी की तरह होती हैं। गुजरने के बाद दोबारा कभी नहीं आतीं। लेकिन उनकी याद हमेशा आती है। वर्ष 2009 जा रहा है। जाते हुए वर्ष ने दुनिया को क्या-क्या दिया ? क्या- क्या लिया ? वही रक्तों से सनी खबरें और बाजारवाद की जानलेवा सबकें। स्वार्थ सिद्धि की नापाक राजनीति, वर्चस्व के लिए टकराव और प्राणों की आहूति और छल-प्रपंच-साजिशों के अनगिनत प्रहसन। खोल बदले पर जानवर नहीं बदला। बुश की जगह ओबामा और अफगानिस्तान की जगह पाकिस्तान आ गया। जरूरत पड़ी तो वाशिंगटन-बीजिंग की भी भाषा एक हो गयी और गरज हुआ तो भारत के स्लमडॉग को भी ऑस्कर पहना दिया गया। उधर तुवालू , किरीबाती और मालदीव जैसे द्वीपीय देश समुद्र-समाधि से बचने के लिए एसओएस का अलार्म बजाते रहे और इधर अमेरिका के नेतृत्व में जलवायु परिवर्तन के बाघ को गरीब देशों की ओर खदेड़ दिया गया। गरीबी और गृह युद्ध से त्रस्त सोमालियाइयों ने पेट के लिए समुद्र में डाका डालना शुरू कर दिया और पश्चिमी देशों ने सोमालियाई सागर को कबाड़खाने में तब्दील कर दिया। कांगो, सूडान, नाइजीरिया और नौरू के शरणार्थी शिविरों में बाल यौन-शोषण से लेकर मानवीय उत्पीड़न के नये-नये अध्याय लिखे जाते रहे। दो जून की रोटी के लिए मानवता शर्मसार होती रही। दूसरी ओर बाजारवादी दुनिया के समनायक अपनी मगरमच्छी ध्यान में ध्यानस्थ रहे। वे 2009 को याद रखना नहीं चाहते। उनकी नजर 2010 और उससे आगे है कि इस वर्ष भारत में दस करोड़ नये लोगों को वे अपने-अपने उपभोक्ता बना पायेंगे। वैसे मंदी को भूलने और टालने की उनकी कवायदें अभी भी जारी हैं और आने वाले सालों में भी जारी रहेंगी। मुमकीन है वे इसमें कामयाब होंगे। उनकी आबादी आज भी बहुत कम है और दुनिया भर के संसाधनों पर उनकी पकड़ लगातार मजबूत होती जा रही है। उनके लंगर के ग्रीप से कुछ नहीं छूट सकता। चाहे तरल तेल हो या फिर ठोस कोयला, उनके लंगर की पकड़ से कोई मुक्त नहीं। खाने से लेकर फरमाने तक वही हैं, वही रहेंगे। और इस बिना पर वे ऐसी कई महामंदियों को धूल चटा देंगे हैं। सरकार से लेकर मीडिया तक अब उनके कब्जे में आ चुके हैं। जो ताकतें प्रतिरोध में खड़ी हो सकती थीं वे या तो खंड-खंड विभाजित हैं या फिर खुद बाजारवादी जमात में जा मिली हैं। चीन ने अपनी जनता की जुबान पर दुनिया का सबसे बड़ा ताला जड़ दिया है और अब वे अमेरिकी बाजारवाद से टक्कर लेने के लिए पूंजी को अमोध अस्त्र मान चुका है। नेपाली माओवादियों की सारी शक्ति सत्ता पाने में खर्च हुए जा रही है।
लेकिन सवा सौ करोड़ वाले भारत ने 2009 में क्या-क्या भोगा। कितना सीखा और कितना बदला। वर्ष 2009 की विदाई की वेला में सवा सौ करोड़ में से सौ करोड़ लोगों के सामने ये सवाल जरूर उठ रहे होंगे। लेकिन महंगाई और मक्कारी राजनीति की दोहरी मार के घावों को लेकर 2010 में प्रवेश करती भारत की यह आबादी शाम होते-होते इतना थक जाती है कि उन्हें सुबह का सबक भी याद नहीं रहता,तो पूरे साल को कैसे याद रखे। इन्हें याद करना उनके लिए लगभग असंभव और अप्रसांगिक है। वे उपभोक्तावाद के हर रस को पी जाने के लिए बेताब हैं और देश-काल-समाज के पचड़े में पड़कर अपने दिन को बोझिल करना नहीं चाहते। कृत्रिम दुनिया के कृत्रिम चित्रों से सजे टीवी चैनलों के सीरियल और हर अनरियल शो को रियल मानकर वे मनोरंजित हैं। फिर भी कुछ लोग है जो तमाम परेशानियों के बावजूद बीते हुए साल को याद करेंगेऔर अकेले में बार-बार खुद से प्रश्न करेंगे कि क्या मनुष्य जाति इतनी लापरवाह और खुदगर्ज भी हो सकती है ? कि एक नेता हजारों करोड़ रुपये को घोटाला कर फिर से निर्वाचित हो सकता है और जनता के बीच सीना तानकर खड़ा हो सकता है। कि वाम-वाम के झांव-झांव में वाम और दहिन का फर्क खत्म हो सकता है और गरीब और गरीब और गरीबों को मारकर और कम वाम को पछाड़ कर अति वाम दस - बीस जान लेकर , झोले में कंडोम और कंधे पर बन्दुक लटकाकर लाल क्रांति ला सकता है। कि सौ करोड़ लोगों के करोड़पति रहनुमा संसद में जनता के पैसे से खुद 5 रुपये में लजीज व्यंजन खायेंगे और जनता की थाली से रोटी-आलू -प्याज़ तक गायब हो जायेंगे । कि गरीब देश की संसद अमीरों का अखाड़ा बन जायेगी । 2009 में ऐसा ही हुआ। चौदहवीं संसद में चार सौ से ज्यादा सांसद करोड़पति हैं और कई दर्जन अरबपति भी हैं।
दरअसल, 2009 को इसलिए भी याद रखा जायेगा कि इस वर्ष देश की राजनीति ने साफ तौर पर बाजारवाद के दरबे में खुद को प्रतिस्थापित करा लिया। 2009 में यह भी साबित हो गया कि भ्रष्टाचार और ईमानदारी में अब कोई अंतर नहीं रह गया है। अगर अंतर होता तो भ्रष्टाचार के स्पष्ट आरोप के बाद दागी न्यायधीशों के खिलाफ एकमत से महाभियोग लाया जाता। मधु कोड़ा जैसे लोग चुनाव नहीं जीतते। बाजार की आड़े आने वाली तमाम बाधाएं रेत की तरह भरभराकर नहीं गिरतीं और आम जन को सहारा देने वाली प्रजातंत्र की तमाम संस्थाएं इस कदर कमजोर दमा ग्रस्त नहीं हो जातीं। क्षेत्रवाद, भाषावाद, जातिवाद और संप्रदायवाद में जनता इतनी बंट चुकी हैं कि उनकी प्रजातांत्रिक हथियार कुंद पड़ गये है। प्रजातंत्र में जनता में एकता होना जरूरी है, लेकिन क्षेत्रवाद, भाषावाद, जातिवाद और संप्रदायवाद ने उन्हें जर्रे-जर्रे में विभाजित कर दिया है। 2009 में विभाजन का यह सिलसिला और तेजी से बढ़ा, जिसका फायदा उठाकर ऐसी शक्तियां दोवारा सत्ता पर काबिज हो गयीं, जिनकी वरीयता में आम जन का कल्याण कभी कोई एजेंडा या सपना नहीं रहा। हां, बाजीगरी के लिए वे कभी दलितों के यहां खा और सो लेंगे, किसी मुस्लिम विश्वविद्यालय में मुस्लिम के प्रधानमंत्री बन जाने की बात करेंगे, लेकिन जब मुंबई की सड़कों पर अपने ही देश के लोगों को अपने ही देश के गुंडे भेड़-बकरी की तरह दौड़ायेंेगे, तो खौफनाक चुप्पी साध लेंगे। और अगले दिन कॉरपोरेट घराने के मुखिया के साथ बैठकर डिनर करेंगे। बिहार की बाढ़ हो या कश्मीर का आतंकवाद, वे चुप्पी साधे रहेंगे।
इन्हीं अनुभवों के साथ हम 2010 में जा रहे हैं। तमाम संकेत यही बताते हैं कि 2010 में हम बाजारवाद के मोह को अपने वाहुपाश में पायेंगे। बिल्कुल तिस्नगी की तरह। और गांवों से किसान आत्महत्या की खबरें एक तो आयेंगी नहीं अगर आयेंगी तो उसे कुछ इस तरह पढ़-सुन लेंगे मानो ये खबरें किसी दूसरी दुनिया से आयी हों। बिल्कुल, बॉस की तरह। बहरहाल, शुभकामना संप्रेषण के साधन और विकसित करेंगे ताकि कोई यह नहीं कहे कि बाजारवाद ने आदमी को आदमी से दूर कर दिया है। हमने हमारे को हैल्लो बोला, विश किया। बसहमारी जिम्मेदारी पूरी हुई। हैप्पी न्यू इयर टू यू...
 

शनिवार, 26 दिसंबर 2009

सात समुद्र पार भी कोशी की चिंता

( जमीन से भारी जिन्दगी : स्थान - सनपताह, सुपौल , बिहार - जुलाई २००९ )
दहाये हुए देस का दर्द-60
विपत्ति और दरीद्रता कोशी अंचल की सदियों पुरानी नियति है। इससे भी ज्यादा चिंता की बात यह कि इस इलाके पर कोशी नदी एक तलवार की तरह लटक रही है, जिसके कारण इसका भविष्य खतरे में है। सरकार की क्रोनिक उपेक्षा के कारण यह अंचल आज देश के सबसे उपेक्षित इलाके में से एक है। हालांकि आज भी यहां के आम लोग शांति प्रिय और देशभक्त हैं। लेकिन मुझे लगता है कि यह स्थिति लंबे समय तक बनी नहीं रहेगी क्योंकि इस इलाके के मद्देनजर सरकार की नीति यथास्थितिवादी है और दुनिया तेजी से बदल रही है। अगर कोशी अंचल की समस्याओं को योजनाबद्ध ढंग से नहीं निपटाया गया, तो यह इलाका आने वाले समय में बड़े आंदोलन और अलगाव की ओर बढ़ सकता है। "दो पाटन के बीच' कोशी के जमीनी हालात को समझने और समझाने का एक प्रयास है। पिछले लगभग दो साल से मैं इसके जरिये कोशी नदी और कोशी अंचल की समस्याओं को सामने लाने की कोशिश कर रहा हूं। इस क्रम में मुझे कई लोगों के पत्र मिले हैं। कुछ ने इस प्रयास की तारीफ की है, तो कुछ लोगों को यह निजी हित का मामला भी लगता है। लेकिन मैं बता देना चाहता हूं कि शुद्ध मन से बदलाव के आकांक्षी लोगों का निजी हित कुछ नहीं होता। सामूहिक हित ही में वे निजी हित का सुख पा लेते हैं। जिन्होंने जिंदगी में कभी कोई मुहिम चलायी हो वे इस सच को जानते हैं और जिनकी सोच की सुई कभी स्वार्थ से ऊपर उठी ही नहीं, उन्हें यह बात कभी भी समझ नहीं आयेगी। इसलिए इस विषय पर कोई दलील देना, जस्टिफिकेशन देना या तकरीर करना व्यर्थ है।
बहरहाल, यहां मैं सात समुद्र पार अमेरिका से आये एक मर्मस्पर्शी पत्र को रख रहा हूं। कैलिफार्निया, अमेरिका में रह रहे मणिकांत ठाकुर जी का यह पत्र हमें सोचने के लिए बाध्य करता है।
- रंजीत

प्रियवर श्री रंजीत बाबू
कोशी के अभिशाप को वरदान में बदलने की संभावना रहते हुए भी किसी की इच्छा -शक्ति उस ओर उन्मुख नहीं है। नेतृत्व के लिए व्यक्ति स्वयं को प्रस्तुत करता है। लोग उसे ही नेता बनाना चाहते हैं जो बन जाना चाहते हैं। हमारी मिट्टी में उर्वरता तो है पर तेज और दिशा नहीं है, ऐसा लगता है। बाहर जाकर और अपने चारों ओर प्रखरता देखकर हम अपने को ढाल तो लेते हैं पर मिथिलांचल या बिहार के किसी हिस्से में रहते हुए अगले कदम की ओर रूझान नहीं होता। संभवतः कोई स्थानीय स्वाभाविक प्रतियोगिता नहीं है। खैर, इन बातों का विश्लेषण कई और तरीकों से हो सकता है। लेकिन कोशी क्षेत्र में एक सक्षम नेता या जवाबदेह समूह का अभाव है, जो नयी बात नहीं है। अगर लालू प्रसाद यादव जी जैसे नेता इस मुद्दे से जुड़ते तो इसकी व्यापकता हो सकती थी। ग्रासरूट से शुरू करके दिल्ली तक जाना एक लंबी दूरी है। दिल्ली की व्यवस्था को, चाहे वह जिस किसी तरह भी हो, कोशी से रू-ब-रू कराना कारगर हो सकता था। और कुछ नहीं तो एक योजना कम-से-कम कागज पर बन जाती जिसके बहाने आवाज उठायी जा सकती थी।
कोशी एक सोई हुयी बाघिन है। यह एक तरल ज्वालामुखी है। इसके लिए जितनी अग्रिम तैयारी हो वो थोड़ी है। लगता है जिस प्रजातंत्र की साख हम बताते रहते हैं वो अभी भी व्यवहारिक परिभाषा के लिए चुनौती ही बनी हुई है। मैं एक वर्ष के लिए चीन में था। उनकी आर्थिक व्यवस्था, साफ-सफाई, योजनाओं की तत्पर व्यवस्था सभी सराहनीय लगी। पर व्यक्ति और समाज तक आते-आते जो अधोगति दृष्टिगोचर होती है उससे उनकी प्रगति की कीमत समझ में आती है। खुली वेश्यावृति, एक-दूसरे से निरंतर डर , सरकारी कर्मचारियों से लोगों का भय, स्नेह और सामाजिक-भावना का स्पष्ट अभाव आदि उनकी समस्या है। पर बाहर से आये लोग ही इस कमी को समझ पाते हैं।
कोशी क्षेत्र के लोगों का आसानी से अपनी विपत्ति अपनी नियति समझ बैठना एक विडंबना है जिसमें सरकार और जनता दोनों सहभाग है। एक बहरी है जबकि दूसरी मूक। लालू ही एक ऐसे बोलने वाले व्यक्ति थे जिनमें माइलेज के लिए (भले ही राजनीतिक फायदे के लिए ही) कुछ भी कर गुजरने का जज्वा था। अब उनके साथ कोशी के लोगों का कुछ भी सध नहीं सकता। पर इस मुद्दे और समस्या को एक बार उनके साथ शेयर करना लाजिमी था, जो नहीं हो सका। छोटी रेल लाइन्स का कोशी के तटबंधों तक विस्तार, बांधों की सुरक्षा और अन्य योजनाओं के लिए लालू एक अच्छा प्रारंभ कर सकते थे। अगर लालू जी सार्वजनिक रूप से भी इन योजनाओं को स्वीकार कर लेते, तो यह एक माइलस्टोन हो सकता था।
शायद एक नये सिरे से इसे अभी भी शुरू किया जा सकता है। पर करना आवश्यक है। चाहे करने वाले कहीं भी हो, वे इसमें अपना योगदान दे सकते हैं। इन अभियानों को चलाने का अच्छा समय अभी ही है जब कोशी क्षेत्र की समस्याओं के विभिन्न आयामों को संबोधित किया जा सकता है। ममता बनर्जी और बिहार को एक-दूसरे से एलर्जी है। इसलिए उनसे कोई उम्मीद करना ही व्यर्थ है। लेकिन विश्व बैंक भी ऐसी योजनाओं के लिए मदद देती है। जरूरी है योजनाओं को शुरू करने की।
आपकी लेखनी की सुलझी हुई भाषा से विषय और भाषा का अंतर मिट जाता है और दोनों एक-दूसरे के पूरक बन जाते हैं। आप जैसे(सपूतों) की सेवा ही मूक जनता की आशाओं को प्रश्रय दे सकती है। कृपया अपनी उमंगों को अपनी प्रभावी लेखनी से चलते रहने दें।
सादर
कृपाकांक्षी
मणिकांत ठाकुर
कैलिफोर्निया (संयुक्त राज्य अमेरिका
)
(नोट- पत्र में व्यक्तिगत अर्थ के कुछ अंश हटा दिए गए हैं और उन्हीं बातों को रखा गया है जो सार्वजनिक महत्व के हैं।)

