दहाये हुए देस का दर्द-60
विपत्ति और दरीद्रता कोशी अंचल की सदियों पुरानी नियति है। इससे भी ज्यादा चिंता की बात यह कि इस इलाके पर कोशी नदी एक तलवार की तरह लटक रही है, जिसके कारण इसका भविष्य खतरे में है। सरकार की क्रोनिक उपेक्षा के कारण यह अंचल आज देश के सबसे उपेक्षित इलाके में से एक है। हालांकि आज भी यहां के आम लोग शांति प्रिय और देशभक्त हैं। लेकिन मुझे लगता है कि यह स्थिति लंबे समय तक बनी नहीं रहेगी क्योंकि इस इलाके के मद्देनजर सरकार की नीति यथास्थितिवादी है और दुनिया तेजी से बदल रही है। अगर कोशी अंचल की समस्याओं को योजनाबद्ध ढंग से नहीं निपटाया गया, तो यह इलाका आने वाले समय में बड़े आंदोलन और अलगाव की ओर बढ़ सकता है। "दो पाटन के बीच' कोशी के जमीनी हालात को समझने और समझाने का एक प्रयास है। पिछले लगभग दो साल से मैं इसके जरिये कोशी नदी और कोशी अंचल की समस्याओं को सामने लाने की कोशिश कर रहा हूं। इस क्रम में मुझे कई लोगों के पत्र मिले हैं। कुछ ने इस प्रयास की तारीफ की है, तो कुछ लोगों को यह निजी हित का मामला भी लगता है। लेकिन मैं बता देना चाहता हूं कि शुद्ध मन से बदलाव के आकांक्षी लोगों का निजी हित कुछ नहीं होता। सामूहिक हित ही में वे निजी हित का सुख पा लेते हैं। जिन्होंने जिंदगी में कभी कोई मुहिम चलायी हो वे इस सच को जानते हैं और जिनकी सोच की सुई कभी स्वार्थ से ऊपर उठी ही नहीं, उन्हें यह बात कभी भी समझ नहीं आयेगी। इसलिए इस विषय पर कोई दलील देना, जस्टिफिकेशन देना या तकरीर करना व्यर्थ है।
बहरहाल, यहां मैं सात समुद्र पार अमेरिका से आये एक मर्मस्पर्शी पत्र को रख रहा हूं। कैलिफार्निया, अमेरिका में रह रहे मणिकांत ठाकुर जी का यह पत्र हमें सोचने के लिए बाध्य करता है। - रंजीत
प्रियवर श्री रंजीत बाबू
कोशी के अभिशाप को वरदान में बदलने की संभावना रहते हुए भी किसी की इच्छा -शक्ति उस ओर उन्मुख नहीं है। नेतृत्व के लिए व्यक्ति स्वयं को प्रस्तुत करता है। लोग उसे ही नेता बनाना चाहते हैं जो बन जाना चाहते हैं। हमारी मिट्टी में उर्वरता तो है पर तेज और दिशा नहीं है, ऐसा लगता है। बाहर जाकर और अपने चारों ओर प्रखरता देखकर हम अपने को ढाल तो लेते हैं पर मिथिलांचल या बिहार के किसी हिस्से में रहते हुए अगले कदम की ओर रूझान नहीं होता। संभवतः कोई स्थानीय स्वाभाविक प्रतियोगिता नहीं है। खैर, इन बातों का विश्लेषण कई और तरीकों से हो सकता है। लेकिन कोशी क्षेत्र में एक सक्षम नेता या जवाबदेह समूह का अभाव है, जो नयी बात नहीं है। अगर लालू प्रसाद यादव जी जैसे नेता इस मुद्दे से जुड़ते तो इसकी व्यापकता हो सकती थी। ग्रासरूट से शुरू करके दिल्ली तक जाना एक लंबी दूरी है। दिल्ली की व्यवस्था को, चाहे वह जिस किसी तरह भी हो, कोशी से रू-ब-रू कराना कारगर हो सकता था। और कुछ नहीं तो एक योजना कम-से-कम कागज पर बन जाती जिसके बहाने आवाज उठायी जा सकती थी।
कोशी एक सोई हुयी बाघिन है। यह एक तरल ज्वालामुखी है। इसके लिए जितनी अग्रिम तैयारी हो वो थोड़ी है। लगता है जिस प्रजातंत्र की साख हम बताते रहते हैं वो अभी भी व्यवहारिक परिभाषा के लिए चुनौती ही बनी हुई है। मैं एक वर्ष के लिए चीन में था। उनकी आर्थिक व्यवस्था, साफ-सफाई, योजनाओं की तत्पर व्यवस्था सभी सराहनीय लगी। पर व्यक्ति और समाज तक आते-आते जो अधोगति दृष्टिगोचर होती है उससे उनकी प्रगति की कीमत समझ में आती है। खुली वेश्यावृति, एक-दूसरे से निरंतर डर , सरकारी कर्मचारियों से लोगों का भय, स्नेह और सामाजिक-भावना का स्पष्ट अभाव आदि उनकी समस्या है। पर बाहर से आये लोग ही इस कमी को समझ पाते हैं।
कोशी क्षेत्र के लोगों का आसानी से अपनी विपत्ति अपनी नियति समझ बैठना एक विडंबना है जिसमें सरकार और जनता दोनों सहभाग है। एक बहरी है जबकि दूसरी मूक। लालू ही एक ऐसे बोलने वाले व्यक्ति थे जिनमें माइलेज के लिए (भले ही राजनीतिक फायदे के लिए ही) कुछ भी कर गुजरने का जज्वा था। अब उनके साथ कोशी के लोगों का कुछ भी सध नहीं सकता। पर इस मुद्दे और समस्या को एक बार उनके साथ शेयर करना लाजिमी था, जो नहीं हो सका। छोटी रेल लाइन्स का कोशी के तटबंधों तक विस्तार, बांधों की सुरक्षा और अन्य योजनाओं के लिए लालू एक अच्छा प्रारंभ कर सकते थे। अगर लालू जी सार्वजनिक रूप से भी इन योजनाओं को स्वीकार कर लेते, तो यह एक माइलस्टोन हो सकता था।
शायद एक नये सिरे से इसे अभी भी शुरू किया जा सकता है। पर करना आवश्यक है। चाहे करने वाले कहीं भी हो, वे इसमें अपना योगदान दे सकते हैं। इन अभियानों को चलाने का अच्छा समय अभी ही है जब कोशी क्षेत्र की समस्याओं के विभिन्न आयामों को संबोधित किया जा सकता है। ममता बनर्जी और बिहार को एक-दूसरे से एलर्जी है। इसलिए उनसे कोई उम्मीद करना ही व्यर्थ है। लेकिन विश्व बैंक भी ऐसी योजनाओं के लिए मदद देती है। जरूरी है योजनाओं को शुरू करने की।
आपकी लेखनी की सुलझी हुई भाषा से विषय और भाषा का अंतर मिट जाता है और दोनों एक-दूसरे के पूरक बन जाते हैं। आप जैसे(सपूतों) की सेवा ही मूक जनता की आशाओं को प्रश्रय दे सकती है। कृपया अपनी उमंगों को अपनी प्रभावी लेखनी से चलते रहने दें।
सादर
कृपाकांक्षी
मणिकांत ठाकुर
कैलिफोर्निया (संयुक्त राज्य अमेरिका)
(नोट- पत्र में व्यक्तिगत अर्थ के कुछ अंश हटा दिए गए हैं और उन्हीं बातों को रखा गया है जो सार्वजनिक महत्व के हैं।)