सोमवार, 21 दिसंबर 2009

ऐसे अंत की अपेक्षा तो नहीं थी

ओबामा : धरती से ज्यादा अमेरिका की चिंता
मीनाक्षी अरोरा
जलवायु परिवर्तन पर कोपेनहेगन वार्ता का दुःखद अंत हो चुका है। डेनमार्क की राजधानी कोपेनहेगन के बेला सेंन्टर में चले 12 दिन की लंबी बातचीत दुनिया के आशाओं पर बेनतीजा ही रही। कोपेनहेगन सम्मेलन में बातचीत के लिए जुटे 192 देशों के नेताओं के तौर-तरीकों से यह कतई नहीं लगा कि वे पृथ्वी के भविष्य को लेकर चिंतित हैं। दुनियाँ के कई बड़े नेताओं ने बेशर्मी के साथ घोषणा की कि ‘यह प्रक्रिया की शुरुआत है, न की अंत’। 192 देशों के नेता किसी सामुहिक नतीजे पर नहीं पहुँच सके, झूठी सदिच्छाओं के गुब्बारे के गुब्बार तो बनाए गए, पर किसी ठोस कदम की बात कहीं नहीं आई। कोपेनहेगन सम्मेलन मात्र एक गर्मागर्म बहस बनकर खत्म हो चुकी है।कोपेनहेगन की शुरुआत ही जिन बिन्दुओं पर होनी थी, वह विकसित देशों के अनुकूल नहीं थी। कार्बन उत्सर्जन में कानूनी रूप से अधिक कटौती का वचनबद्धता, कार्बन उत्सर्जन के प्रभावी रोकथाम के लिए एक निश्चित समय सीमा की प्रतिबद्धता, कार्बन उत्सर्जन में 1990 के स्तर से औसत 5 प्रतिशत तक कटौती आदि ऐसे मुद्दे थे जिनपर विकसित देश किसी भी स्थिती में तैयार नहीं होने वाले थे।कोपेनहेगन में जलवायु परिवर्तन के मसले पर ‘सार्थक समझौते’ की निरर्थकता इसी बात से साबित हो जाती है कि सार्थक समझौते में गिनती के 28-30 देश ही शामिल हैं। बाकी देश इसे पूरी तरह खारिज कर चुके हैं। 18 दिसंबर को ही कोपेनहेगन की असफलता साफ नजर आ गयी थी, जब एक दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप का सिलसिला शुरु हुआ। दुनिया भर से आईं वरिष्ठ हस्तियां एक दूसरे पर दोषारोपण कर रही थीं। 130 विकासशील देशों के समूह जी77 ने ओबामा पर आरोप लगाया कि, “ओबामा ने अमरीका के लिए कार्बन उत्सर्जन को कम करने की बात से इंकार करके गरीब देशों को हमेशा के लिए गरीबी में ढकेल दिया है।” एक प्रवक्ता ने स्पष्ट शब्दों में कहा कि कोपेनहेगन की असफलता जलवायु परिवर्तन के इतिहास में सबसे बुरी घटना है।कोपेनहेगन में जलवायु परिवर्तन के मसले पर ‘सार्थक समझौते’ की निरर्थकता इसी बात से साबित हो जाती है कि सार्थक समझौते में गिनती के 28-30 देश ही शामिल हैं। बाकी देश इसे पूरी तरह खारिज कर चुके हैं। 18 दिसंबर को ही कोपेनहेगन की असफलता साफ नजर आ गयी थी, जब एक दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप का सिलसिला शुरु हुआ। दुनिया भर से आईं वरिष्ठ हस्तियां एक दूसरे पर दोषारोपण कर रही थीं। पाबलो सोलोन, संयुक्त राष्ट्र के बोलिवियन राजदूत ने मेजबान डेनमार्क पर आरोप लगाते हुए कहा कि ‘उंहोंने दुनिया के नेताओं के आगे मसौदा रखने से पहले मात्र कुछ देशों के समूह को ही तैयार करने के लिए दे दिया। यह कैसे हो सकता है कि 190 देशों को दर किनार करके मात्र 25-30 देश अपनी ही खिचड़ी पकाकर बाकी देशों को परोस दें। इसे स्वीकार नहीं किया जा सकता।‘लेकिन दूसरी ओर अमीर देशों ने अपने पक्ष को मजबूत करते हुआ कहा कि विकासशील देशों ने एक ठोस बातचीत की बजाय प्रकिया पर ज्यादा वक्त जाया किया है। वार्ता के तुरंत बाद हुई प्रेस कॉन्फ्रेंस में ब्रिटेन के प्रधानमंत्री ब्राउन ने कहा, कि यह तो बस एक पहला कदम है, इसे कानूनी रूप से बाध्यकारी बनाने से पहले बहुत से कार्य किए जाने हैं। एक सवाल का जवाब देते हुए उंहोंने इसे ऐतिहासिक कॉन्फ्रेंस मानने से भी इंकार कर दिया। ओबामा भी विश्व नेताओं के सामने काफी विचलित से दिख रहे थे। हालांकि अमरीका से हिलेरी क्लिंटन ने घोषणा की थी कि अमरीका विकासशील देशों को जलवायु परिवर्तन की समस्या से निपटने के लिए 100 बिलियन डॉलर की मदद करेगा लेकिन ओबामा ने गरीब देशों को सहायता मुहैया कराने और कार्बन उत्सर्जन में कमीं करने का कोई दावा नही किया। अपनी बातचीत में ओबामा ने यह तो कहा कि अमरीका क्लीन एजेंडा अपनाएगा। लेकिन विकासशील देश इस बात से निराश थे कि ये सब कहने के लिए हैं लिखित रूप से कोई भी दावा नहीं किया गया। इतना ही नहीं, जिस जलवायु परिवर्तन संबंधी कानून के लिए पर्यावरणीय संगठन कईं महीनों से मांग कर रहे थे उंहोंने सीनेट को कोई कानून बनाने के लिए दबाव नहीं डाला। मसौदे में यह सदिच्छा तो है कि ग्लोबल वार्मिंग को 2 डिग्री की सीमा पर ले आना चाहिए लेकिन इसमें कोई कानूनी बाध्यता नहीं रखी गई। मसौदे को तैयार करने वाले ब्राउन सहित सभी 28 देशों ने आज सवेरे वार्ता को अगले साल दिसम्बर 2010 तक के लिए स्थगित करने का प्रस्ताव रखा जब तक संयुक्त राष्ट्र की मेक्सिको में जलवायु परिवर्तन पर अगली बैठक नहीं हो जाती।लेकिन कोपेनहेगन से जो मसौदा सामने आया है वह न केवल दुनिया में शक्ति संतुलन सुनिश्चित कर सकता था बल्कि भावी पीढ़ियों का भविष्य भी निर्धारित कर सकता था। लेकिन यह समझौता बिना किसी ठोस निष्कर्ष के फ्लॉप हो गया। कोपेनहेगन वार्ता निम्न बिंदुओं पर फ्लॉप हो गईःतापमान : "ग्लोबल तापमान में वृद्धि 2 डिग्री से कम होनी चाहिए।"इससे 100 से भी ज्यादा देश निराश हो गए जो तापमान में अधिकतम 1.5 डिग्री की कमीं चाहते थे, इसमें वे सभी छोटे-छोटे द्वीपीय देश भी शामिल हैं जो इस बात से भयभीत हैं कि इस लेवेल पर भी उनके घर डूब ही जाएंगे।कार्बन उत्सर्जन के लिए समय सीमा"हमें वैश्विक और राष्ट्रीय उत्सर्जन की सीमा को जल्द से जल्द पाने के लिए के लिए सहयोग करना चाहिए, इस बात को ध्यान में रखते हुए कि विकासशील देशों में यह समय ज्यादा लग सकता है…" इस वक्तव्य से वे देश निराश हो गए जो कार्बन उत्सर्जन के लिए एक तिथि निर्धारित करना चाहते थे। "सभी पक्ष इस बात का वादा करते हैं कि वे व्यक्तिगत रूप से या मिलकर 2020 तक तार्किक रूप से कार्बन उत्सर्जन लक्ष्य में कटौती करेंगे। "इस तथ्य के अनुसार विकसित देशों को अपने मध्यकालीन लक्ष्य तक तुरंत पहुंचने के लिए अभी से काम शुरु करना होगा। अमरीका को 2005 के स्तर पर 14-17फीसदी कमीं करनी होगी, यूरोपीय संघ को 1990 के स्तर पर 20-30फीसदी, जापान को 25 और रूस को 15-25फीसदी की कटौती करनी होगी। "वनों की कटाई को रोकने, अनुकूलन, प्रौद्योगिकी विकास और हस्तांतरण और क्षमता के लिए पर्याप्त वित्त का मामला"यह बहुत ही जटिल है क्योंकि 15 फीसदी से भी ज्यादा कार्बन उत्सर्जन के लिए पेड़ों के कटाव को जिम्मेदार माना गया है। वार्ता में शामिल समूहों का मानना है कि इस तर्क में सुरक्षा मानकों की कमीं है।पूंजी: "विकसित देशों ने एक साथ मिलकर यह वादा किया है कि 2010-12 तक 30 बिलियन तक की कीमत वाले नए और अतिरिक्त संसाधनों को मुहैया कराएंगे.... विकसित देशों ने लक्ष्य निर्धारित किया है कि विकासशील देशों की जरूरतों को पूरा करने के लिए वे सब मिलकर 2020 तक प्रतिवर्ष 100 बिलियन डॉलर इकट्ठा करेंगे।"हालांकि अमीर देशों नें विकासशील देशों के प्रयासों के लिए शीघ्र आर्थिक सहयोग देने की बात कही है। दीर्घकाल में, बड़ा फंड कोपेनहेगन ग्रीन क्लाइमेट फंड में जाएगा। लेकिन समझौते में कहीं भी यह नहीं कहा गया है कि यह फंड कहां से आएगा, और इसका इस्तेमाल कैसे होगा।
वार्ता में दरकिनार किए गए पूर्व मसौदे के मुख्य तत्व: वार्ता में क्योटो को परिवर्तित करने का प्रयास किया गया है। क्योटो का साफ कहना था कि "हमारा दृढ़ निश्चय है जलवायु परिवर्तन पर एक या अधिक नए कानूनी साधनों को अपनाना होगा…"। दरअसल यह प्रस्तावना ही अमार देशों के वार्ताकारों के सामने सबसे बड़ी बाधा थी। इससे यह सवाल खड़ा हुआ कि क्योटो प्रक्रिया को बरकरार रखा जाए या नहीं। सब जानते हैं कि संधि के लिए डेडलाइन की बात का काफी गंभीर मतलब है, लेकिन मसौदे के अंतिम रूप में इस तय समय सीमा को छोड़ दिया गया और कहा गया कि यह अगले साल होगा।हसरतों को पंख मिलने के उम्मीद में लोग कोपेनहेगन सम्मेलन को होपेनहेगन नाम से बुला रहे थे, पर अब लोग बहुत बूरी तरह गुस्से में और दुखी हैं। जब कई देशों के नेता कोपेनहेगन से रवाना हो रहे थे, तो ब्रिटेन के ग्रीनपीस के कार्यकारी निदेशक जॉन सॉवेन ने बीबीसी से कहा कि कोपेनहेगन एक ऐसी अपराधभूमि की तरह लग रहा है जहाँ से अपराधी स्त्री-पुरुष एयरपोर्ट की ओर रवाना हो रहे हैं। (इंडिया वाटर पोर्टल हिन्दी)

शुक्रवार, 18 दिसंबर 2009

इब्दिता से पहले तय था अंजाम (कोपेनहेगन-15)

कोपेनहेगन-15 ! बहुत आस थी, लेकिन अंजाम तय था । वार्ता खात्मे की ओर है। लेकिन कुछ भी कांक्रिट समझौता नहीं हुआ।पर्यावरण प्रेमी निराश होकर डेनमार्क छोड़ रहे हैं, तो कुछ इसे पिकनिक विजिट की तरह भी ले रहे हैं। विश्वास नहीं हो, तो देखिये उपरोक्त तस्वीर।


पैसे से जीत लेंगे जग ! पर्यावरण संकट के मुद्दे पर भी अमेरिका का अहं सामने आ गया। अमेरिका के विदेश मंत्री ने कहा कि गरीब देश कार्बन उत्सर्जन घटाये हम उन्हें प्रति वर्ष एक सौ बिलियन डॉलर देंगे। लेकिन खुद अपनी राजशी ठाठ में कमी नहीं लायेंगे और कार्बन की रफ्तार जारी रखेंगे। लेकिन जिन्हें पैसे देंगे उसकी थानेदारी भी करेंगे कि वह कार्बन उत्सर्जन घटा रहा है कि नहीं।

क्या यही बाकी निशा होगा ! डेनमार्क के समुद्र तट पर पर्यावरण संकट और मानव जाति के भविष्य को लेकर चिंतित मानव-बूत !

अब क्या करेंगे द्वीपीय देश ! सलाह बेमुनासिब नहीं है।

नक्कारखाने में तूती की आवाज ! किसी ने नहीं सुनी पर्यावरण प्रेमियों की अपील।अब क्या करेंगे





सोमवार, 14 दिसंबर 2009

घोघो रानी कितना पानी

बचपन में दादी कहानी सुनाती थीं, घोघो रानी की। कहानी एक भोली-भाली लड़की घोघो रानी और एक निर्मम राजा की है। नदी में उतरने के लिए विवश घोघो पूछती रही- अब कते दूर ? राजा वहलाता रहा- थोड़ी दूर और ... घोघो आगे बढ़ती गयी, पानी भी बढ़ता गया । घोघो पूछती रही- भर कमर पानी में पहुंचे हो राजा, अब कते दूर ? ... बस थोड़ी ही दूर और ... भर नाक पानी में पहुंचे हो राजा, और कते दूर ? थोड़ी ही दूर... अंततः रानी डूब गयी...
भ्रष्टाचार के विषबेल से आच्छादित देश को देख घोघो रानी की वह प्राणांतक कहानी याद आ जाती है। भ्रष्टाचार की नदी में समाजरूपी घोघो डूब रहा है, लेकिन समाज के नियंता फुसलाते ही जा रहे हैं- थोड़ी दूर और ... खबर आयी है कि देश के उपराष्ट्रपति की पत्नी से भी अधिकारियों ने रिश्वत की मांग ली। नहीं मिली तो उनके आवेदन को डस्ट बीन में डाल दिया। खबर के अनुसार, उपराष्ट्रपति डॉ. हामिद अंसारी की पत्नी सलमा अंसारी ने कहा है कि रिश्वत नहीं देने के कारण उनके स्कूल को अनुदान की राशि आवंटित नहीं की गयी। पांच साल बीत गये पर अलीगढ़ में गरीबों के लिए संचालित उनके स्कूलों को फंड नहीं मिला। कई बार स्कूल के स्टाफ से फंड रिलीज करने की एवज में रिश्र्वत मांगी गयी।
खबर के अनुसार, अलीगढ़ में अलनूर चैरिटेबिल सोसायटी संस्था द्वारा चाचा नेहरू व अलनूर मदरसे के अलावा एक स्कूल संचालित किया जाता है, जिसमें 1800 गरीब बच्चे पढ़ते हैं। संस्था वित्तीय संकट से गुजर रही है। वित्तीय मदद के लिए सलमा अंसारी ने केन्द्र सरकार से अनुरोध की थी, जिस पर राज्य सरकार से अनापत्ति प्रमाण पत्र आवश्यक था। पांच साल बीत गये पर राज्य के अधिकारियों ने प्रमाण पत्र निर्गत नहीं किया। अधिकारियों ने 5 से 25 हजार रुपए की रिश्वत मांगी। मांग पूरी नहीं हुई, तो फंड भी रिलीज नहीं हुआ।
यह घटना साबित करती है कि देश में भ्रष्टाचार का आलम क्या है। इससे सहज अंदाजा लगाया जा सकता है कि भ्रष्टाचार अब विषाणु ही नहीं रहा, जो चोरी-छिपे समाज को अपनी गिरफ्त में ले रहा है, बल्कि यह बेखौफ राक्षस हो चुका है । इस वाकये से स्पष्ट है कि भ्रष्टाचारियों को अब किसी का भय नहीं रहा। और यही बात सबसे ज्यादा खौफ पैदा करती है। भ्रष्टाचार और बेखौफ भ्रष्टाचार में बहुत बड़ा अंतर है। भ्रष्टाचार कहीं भी और किसी भी समाज-व्यवस्था में हो सकता है, लेकिन बेखौफ भ्रष्टाचार उसी सामाजिक व्यवस्था में रह सकता है जो व्यवहारिक तौर पर अप्रसांगिक हो चुकी हो। कहने की आवश्कता नहीं कि अप्रसांगिक सामाजिक व्यवस्था में कोई भी अनर्थ संभव है। अप्रसांगिक सामाजिक व्यवस्था उस छतरी की तरह है जिसमें हजारों छेद हो, लेकिन जो बारिश से बचाने का भ्रम तो पैदा कर सके, लेकिन बारिश में कोई राहत नहीं दे।
लोग चुप हैं। कोई इसे सामाजिक शिष्टाचार कह रहा है, तो कोई आधुनिक जीवन की शैली। इसलिए हमारी शिक्षा प्रणाली पर भी संदेह पैदा होता है। हमारे यहां साक्षरता का ग्राफ बढ़ रहा है, लेकिन समाज का बौद्धिक स्तर शायद गिर रहा है। हम शिक्षित हो रहे हैं, शायद जागरूक नहीं हो रहे। समझ में नहीं आता कि बढ़ती साक्षरता के बाद भी समाज यह कैसे मान ले रहा है कि भ्रष्टाचार सामाजिक शिष्टाचार हो सकता है। यह तो कुछ एैसी ही बात हो गयी कि कोई कहे कि एड्‌स के विषाणु शरीर के अंग हो गये हैं। भ्रष्टाचार, न सिर्फ समाज के चरित्र को कमजोर करता है, बल्कि उसके भविष्य को भी निगल जाता है। भ्रष्ट समाज की संप्रभुता कभी भी सुरक्षित नहीं रह सकती। भ्रष्ट समाज में सामूहिक सौहार्द नहीं आ सकता। वहां स्थायी शांति कभी नहीं आ सकती।
 

शुक्रवार, 11 दिसंबर 2009

और अब खड़मांचल राज्य की मांग (व्यंग्य)