विपत्ति और दरीद्रता कोशी अंचल की सदियों पुरानी नियति है। इससे भी ज्यादा चिंता की बात यह कि इस इलाके पर कोशी नदी एक तलवार की तरह लटक रही है, जिसके कारण इसका भविष्य खतरे में है। सरकार की क्रोनिक उपेक्षा के कारण यह अंचल आज देश के सबसे उपेक्षित इलाके में से एक है। हालांकि आज भी यहां के आम लोग शांति प्रिय और देशभक्त हैं। लेकिन मुझे लगता है कि यह स्थिति लंबे समय तक बनी नहीं रहेगी क्योंकि इस इलाके के मद्देनजर सरकार की नीति यथास्थितिवादी है और दुनिया तेजी से बदल रही है। अगर कोशी अंचल की समस्याओं को योजनाबद्ध ढंग से नहीं निपटाया गया, तो यह इलाका आने वाले समय में बड़े आंदोलन और अलगाव की ओर बढ़ सकता है। "दो पाटन के बीच' कोशी के जमीनी हालात को समझने और समझाने का एक प्रयास है। पिछले लगभग दो साल से मैं इसके जरिये कोशी नदी और कोशी अंचल की समस्याओं को सामने लाने की कोशिश कर रहा हूं। इस क्रम में मुझे कई लोगों के पत्र मिले हैं। कुछ ने इस प्रयास की तारीफ की है, तो कुछ लोगों को यह निजी हित का मामला भी लगता है। लेकिन मैं बता देना चाहता हूं कि शुद्ध मन से बदलाव के आकांक्षी लोगों का निजी हित कुछ नहीं होता। सामूहिक हित ही में वे निजी हित का सुख पा लेते हैं। जिन्होंने जिंदगी में कभी कोई मुहिम चलायी हो वे इस सच को जानते हैं और जिनकी सोच की सुई कभी स्वार्थ से ऊपर उठी ही नहीं, उन्हें यह बात कभी भी समझ नहीं आयेगी। इसलिए इस विषय पर कोई दलील देना, जस्टिफिकेशन देना या तकरीर करना व्यर्थ है।
बहरहाल, यहां मैं सात समुद्र पार अमेरिका से आये एक मर्मस्पर्शी पत्र को रख रहा हूं। कैलिफार्निया, अमेरिका में रह रहे मणिकांत ठाकुर जी का यह पत्र हमें सोचने के लिए बाध्य करता है। - रंजीत
प्रियवर श्री रंजीत बाबू
कोशी के अभिशाप को वरदान में बदलने की संभावना रहते हुए भी किसी की इच्छा -शक्ति उस ओर उन्मुख नहीं है। नेतृत्व के लिए व्यक्ति स्वयं को प्रस्तुत करता है। लोग उसे ही नेता बनाना चाहते हैं जो बन जाना चाहते हैं। हमारी मिट्टी में उर्वरता तो है पर तेज और दिशा नहीं है, ऐसा लगता है। बाहर जाकर और अपने चारों ओर प्रखरता देखकर हम अपने को ढाल तो लेते हैं पर मिथिलांचल या बिहार के किसी हिस्से में रहते हुए अगले कदम की ओर रूझान नहीं होता। संभवतः कोई स्थानीय स्वाभाविक प्रतियोगिता नहीं है। खैर, इन बातों का विश्लेषण कई और तरीकों से हो सकता है। लेकिन कोशी क्षेत्र में एक सक्षम नेता या जवाबदेह समूह का अभाव है, जो नयी बात नहीं है। अगर लालू प्रसाद यादव जी जैसे नेता इस मुद्दे से जुड़ते तो इसकी व्यापकता हो सकती थी। ग्रासरूट से शुरू करके दिल्ली तक जाना एक लंबी दूरी है। दिल्ली की व्यवस्था को, चाहे वह जिस किसी तरह भी हो, कोशी से रू-ब-रू कराना कारगर हो सकता था। और कुछ नहीं तो एक योजना कम-से-कम कागज पर बन जाती जिसके बहाने आवाज उठायी जा सकती थी।