आम तौर पर घुंघरू दादा खड़मटोली मोहल्ले की किच-किच, खीच -खीच में कोई रूचि नहीं रखते। उनका मानना है कि मोहल्ला है, तो रगड़-झगड़, चोरी-नुक्की, छेड़-छाड़, गाली-गलौज और ओल-झोल-आफत आदि तो होंगे ही। मोहल्ले की बिजली समस्या पर उनकी टिप्पणी होती है, "बिजली किसी की घरवाली नहीं कि सात जनम तक साथ रहे । आये तो जाये नहीं।' एक दिन मोहल्ले के स्कूल के सामने वाली सड़क के खुले मेन होल में एक स्कूली बच्चा गिर गया और लोगों ने सड़क जाम कर दी। घुंघरू दादा का कहना था कि मोहल्ले के लोग पगला गये हैंं। अपने बच्चे को तो संभाल नहीं पाते, चले हैं नगर निगम को दुरूस्त करने। बुड़बक कहीं के..
घुंघरू दादा के दिन की शुरुआत हड़िया-भरे लोटा से होती है जो देर रात के गांजे की सोंट के साथ ही मुकम्मल होता है। शहर में गांजे की कमी होने पर घुंघरू दादा आपे से बाहर आ जाते हैं, सारा दिन बीड़ी फूंकते रहते हैं और सामने से गुजरने वाले हर शख्स को गलियाते रहते हैं। यहां तक कि कभी-कभी हवा, धूप, पेड़-पौधे तक को अपनी देसी-मार्के गालियों से रगेद देते हैं। "इ पुरवा हवा को ससुरा यही मोहल्ला भेंटाया था, चौबीसों घंटे सर्र-सर्राने के लिए...।
मोहल्ले के चौक के पीछे हाउसिंग बोर्ड के खंडहरनुमा घर के उत्तरवरिया कोने में मंगरा की चाय दूकान, उनका पसंदीदा बैठकखाना है। मंगरा को कभी-कभी गांव जाना पड़ता है। तब घुंघरू दादा ही दूकान के कर्ता-धर्ता की भूमिका में आ जाते हैं। हालांकि मंगरा की घरवाली हमेशा इसका विरोध करती है और कहती है, " मंगरा की अनुपस्थिति में दूकान का चारज उसके हाथ में होना चाहिए। घुंघरूआ दस के बेचकर पांच का हिसाब देता है और बाकी हड़िया-गांजे के लिए हड़प लेता है।'
लेकिन इधर तीन-चार दिनों से घुंघरू दादा के ऊपर एक नया सनक सवार हो गया है। बीच चौक में उन्होंने आमरन अनशन ठान दिया है। हड़िया और गांजा भी त्याग दिए हैं। कहते हैं, इस मोहल्ले को अलग करो। इसे राज्य का दर्जा दो। जब तक इस मोहल्ले को अलग राज्य नहीं बनाया जायेगा, हम अनशन नहीं तोड़ेंगे। घुंघरू दादा के इस आंदोलनकारी भेष को देखकर समूचा खड़मटोली सकते में है। लोग पूछ रहे हैं कि अचानक घुंघरू दादा पर अलग राज्य का भूत कहां से सवार हो गया ? उत्सुकता जब हद पार कर गयी, तो लोगों ने जाकर पूछ ही लिया, "दादा आप खड़मटोली को राज्य क्यों बनाना चाहते हैं, भला मोहल्ला भी राज्य बन सकता है क्या ? दादा कहने लगे,"प्रेस वालों को बुलाओ, फोटोग्राफरों को बुलाओ। कैमरे के सामने ही यह राज खोलेंगे। तुम्हें क्या मालूम कि यह खड़मटोली स्वतंत्रता से पहले से ही राज्य बनने की हैसियत रखता है। इस मोहल्ले के लोगों की जुबान दूसरे मोहल्ले के लोगों से अलग है। यहां के लोग मां की गाली से पहले बाप की गाली देते हैं। हड़िया बनाने में इस मोहल्ले का जवाब नहीं। इसे तो बहुत पहले अलग राज्य बना दिया जाना चाहिए था। अबे, मोहल्ला राज्य क्यों नहीं बन सकता ? हमारे मोहल्ले की आबादी, कई देशों से ज्यादा है। समूचे कामतापुर से ज्यादा लोग रहते हैं खड़मटोली में । सुन लो सब कोई, अगर अलग राज्य नहीं मिला तो मैं अनशन करके जान दे दूंगा।' लोगों ने कहा, "ठीक है दादा, प्रेस वाले आ जायेंगे, लेकिन पहले आप हमलोगों को तो बता दीजिए कि अलग राज्य बनाकर हमें मिलेगा क्या ? ' लोगों की जिज्ञाशा देखकर दादा भावुक हो गये। बोले, "अलग राज्य बनेगा, तो अपना शासन होगा। दूसरे मोहल्ले के लोगों के शोषण से मुक्ति मिलेगी। मैं इस राज्य का सीएम बनूंगा। खड़मटोली को को स्वर्ग बना दूंगा। ' लोगों ने पूछा,"लेकिन आप सीएम ही क्यों बनना चाहते हैं।' दादा बोले, "सीएम बनूंगा और सीएम ही बनूंगा। मोहल्ले के सबसे बड़े घर को मुख्यमंत्री आवास बनाऊंगा। देश-विदेश का दौरा करूंगा। दुनिया के सारे बैंकों में खाते खुलबाऊंगा। पत्नी, बेटे-बेटी के नाम से कई प्लॉट खरीदूंगा।' लोगों ने पूछा, "पर इससे मोहल्लेवालों को क्या फायदा होगा ?' दादा बोले, "फायदा होगा कैसे नहीं, सीएम बनते ही मैं हड़िया को राज्यकीय पेय घोषित कर दूंगा। गांजा की बिक्री खुलेआम होगी। मोहल्ले के सभी बेरोजगारों को सचिवालय में नौकरी दिला दूंगा। इस राज्य में कोई भी बेरोजगार नहीं रहेगा। जिसे नौकरी नहीं मिलेगी उसे बैठे-बिठाये पेंशन मिलेगा। सैर करने के लिए दोपहिया मोटर साइकल, बात करने के लिए मोबाइल और जेब खर्चे के लिए मासिक भत्ते मिलेेंगे। खड़मटोली में कोयले-लोहे की जितनी भी खदाने हैं, उन्हें मोहल्ले वालों के नाम लिख दूंगा।'
फिर क्या था, मोहल्लेवासियों में गजब की जोश आ गयी । दादा की जय-जयकार होने लगी । नारे गुंजने लगे, "हमारी मांग पूरी करो।' ... खड़मटोली को खड़मांचल बनाओ। घुंघरू दादा ! जिंदावाद !! '

बुधवार, 9 दिसंबर 2009

बेपर्द होने लगे विकसित देशों के गुप्त मसौदे


मीनाक्षी अरोरा, कोपेनहेगन में
कोपेनेहेगेन जलवायु वार्ता जैसे-जैसे आगे बढ़ रही है, वैसे-वैसे आशा और उम्मीदों के दिये कमजोर पड़ते जा रहे हैं। धरती गरम होती जा रही है, दुनिया के सैकड़ों द्वीप डूबने के कगार पर हैं, भारत के सुंदरवन के ही चार से ज्यादा द्वीप डूब चुके हैं। इन सबके बावजूद विकसित देश कोपेनेहेगेन जलवायु वार्ता में भी असल मुद्दे को छोड़कर अपनी चालबाजियों को अंजाम देने पर ही ज्यादा आमादा हैं। अब उनके कई गुप्त एजेंडे ओट से बाहर आने शुरू हो गये हैं।
7-18 दिसंबर तक चलने वाले संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन सभा (यूएनएफसीसी) के कोपेनहेगन सम्मेलन के बीच की कई अंदरूनी जानकारियां अब बाहर आ रही हैं। इन जानकारियों के मद्देनजर कोप15 से कोई होप नजर नहीं आ रही है। ऐसा लगता है कि कोप 15 सचमुच विकासशील देशों को कोप में रखने का अखाड़ा बनता जा रहा है और विकसित देश फिर अपने विनाशकारी उपभोग की जीवनशैली को हर कीमत पर सुरक्षित रखते हुए विकासशील और गरीब देशों को इसकी कीमत चुकाने के लिए तैयार करने में भीड़ गये हैं।
जलवायु वार्ता उस समय अमीर-गरीब वार्ता मे बदल गई जब विकासशील देशों ने एक गुप्त दस्तावेज लीक होने के बाद नाराजगी और विरोध जाहिर किया है। लीक हुए दस्तावेज से यह साफ हो गया कि अगले सप्ताह दुनिया के नेताओं को एक ऐसे समझौते पर हस्ताक्षर करने के लिए कहा जाएगा जिससे न केवल अमीर देशों की शक्तियां बढ़ेंगीं, बल्कि जलवायु परिवर्तन के मुद्दे पर संयुक्त राष्ट्र की भूमिका भी सीमित हो जाएगी। ऐसे में जलवायु परिवर्तन के मुद्दे पर किसी संभावित समझौते के मामले में अमीर और विकासशील देशों के बीच मतभेद गहरा गया है।
संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण सम्मलेन के दूसरे दिन ही मेज़बान देश डेनमार्क का मसौदा लीक हो गया है। इसे अमीर देशों की ओर से तैयार किया गया है। इस रहस्यमयी तथा-कथित समझौते पर मात्र कुछ लोगों द्वारा काम किया गया है, जिसे सर्किल ऑफ कमिटमेंट का नाम दिया गया है- हैरानी की बात तो यह है कि जिस समझौते पर दुनिया के नेता हस्ताक्षर करने वाले हैं और इसी सप्ताह उसे अंतिम रूप दिया जाना है उसे ब्रिटेन, अमेरिका और डेनमार्क सहित कुछ मुट्ठीभर देशों को ही दिखाया गया है।
बीबीसी की एक रिपोर्ट के अनुसार, पर्यावरणविदों के मुताबिक़ यह मसौदा अमीर देशों के प्रति बहुत नरम है। विकासशील देशों का मानना है कि इस दस्तावेज में सन्‌ 2050 तक प्रति व्यक्ति कार्बन उत्सर्जन में भी विकसित और विकासशील देशों के बीच बनाई गई समय-सीमा में भी असमानता है। यानी कि अब अमीर देशों को दोगुना कार्बन उत्सर्जन करने की भी इजाजत मिल जाएगी। इतना ही नहीं इसमें विकासशील देशों को पर्याप्त धन देने का भी सुझाव नहीं है ताकि वे बढ़ते तापमान का मुकाबला करने के उपाय लागू कर सकने में सक्षम हों।
पर्यावरणविदों का तो यहां तक कहना है कि कोपेनहेगेन सम्मेलन का एक तात्कालिक उद्देश्य यह भी है कि क्योतो जलवायु संधि के बाद की संिध पर सहमति बने। क्योंकि क्योतो संधि की अवधि वर्ष 2012 में ख़त्म हो रही है ,लेकिन यह मसौदा क्योतो प्रोटोकाल को भी नकार रहा है जिसमें अमीर देशों को ही सबसे ज्यादा कार्बन उत्सर्जन के लिए जिम्मेदार मानकर एक बाध्यकारी समझौता करने के लिए कहा गया था।
दुनिया की लगभग 15 प्रतिशत आबादी का नेतृत्व करने वाले दुनिया के लगभग 85 प्रतिशत संसाधनों का उपभोग कर रहे विकसित देश किसी कीमत पर अपनी राजशी छोड़ना नहीं चाहते। 1992 में रियो द जेनिरो (ब्राजील) में हुए पहले पृथ्वी सम्मेलन में जब किसी ने यह कह दिया कि पृथ्वी ग्रह के विनाश के लिए अन्य कारणों के साथ-साथ पश्चिम के लोगों का अति उपभोग भी जिम्मेदार है तो वहां उपस्थित तत्कालीन अमरीकी राष्ट्रपति जार्ज बुश (सीनियर) तपाक से बोल पड़े- हमारी जीवनशैली पर कोई बहस नहीं हो सकती है। कहीं कोपेनेहेगेन में चल रहे गुप्त मसौदे के पीछे भी यही मंशा तो नहीं है?
संयुक्तराष्ट्र को किनारे करने की कोशिश
चूंकि यह मसौदा गुप्त रूप से तैयार किया गया है इसलिए इसके पीछे की मंशा साफ जाहिर हो रही है कि जब अमेरिकी राष्ट्रपति ओबामा वार्ता में पहुंचे और पूरी पृष्ठभूमि तैयार हो चुकी हो तो सभी नेता उनके एक इशारे पर चुपचाप इस रहस्यमयी समझौते पर हस्ताक्षर कर दें। एक कूटनीतिज्ञ के अनुसार, ये सब इसलिए किया जा रहा है ताकि संयुक्त राष्ट्र की जलवायु वार्ता प्रक्रिया का पूरी तरह अंत हो जाये। संयुक्तराष्ट्र को दरकिनार करके जलवायु परिवर्तन की बातचीत में विश्व बैंक की भूमिका का मसौदा गुप्त रूप से बना रहा है। क्योंकि विश्व बैंक में लोकतंत्र नहीं है। वन कंट्री , वन वोट के सिद्धान्त पर चलने वाला संयुक्तराष्ट्र अमेरिका के लिए असुविधा पैदा करता है। जितनी पूंजी, उतने वोट के सिद्धान्त पर चलने वाला विश्व बैंक अमेरिका के लिए ज्यादा काम का है।
विश्व बैंक की भूमिका
ऑक्सफैम इंटरनेशनल के क्लाइमेट सलाहकार एंटोनियो हिल के अनुसार, इस मसौदे में एक ग्रीन फंड का भी प्रस्ताव है जिसका प्रबंधन करने के लिए एक बोर्ड होगा, लेकिन उसका सबसे खतरनाक पहलू ये हैं कि यह सब विश्व बैंक और ग्लोबल इनवायरनमेंट फैसिलिटी के हाथ में रहेगा। ग्लोबल इनवायरनमेंट फैसिलिटी 10 एजेंसियों का एक साझा समूह है जिसमें विश्व बैंक और संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम शामिल हैं, लेकिन संयुक्त राष्ट्र शामिल नहीं है। इस तरह यह मसौदा फिर से विकासशील देशों की बातचीत में बाधा डालने की अनुमति अमीर देशों को दे रहा है।
यह मसौदा डेनमार्क और दूसरे अमीर देशों ने एक कार्यकारी एजेंडे के तौर पर तैयार किया है, जिसे सभी देश अगले सप्ताह स्वीकार करेंगें। ऊपरी तौर पर अच्छा लगने वाला यह मसौदा वास्तव में बहुत खतरनाक साबित होगा क्योंकि इसमें संयुक्त राष्ट्र की वार्ता प्रक्रिया को दरकिनार कर दिया गया है और अमीर देशों की तानाशाही स्थापित की गई है।
एंटोनियो हिल ने स्पष्ट तौर पर कहा भी है कि हालांकि यह एक मसौदा है लेकिन इसमें खतरा साफ दिखाई दे रहा है, जब-जब अमीर देश हाथ मिलाते हैं और एक होते हैं तो गरीब देशों की आवाज को दबा देते हैं। मसौदे मे बहुत सी खामियां हैं, इनमें ऐसा कुछ भी नहीं कहा गया है कि कार्बन उत्सर्जन में 40 फीसद कटौती होनी चाहिए, जैसा कि विज्ञान के अनुसार ग्लोबल वार्मिंग के खतरे से निपटने के लिए जरूरी है।
हालांकि इसमें ये वादा किया गया है कि दुनिया भर के देश जलवायु परिवर्तन के कारण हो रहे तापमान में बढ़ोत्तरी को दो फ़ीसदी से भी कम रखेंगे और तापमान में बढ़ोत्तरी को दो सेंटीग्रेट से कम रखने की बात हैं, लेकिन यह नहीं बताया गया है कि अमीर देश इस पर किस तरह अमल करेंगे। यह बहुत ही ख़तरनाक है। पर्यावरण से जुडी संस्था फ्रेंड्‌स ऑफ़ अर्थ के कार्यकारी निदेशक एंडी एटकिन्स का कहना है कि यह मसौदा पहली नज़र में बहुत अच्छा दिखता है, पर है बहुत ख़तरनाक। इसमें क्योटो प्रोटोकोल की अनदेखी की जा रही है।
बीबीसी की एक जानकारी के अनुसार क्योटो में वर्ष 1997 में हुई संधि की सबसे मुख्य मुद्दा औद्योगीकृत देश ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन को 1990 के स्तर से क़रीब सवा पॉंच प्रतिशत कम करने का था। क्योतो संधि बाध्यकारी नहीं थी और अमेरिका ने इस पर हस्ताक्षर भी नहीं किए थे। इसलिए इससे ज़्यादा उम्मीदें लगाई भी नहीं गई थीं। कोपेनहेगेन के जलवायु पिरवर्तन सम्मेलन में कोशिश, क्योतो संधि से कहीं ज़्यादा महत्वाकांक्षी संधि पर सहमति बनाने की है जो कि क़ानूनन बाध्यकारी भी हो। लेकिन असलियत में यह किसके लिए बाध्यकारी होगा, यह बताने की शायद अब जरूरत जरूरत नहीं रह गयी है।
फिलहाल तो पर्यावरण के सुधरने की संभावना कम ही नजर आ रही है। उपभोगवादी जीवनशैली, अंधाधुंध औद्योगीकरण, कंक्रीट के बढ़ते जंगल, खेती का नाश, जल-जंगल-जमीन पर पूजीपतियों का कब्जा, नदियों, तालाबों और समुद्र को जहरीला होने से नहीं रोका गया, तो कोपेनहेगन जैसे सम्मेलन भी बेनतीजा ही रहेंगे।
इंडिया वाटर पोर्टल (हिन्दी)
 

इतनी काली तो कभी नहीं थी धरती

पिछले आठ लाख वर्षों में कभी भी धरती इतनी काली नहीं हुई। जी हां, कार्बन हमारे यहां कालापान का ही प्रतीक है। पिछले आठ लाख वर्षों के इतिहास में कार्बनडाइऑक्साइड गैस की मात्रा 300 पीपीएम (पार्टस पर मीलियन) से ज्यादा नहीं हुई। लेकिन आज यह चार 400 पीपीएम के आसपास पहुंचने वाली है। इसके कारण धरती में ताप ग्रहण करने की प्रवृत्ति बढ़ रही है। यह भौतिक नियम है कि कार्बनडाइआक्साइड तथा अन्य ग्रीन हाउस गैसें में हीट रिटेन (ताप धारण) करने की प्रवृत्ति होती है। प्रकारांतर से यही ताप धरती के औसत तापमान को बढ़ा रहा है, जो प्रकारांतर से पर्यावरण को प्रभावित करता है। इसके कारण धु्रवीय और द्वीपीय हिमनद पिघल रहे हैं, नतीजे में समुद्र का जल - स्तर बढ़ रहा है। चूंकि समुद्र पृथ्वी के जलवायु का सबसे बड़ा नियंता (रेगुलेटर) है, इसलिए पर्यावरण असंतुलन के कारण पृथ्वी की पारिस्थितिकी नकारात्मक रूप से प्रभावित हो रही है। ये तथ्य वैज्ञानिक तौर पर साबित हो चुके हैं और इसमें शक-सुबहा की कोई गुंजाइश नहीं है। कोपेनहेगन में चल रहे जलवायु वार्ता का महत्व इसलिए भी बढ़ गया है, क्योंकि प्रकृति दो चांस नहीं देती। दुनिया को पहले ही संभल जाना चाहिए, अभी भी वक्त है। हद पार करने के बाद संभलने का कोई रास्ता नहीं बचेगा। तब शायद... एवरीथिंग विल बी पेरिश्ड फॉर एवर !
(आठ लाख वर्षों के कार्बन उत्सर्जन का ग्राफ देखने के लिए नीचे क्लिक करें)


मंगलवार, 8 दिसंबर 2009

एक बाढ़ की दो कहानी

( छातापुर प्रखंड कार्यालय : कार्यालय या लूट का अड्डा ?)
दहाये हुए देस का दर्द -59
हाल में ही खुलासा हुआ है कि बिहार के सुपौल जिले के छातापुर प्रखंड में बाढ़ राहत के नाम पर आवंटित करोड़ों रुपये गबन हो गये हैं। प्रारंभिक जांच से पता चला है कि प्रखंड मुख्यालय से करोड़ों रुपये के हस्ताक्षरित चेक गायब हैं, जिन्हें विभिन्न बैंकों से कैस भी करा लिया गया है। अधिकारियों को मालूम नहीं कि ये राशि किसने कैस करायी? कैसे कैस करायी ? और अगर वे इस गोरखधंधे में शामिल नहीं थे, तो इतनी संख्या में हस्तक्षारित चेक कार्यालय में क्यों रखे हुए थे। और उन्हें चेकों के कैस हो जाने के बाद ही इसकी चोरी चले जाने की बात मालूम क्यों हुई ? इन सवालों के जवाब अधिकारियों के पास नहीं है और उनकी चुप्पी यह बताने के लिए काफी है कि वे इस गबन में तन-मन से शामिल हैं। यह अलग बात है कि अदालत में यह बात साबित होगी कि नहीं, इसकी गारंटी आज कोई नहीं दे सकता। न लोक और न ही तंत्र ।
पिछले अगस्त में प्रतिष्ठित राष्ट्रीय पत्रिका "द पब्लिक एजेंडा' ने कोशी बाढ़ पर एक विशेष रिपोर्ट प्रकाशित की थी। पत्रिका कोशी की प्रलयंकारी बाढ़ के साल भर बाद के सामाजिक-राजनीतिक हाल को दुनिया के सामने लाना चाहती थी। पत्रिका के प्रधान संपादक श्री शाजी एम जोसफ और कार्यकारी संपादक श्री मंगलेश डबराल ने इसके लिए मुझे कोशी के बाढ़ग्रस्त इलाके के दौरे पर भेजाथा और निर्देश दिया था कि मैं बाढ़ की मार से आहत लोगों की मनोदशा पर एक रिपोतार्ज जरूर लिखूं। तीन दिनों तक मैं कोशी के बाढ़ग्रस्त इलाके में घूमते रहा और हेडक्वार्टर आते ही अपने संपादक को बताया कि इलाके में बाढ़ राहत के नाम पर भारी लूट मची हुई है, जिसे हम दरकिनार नहीं कर सकते। तत्पश्चात इस लूट-कथा को भी विशेष रिपोर्ट में प्रमुखता से शामिल किया गया। पत्रिका के चौदहवें अंक में यह रिपोर्ट प्रकाशित हुई थीजिसमें स्पष्ट तौर पर बाढ़ग्रस्त सुपौल जिले के छातापुर प्रखंड के अधिकारियों की मदद से चल रही लूट कथा का विशेष तौर पर उल्लेख किया गया है। लेकिन तब बिहार सरकार ने इसे गंभीरता से नहीं लिया। अगर तब इस खुलासे को गंभीरता से लिया गया होता तो शायद ये भ्रष्ट अधिकारी बाढ़पीड़ितों के मुंह से उनका निवाला छीनने में कामयाब नहीं होते और जनता की गाढ़ी कमाई के करोड़ों रुपये चरित्रहीन-नैतिकताविहीन अधिकारियों के समुद्री-उदर में जाने से बच जाते। द पब्लिक एजेंडा की उस रिपोर्ट को यहां रख रहा हूं ताकि सनद रहे।
- रंजीत

बाढ़ बड़ी या लूट ?
"कोसी कें माइर से पैग, त घूसखोरक कें माइर छै हो बाबू ! कोसी कें प्रेत स त बइच गेलयेअ , मुदा ई द्विटंगा टकाखोर प्रेत सें के बचैतअ हमरा सब कें ?
(कोसी की मार से बड़ी तो इन घूसखोरों की मार है, बाबू साहेब ! कोसी के प्रेत से तो बच गये, लेकिन हमें अब इन दो पैर वाले रुपयेखोरों से कौन बचायेगा ?)'' यह पीड़ा है सुपौल जिले के छातापुर प्रखंड के चयनपुर के 38 वर्षीय किसान हरिनारायण मेहता की। छातापुर प्रखंड कार्यालय के प्रवेश द्वार पर मीडिया का नाम सुनते ही पल भर में बाढ़ पीड़ित लोगों की एक बड़ी टोली जमा हो गयी और एक सूर में राहत राशि में मची लूट का दुखड़ा सुनाने लगी। भीड़ को देख छातापुर के प्रखंड विकास पदाधिकारी (बीडीओ) बृज बिहारी भगत बाहर निकले और इस संवाददाता को किनारे ले जाने की कोशिश करने लगे। लेकिन लोगों ने उन्हें ऐसा नहीं करने दिया और बीडीओ के सामने ही उनकी लूट-कथा की गाथा सुनाने लगे। जिसका सारांश यह था कि छातापुर प्रखंड में सहायता राशि उन्हीं को मिल रही है, जो बीडीओ के "दलालों' को खुश करने में सक्षम हैं और मिलने वाली सहायता राशि का तीस फीसद उन्हें अग्रिम तौर पर दे देते हैं। हालांकि यह दीगर बात है कि स्थानीय मीडिया में इस आशय की कोई खबर नजर नहीं आती।
दरअसल, बाढ़ के बाद सहायता राशि के नाम पर मची लूट की ये शिकायत सिर्फ छातापुर प्रखंड तक सीमित नहीं है। बाढ़ प्रभावित इलाके के 14 प्रखंडों के लगभग दो दर्जन गांवों में घूमने के दौरान इस संवाददाता ने डेढ़ सौ से ज्यादा बाढ़-प्रभावित लोगों से बात किया, लेकिन उन्हें एक भी ऐसा आदमी नहीं मिला जिसे बिना घूस दिये किसी भी प्रकार की कोई सरकारी सहायता मिली हो। क्षेत्र के लोगों की शिकायत सिर्फ प्रखंड और अनुमंडल के अधिकारियों से ही नहीं है, बल्कि उन्हें पंचायत स्तर के जनप्रतिनिधियों से भी भारी शिकायत है। लोगों का कहना है कि सहायता राशि के आवंटन में भारी अनियमितताएं बरती जा रही हैं। पहुंच और रसूख वाले लोग प्रावधानों का ताख पर रखकर राशि प्राप्त कर रहे हैं । जिनके घर को कोई नुकसान नहीं पहुंचा है, घूस देने के बाद उन्हें भी सहायता राशि मिल जाती है, लेकिन बेघर गरीबों का सुनने वाला कोई नहीं क्योंकि न तो उनके पास घूस के अग्रिम भुगतान के लिए धन है और न ही उनकी कोई पहुंच है। मधेपुरा जिले के त्रिवेणीगंज के हरनारायण शाह भी इसी श्रेणी में आते हैं, परिणामस्वरूप उन्हें अभी तक एक रुपये की सरकारी सहायता नहीं मिल सकी। मानगंज गांव के जयनारायण ॠषिदेव भ्रष्टाचार के इस गंधाते व्यापार पर कहते हैं , "किस से शिकायत करें, गांव के वार्ड मेंबर से लेकर मुखिया तक भी इसमें लिप्त हैं।' '
लेकिन हैरत की बात यह है कि प्रशासन इससे अनजान है। 29 जुलाई तक इलाके के किसी भी थाने या इलाके में इन लूटों के खिलाफ एक भी शिकायत दर्ज नहीं हुई है। इसलिए अधिकारी बहुत आसानी से अपना दामन बचा लेते हैं। जब कोसी प्रमंडल के आयुक्त सचिव राजेंद्र प्रसाद को भ्रष्टाचार के इस खुले खेल के बारे में पूछा गया, तो उन्होंने शिकायत नहीं होने की बात कहकर खुद को कार्रवाई करने में असक्षम बताया। जिले के जिलाधिकारियों की भी यही राय थी। हालांकि यह सच है कि लोग भ्रष्टाचारियों की शिकायत नहीं कर रहे, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि वे उनके कृत्य को अपनी स्वीकृति दे चुके हैं। लगभग चार दशकों तक कोसी क्षेत्र की पत्रकारिता करने वाले वयोवृद्ध पत्रकार और समाजसेवी हरि अग्रवाल कहते हैं, "दरअसल पंचायत प्रतिनिधियों ने सरकारी अधिकारियों की मिलीभगत से लोगों को काफी डरा दिया है और उन्हें स्पष्ट हिदायत दी है कि जो कोई उनके खिलाफ जायेगा उन्हें भविष्य की हर सरकारी सहायता और योजनाओं से वंचित कर दिया जायेगा। विधायक और सांसद की भी इसमें मौन सहमति है, क्योंकि भ्रष्टाचार में शामिल पंचायती स्तर के नेता उनके लिए वोट मैनेजर का काम करते हैंंं।'' जब हजार-दो हजार की राशि तक में लूट का यह आलम है, तो अरबों की योजनाओं का हाल क्या होगा , इसका सहज अनुमान लगाया जा सकता है। ऐसे में यह तय करना मुश्किल है कि कोसी की बाढ़ ज्यादा भयावह थी या उसके बाद राहत को लेकर मची लूट बड़ी है ? - रंजीत


(साभार- द पब्लिक एजेंडा, वर्ष 2, अंक 14 )

मंगलवार, 1 दिसंबर 2009

धरती का एसाइनमेंट करोगे क्या

धरती एक यान है जिसे उस इंजीनियर ने डिजाइन किया है, जिसे हम प्रकृति कहते हैं। बेहद कुशलता के साथ । सटीक इतना कि हजारों किलोमीटर प्रति घंटा की रफ्तार से दौड़ने के बावजूद इसका संतुलन नहीं बिगड़ता। इसकी धुरी नहीं टूटती। लेकिन इस यान पर सवार हम मानव इसे लगतार छेड़ते जा रहे हैं। इसलिए इसका संतुलन बिगड़ रहा है। प्रकृति इसे ठीक नहीं कर सकती। प्रकृति रिपेयर का काम नहीं करती। वह हमेशा नया सृजन करती है। और सृजन की ओर मुखातिब प्रकृति अपनी रुग्ण रचना को समाप्त करने में जरा सी नहीं हिचकती। तो इसे हमें ही रिपेयर करना है। पर क्या हम इसके लिए तैयार हैं ? हाल में ही पोर्टलैंड विश्वविद्यालय में विश्व प्रसिद्ध पर्यावरणविद्‌ पॉल हॉकेन ने इस सवाल पर छात्रों के बीच एक मर्मस्पर्शी व्याख्यान दिया है। यह सुनने और सुनाने लायक है। इसलिए यहां रख रहा हूं- रंजीत।

जब मुझे यहां भाषण देने के लिए बुलाया गया तो कहा गया,मैं कोई छोटा सा ऐसा भाषण दूं जो उत्साहवर्धक और हैरतंगेज हो।ठीक है तो हैरतंगेज भाग से शुरू करते हैं.....
इस पीढ़ी के नौजवानों!
यहां से डिग्री हासिल करने के बाद अब तुम्हे यह समझना है कि धरती पर मनुष्य होने का क्या मतलब है, वह भी ऐसे समय में जब यहां मौजूद पूरा तंत्र विनाश के गर्त में जा रहा है, आत्मा तक को हिला देने वाली स्थिति है
पिछले तीस सालों में कोई ऐसा पेपर नहीं छपा जो मेरे इस बयान को झुठलाता हो। दरअसल धरती को जल्द से जल्द एक नए ऑपरेटिंग सिस्टम की जरूरत है और आप सब उसके प्रोग्रामर हैं।
पृथ्वी नाम का यह ग्रह कुछ ऑपरेटिंग निर्देशों के सेट के साथ अस्तित्व में आया था,जिनको शायद हमने भुला दिया है। इस सिस्टम के महत्वपूर्ण नियम कुछ इस तरह थे-
जैसे पानी,मिट्टी या हवा में जहर नहीं घोलना है, पृथ्वी पर भीड़ जमा नहीं करनी है, थर्मोस्टैट को छूना नहीं है लेकिन अब हमने इन सभी नियमों को ही तोड़ दिया है। बकमिन्स्टर फुलर ने कहा था कि धरती का यह यान इतना बेहतर डिजाइन किया गया है कि कोई भी यह नहीं जान पाता कि हम सभी एक ही यान पर सवार हैं, यह यान ब्रह्मांड में एक लाख मील प्रति घंटे की रफ्तार से उड़ रहा है, किसी सीटबेल्ट की ज़रूरत नहीं है, इस यान में कई कमरे और बेहतर स्वादिष्ट खाना भी मौजूद हैं- पर अफसोस! अब यह सब बदल रहा है।
जो डिप्लोमा आप सब हासिल करोगे उसके पीछे अदृष्य लिखावट में कुछ लिखा होगा और अगर तुम इसे लेमन जूस का इस्तेमाल करके डिकोड न कर सके तो मैं तुम्हे बता सकता हूं कि वहां क्या लिखा होगा। वहॉं लिखा होगा- तुम मेधावी हो और पृथ्वी तुम्हें काम पर रख रही है। पृथ्वी किसी रिक्रूटर को तुम्हारे पास नहीं भेजेगी क्योंकि उसे भेजने का खर्च उठाने की स्थिति में वह नहीं है। इसने तुम्हारे पास बारिश,सूर्यास्त,मीठे-रसीले फल, रजनीगंधा, चमेली और वह सुंदर साथी भेजा है जिसके साथ तुम डेटिंग कर रहे हो। यही संकेत है तुम्हारे लिए, इसे सुनो-
डील यह हैः याद रखो तय समय सीमा में धरती को बचाना असंभव नहीं है। वही करो जिसे करने की जरूरत है और तुम पाओगे कि यह तभी तक असंभव था जब तक तुमने किया नहीं था।
जब कभी यह पूछा जाता है कि मैं आशावादी हूँ या निराशावादी,मेरा जवाब हमेशा यही होता है: धरती पर क्या हो रहा है, यह जानने के लिए विज्ञान की ओर देखोगे तो उस वक्त अगर आप निराशावादी नहीं हैं तो आंकडे समझ में नहीं आ सकते।
पर अगर तुम ऐसे लोगों को देखते हो जो धरती और गरीबों के जीवन को बचाने में जुटे हैं तो आशावादी हुए बिना तुम कुछ भी नहीं समझ सकते। मैंने देखा है कि दुनिया में हर जगह लोग निराशा,शक्ति और परेशानियों का सामना कर रहे हैं फिर भी सत्यम्, शिवम्, सुंदरम् को बहाल करने में जुटे हैं- कवि एड्रिने रिच कहते हैं, "इतना कुछ बरबाद हो चुका है और अब मैंने अपनी सामर्थ्य के मुताबिक अपना सब कुछ उन्हें सौंप दिया है जो युग-युगान्तर से किसी असाधारण शक्ति के बगैर दुनिया को बनाने में जुटे हैं।" इससे बेहतर कोई उदाहरण नहीं हो सकता कि मानवता जुटी हुई है। वह दुनिया का पुनर्निर्माण करने में जुटी है और स्कूलों, खेतों, जंगलों, गांवों, मैदानो, कंपनियों, शरणार्थी शिविरों, रेगिस्तानों और झुग्गियों में काम जारी है।
तुम भी इन काम करने वाले लोगों के समूह में शामिल हो जाओ। कोई नहीं जानता कि कितने समूह और संगठन इस समय जलवायु परिवर्तन,गरीबी,वनों की कटाई, शांति, पानी, भूख, संरक्षण, मानवाधिकार आदि पर काम कर रहे हैं। यह दुनिया में अब तक का सबसे बड़ा आंदोलन है। नियंत्रण के बजाय यह संपर्क चाहता है। प्रभुत्व के बजाय यह शक्ति के विकेंद्रीकरण के लिए प्रयास कर रहा है।
मरसी कोर्प्स की तरह यह पर्दे के पीछे रह कर काम कर रहा है। यह इतना बड़ा आंदोलन है कि कोई इसके सही आकार को नहीं पहचानता। यह दुनिया के अरबों लोगों को आशा, सहायता और अर्थ प्रदान कर रहा है। इसका प्रभाव विचार में है शक्ति में नहीं। शिक्षक, बच्चे, किसान, व्यवसायी, जैविक खेती करने वाले किसान, नन, कलाकार, सरकारी कर्मचारी, मछुआरे, इंजीनियर, छात्र, लेखक, मुसलमान, चिंतित माताएं, कवि, डॉक्टर, इसाई, गलियों के संगीतकार यहां तक कि संयुक्त राज्य अमेरिका के राष्ट्रपति सब इसमें शामिल हैं और जैसा कि लेखक डेविड जेम्स डंकन कहते हैं, सृष्टिकर्ता जो हम सबों को इतना प्यार करते हैं वो भी इसमें शामिल है।
एक यहूदी बोधकथा के मुताबिक अगर दुनिया खत्म होने वाली है और मसीहा आ चुका है तो पहले एक पेड़ लगाओ और देखो कि क्या यह कहानी सच है। हमें प्रेरणा सिर्फ उन चीजों की चर्चा से नहीं मिलती जो हम पर बीती है, बल्कि यह मानवता की बहाली, निवारण, सुधार, पुनर्निर्माण, पुनर्कल्पना और पुनर्विचार की इच्छा से मिलती है। "आखिरकार एक दिन तुम जान जाओगे कि तुम्हें क्या करना था और तब तुम काम शुरू कर दोगे, जबकि तुम्हारे चारों ओर के लोग चिल्ला-चिल्लाकर तरह तरह की बुरी सलाह देते रहेंगे।" लाखों लोग अजनबियों के लिए काम करते हैं फिर भी शाम की खबर में आम तौर पर अजनबियों की मौत की सूचनाएं होती हैं। अजनबी की यह दयालुता, धार्मिक, मिथकीय हैं और इसकी जडें अठारहवीं शताब्दी की में हैं। उन्मूलनवाली पहले इंसान थे जिन्होंने उन लोगों के अधिकारों की रक्षा के लिए राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय आंदोलन को खडा किया था जिन्हें वे नहीं जानते थे। उस समय तक किसी समूह ने दूसरों की ओर से शिकायत दर्ज नहीं की थी। इस आंदोलन के संस्थापकों ग्रान्विले क्लार्क, थॉमस क्लार्कसन, योशिय्याह वेजवूड आदि ज्यादातर जाने-पहचाने नहीं थे और उनके लक्ष्य काफी हास्यास्पद थे क्योंकि उस वक्त दुनिया में हर चार में से तीन लोग ग़ुलाम थे। एक दूसरे को गुलाम बनाना यही तो लोगों ने वर्षों से किया था। उन्मूलनवादी आंदोलन का स्वागत अविश्वास के साथ किया गया। रूढ़िवादी प्रवक्ताओं ने उन्हें प्रगतिशील, भला करने वाला, हस्तक्षेप करने वाला और आंदोलनकारी तक कहकर उपहास उडाया। उन्होंने कहा कि ये लोग अर्थव्यवस्था को बर्बाद कर देंगे और इंग्लैंड को गरीबी के दलदल में ढकेल देंगे।
लेकिन इतिहास में पहली बार लोगों का ऐसा समूह संगठित हुआ जो उन लोगों की मदद करना चाह रहे थे जिन्हें वे नहीं जानते थे और उनसे उन्हें किसी भी तरह का प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष लाभ भी प्राप्त नहीं होने वाला था। आज करोडों लोग ऐसा हर दिन कर रहे हैं। यह स्वयंसेवी संस्थाओं, नागरिक समाज, स्कूलों, सामाजिक उद्यमिता और गैर सरकारी संगठनों की दुनिया है जो सामाजिक और पर्यावरणीय न्याय को अपनी रणनीतियों के शीर्ष पर रखते हैं। इस प्रयास की संभावनाएं और पैमाने इतिहास में अद्वितीय है।
जीवित दुनिया कहीं और नहीं बल्कि हमारे भीतर है। हम जीवन के बारे में क्या जानते हैं? जीवविज्ञानी जेनिन बेन्यूस के शब्दों में जीवन उन परिस्थितियों की रचना करता है जो जीवन के लिए अनुकूल हैं। मैं भविष्य की अर्थव्यवस्था के लिए कोई बेहतर आदर्श वाक्य नहीं सोच पाता हूं। हमारे पास लाखों ऐसे मकान हैं जहां कोई नहीं रहता और लाखों ऐसे लोग हैं जो घरों के बगैर रहते हैं। हमारे असफल बैंकर, असफल नीति नियंताओं को सलाह देते हैं कि असफल संपत्तियों को कैसे बचाएं। इसके बारे में सोचो: हम इस ग्रह पर एकमात्र ऐसी प्रजाति हैं जो संपूर्ण रोजगार के बिना हैं। बहुत खूब। हमारे पास ऐसी अर्थव्यवस्था है जो बताती है कि मौजूदा समय में धरती को बरबाद कर देना कहीं अधिक सस्ता है बनिस्बत इसकी सुरक्षा,स्थायित्व और पुनर्निर्माण के। आप एक बैंक को बचाने के लिए पैसे प्रिंट कर सकते हैं लेकिन ग्रह को बचाने के लिए जीवन को प्रिंट नहीं कर सकते। इस वक्त हम एक ओर तो भविष्य की चोरी कर उसे वर्तमान में बेच रहे हैं और दूसरी ओर इसे सकल घरेलू उत्पाद कहते हैं।
हमें तो बस एक ऐसी अर्थव्यवस्था चाहिए जो भविष्य के उपचार पर आधारित हो न कि उसकी चोरी पर। या तो हम भविष्य के लिए परिसंपत्तियां बना सकते हैं या भविष्य की परिसंपत्तियां ले सकते हैं। एक को बहाली कहा जाता है और दूसरे को शोषण।
जब हम घरती का शोषण करते हैं तो हम लोगों का भी शोषण करते हैं और अनकही पीड़ा का कारण बनते हैं। धरती के लिए काम करना अमीरी पाने का तरीका नहीं है बल्कि अमीर होने का एक तरीका है।
प्रथम जीवित कोशिका 4 करोड सदियों पहले अस्तित्व में आई थी और इसके वंशज हमारे खून में हैं। इस वक्त जिन अणुओं से तुम सांस ले रहे हो वही मूसा, मदर टेरेसा, और बोनो ने लिए थे। हम लोग बेहद करीब से जुड़े हैं। हमारा भविष्य अलग नहीं किया जा सकता। हम यहां सिर्फ इस लिए हैं क्योंकि यहॉं हर कोशिका का सपना दो कोशिकाओं में तब्दील होना है। तुममें से हर एक में दसियों खरब कोशिकाएं हैं,जिनमें से 90 प्रतिशत मानव कोशिकाएं नहीं हैं। तुम्हारा शरीर एक समुदाय है और इन लघुतर जीवों के बिना तुम्हारा शरीर कुछ पलों में खत्म हो सकता है। प्रत्येक मानव कोशिकाओं में 400 अरब अणु हैं जो दसियों खरब परमाणुओं के साथ लाखों प्रतिक्रियाएं करते हैं। एक मानव शरीर में कुल कोशिकीय गतिविधियां अस्थिर कर देने वाली है: एक पल में एक सेप्टेलियन गतिविधियां यानी एक के पीछे चौबीस शून्य। एक मिली सेकेंड में हमारा शरीर दस गुणी गतिविधियां करता है बनिस्पत ब्रह्मांड में सितारों की संख्या के - ठीक यही तो चार्ल्स डार्विन ने कहा था कि विज्ञान इस बात की खोज करेगा कि प्रत्येक जीवित प्राणी में एक छोटा ब्रह्मांड है, जो स्व प्रचारित अवयवों से मिलकर बना है जो अकल्पनीय रूप से छोटा और स्वर्ग के सितारों की संख्या के बराबर है।
तो मैं तुम्हारे सामने दो सवाल रख रहा हूं: पहला कि क्या तुम अपने शरीर को महसूस कर सकते हो? एक पल के लिए ठहरो और अपने शरीर को महसूस करो। यहां एक सेप्टीलियन गतिविधियां चल रही हैं और तुम्हारा शरीर इसे इतनी अच्छी तरह से कर रहा है कि तुम्हे इसका भान तक नहीं हो रहा है और तुम इसे नजरअंदाज करके हैरान होकर सोच रहे हो कि यह भाषण कब खत्म होगा।
दूसरा सवाल: तुम्हारे शरीर का प्रभारी कौन है? जाहिर है कोई राजनीतिक दल तो है नहीं। जीवन आपके भीतर खुद से वें जरूरी परिस्थितियां ठीक उसी तरह से पैदा कर रहा है जैसे प्रकृति करती है। कुल मिलाकर मैं चाहता हूं कि आप इस बात को सोचें कि पूर्व की अवमाननाओं और घावों पर मरहम रखने के लिए सामूहिक मानवता किस तरह से समीप आने के लिए एक साथ बौद्धिकता का इस्तेमाल कर रही है।
राल्फ वाल्डो ने एक बार पूछा था- अगर सितारे एक हजार साल में एक बार निकलते तो हम क्या करते? बेशक! उस रात कोई नहीं सोता! शायद पूरी रात पूजा-अर्चना में बिताते कि यह भगवान का अनोखा करिश्मा है!अब जबकि तारे हर रात निकलते हैं तो हम उंहें देखने के बजाय टीवी में मशगूल रहते हैं!
अब ऐसा अनोखा समय आ गया है कि हम विश्व स्तर पर एक दूसरे को जानते हैं और मानव सभ्यता के लिए ऐसे कईं खतरों के बारे में जानते हैं जो हजार, दस हजार सालों में भी कभी नहीं हुए। हम सभी उन सितारों की तरह ही खूबसूरत हैं। हमने बड़े-बड़े काम किए हैं और बेशक हमने सृष्टि का सम्मान भी किया है। तुम सब एक अनोखी चुनोती को पास करने जा रहे हो जिसे तुमसे पहले किसी पीढ़ी ने पास नहीं किया। वें सभी रास्ता भटक गए और इस सच्चाई को नहीं जान सके कि जीवन हर क्षण एक चमत्कार है। प्रकृति हर कदम पर तुम्हें रास्ता दिखाती है उससे ज्यादा अच्छा बोस तुम्हे मिल नहीं सकता। इस दुनिया में सबसे ज्यादा अयथार्थवादी आदमी सनकी है, स्वप्नदृष्टा नहीं। यह तुम्हारी सदी है! इसे संभालों और ऐसे चलाओ जैसे कि तुम्हारा जीवन इस पर निर्भर है।
( पॉल हॉकेन एक प्रसिद्ध उद्यमी, दूरदर्शी पर्यावरण कार्यकर्ता और कई पुस्तकों के लेखक हैं। )
 