कोशी एक सोई हुयी बाघिन है। यह एक तरल ज्वालामुखी है। इसके लिए जितनी अग्रिम तैयारी हो वो थोड़ी है। लगता है जिस प्रजातंत्र की साख हम बताते रहते हैं वो अभी भी व्यवहारिक परिभाषा के लिए चुनौती ही बनी हुई है। मैं एक वर्ष के लिए चीन में था। उनकी आर्थिक व्यवस्था, साफ-सफाई, योजनाओं की तत्पर व्यवस्था सभी सराहनीय लगी। पर व्यक्ति और समाज तक आते-आते जो अधोगति दृष्टिगोचर होती है उससे उनकी प्रगति की कीमत समझ में आती है। खुली वेश्यावृति, एक-दूसरे से निरंतर डर , सरकारी कर्मचारियों से लोगों का भय, स्नेह और सामाजिक-भावना का स्पष्ट अभाव आदि उनकी समस्या है। पर बाहर से आये लोग ही इस कमी को समझ पाते हैं।
कोशी क्षेत्र के लोगों का आसानी से अपनी विपत्ति अपनी नियति समझ बैठना एक विडंबना है जिसमें सरकार और जनता दोनों सहभाग है। एक बहरी है जबकि दूसरी मूक। लालू ही एक ऐसे बोलने वाले व्यक्ति थे जिनमें माइलेज के लिए (भले ही राजनीतिक फायदे के लिए ही) कुछ भी कर गुजरने का जज्वा था। अब उनके साथ कोशी के लोगों का कुछ भी सध नहीं सकता। पर इस मुद्दे और समस्या को एक बार उनके साथ शेयर करना लाजिमी था, जो नहीं हो सका। छोटी रेल लाइन्स का कोशी के तटबंधों तक विस्तार, बांधों की सुरक्षा और अन्य योजनाओं के लिए लालू एक अच्छा प्रारंभ कर सकते थे। अगर लालू जी सार्वजनिक रूप से भी इन योजनाओं को स्वीकार कर लेते, तो यह एक माइलस्टोन हो सकता था।
शायद एक नये सिरे से इसे अभी भी शुरू किया जा सकता है। पर करना आवश्यक है। चाहे करने वाले कहीं भी हो, वे इसमें अपना योगदान दे सकते हैं। इन अभियानों को चलाने का अच्छा समय अभी ही है जब कोशी क्षेत्र की समस्याओं के विभिन्न आयामों को संबोधित किया जा सकता है। ममता बनर्जी और बिहार को एक-दूसरे से एलर्जी है। इसलिए उनसे कोई उम्मीद करना ही व्यर्थ है। लेकिन विश्व बैंक भी ऐसी योजनाओं के लिए मदद देती है। जरूरी है योजनाओं को शुरू करने की।
आपकी लेखनी की सुलझी हुई भाषा से विषय और भाषा का अंतर मिट जाता है और दोनों एक-दूसरे के पूरक बन जाते हैं। आप जैसे(सपूतों) की सेवा ही मूक जनता की आशाओं को प्रश्रय दे सकती है। कृपया अपनी उमंगों को अपनी प्रभावी लेखनी से चलते रहने दें।
सादर
कृपाकांक्षी
मणिकांत ठाकुर
कैलिफोर्निया (संयुक्त राज्य अमेरिका)
(नोट- पत्र में व्यक्तिगत अर्थ के कुछ अंश हटा दिए गए हैं और उन्हीं बातों को रखा गया है जो सार्वजनिक महत्व के हैं।)
4 टिप्पणियां:
Chinta ki hi baat hai.
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क्या आपने लोहे को तैरते देखा है?
पुरुषों के श्रेष्ठता के 'जींस' से कैसे निपटे नारी?
अच्छी जानकारी। धन्यवाद।
आपकी पोस्ट को मैं सदा फॉलो करता हूँ और जानता हूँ की आप कोशी की समस्या को हमेशा उठाते हैं ......... आशा है कभी तो इसका हाल सामने आएगा ...........
मणिकांत जी ने सैट समुंदर पार से आपकी साधना को सराहा है ....सच कहा - "आप जैसे(सपूतों) की सेवा ही मूक जनता की आशाओं को प्रश्रय दे सकती है। "
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