 

शुक्रवार, 27 नवंबर 2009

जा सकें तो जरूर जायें

काकोरी कांड भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन की गौरव-गाथा की अमर दास्तान है। यह एक प्रेरणा-दीप है जो हर युग के संघर्ष-मार्ग को प्रज्जवलित करते रहेगा। राम प्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्ला खां, रोशन सिंह और राजेंद्र लाहड़ी के अमर बलिदान की यह कहानी हमें याद दिलाती है कि समाज और राष्ट्र की बेहतरी और भलाई के लिए जान न्योछावर करना, हमारी परंपरा है। स्वकेंद्रित व स्वार्थी जीवन जीने के इस दौर में काकोरी की प्रासंगिकता और बढ़ गयी है। "तीसरा स्वाधीनता आंदोलन' नामक संगठन आगामी 19 और 20 दिसंबर को इन महापुरुषों की याद में एक चिंतन शिविर का आयोजन कर रहा है। आयोजन उत्तर प्रदेश के मुरादाबाद में हो रहा है। आयोजकों का कहना है कि इस अवसर पर शामिल होकर हम देश की वर्तमान चुनौतियों पर राय-मशविरा करेंगे। मुरादाबाद से काफी दूर रहने के कारण मैं इस समारोह में शामिल नहीं हो पाऊंगा, लेकिन आप सबसे इतनी अपील जरूर करूंगा कि अगर आप इसमें शामिल हो सकते हैं तो जरूर होयें।
(आमंत्रण कार्ड को देखने के लिए नीचे क्लिक करें )

बुधवार, 25 नवंबर 2009

मन का 'मधु कोड़ा'

वैसे तो मधु कोड़ा झारखंड के एक पूर्व मुख्यमंत्री का नाम है जिस पर चार हजार करोड़ रुपये से ज्यादा की सार्वजनिक संपत्ति गड़पने के आरोप हैं, लेकिन अगर गहराई में देखें तो सच इतना ही नहीं है। सच यह है कि "मधु कोड़ा' भ्रष्टाचार के इस महाकाल की वह प्रवृत्ति है जिस पर हमारा समाज मंत्रमुग्ध है। "मधु कोड़ा' हमारे समय का वह मादक-सम्मोहन है जिसमें समकालीन समाज तिरोहित हो जाता है। "मधु कोड़ा' समकालीन युग का वह नशा है जिसके सेवन के लिए हम बेचैन हैं। "मधु कोड़ा' आज के युग का सर्वमान्य व्यसन है, ध्येय और लक्ष्य भी है। यह हमारे समय का परम प्रिय पुरुषार्थ बन चुका है। हम इस "मधु-मोहन' के सहारे दोनों लोक जीत लेना चाहते हैं। हम इसके बल पर ही हर प्रतिस्पर्धा में प्रथम आना चाहते हैं। हर परीक्षा उत्तीर्ण कर लेना चाहते हैं।
हर अभिलाषा को तुष्ट, हर मद को तृप्त, हर स्वप्न को साकार कर लेना चाहते हैं। जब देश में कई मेनन, कई लालू, कई करुणानिधि, कई महाजन, कई जैन, हर्षद, तेलगी वगैरह-वगैरह हुए तब जाकर एक मधु कोड़ा निकला। क्योंकि हर अगला कोड़ा पहले के "कोड़ाओं' का ही प्रक्षेपण है।
यह सच कटु हो सकता है, लेकिन झूठ नहीं है। और कड़वा होने से यथार्थ मिथ्या नहीं हो जाता। भले ही हम उसे प्रत्यक्षतः स्वीकार करें या न करें, परन्तु कड़वा होने से चीजें खत्म नहीं हो जातीं। एक आदमी ऑटो रिक्शा चलाता है और ट्रॉफिक पुलिस को दस-बीस का नोट थमाते हुए तीन सीटों वाले रिक्शे में एक दर्जन लोगों को ठूंसते चला जाता है। एक आदमी अखबार-चैनल निकालता है और हर दिन सरकार के सामने अपनी गैरवाजिब मांगों की सूची बढ़ाते रहता है और इसे अपना अधिकार भी समझता है। एक आदमी "एक्सप्रेस सेवा' का किराया लेने के बावजूद हर पांच मिनट पर बस में सवारी को घसीटते जाता है और पांच घंटे की यात्रा को 24 घंटे की नर्क यात्रा में तब्दील कर देता है। कभी-कभी गंतव्य पर पहुंचे बगैर गाड़ी लौटा लेता है। एक सरकारी डॉक्टर अपने निजी क्लिनिक में चौबीसों घंटे उपस्थित रहता है, लेकिन अस्पतलालों में उनका दर्शन भाग्यवानों को ही नसीब होता है। मास्टर साहेब जिला शिक्षा पदाधिकारी को हर माह कमीशन थमाकर अपने कर्त्तव्य से इतिश्री कर लेता है। बगैर एक दिन स्कूल गये वेतन उठा लेता है। प्रोफेसर साहेब लोग वेतन को लेकर आंदोलन करते हैं, लेकिन उन्हें याद नहीं होता कि पिछला क्लास उन्होंने कब एटेंड किया था। प्रखंड-जिले और सचिवालय के बाबू बगैर दान-दक्षीणा लिए बात भी करना नहीं चाहते। थानेदार बगैर चढ़ावा के डग नहीं उठाते, भले ही इस बीच आपके घर को कोई जला दे और खलिहान से अन्न उठा ले जाये। एसी में बैठने वाले आइएएस अधिकारी तब तक खुद को आइएएस नहीं मानते जब तक वे करोड़पति न बन जाये और कई शहरों में उनके फ्लैट्‌स न बन जाये। पत्रकारिता के कैरियर में मैंने करोड़पति नहीं बन पाने का पाश्चाताप-विलाप करते कई आइएएस-आइपीएस को नजदीक से देखा-सुना है। ऐसे अधिकारी अपने करोड़पति मित्र का उदाहरण देकर, बहुत व्यथित हो जाते हैं। धर्म, दर्शन, अध्यात्म के मसीहा को जब तक हवाई जहाज और पंच सितारा होटल के टिकट नहीं मिल जाते, वे प्रवचन के लिए तैयार नहीं होते। पवित्र तीर्थ स्थानों में पंडे को पैसे दे दीजिए, तो आपको घंटों लाइन में लगकर अपनी बारी का इंतजार नहीं करना पड़ेगा।
इस प्रवृत्ति को आप क्या कहेंगे ? क्या यह "मधु कोड़ा' प्रवृत्ति नहीं है ? कुछ लोग इससे इंकार कर सकते हैं। वे कह सकते हैं कि मधु कोड़ा के महाभ्रष्टाचार से इनकी तुलना नहीं हो सकती ? कोड़ा के अपराध के सामने इनके अपराध बहुत छोटे हैं। कहां कोड़ा और कहां बेचारा ऑटो रिक्शा चालक ! यह हद हो गया !
मैं भी तुलना नहीं कर रहा ? मैं तो बस प्रवृत्ति की बात कर रहा हूं और प्रवृत्ति छोटी-बड़ी नहीं हो सकती। वह या तो होगी या नहीं होगी। अगर आप ऑटो चलाकर पांच सौ रुपये का घपला कर सकते हैं, तो कल अगर आपके जिम्मे सरकार की स्टेयरिंग होगी तो आप पांच हजार करोड़ का घोटाला कर लेंगे। गांव का फकड़ा (कहावत) है- पहले लत्ती चोर (साग-सब्जी चुराने वाला), फिर सेंगा चोर (सेंग लगाकर चोरी करने वाला) और फिर कट्टा चोर (बंदूक के बल पर डाका डालने वाला) । कोड़ा की ही बात कर लें। वह आदमी पंद्रह वर्ष पहले एक खान- मजदूर था। पहली बार विधायक बना था और रांची में एक दिन मेरे साथ लोहे के टूटे खंभे पर बैठकर दो घंटे बात किया था । आज अगर उस दिन के मधु कोड़ा को याद करता हूं, तो लगता है किसी फिल्म के दृश्य को याद कर रहा हूं। गांव से रांची पहुंचा, उस विधायक ने रांची में इस युग का पहला पाठ सीखा। कि जीवन में आगे बढ़ना है, तो पैसे बनाओ। पैसे बनाकर ही वह मंत्री बना, फिर मुख्यमंत्री और बाद में बिलिनेयर। पैसे के बल पर उसने वोटरों को खरीदा। पैसे के बल पर उसने राष्ट्रीय पार्टियों को खरीदा। विदेश में खान, बंदरगाह, रिसॉर्ट और न जाने क्या-क्या खरीदा। लेकिन किसने उसे टोका ? जिन पार्टियों ने उसे मुख्यमंत्री बनाया था, उनके आला नेता सब कुछ देख रहे थे। लेकिन चुप थे क्योंकि वे भी लूट में शामिल थे। देश की सर्वोच्च प्रतिभा कहे जाने वाले आइएएस और आपीएस , उनके साथ कदमताल कर रहे थे। क्यों ? क्योंकि वे भ्रष्टाचार को दिनचर्या का हिस्सा मान चुके हैं । क्योंकि उन्हें इन चीजों से कोफ्त नहीं होती।
लेकिन नशा चाहे जितना भी मादक हो, वह टॉनिक नहीं हो सकता। भ्रष्टाचार का अल्जेबरा समाज की ज्यामिती और त्रिकोणमिति से स्वतंत्र नहीं है। हो ही नहीं सकता। हर भ्रष्टाचार किसी-न-किसी का हक छीनता है। समाज का अल्जेबरा सीधा है- आप उतने ही धन के हकदार हैं जितने आप इस समाज को अपने श्रम से लौटाते हैं। अगर आप उससे ज्यादा ले रहे हैं, तो इसका सीधा अर्थ है कि आप किसी-न-किसी का हक मार रहे हैं। यकीन मानिये, भ्रष्टाचार का वजूद इसलिए है क्योंकि देश की 60 करोड़ ग्रामीण आबादी को पता नहीं कि उनके हक मारे जा रहे हैं। यह आबादी भ्रष्टाचार के इस खेल में अभी भी शामिल नहीं हुई है। ये इस खेल के समझदार दर्शक-प्रेक्षक भी नहीं बन सके हैं। जिस दिन यह आबादी इस खेल में शामिल हो जायेगी, उस दिन समाज को ध्वस्त होने से कोई नहीं रोक सकेगा। इतिहास साक्षी है। धर्म ग्रंथ साक्षी हैं। जब अधर्म धर्म पर हावी हो जाता है, तो विनाश होता है। जब अन्याय और न्याय की दूरी खत्म हो जाती है, तो धरती रक्तों से भीग जाती है। हम महाभारत की कहानी जानते हैं, लेकिन इसके संदेश को भूल बैठे हैं।
पुनश्चः विचारों की स्थापना के लिए इस लेख में मैंने सामान्यीकरण का सहारा लिया है, हालांकि मैं जानता हूं कि हमारे समाज में आज भी कुछ लोग हैं जो ईमानदारी के साथ हैं। वे इस सामान्यीकरण के हिस्सा नहीं हैं और पूज्यनीय हैं ।

रविवार, 22 नवंबर 2009

लोग, चोर और वोट

लोग !
लोग ही लोग
कुछ सोये हुए लोग
कुछ रोये हुए लोग
बाकी
मरे हुए लोग
शायद, करेंगे वोट
चोर !
चोर ही चोर
कुछ आगे से चोर
कुछ पीछे से चोर
बाकी
विचाराधीन चोर
शायद, लेंगे वोट
 
 

रविवार, 8 नवंबर 2009

किस देश में है यह दियारा

दहाये हुए देस का दर्द- 58
कोशी नदी का पानी सूखते ही फरकिया के किसानों की नींद उड़ने लगी है। वजह, जान पर खतरा। फसलों की लूट। मवेशी की लूट। पिछले डेढ़ दशक से दियारा में यह परिपाटी-सी बन गयी है कि पानी सूखने के साथ ही यहां अपराधियों का राज हो जाता है।कोशी की गिरफ्त se मुक्त होते ही अपराधी इलाके को अपने आगोश में ले लेते हैं । आपराधिक गिरोह ही इलाके के कानून, इलाके का संविधान और इलाके के भगवान बन जाते हैं। ये या तो किसानों की जमीन पर कब्जा कर स्वयं फसल उगाते हैं या फिर किसानों से बीघे के हिसाब से लेवी वसूलते हैं। जैसे सवै भूमि अपराधियों कीहो गयी हो... वे खुद को इलाके की सरकार मानते हैं और किसानों से लेवी लेने को गलत नहीं मानते। हालांकि राज्य सरकार को सब कुछ मालूम है, लेकिन वह हमेशा बाल -अनभिज्ञता प्रकट करती है। पूछियेगा तो पुलिस कहेगी, ' ऐसा नहीं है।' लेकिन सच यह है कि अपराधियों से लड़ने के लिए पुलिस कभी दियारा नहीं जाती। हां, इधर अब नक्सली जरूर पहुंचने लगे हैं।
अक्टूबर माह में दियारा का पानी सूख जाता है। इसके बाद शुरू होता है नदी के पेट से निकली जमीनों और जमीन-उत्पादों पर दखल की लड़ाई। सहरसा जिले के राजनपुर पंचायत के हजरबीघी, धर्मपुर, सिरसीया, कोहबरवा, रकठी, सिमरटोका पंचायत के टिकुलवा, नहरवार पंचायत के बघौर, कडुमर पंचायत के आगर, दह, कनरिया, चिड़ैया ओपी के रैंठी, चिड़ैयां, चिकनी, खैना, बीहना, गोलमा आदि गांवों के हजारों एकड़ जमीन में उगे कास को लेकर हर साल लाशें गिरती हैं। भूमि पर कब्जा कर अपराधी या तो स्वयं केलाय एवं खेसारी छींट देता है या फिर इसके एवज में किसानों से लेवी की वसूली करता है। लोग अपनी ही जमीन में बटाईदार बन जाते हैं। कोई थाना, कोई कानून या कोई न्यायालय इनकी रक्षा के लिए नहीं आते। किसी तरह नवंबर बीतता है, इसके बाद मकई (दियारा की मुख्य फसल) कटाई के लिए बंदूक गरजने लगती है। राजनपुर के किसान कपिलेश्वर सिंह अपनी पीड़ा सुनाते कहते हैं, ' अपराधियों के डर से जमीन को बटाई पर लगा दिए हैं । कौड़ी का दाम भी मिलेगा तो जमीन बेचकर गांव से भाग जाऊंगा।' सिंह कहते हैं, 'इससे तो अच्छा होता कि नदी का पानी कभी सूखता ही नहीं। इससे तो अच्छा बाढ़ ही है। कम से कम बाढ़ के समय जमीन पर कब्जे के लिए खून तो नहीं बहते हैं।' एक दूसरे किसान फूलबाबू भगत कहते हैं, ' पहले से ही, अपराधी किसानों को लूट ही रहे थे, अब तो नक्सलियों का भय भी सताने लगा है। अब तो डर के कारण कोई भी किसान किसी जमीन पर खेती करना नहीं चाहता। पसीना बहाकर फसल किसान लगायेंगे और काट कर ले जायेंगे अपराधी। ऐसी किसानी से तो भिखमंगी ठीक। पांच माह पहले मेरी धान की फसल को अपराधियों ने लूट लिया। हमने थाने में मामला भी दर्ज कराया, लेकिन पुलिस कुछ नहीं कर सकी।'
जी हां, यह है सहरसा और खगड़िया जिले का दियारा इलाका। खगड़िया के अमौसी बहियार के नरसंहार के बाद सरकार ने इस इलाके में प्रशासन की पहुंच बढ़ाने की घोषणा की है। लेकिन इन किसानों के बयानों से आपको लगता है कि दियारा में कोई प्रशासन है। जी नहीं। यहां कभी कोई प्रशासन न कल था न आज है। पहले समाज की बंदिशें थी, मूल्य और मर्यादाएं थीं, जो अनजाने में ही प्रशासन का काम कर देती थीं। गांव में पंचायत कर लोग किसी भी तरह के मामले का निष्पादन गांधीवादी तरीके से कर लेते थे। लेकिन सामाजिक विघटन के इस दौर में अब समाज की नैतिक शक्ति खत्म हो चुकी है। इंसान पैसे, वर्चस्व और संसाधन के लिए कुछ भी कर सकता है। दियारा में सरकार नहीं है, लेकिन उपभोक्तावाद है। यह उपभोक्तावाद कितनी महीन चीज है जी ? कहावत बदल दीजिए- जहां न पहुंचे रवि , वहां पहुंचे उपभोक्तावाद। अपराध , अतिवाद और बन्दूक ...
 
 

शुक्रवार, 30 अक्तूबर 2009

आदमी की उल्टी यात्रा

1
आदमी के भेष में जिंदा आदमी
बहुत दूर हो गया आदमियत से
हालांकि गलतफहमी बनी रही
कि वे एक पति , एक पत्नी , एक भाई और एक नागरिक हैं
कि उसके पास विश्वविद्यालय की बड़ी-बड़ी डिग्रियां हैं
कि उसके पास गाड़ी-बंगला और भारी एकाउंट भी हैं
लेकिन आदमी
बेकरार हो जाता अक्सर
शर्महीन संसर्ग के लिए
किसी जवान- गौरी-चिट्ठी नवयौवना के वास्ते तत्काल तलाक के लिए
किसी लंबे-तगड़े मनमाफिक हमविस्तर के वास्ते आखिरी मुकदमा के लिए
2
आदमी के भेष में जिंदा आदमी
आदमी के बीच था
पर आदमी नहीं था
वह हर रिश्तों से इतर
और तमाम एहसासों अनभिज्ञ था
जैसे अनजान होता है एक कुता, एक भेड़िया, एक भैंसा
अपने ही मां-बाप, भाई और बहनों से
3
आदमी के भेष में जिंदा आदमी
उत्तर-आधुनिक युग में था
वह नित नया कानून बनाता था
और उसे बेहिचक तोड़ता चला जा रहा था
वह हंसना भूल चुका था
और प्रेम करना भी
वह हर डर से निडर हो चुका था
रक्तों में नहाकर भी वह बेफिक्र था
जैसे कुछ हुआ ही नहीं
जैसे कुछ होगा ही नहीं
4
आदमी के भेष में जिंदा आदमी
बहुत दूर हो गया आदमियत से
और डार्विन सिद्वांत के
काफी नजदीक पहुंच चुका था
 
 
 

सोमवार, 26 अक्तूबर 2009

वीर भोग्या वसुंधरा

इन दिनों भारत और चीन के संबंधों को लेकर लगातर चर्चा हो रही है। प्रधानमंत्री की अरुणांचल यात्रा के बाद चीन ने जो बयान दिया, उससे पूरा देश हतप्रभ है। हालांकि हमारे नेताओं ने चीन के बयान का कड़ा प्रतिवाद किया है, लेकिन देश की सवा सौ करोड़ जनता सकते में है। देश के शीर्ष पत्रकार हरिवंश ने इस मुद्दे पर पिछले दिनों दैनिक प्रभात खबर में एक ऐतिहासिक आलेख लिखा है। हाल के कुछ समय में मैंने ऐसा विचारोत्तेजक आलेख नहीं पढ़ा है। यह आलेख दिलो-दिमाग को हिलाकर रख देता है और हमें आत्मघाती मुगालते से बाहर निकलने का संदेश देता है। इसमें स्पष्ट किया गया है कि कैसे चारित्रिक पतन एक राष्ट्र के तेज और स्वाभिमान को कुंद कर सकता है - रंजीत ।

भारत की रीढ़ पर हथौड़े पड़ रहे हैं, पर कहीं आह भी नहीं. केंद्र सरकार इस आह को तोपना-दबाना चाहती है. विपक्ष के लिए यह मुद्दा ही नहीं है. इस देश का पक्ष-विपक्ष मुद्दाविहीन है. एक ही सूत्र है, देश की राजनीति में कुरसी हथियाओ. देश की मीडिया कंज्यूमर क्लास बढ़ाने की होड़ में है. बुद्धिजीवी वर्ग अक्षम है. किशन पटनायक के शब्दों में कहें, तो एक अक्षम बुद्धिजीवी वर्ग जनसाधारण को दुर्बल और नपुंसक बना दे सकता है. इस तरह लाभ-लोभ और भोग में फ़ंसा भ्रष्ट बुद्धिजीवी वर्ग राष्ट्रीय चरित्र बिगाड़ता है और हमारा राष्ट्रीय चरित्र रह कहां गया है? हम बिकनेवाली भ्रष्ट कौम हैं. भ्रष्टाचार, कमीशन, वंश, परिवार और धन के लाभ के बीच फ़ंसा-उलझा हमारा शासक वर्ग, हमारी राजनीति और हमारा विजन.
नहीं तो भारत की धरती पर (दिल्ली) रह कर चीन ने हमारे साथ क्या सलूक किया है? एक अक्तूबर को चीन ने साम्यवादी क्रांति के 60 वर्ष मनाये. उसी दिन उसने अपनी वह ताकत दुनिया को दिखायी कि दुनिया सदमे में है. अमेरिका की सांस ठहरी हुई है. 60 वर्ष पहले जिस चीन ने दुनिया के अन्य देशों के हथियाये 14 विदेशी वायुसेना विमानों से अपने पहले परेड की शुरूआत की, उसकी आज यह ताकत? इस तरह के अधुनातन हथियार-9000 किमी दूर तक मार करनेवाले मिसाइल-प्रक्षेपास्त्र. खास न्यूक्लीयर मिसाइल और हाइटेक मिसाइलों का प्रदर्शन, बिना चालक के हवाई जहाज, आसमान में ही रिफ्यूलिंग करनेवाले जहाज, एक-से-एक खतरनाक बमवर्षक जहाज, जासूसी के लिए नये-नये हवाई जहाज हैं. इस दंभ और रूप के साथ नुमाइश की ये सभी चीजें चीन में ही बनी हैं. जिस दर्शक ने भी चीन की यह ताकत, शानो-शौकत और अधुनातन अस्त्र-शस्त्र देखा होगा, वह हतप्रभ और हैरत में होगा. उसकी उपलब्धि पर, पुरुषार्थ पर, राष्ट्रीय गौरव और अस्मिता के अहं पर.
पर भारत के लिए यह भी चिंता की बात न मानें. पर उसी दिन चीन के दूतावास ने दिल्ली में क्या किया? जम्मू-कश्मीर में रहनेवाले भारतीयों के लिए वीसा संबंधी अलग कागजात जारी कर रहा है. यानी भारत स्थित चीन के दूतावास ने अघोषित रूप से दुनिया को कह दिया है कि जम्मू-कश्मीर भारत का हिस्सा नहीं है. वह अलग मुल्क है. याद रखिए, अरुणाचल प्रदेश को तो वह अपना घोषित कर ही चुका है. वहां के लोगों को भी अलग वीसा देता है. उस राज्य में भारत के राष्ट्रपति-प्रधानमंत्री का कार्यक्रम होता है, तो चीन चेतावनी देता है और भारत उसे नाखुश नहीं करना चाहता.
जिस दिन चीन अक्तूबर क्रांति (एक अक्तूबर) की 60वीं साल गिरह मना रहा था, उसी दिन चीन से खबर आयी कि अब दुनिया के देशाों को अधुनातन शस्त्रों के लिए अमेरिका, रूस, फ्रांस, ब्रिटेन जर्मनी का गुलाम नहीं रहना होगा. चीन आज से दुनिया का बड़ा शस्त्र विक्रेता है. यह भी खबर आयी कि अमेरिकी एफ़-16 जैसे खतरनाक विमान, जो चीन ने बनाये हैं, वह पाकिस्तान को बेच रहा है. पाकिस्तान में 98 में हुए परमाणु विस्फ़ोट के बाद तो यह प्रमाणित खबर आ ही चुकी है कि पाकिस्तान का वह परमाणु बम चीन में बना था. एक अक्तूबर को नेपाल से यह भी खबर आयी कि नेपाल में चल रहे चीनी स्टडी सेंटर का इस्तेमाल भारत के खिलाफ़ जासूसी के लिए किया जा रहा है. भारत नेपाल सीमा पर ऐसी 30 चीनी फ़र्मे हैं, जिनमें से 24 भारत की जासूसी में लगी हैं.यह रा की रिपोर्ट है. नेपाल के माओवादी या प्रचंड कैसे चीन की भाषा बोल रहे हैं और भारत के खिलाफ़ विष उगल रहे हैं, यह दुनिया देख रही है. पाकिस्तान तो चीन की गोद में ही है. सैनिकों द्वारा भारत की सीमा पर हुए अतिक्रमण की घटनाओं पर नजर डालें, तो चीन के इरादे साफ़-साफ़ दिखाइ्र देंगे. भारत के वायुसेनाध्यक्ष कई बार सार्वजनिक बयान दे चुके हैं कि चीन इससे कई गुना ताकतवर है. यह कोई और नहीं कह रहा बल्कि जिन पर देश की सुरक्षा का दारोमदार है, वह सार्वजनिक चीत्कार कर रहा है. विषयांत्तर होगा, पर यहा एक चीज हम नोट कर लें कमजोर से कमजोर देश भी सरकारी या सार्वजनिक बयान नहीं देते कि हम कमजोर हैं. सेना के प्रमुख को न यह बयान देना चाहिए था, न सरकार को इसकी इजाजत. यह केंद्र सरकार के घटते प्रताप और राजनीति की अगंभीरता का सबसे बड़ा नमूना है. 26/11 की घटना यानी मुंबई में पाकिस्तानी हमलावरों-आतंकवादियों के हमलों के बाद नौ सेनाध्यक्ष का क्या बयान आया था? याद करिए, उससे अपनी नौसेना की क्षमता, काबिलियत, कार्यकुशलता और ताकत का सार्वजनिक एहसास हो गया? ब़दतर और अक्षम छवि जो दबी-दबी थी, उजागर हो गयी. कब से सेनाध्यक्ष लोग, राजनीतिज्ञों की तरह बयान देने के लिए अधिकृत हो गये? यह उनका काम नहीं है. यह सियासत का, सरकार का, संसद का, राजनीति का और समाज का मामला है. पर सब चुप हें, न सरकार ने और न विपक्ष ने कहा कि यह क्या हो रहा है? बयानबाजी, वह भी सेना प्रमुख अंदरूनी कमजोरी की बात खुले आम कहें, तो पस्त और निराश देश और हताश होगा. उन्हें चुपचाप सरकार को अपनी अंदरूनी कमजोरी बतानी चाहिए थी. पर इस देश की राजनीति तो पटरी से उतर गयी है. इसलिए ऐसे संवेदनशील सवालों पर राजनीति, समाज और बुद्धिजीवी वर्ग खामोश हैं.
ऊपर से सितम यह कि मीडिया में चीनी घुसपैठ की खबरें छपती हैं, तो राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार एम के नारायणन मीडिया को उपदेश देते हैं कि वह चीन-भारत के बीच अप्रिय हालात पैदा कर रहा है? क्या मीडिया के कारण चीन का यह दर्प दिखाई दे रहा ह ? सरकार कहती है कि सब सामान्य और ठीक है. क्या मीडिया अरूणांचल, जम्मू-कश्मीर को भारत से अलग करार दे चुका है? क्या मीडिया पाकिस्तान को बम और बमवर्षक जहाज दे रहा है, क्या मीडिया कह रहा है कि नेपाल में चीन भारत के खिलाफ़ जासूसी कर रहा है या भारत सरकार का रा कह रहा है? इस तरह लगातार चीन भारत के रीढ़ पर हथौड़े मार रहा है, पर हम उफ़ भी नहीं बोल पा रहे हैं. यह रहा हमारा राष्टीय स्वाभिमान, राष्ट्रीय चरित्र. दुनिया जानती है कि युद्ध, हल नहीं है. भारत युद्ध और तनाव की भाषा बोले यह कतई जरूरी नहीं. पर भारत इस क्राइसिस (संकट) का क्रिऐटव रिस्पांस (सृजनात्मक प्रतिउत्तर) तो दे सकता है, देश को सर्वूोष्ठ बनाने का संकल्प लेकर. देश का मनोबल बढ़ा कर. उत्साह, ऊर्जा और बदलाव की नयी राजनीति शुरू कर. भ्रष्टाचार, वंशवाद, कमीशनखोरी के खिलाफ़ जंग आरंभ कर. स्विस बैंक से जमा धन लाकर. राष्ट्रीय मिजाज और मन बनाकर. अंदरूनी रूप से ताकतवर-महाशक्ति बनाकर. चाणक्य की बातें याद रखिए, चीन अपनी ताकत की भाषा बोल रहा है. चीन की समृद्धि, अहंकार और प्रगति बोल रहे हैं. उसके महाशक्ति होने का गुरूर बोल रहा है. आज दक्षिण अफ्रीका, लातीनी अमेरिका और आस्ट्रेलिया वगैरह में बड़े पैमाने पर चीन निवेश कर रहा है, किन चीजों पर? प्राकृतिक संसाधनों पर. पेट्रोल, कोयला, आयरन ओर वगैरह पर. उसके पास इन चीजों के सबसे बड़े भंडार हैं, पर वह खरच नहीं रहा. पहले वह विदेशों की ऐसी चीजों का उपयोग करेगा. बर्मा के प्राकृतिक संसाधनों पर तो उसका ओधपत्य जैसा है. चीन की विस्तारवादी नीति की गहराई में उतरें, पायेंगे, वह 21वीं शताब्दी में नये साम्राज्यवादी रूझान से विस्तार-कार्य कर रहा है. सांसद इंदर सिंह नामधारी ने एक सार्वजनिक सभा में बताया कि चीन के एक बुद्धिजीवी ने एक रणनीतिक डाकूमेंट तैयार किया है, जिसके तहत वह भारत को 25 या 26 हिस्सों में बंटा देखता है. श्री नामधारी के अनुसार चीन का यह अघोषित एजेंडा है.
यह सब देखकर चर्चिल याद आते हैं. बहत पहले उन्होंने कहा था. चीनी चरित्र-इतिहास का अध्ययन-मनन कर, इन चीनियों को सोये ही रहने दें, ये जगेंगे तो पूरे विश्व पर ओधपत्य बनायेंगे. आज चीन की चर्चिल की भविष्यवाणी को साकार करता दिख रहा है. दो वर्षो पहले माओ के चीन पर एक विश्वचर्चित पुस्तक आयी. उसमें एक जगह उल्लेख है कि विश्व का नक्शा निहारते हुए माओ ने कहा कि हमें दुनिया को नियंत्रित करना चाहिए. इस तरह चीन के इरादे, मंसूबे शुरू से साफ़ हैं. 62 में भारत ने इसका स्वाद भी चखा आज भारत के आसपास के समुद्र में उसकी उपस्थिति है.और महाबली अमेरिका?देहाती भाव-भाषा में कहें, तो उसके आगे पानी भर रहा है. यकीन नहीं होगा, तो ये दो बयान पढ़ कर गौर करिए. चीन के प्रधानमंत्री वेन जियाबो ने हाल ही में सार्वजनिक बयान दिया. कहा कि चीन थोड़ा चिंतित है, अपने लिए नहीं, बल्कि अमेरिका के लिए. हमने अमेरिका को भारी कर्ज दिया है, इसलिए हमारी चिंता स्वाभाविक है. साथ ही यह चेतावनी भी कि अमेरिका अपने वचन का पालन करे (आनर इट्‌स वर्ड्‌स) और चीन की परिसंपत्ति की सुरक्षा का आश्वासन दे. साहूकार और कर्जदार के बीच की बेमरउव्वत बातें. न्यूजवीक (30 मार्च 2009) ने लिखा, यह इतिहास का स्तब्धकारी मोड़ है. एक वर्ष पहले एक ऐसी धमकी संपन्न देश देते थे. मसलन अमेरिका गरीब देशों से इसी भाषा, भाव और लहजे में बोलता था. खुलेआम. अब अमेरिका की वह जगह चीन ने ले ली है. कैसे और क्यों? यह न्यूजवीक ही बताता है, चाइना आर स्ट्रांगर, मोर इकानामिकली कांपिटेंट एंड वास्टली रिचर (चीन मजबूत है, ओर्थक रूप से कुशल और अत्यंत संपन्न) टाइम पत्रिका का विशेष अंक (10 अगस्त 2009) कहता है, दुनिया की 10 बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में से एक मात्र चीन है, जो आगे बढ़ रहा है, और यह जल्द ही जापान को पछाड़ कर दुनिया में दूसरे नंबर की अर्थव्यवस्था होगा. इसी टाइम पत्रिका में अमेरिका के राष्ट्रपति ओबामा का 27 जुलाई का दिया गया बयान है, कि वाशिंगटन (यानी अमेरिका) का बीजिंग (यानी चीन) से रिश्ता ही 21 वीं शताब्दी का स्वरूप तय करेगा. चीन की यह हैसियत कैसे बनी? 29 जून के टाइम के अनुसार इट (चाइना) हैड बिकम द वर्ल्डस लो कास्ट, इनक्रीजिंगली हाइक्वालिटी मैनुफ़ैक्चरिंग हब. दे लव्स इट्‌स वास्ट एंड ग्रोइंग रैंक्स आफ़ मिडिल क्लास कंज्यूमर्स (सबसे कम लागत में उत्पादन करनेवाली दुनिया की अर्थव्यवस्था. ूोष्ठ किस्म का मैनिफ़ैक्चरिंग हब. बड़े मध्यवर्ग को बढ़ाना-फ़ैलाना, जिनकी शगल है.)
प्रखर विचारक किशोर महबूबानी (डीन, ली क्वान यू स्कूल आफ़ पब्लिक पालिसी, सिंगापुर ने अपने एक लेख में कहा है कि चीन और भारत दोनों को अपने दो सौ वर्ष पुराने इनकांपीटेंट परफ़ारमेंस (अक्षम कामकाज) को त्यागकर बड़ी ताकत बनाना होगा. चीन इसी रास्ते पर है, पर भारत? लगातार इनकांपीटेंट (अक्षम) बनता. प्रशासन में, विकास में, वितरण में, राजनीति में, अर्थनीति में, सबसे अधिक एटीट्यूड और एप्रोच में. 1962 के पराजय से इसने कुछ सीखा नहीं. आज भी ताकतवर देशों के सामने हम चिरौरी करते, घिघियाते, रिरियाते नजर आते हैं. उस हार ने कैसे पूरे देश को शर्म में डुबो दिया? उस दौरान चरित्र, मूल्य, योजना, विकास, राष्ट्रीयता, नवनिर्माण शब्द अर्थहीन बन गये थे. हम अमेरिका के सामने गिड़गिड़ा रहे थे. हथियार मांग रहे थे. हमारी ख्वाहिश थी कि केनेडी बंगाल की खाड़ी में एक जहाजी बेड़ा बैठा दें. हमारी रक्षा के लिए. चीन के एटम बम से भयभीत अमेरिकी एटमी छतरी की मांग कर रहे थे. उधर नि:शस्त्रीकरण के गुण भी गा रहे थे. 62 में जब चीनी सिपाही हिमालय पार कर बोमडीला पहुंच गये, तो भारतीय प्रशासन भाग खड़ा हुआ. नेहरू ने उत्तरपूर्व राज्यों के नाम ऐसे संदेश दिये, जिसे वे आज भी भूल नहीं पाते हैं. हमारा संकल्प मनोबल टूट चुका था. जबरदस्तआघात. बहुत दिनों बाद, प्रखर पत्रकार राजेंद्र माथुर ने उन दिनों को याद करने हुए भारत के मानस पर टिप्पणी की थी, हम अगर वियतनाम होते, तो एटमी शक्ति से लड़ने के बावजूद हम जीत जाते. लेकिन हम हिंदुस्तानी हैं. जो हाथी के मुकाबले घोड़े से, घोड़े के मुकाबले बंदूक से और स्थावर रणनीति के मुकाबले चपल और जंगम राणनीति से हमेशा हारा है. कई बार हम बंदर घुड़की से और मात्र पराजय के अंदेशो से पराजित हो जाते हैं.
इसी संदर्भ में अपना अतीत भी माथुर साहब ने याद किया है. हम यह भी भूल गये हैं कि यह वह देश है, जहां अनंगपाल का हाथी यदि संयोगवश पीछे भागने लगे, तो सारी सेना में भगदड़ मच जाती है और वह हार मान लेती है. राजा अथवा राजधानी का पतन होते ही कितनी बार सारा राज्य हमने देखते-देखते गवांया है.
यह मूल्क भूल गया है कि तीसरी संसद ने शपथ ली थी कि 62 में चीन ने भारत की जो भूमि हथिया ली, उसे वापस लिये बिना बात नहीं होगी. सरकारी आंकड़ों के हिसाब से ही 18 हजार वर्ग मील जमीन पर चीन का कब्जा है. यह ग्लानि तो देश भूल ही गया है, पर रोज-रोज चीन की धमकी. शब्दों से नहीं, काम और हरकत से. और भारत खामोश. क्या इस मुल्क का मान-अपमान नहीं है? किशन पटनायक मानते थे कि प्रतिगामी बुद्धिजीवियों की भूमिका या बुद्धिजीवियों की कायरता से यह हालात है. जनसाधारण के चरित्र, स्वभाव और विचार को कौन प्रभावित कर सकता है? बुद्धिजीवी या विचारक ही. पर हमारे इस वर्ग की क्या स्थिति है? पद, पैसा और शासन वर्ग की चारण सेवा. मुल्क, देश, समाज या राज्य के लिए कोई विजन नहीं, कोई सपना नहीं. एक दूसरे की धोती खोलना ही हमारा राष्ट्रीय चरित्र बन गया है.
हर घर, परिवार, दल में, समाज और देश में, जयचंद संस्कृति है. एक दूसरे को पछाड़ो, नीचा दिखाओं. डा. राममनोहर लोहिया ने 1952 में एक व्याख्यान दिया था. निराशा के कर्तव्य. वह आज भी भारत को समझने का कारगर विेषण हैं. गुलाम मानस और गुलामी के शिकार हैं. हमें कई बार लगता है कि हमारे रक्त और धमियों में पौरूष, बहादुरी, संकल्प है ही नहीं. हम कायर और पराजित लोग हैं. समय के लिलाट पर इबारत लिखने का साहस हममें हैं ही नहीं. हम वेतन सरकार से लेंगे पर काम नहीं करेंगे. हम भ्रष्टाचार कर, घर लूटेंगे व स्विस बैंक में धन जमा करेंगे. चंगेज, तैमूर, गोरी और अंग्रेजों से भी बदतर सलूक हम अपने साथ कर रहे हैं. इंदिरा आवास में गरीबों को लूटेंगे. बूढ़ों का पेंशन खा लेंगे. गांधी के सबसे गरीब इंसान के लिए बने नरेगा में भी डाका डालेंगे. यह हमारा सामाजिक चरित्र है. हम भ्रष्टों की सार्वजनिक पूजा करेंगे. आज सारा समाज चोरों की मूर्ति पूजा का अभ्यस्थ हो गया है. सत्ता की........भटक रहें हैं. चरित्रवान किसी तरह जीवन काट रहें हैं. हम किसी के बारे में कुछ भी कह या बोल सकते हैं बिना जाने. ये हमारा चरित्र हो गया है. हम आपस में एक दूसरे का नाश कर देंगे. जाति के नाम पर, धर्म के नाम पर, राजनीति के नाम पर, क्षेत्र के नाम पर? इसके उलट चीन देखिए, उसका हौसला, संकल्प, मानस और मंसूबे. उसकी उपलब्धि प्रेरित करती है. पर हम देख कर भी नहीं सीखने वाले अंधे लोग कौन है?क्यों हम ऐसे है?
हमारा न नीजि चरित्र है, न राष्ट्रीय, न स्वाभिमान, न वह सात्विक जिद जो गांधी युग में पैदा हुआ. कल ही सुप्रीम कोर्ट के दो जजों की खंडपीठ ने कहा कि हमारा कैरेक्टर (चरित्र) गिर गया है. उन्होंने पटना के ही एक ऐडशनल शेषन जज का हवाला दिया. उनका बंगला खाली कराने के लिए पानी बिजली की सप्लाई काटनी पड़ी.
यह करनी है. जिन्हें न्याय करना है उनकी संपत्ति घोषणा के नाम पर जजों का रूख देश देख ही रहा है. सुप्रीम कोर्ट के ही जजों ने कहा, नियम है पर पालन नहीं होते, नैतिश शक्ति की भी चर्चा की. यह भी कहा कि इसके लिए हमारा पूरा सिस्टम जिम्मेवार है. पूरे समाज पर दोष जाता है. उन्होंने यह भी बताया कि सुप्रीम कोर्ट के कुछ वकील सिर्फ़ पैसा कमाना चाहते हैं. यही कारण है कि आज जजों की कमी है. पर समाज या सामान्य जन को दोषी ठहराना गलत है. हमारे यहां तो मान्यता रही है,महाजनो येन गता: सं पंथा(जिसपर महान लोग गये हों, वही हमारा रास्ता है, पाथेय है) हमारे महान रहनुमा कौन है? सबसे पहले राजनीतिज्ञ फ़िर बुद्धिजीवी, प्रशासक, उद्यमी, वकील, अध्यापक, डॉक्टर, प्रोफ़ेशनल्श वगैरह ही न? क्या हममें से किसी की कोई विशिष्ठ पहचान है? देश और समाज से सिर्फ़ एक ही मांग है, पैसा बढ़ाओं सुविधा बढ़ाओ, काम नहीं करेंगे, उपार्जन नहीं करेंगे पर पांच सितारा जीवन चाहिए. 1980 में गांधीवादी विचारक प्रो. जयदेव सेठी (पूरे सदस्य योजना आयोग) ने आंकलन कर एक भाषण में बताया था कि 20 लाख से अधिक लोग पैरासाइड वर्ग (ओश्रत वर्ग) हैं, जो काम या उत्पादन एक ठेले का नहीं करते, पर पांच सितारा जीवन जीते हैं. यानि सबसे महंगा. आज यह संख्या करोड़ों में होगी. इसमें मुख्य कौन है? दलाल, पूर्व राजनेता वगैरह. आजकल लाइजनर बनने की स्पर्धा है. राष्ट्रीय जीवन शर्म, हया जैसी चीजें ही नहीं है. आज इस दल या खेमें में कल उस दल या खेमें मेंहमारे समाज का प्रगतिशील तबका चरित्र को बुजुर्‌आ अवधारणा मानता है. पर भारत के इतिहास का मध्यकाल देखिए शासकों के अत्याचार के लिलाफ़ समाज को जिंदा रहने की ताकत संतो ने दी. इनमें सबसे अधिक संत समाज के सर्वाध्किा पिछड़ी जातिया या तबकों से थे. पर उनका दर्शन क्या था, संतन को कहां सीकरी सोकाम गांधी ने आजादी की लड़ाई को तप-यज्ञ ही माना उन्होंने चरित्र ही गढ़ने की कोशिश की उस दौर के सभी नेता (चाहे वे जिस भी सिद्धांत के प्रहरी रहे हों) कितने कद्दावर इंसान थे. तिलक जैसे व्यक्ति बरसों मंडाले के तपते पत्थरों पर सोये आह नहीं भरी सुभाष की कुरबानी क्या था? महर्षि अरविंद के कारावास (अलीपुर जेल) की कहानी पढ़िए. छोटा कमरा, पानी पीने और पाखाना जाने का एक ही मग, पर सुविधा की याचना नहीं की. जब साधना में डूबे तो 22वर्षो तक उसी कमरे में ही रह गये. उतरे या निकले ही नहीं. जेपी और लोहिया? सत्ता को लात मारकर जनता के बीच अलख जगाते रहे. निसंग होकर मुसीबतें मोल लेकर. सुविधाविहीन रहकर. जेल जाकर. पर कहीं समझौता नहीं किया. उस दौर में ऐसे हजारों लाखों लोग निकले. यहीं चीज देखकर प्रो. आर्नाल्ड टायनबी ने कहा कि भारत से एक नयी सभ्यता संस्कृति का उदय होगा. उनका आशय पश्चिम की भौतिक संस्कृति के विकल्प से था. लिंकन ने प्राइमरी स्कूल के अध्यापक को पत्र लिखा अपने बेटे के लिए. वह पत्र ऐतिहासिक धरोहर है. उस पत्र में सिर्फ़ चरित्र, कन्विकशन, ईमानदारी के बीज डालने की चर्चा और मांग है. एक जगह वह कहते हैं कि मेरे बेटे को वैसी शिक्षा दीजिए कि वह मुसीबतों-कठिनाइयों की आग में तप कर इस्पात की तरह निखरे. बिना, चरित्र, ईमानदारी, वसूल और विचार कुछ भी संभव नहीं. भारत की राजनीति तो 91 के बाद विचारविहीन है. मुद्दाविहीन. एक ही गणित है सत्ता पाओ. कुरसी हथियाओं. यह राजनीति कैसे देश को आगे ले जायेगी.आज हर प्रगति के बावजूद देश ने यही चरित्र खो दिया है. इस कारण यह प्रगति भी बेमानी लग रही है.अब बिहार के खगड़िया में हुए नरसंहार को ही लीजिए. नरसंहार हुआ नहीं कि राजनीति शुरू हो गयी. अपने-अपने गणित के अनुसार किसी भी दल को इसमें रूचि है ही नहीं कि ऐसी समस्याएं जड़ से कैसे साफ़ हों? इसके पहले भी अनेक नरसंहार हुए. तब भी यह नहीं सोचा गया कि ऐसे सवालों के समाधान क्या है?
एक पहलू यह है कि नक्सलियों ने यह काम किया है? तो नक्सलियों को इस तरह ताकतवर बनने किसने दिया. प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने अपने पहले कार्यकाल में दो बार ऑन रेकॉर्ड कहा है कि आजादी के बाद की सबसे बड़ी चुनौती है नक्सलवाद? अब कोई पूछे कि आप देश के प्रधानमंत्री हैं. आपसे ताकतवर कोई दूसरा पद नहीं है. तो समस्या कि गंभीरता आप किसे कह रहे हैं, आप तो समाधान करने की कुरसी पर हैं. आप हल ढूढिए.
अगर ये समस्या प्रशासन के बूते से बाहर है, तो राजनीतिक बातचीत से ही पहल करें. इस समस्या के राजनीतिक समाधान की अंतिम गंभीर कोशिश जयप्रकाश नारायण ने की थी. मुशहरी के उनके अनुभव आमने-सामने पुस्तिका में दर्ज है. इसके बाद तो राजनीतिक दलों ने खुद को समेट लिया. आजकल अधिसंख्य दलों में ठेकेदार ही राजनीतिक कार्यकर्ता हैं. न विचार है न दल. राजनीतिक दल परिवारों, रिश्तेदारों के कुनबे या प्राइवेट लिमिटेड कंपनी बन गये हैं. दलों में आंतरिक लोकतंत्र ही नहीं रहा.
अब केंद्र राज्यों को कहता है लॉ एंड ऑर्डर आपका विषय है इसलिए नक्सलवाद भी आपकी समस्या , ये सरासर धोखा, झूठ और फ़रेब है. पूरे देश में फ़ैले नक्सली समूहों से कोई एक राज्य निबट पायेगा. सरकारों से पूछना चाहिए कि नक्सलियों के पास हथियार कहां से पहुंचते हैं? कौन देता है? हम पर नकेल लगाने का काम किसका है? आतंकवादी हमलों के संदर्भ में पिछले वर्ष मद में राष्ट्रीय सलाहकार, मंत्रिमंडल को पता हो ही चुके हैं. कि इंटेलिजेंस सिस्टम कैसे ध्वस्त है? शहरों से नक्सलियों के पास हथियारों की आपूर्ति होती है, और शहरों पर शासन किसका है? सरकारो का? पर भ्रष्टाचार में डूबा तंत्र सब करवाता है, सब देख-जान रहे हैं, पर किंकत्तर्व्यविमूढ़ हैं. 92 के मुंबई विस्फ़ोट में भारतीय पुलिस-कस्टम के लोग ही दाउद के विस्फ़ोटक भारत लाये थे. इसके बाद वोरा कमिटी बनी थी, जिसने राजनीतिज्ञों-अफ़सरों-उद्यमियों के सांठगांठ की चर्चा की थी. पर वह रिपोर्ट दबा दी गयी. दरअसल भारत का यह शासक वर्ग इन हालातों के लिए दोषी है.
भ्रष्टाचार अशासन, कुशासन और अनुशासनविहीनता हमारी रगों में पैठ गया है. इस सत्ता के ऊपर कुछ देख ही नहीं पा रहे. नाव दुर्घटना हुई, उस पर भी राजनीति, लाशों से नफ़ा-नुकशान का गणित. यह सवाल नहीं उठा कि बिहार में कहां-कहां कितनी नावें चलती हैं? कितने घाट हैं? इनका आधुनिकीकरण कैसे हो? क्यों नहीं अब तक इन जगहों पर पुल बने? कैसे पुल बन सकते हैं? कैसे सारे लोग ऐसी आपदाओं में मिल कर दिल्ली पर दबाव डालें कि वह अधिकतम धन दे, तकनीक दे, एक्सपर्ट दे ताकि दो-तीन वर्षो में हर जगह पुल बन जाये. जहां नावें रहें, वहां उनका आधुनिकीकरण हो.
पर ये समाधान हो जायेंगे, तो राजनीतिक कैसे चलेगी? सत्ता का खेल कैसे होगा?यही हाल है, पूरे देश का हर मुद्दे पर. देश को चाहिए नया संकल्प, नयी राजनीति और नया खून. पर इसके आसार कहां हैं? किसी अवतार की प्रतीक्षा या सामूहिक पहल, सामूहिक कर्म? यह तय करने के दोराहे पर आज देश-समाज खड़े हैं.
उसकी ताकत और अपनी हकीकत :
अफ्रीका में ब़ढ़ता चीनी दबदबा इंडिया फ़ोर्ब्स पत्रिका (अगस्त 28, 2009) के अंक में चीन के बढ़ते प्रभाव का उल्लेख है. वर्ष 2009 में चीन की सरकार ने अफ्रीका में आठ बिलियन डालर के निवेश की घोषणा की. भारत के जो निजी घरानी अफ्रीका में काम कर रहे हैं, वे कहते हैं चीन से मुकाबला असंभव है. वे वहां सड़सें बना रहे हैं. एयरपोर्ट्‌स बना रहे हैं. रेल बिछा रहे हैं. बड़े-बड़े प्रोजेक्ट कर रहे हैं. 20-20 वर्षो का निवेश रिस्क लेकर.
कांगो में चीन 9 बिलियन का निवेश कर रहा है. रोड, रेलवे, अस्पताल, हेल्थ सेंटर और विश्वविद्यालयों में इसके बदले उसे कॉपर (तांबा) और कोबाल्ट के खदान मिले हैं. इसी तरह अंगोला की तेल रिफ़ाइनरी में 55 फ़ीसदी हिस्सा लिया है. तीन बिलियन निवेश कर सूडान, अल्जीरिया, कांगो और गाबन लीबिया में भी निवेश है. जांबिया में 3.6 बिलियन का माइनिंग में निवेश किया है. नाइजीरिया के समुद्र में स्थित तेल रिफ़ाइनरी में 2.27 बिलियन चीनी निवेश है. गुयाना, कीनिया और मडास्कार में भी चीनी निवेश प्राकृतिक संसाधनों में है. अंगोला, अल्जीरिया और कीनिया के टेलिकाम उद्योग में भी चीन का भारी निवेश है. इस तरह चीन दुनिया के कोने-कोने में प्राकृतिक संसाधनों में निवेश कर रहा है. इसके प्रजोजन साफ़ हैं. अपनी शक्ति, सामर्थ्य और संपदा इतनी बढ़ा दो कि दुनिया खुद कदमों सिर रख दे. यह विस्तार चीन के पुरुषार्थ, संकल्प, आत्मविश्वास और इरादों का परिचायक है. इसका भारतीय जवाब का क्या हो सकता है? अपनी गद्दी, अपनी संतान, अपना यश और अपना धन, इस गणित में फ़ंसा मानस क्या इसका जवाब दे सकता है?घेर रहा है?
पाकिस्तान को चीन ने परमाणु सहायता दी है. बदले में वह अरब सागर बंदरगाह में अपनी उपस्थिति चाहता है, ताकि तेल की आपूर्ति की सुरक्षा कर सके. भूटान से राजनीतिक संबंध बना रहा है. बांग्लादेश को चीन ने हथियारों की आपूर्ति की है. बदले में बांगलादेश बंदरगाह में अपनी उपस्थिति चाहता है. लिट्टे के खिलाफ़ युद्ध में श्रीलंका को हथियार देकर उसने ॅणी बना लिया है. नेपाल तो चीन की गोद में ही है. माओवादी उसके झंडाबरदार हैं. म्यामांर (बर्मा) के कोको (आइसलैंड) द्वीप में चीनी सेना मौजूद है. इस तरह भारत के पड़ोसी देशों को सैनिक मदद, राजनीतिक संबंध, ओर्थक मदद दे कर, भारत को घेर रहा है. आइटी इंडस्ट्री में भी चीन भारत को मात दे रहा है. भारत के बाजार में सस्ती चीजें भेज कर भारतीय उद्योगों को तबाह कर रहा है.भारत के क्या ठोस प्लान हैं?ईश्वर जानें! भारत के जानकार विशेषज्ञ तो कहते हैं कि चीन, भारत को अपने समकक्ष मानता ही नहीं. भारतीय सुरक्षा विशेषज्ञ भरत कर्नाड कहते हैं, भारत राजनयिक माइअचेपिया (अंधापन) का शिकार है. चीन सिर्फ़ ताकत की भाषा समझता है. चीन सिर्फ़ अपना हित समझता-साधता है. 2008 में चीन का जीडीपी 4.4 ट्रिलियन डालर था. विश्व की तीसरी बड़ी अर्थव्यवस्था. वार्षिक निवेश दर, जीडीपी का 40 फ़ीसदी है. 2008 में 90 बिलियन डालर विदेशी निवेश (एफ़डीआइ) हुआ है. दुनिया में सबसे बड़ा विदेशी मुद्रा भंडार चीन के पास है, दो ट्रिलियन डालर.
भारत की अर्थव्यवस्था 1.1 ट्रिलियन डालर की है. विशेषज्ञ पराग खन्ना का कहना है कि चीन-भारत के बीच दौड़ (रेस) खत्म हो चुकी है. चीन बहुत आगे निकल चुका है. कोई उम्मीद नहीं है कि भारत, चीन को छू भी सकेगा. वर्ष 2008 में चीन का निर्यात ही 1.4 ट्रिलियन डालर का हुआ. भारत के जीडीपी से अधिक है, यह राशि. दुनिया के कई मुल्कों में चीन ने तेल, गैस और प्राकृतिक संसाधन के भंजार खरीद लिये हैं. तिब्बत में चीन की रेलें दौड़ रही हैं. भारत के पूर्व चीफ़ ऑफ़ आर्मी वीपी मल्लिक भी मानते हैं कि चीन हमारी सुरक्षा योजनाकारों के लिए तात्कालिक गंभीर चुनौती है. तिब्बत में चीन ने डांग फेंग 31 इंटरकांटिनेंटल ब्लास्टिकमिसाइल तैनात कर रखा है, जो 8000 किमी तक मार करेगा. अमेरिका भी इसकी जद में है. डांग फेंग 21 मिसालइल वहां तैनात है, जो 2500 किमी के घेरे में कहीं प्रहार कर सकता है. यह भारत में कहीं भी पहुंच सकता है. भारत ने मिसाइल परीक्षण जरूर किया है, पर इसकी तैनाती नहीं.
भारत को क्या करना चाहिए? बात शांति की करें, पर युद्ध की तैयारी रखे. न्यूक्लीयर हथियार जरूरी हैं. 5000 किमी तक मार करनेवाले मिसाइल चाहिए. दुनिया के दूसरे देशों से मिल कर नौ सेना को मजबूत करना चाहिए. अमेरिका से संबंध मजबूत बनाना चाहिए. इन सबके साथ-साथ खुद चीन से भारत प्रेरित हो. महज 2030 वर्षो में देश धूल से उठ कर दुनिया में कैसे छा गया है? क्या हैं उसके कर्म, पौरुष और प्रतिबद्धता ? भारत का मानस,चीन के मानस से सीखे, तब भारत आंतरिक रूप से मजबूत हो सकता है.

(प्रभात खबर से साभार )
 

गुरुवार, 22 अक्तूबर 2009

फिर अंधेरे में तीर

(कुसहा -०८ में ध्वस्त कोशी का मुख्य पूर्वी नहर : मार्च 2009)
दहाये हुए देस का दर्द -57
कहते हैं कि हादसों में भले ही सब कुछ नकारात्मक हो, लेकिन एक सकारात्मक बात भी होती है। वह है - तजुर्बा। इंसान हादसों से सबक ले, तो आने वाले कई हादसों को टाल सकता है। कोशी नदी का "कुसहा तटबंध कांड'' भी एक भयानक हादसा (यह अलग बात है कि यह कुदरती नहीं बिल्क मानव निमिर्त था) था। अगर मोटे तौर पर कहें तो कुसहा हादसे ने कोशी प्रमंडल के 30 लाख लोगों को साठ वर्ष पीछे धकेल दिया। जान-प्राण का जो नुकसान हुआ, सो अलग। लेकिन इस पर अगर गंभीरता से विचार करें तो स्पष्ट होता है कि कुसहा-08 ने हमें एक ब़डी सीख दी है। वह यह कि हम अपनी नदी प्रोजेक्ट की दशकों पुरानी और अब असंगत हो चुकीं नीतियों-योजनाओं पर पुनविर्चार करें। नदी प्रोजेक्ट्‌स के अब तक के अनुभवों की समीक्षा व मूल्यांकन करें और अपनी नदी-नीतियों को अद्यतन कर लें। लेकिन लगता नहीं है कि सरकार ने कुसहा हादसा से कुछ सीखा है।
हाल में बिहार सरकार के कैबिनेट ने कोशी नदी के नहरों के जीर्णोद्धार के लिए एक मेगा प्रोजेक्ट को मंजूरी दी है। इसके मुताबिक बिहार सरकार आगामी वर्षों में कोशी बाराज, कोशी तटबंध और उसके पूर्वी नहरों के जीर्णोद्धार पर एक हजार करो़ड से ज्यादा रुपये खर्च करेगी। इस महायोजना को ठीक उसी तर्ज पर मंजूरी दी गयी है जिस पर पांच दशक पहले कोशी प्रोजेक्ट को स्वीकृत किया गया था। मेरे जैसे लोगों (जो कोशी-वीभिषिका के भोक्ता हैं ) को, इससे भारी निराशा हुई है। क्योंकि हम जानते हैं कि अब कोशी नदी को नये नजरिये से देखने की जरूरत है। जब तक कोशी के वतर्मान हैद्रोलोजी , ज्योगरफी और इकोलाॅजी पर सम्पूर्ण अध्ययन नहीं हो जाता, तब तक किसी योजना की शुरुआत "गोबर में घी'' डालने जैसी ही होगी। समझ में नहीं आता कि सरकार जानबूझकर कुएं में कूदना क्यों चाहती है। अगर सरकार हजारों करो़ड रुपये जीर्णोद्धार पर खर्च कर सकती है तो कुछ लाख रुपये नदी के चरित्र को समझने के लिए वैज्ञानिक अनुसंधानों पर क्यों खर्च नहीं कर सकती ? तमाम अनुभव बताते हैं कि कोशी के चरित्र में भारी परिवतर्न आ चुका है। इसके माैजूदा प्रवाह-मार्ग (दोनों तटबंधा के अंदर) के तल आसपास (कंट्री साइड) के तल से ऊंचे हो गये हैं। ऐसी परििस्थति में कोशी को तटबंधों के अंदर रखना अब मुमकिन नहीं रह गया है। भले ही तटबंधों को ऊंचा और पक्का कर हम कुछ साल नदी को तटबंधों के अंदर बहा लें, लेकिन स्थायी तौर पर हम ऐसा नहीं कर सकते। उधर नेपाल में जंगलों की अंधाधुंध कटाई के कारण कोशी में गादों की मात्रा तूफानी रफ्तार से ब़ढ रही है। यह चिंता का दूसरा ब़डा विषय है। लेकिन सरकार इस ओर ध्यान नहीं देना चाहती। कुछ वर्ष पहले भी उसने बगैर अनुसंधान के कोशी रेलवे महासेतु और दरभंगा-फारबिसगंज लेटरल रोड को मंजूरी दी थी। और अब तक इन दोनों परियोजनाओं पर हजारों करो़ड रुपये खर्च किये जा चुके हैं। यह तय है कि जिस दिन कोशी तटबंधों को तो़डकर धारा बदलेगी उस दिन ये महासेतु, ये स़डकें नेस्तनाबूद हो जायेंगे। कुसहा हादसे में हम ऐसा देख भी चुके हैं।
होना तो यह चाहिए कि सरकार दुनिया के नामचीन नदी विशेषज्ञ, वैज्ञानिक, अभियंता आदि को बुलाती और इस पर बहस करवाती। इसके पश्चात किसी नतीजे पर पहुंचती। मेरे विचार से तो कोशी के वतर्मान प्रवाह-मागर् को तत्काल उ़ढाहने (डिसिल्टेशन) की आवश्यकता है ताकि नदी को बहने के लिए संघर्ष न करना प़डे। सिल्ट को हटाने के सिवाय हमारे पास और कोई विकल्प नहीं है। अगर नदी ही नहीं रहेगी तो हम नहर बनाकर ही क्या करेंगे ?
लगता है कि सरकार वोट बैंक की पालिसी और अभियंता-ठेकेदार के धनलोलुप व भ्रष्ट लाबी के दबाव से बाहर निकलने में असक्षम है। सरकार को अपने आॅफिसर लाबी से बाहर निकलकर कुछ स्वतंत्र अभियंता और विशेषज्ञों से बात करनी चाहिए थी। भले ही नेता खुद इस मुद्दे को समझने में सक्षम न हो, लेकिन वे इतने भी नादान तो नहीं है कि अभियंता-ठेकेदार लाबी उन्हें आसानी से गुमराह कर दें। नीतीश कुमार से तो उम्मीद की जा सकती है, क्योंकि वे खुद एक अभियंता हैं। लेकिन पता नहीं क्यों, नीतीश कुमार भी अंधेरे में धनुष तान रहे तीरंदाजों की पंक्ति में ख़डे हो गये हैं ?


कोशी सिंचाई परियोजना का ट्रैक रिकार्ड
निर्धारित सिंचाई - 712000 हेक्टेअर
पूर्वी नहर से- 37400 हेक्टेअर
वास्तविक सिंचाई- 136180 हेक्टेअर (07-08)

पश्चमी नहर से -
प्रस्तावित- 325000 हेक्टेअर
वास्तविक सिंचाई- 23770 हेक्टेअर (07-08)
स्रोत- कोशी प्रोजेक्ट कायार्लय, बीरपुर (सुपौल )
 

सोमवार, 19 अक्तूबर 2009

कितना शिगुफा, कितना सच (संदर्भ ग्रामीण मेडिकल कॉलेज )

गांवों में खोले जायेंगे मेडिकल कॉलेज ! सुनकर आश्चर्य होता है। लेकिन यह एक कान से सुनकर दूसरे कान से निकाल देने वाली बात भी नहीं है, क्योंकि यह देश के केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री गुलाम नबी आजाद का बयान है। गुलाम नबी आजाद ने कहा है कि गांवों में डाक्टरों की कमी को दूर करने के लिए सरकार जल्दी ही मेडिकल शिक्षा का वैकल्पिक योजना शुरू करने वाली है। इससे गांवों में ज्यादा डॉक्टर तैयार हो सकेंगे जो ग्रामीणों की चिकित्सा के लिए बाध्य होंगे। आजाद के मुताबिक मौजूदा व्यवस्था के साथ ही एक वैकल्पिक मेडिकल शिक्षा व्यवस्था भी शुरू की जा रही है। इसके तहत ग्रामीण मेडिकल कॉलेजों में दस हजार से कम आबादी वाले गांवों के छात्रों को ही दाखिला दिया जायेगा। उनका कहना है कि इससे गांव के छात्रों को मेडिकल की शिक्षा आसानी से उपलब्ध हो जायेगी। मगर इसके लिए एक शर्त होगी कि एक नियत समय तक उन्हें गांवों में ही रह कर प्रैक्टिस करनी होगी। मेडिकल काउंसिल आफ इंडिया (एमसीआई) इसके लिए प्रस्ताव तैयार कर चुका है। जल्दी ही इसे लागू किया जाएगा। आजाद ने कहा है कि इस पूरी प्रक्रिया में कहीं भी मेडिकल शिक्षा की गुणवता से समझौता नहीं किया जाएगा।
गुलाम नबी आजाद के उपर्युक्त कथन को दो संदर्भों में लिया जा सकता है। पहला यह कि उन्होंने ग्रामीण चिकित्सा व्यवस्था की बेचारगी को लेकर जो कुछ कहा, वह सच है और किसी केंद्रीय मंत्री की जुबान से इस सच्चाई को सुनकर थोड़ी खुशी तो जरूर होती है। लेकिन इसका दूसरा पहलू भी है। वह यह कि क्या सच में सरकार इस दिशा में कुछ करने जा रही है या फिर यह महज एक शिगुफा बनकर रह जायेगा? अगर इस समस्या को लेकर सरकार की पिछले छह दशकों की उपलब्धि पर गौर करें तो निराशा ही हाथ लगती है। आज तक तो होता यही रहा है कि सरकार की घोषणाएं (खासकर ग्रामीण चिकित्सा व्यवस्था के प्रति) बयान, अखबार, सेमिनारों से बाहर नहीं आ सकी है । अभी ज्यादा दिन नहीं बीते हैं जब पिछली सरकार के बड़बोले स्वास्थ्य मंत्री अंबुमनि रामदौस ने कहा था कि देश की चिकित्सा व्यवस्था को सुधारने के लिए अप्रवासी भारतीय डॉक्टरों को स्वदेश लौटने की इजाजत दी गयी है। उन्होंने तब कहा था कि हजारों अनिवासी भारतीय डॉक्टर स्वदेश लौटने के लिए बेकरार हैं( गौरतलब है कि सिर्फ अमेरिका में भारत के 65 हजार डॉक्टर कार्यरत हैं)। लेकिन इस घोषणा को आठ महीने हो चुके हैं पर आजतक एक भी डॉक्टर अमेरिका, इंगलैंड, जर्मनी आदि देशों को छोड़कर स्वदेश की खाक छानने वापस नहीं लौटे। कुछ ऐसा ही हश्र विदेशी मेडिकल कॉलेजों के छात्रों की डिग्री का मान्यता देने की घोषणा की भी हुई । जबकि देश की ग्रामीण स्वास्थ्य व्यवस्था की असलियत रोंगटे खड़े कर देते हैं। इन आंकड़ों को देखकर विश्वास नहीं होता कि भारत को स्वतंत्र हुए छह दशक से ज्यादा हो गये हैं।
भारतीय चिकित्सा परिषद के अनुसार, वतर्मान में देश में 870 लोगों का स्वास्थ्य एक डाॅक्टर के भरोसे है। इसमें पिश्चमी पद्धति के डाॅक्टरों को हटा दिया जाये तो यह अनुपात 1600 में 1 बैठता है। योजना आयोग के अनुंसार, फिलहाल देश में छह लाख डाॅक्टरों, दो लाख दंत चिकित्सकों और लगभग 10 लाख चिकित्सा सेवकों की जरूरत है। यह िस्थति अचानक पैदा नहीं हुई है। इसके लिए देश की
दोषपूर्ण चिकित्सा नीति जिम्मेदार रही है। अस्सी के दशक में बोहरे समिति का गठन किया गया था। इस समिति से देश की स्वास्थ्य परििस्थतियों को सुधारने के लिए अध्ययन करने और सुझाव देने की मांग की गयी थी। इस समिति ने अपनी रिपोर्ट दी, लेकिन इस पर आंशिक कारर्वाइर् भी नहीं हुइर्। आथिर्क उदारीकरण के बाद तो अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं ने भी भारत को चिकित्सा ॠण और अनुदान के प्रति कोताही बरतनी शुरू कर दी । इन संस्थाओं का निर्देश साफ था कि भारत सरकार चिकित्सा व्यवस्था को भी उद्योग की शक्ल दें आैर चिकिसा की सावर्जनिक सेवाओं से अपना हाथ खीचते चले जाये। जाहिर है उनकी मंशा भारत के चिकित्सा क्षेत्र को निजी कंपनियों के लिए खोलने की है ताकि विदेशी कंपनियां देश की विशाल जनसंख्या को चिकित्सा व्यवसाय के जरिये लूट सकेऔर चिकित्सा उद्योग के सहारे अपनी झोली भर सके। इसकी परिणति अब छिपी नहीं है। सावर्जनिक चिकित्सालय से गायब होती सुविधाएं, उपकरण, जांच प्रयोशालाओं और घटती सुविधाएं इस बात का संकेत है कि सरकार उनके ही निर्देशों पर काम कर रही है। इन चिकित्सालयाें में सुविधाओं की सतत कमी और घटिया स्वास्थ्य-व्यवस्था के कारण ही अब अधिकतर साधन संपन्न लोग निजी अस्पतलालों और डाॅक्टरों के शरण में जा रहे हैं। लेकिन ये चिकित्सालय सिर्फ़ शहरी अमीरों को ही नसीब है। ग्रामीण आबादी तो भगवान के रहमोकरम पर ही है। एक अध्ययन के मुताबिक,गरीबी रेखा से नीचे रहने वाली देश की 30 करो़ड आबादी आज भी बुनियादी स्वास्थ्य-व्यवस्था से वंचित है।
जहां तक आजाद की घोषणा की व्यवहारिक संभावना की बात है तो यहां यह याद दिलाना आवश्यक है कि देश के 80 प्रतिशत गांव आज भी महाविद्यालयों से वंचित हैं। ऐसे में गांवों में मेडिकल महाविद्यालय की बात, तो दिवास्वप्न ही लगती है। हालांकि यह जरूरी है। तमाम सुविधाओं से वंचित भारत की सत्तर प्रतिशत ग्रामीण आबादी का यह हक भी है।